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॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥ श्रीगणेशायनम: । अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य । बुधकौशिक ऋषि: । श्रीसीतारामचंद्रोदेवता । अनुष्टुप्‌ छन्द: । सीता शक्ति: । श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ । श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥ अर्थ : इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्रके रचयिता बुधकौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमानजी कीलक है तथा श्रीरामचंद्रजीकी प्रसन्नताके लिए राम रक्षा स्तोत्रके जपमें विनियोग किया जाता है । ॥ अथ ध्यानम्‌ ॥ ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं । पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥ वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं । नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥ अर्थ : ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्ध पद्मासनकी मुद्रामें विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दलके समान स्पर्धा करते हैं, जो बायें ओर स्थित सीताजीके मुख कमलसे मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारोंसे विभूषित तथा जटाधारी श्रीरामका ध्यान करें । ॥ इति ध्यानम्‌ ॥ चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्‌ । एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌ ॥१॥ अर्थ : श्री रघुनाथजीका चरित्र सौ कोटि विस्तारवाला हैं ।उसका एक-एक अक्षर महापातकोंको नष्ट करनेवाला है । ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्‌ । जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम्‌ ॥२॥ अर्थ : नीले कमलके श्याम वर्णवाले, कमलनेत्रवाले , जटाओंके मुकुटसे सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्रीरामका स्मरण कर, सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम्‌ । स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्‌ ॥३॥ अर्थ : जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथोंमें खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसोंके संहार तथा अपनी लीलाओंसे जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीरामका स्मरण कर, रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम्‌ । शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४॥ अर्थ : मैं सर्वकामप्रद और पापोंको नष्ट करनेवाले राम रक्षा स्तोत्रका पाठ करता हूं । राघव मेरे सिरकी और दशरथके पुत्र मेरे ललाटकी रक्षा करें । कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती । घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥ अर्थ : कौशल्या नंदन मेरे नेत्रोंकी, विश्वामित्रके प्रिय मेरे कानोंकी, यज्ञरक्षक मेरे घ्राणकी और सुमित्राके वत्सल मेरे मुखकी रक्षा करें । जिव्हां विद्यानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: । स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥ अर्थ : विद्यानिधि मेरी जिह्वाकी रक्षा करें, कंठकी भरत-वंदित, कंधोंकी दिव्यायुध और भुजाओंकी महादेवजीका धनुष तोडनेवाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें । करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित्‌ । मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥ अर्थ : मेरे हाथोंकी सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदयकी जमदग्नि ऋषिके पुत्रको (परशुराम) जीतनेवाले, मध्य भागकी खरके (नामक राक्षस) वधकर्ता और नाभिकी जांबवानके आश्रयदाता रक्षा करें । सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: । ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत्‌ ॥८॥ अर्थ : मेरे कमरकी सुग्रीवके स्वामी, हडियोंकी हनुमानके प्रभु और रानोंकी राक्षस कुलका विनाश करनेवाले रघुकुलश्रेष्ठ रक्षा करें । जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्‌घे दशमुखान्तक: । पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥ अर्थ : मेरे जानुओंकी सेतुकृत, जंघाओकी दशानन वधकर्ता, चरणोंकी विभीषणको ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले और सम्पूर्ण शरीरकी श्रीराम रक्षा करें । एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत्‌ । स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्‌ ॥१०॥ अर्थ : शुभ कार्य करनेवाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धाके साथ रामबलसे संयुक्त होकर इस स्तोत्रका पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं । पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्‌मचारिण: । न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥ अर्थ : जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाशमें विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेशमें घूमते रहते हैं , वे राम नामोंसे सुरक्षित मनुष्यको देख भी नहीं पाते । रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन्‌ । नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥ अर्थ : राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामोंका स्मरण करनेवाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता, इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनोंको प्राप्त करता है । जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्‌ । य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥ अर्थ : जो संसारपर विजय करनेवाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्‌ । अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम्‌ ॥१४॥ अर्थ : जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवचका स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञाका कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगलकी ही प्राप्ति होती हैं । आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: । तथा लिखितवान्‌ प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥ अर्थ : भगवान् शंकरने स्वप्नमें इस रामरक्षा स्तोत्रका आदेश बुध कौशिक ऋषिको दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागनेपर उसे वैसा ही लिख दिया | आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम्‌ । अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान्‌ स न: प्रभु: ॥१६॥ अर्थ : जो कल्प वृक्षोंके बागके समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियोंको दूर करनेवाले हैं और जो तीनो लोकों में सुंदर हैं, वही श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं । तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ । पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥ अर्थ : जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमलके (पुण्डरीक) समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियोंकी समान वस्त्र एवं काले मृगका चर्म धारण करते हैं । फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ । पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥ अर्थ : जो फल और कंदका आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथके पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें । शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्‌ । रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥ अर्थ : ऐसे महाबली – रघुश्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियोंके शरणदाता, सभी धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ और राक्षसोंके कुलोंका समूल नाश करनेमें समर्थ हमारा रक्षण करें । आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्‌ग सङि‌गनौ । रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रत: पथि सदैव गच्छताम्‌ ॥२०॥ अर्थ : संघान किए धनुष धारण किए, बाणका स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणोसे युक्त तुणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करनेके लिए मेरे आगे चलें । संनद्ध: कवची खड्‌गी चापबाणधरो युवा । गच्छन्‌मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥२१॥ अर्थ : हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथमें खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्थावाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर हमारी रक्षा करें । रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली । काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥२२॥ अर्थ : भगवानका कथन है कि श्रीराम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुतम वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: । जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥२३॥ अर्थ : वेदान्त्वेघ, यज्ञेश,पुराण पुरुषोतम , जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामोंका इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्त: श्रद्धयान्वित: । अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥२४॥ अर्थ : नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करनेवालेको निश्चित रूपसे अश्वमेध यज्ञसे भी अधिक फल प्राप्त होता हैं । रामं दूर्वादलश्यामं पद्‌माक्षं पीतवाससम्‌ । स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥२५॥ अर्थ : दूर्वादलके समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीरामकी उपरोक्त दिव्य नामोंसे स्तुति करनेवाला संसारचक्रमें नहीं पडता । रामं लक्ष्मणं पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम्‌ । काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्‌ राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम्‌ । वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्‌ ॥२६॥ अर्थ : लक्ष्मण जीके पूर्वज , सीताजीके पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणाके सागर , गुण-निधान , विप्र भक्त, परम धार्मिक, राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथके पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकोंमें सुन्दर, रघुकुल तिलक , राघव एवं रावणके शत्रु भगवान् रामकी मैं वंदना करता हूं। रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे । रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥२७॥ अर्थ : राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीताजीके स्वामीकी मैं वंदना करता हूं। श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम । श्रीराम राम भरताग्रज राम राम । श्रीराम राम रणकर्कश राम राम । श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥ अर्थ : हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरतके अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए । श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥ अर्थ : मैं एकाग्र मनसे श्रीरामचंद्रजीके चरणोंका स्मरण और वाणीसे गुणगान करता हूं, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धाके साथ भगवान् रामचन्द्रके चरणोंको प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणोंकी शरण लेता हूं | माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: । स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: । सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु । नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥ अर्थ : श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं ।इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं, उनके सिवामें किसी दुसरेको नहीं जानता । दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा । पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम्‌ ॥३१॥ अर्थ : जिनके दाईं और लक्ष्मणजी, बाईं और जानकीजी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथजीकी वंदना करता हूं । लोकाभिरामं रनरङ्‌गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्‌ । कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥ अर्थ : मैं सम्पूर्ण लोकोंमें सुन्दर तथा रणक्रीडामें धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणाकी मूर्ति और करुणाके भण्डार रुपी श्रीरामकी शरणमें हूं। मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌ । वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥ अर्थ : जिनकी गति मनके समान और वेग वायुके समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूतकी शरण लेता हूं । कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌ । आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥३४॥ अर्थ : मैं कवितामयी डालीपर बैठकर, मधुर अक्षरोंवाले ‘राम-राम’ के मधुर नामको कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयलकी वंदना करता हूं । आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्‌ । लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌ ॥३५॥ अर्थ : मैं इस संसारके प्रिय एवं सुन्दर , उन भगवान् रामको बार-बार नमन करता हूं, जो सभी आपदाओंको दूर करनेवाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करनेवाले हैं । भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम्‌ । तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्‌ ॥३६॥ अर्थ : ‘राम-राम’ का जप करनेसे मनुष्यके सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं । वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं । राम-रामकी गर्जनासे यमदूत सदा भयभीत रहते हैं । रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे । रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: । रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम्‌ । रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥ अर्थ : राजाओंमें श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजयको प्राप्त करते हैं । मैं लक्ष्मीपति भगवान् श्रीरामका भजन करता हूं। सम्पूर्ण राक्षस सेनाका नाश करनेवाले श्रीरामको मैं नमस्कार करता हूं । श्रीरामके समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं । मैं उन शरणागत वत्सलका दास हूं। मैं सद्सिव श्रीराममें ही लीन रहूं । हे श्रीराम! आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें । राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे । सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥ अर्थ : (शिव पार्वती से बोले –) हे सुमुखी ! राम- नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान हैं । मैं सदा रामका स्तवन करता हूं और राम-नाममें ही रमण करता हूं । इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब 🌹🙏🙏🌹, अर्थ : इस प्रकार बुधकौशिकद्वारा रचित श्रीराम रक्षा स्तोत्र सम्पूर्ण होता है । ॥ श्री सीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

 

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥


श्रीगणेशायनम: ।

अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य ।

बुधकौशिक ऋषि: ।

श्रीसीतारामचंद्रोदेवता ।

अनुष्टुप्‌ छन्द: । सीता शक्ति: ।

श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ ।

श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥


अर्थ : इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्रके रचयिता बुधकौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमानजी कीलक है तथा श्रीरामचंद्रजीकी प्रसन्नताके लिए राम रक्षा स्तोत्रके जपमें विनियोग किया जाता है ।


॥ अथ ध्यानम्‌ ॥


ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं ।

पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥

वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।

नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥


अर्थ : ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्ध पद्मासनकी मुद्रामें विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दलके समान स्पर्धा करते हैं, जो बायें ओर स्थित सीताजीके मुख कमलसे मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारोंसे विभूषित तथा जटाधारी श्रीरामका ध्यान करें ।


॥ इति ध्यानम्‌ ॥


चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्‌ ।

एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌ ॥१॥


अर्थ : श्री रघुनाथजीका चरित्र सौ कोटि विस्तारवाला हैं ।उसका एक-एक अक्षर महापातकोंको नष्ट करनेवाला है ।


ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्‌ ।

जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम्‌ ॥२॥


अर्थ : नीले कमलके श्याम वर्णवाले, कमलनेत्रवाले , जटाओंके मुकुटसे सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्रीरामका स्मरण कर,


सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम्‌ ।

स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्‌ ॥३॥


अर्थ : जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथोंमें खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसोंके संहार तथा अपनी लीलाओंसे जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीरामका स्मरण कर,


रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम्‌ ।

शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४॥


अर्थ : मैं सर्वकामप्रद और पापोंको नष्ट करनेवाले राम रक्षा स्तोत्रका पाठ करता हूं । राघव मेरे सिरकी और दशरथके पुत्र मेरे ललाटकी रक्षा करें ।


कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती ।

घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥


अर्थ : कौशल्या नंदन मेरे नेत्रोंकी, विश्वामित्रके प्रिय मेरे कानोंकी, यज्ञरक्षक मेरे घ्राणकी और सुमित्राके वत्सल मेरे मुखकी रक्षा करें ।


जिव्हां विद्यानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: ।

स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥


अर्थ : विद्यानिधि मेरी जिह्वाकी रक्षा करें, कंठकी भरत-वंदित, कंधोंकी दिव्यायुध और भुजाओंकी महादेवजीका धनुष तोडनेवाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें ।


करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित्‌ ।

मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥


अर्थ : मेरे हाथोंकी सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदयकी जमदग्नि ऋषिके पुत्रको (परशुराम) जीतनेवाले, मध्य भागकी खरके (नामक राक्षस) वधकर्ता और नाभिकी जांबवानके आश्रयदाता रक्षा करें ।


सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: ।

ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत्‌ ॥८॥


अर्थ : मेरे कमरकी सुग्रीवके स्वामी, हडियोंकी हनुमानके प्रभु और रानोंकी राक्षस कुलका विनाश करनेवाले रघुकुलश्रेष्ठ रक्षा करें ।


जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्‌घे दशमुखान्तक: ।

पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥


अर्थ : मेरे जानुओंकी सेतुकृत, जंघाओकी दशानन वधकर्ता, चरणोंकी विभीषणको ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले और सम्पूर्ण शरीरकी श्रीराम रक्षा करें ।


एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत्‌ ।

स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्‌ ॥१०॥


अर्थ : शुभ कार्य करनेवाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धाके साथ रामबलसे संयुक्त होकर इस स्तोत्रका पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं ।


पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्‌मचारिण: ।

न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥


अर्थ : जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाशमें विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेशमें घूमते रहते हैं , वे राम नामोंसे सुरक्षित मनुष्यको देख भी नहीं पाते ।


रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन्‌ ।

नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥


अर्थ : राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामोंका स्मरण करनेवाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता, इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनोंको प्राप्त करता है ।


जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्‌ ।

य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥


अर्थ : जो संसारपर विजय करनेवाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं ।


वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्‌ ।

अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम्‌ ॥१४॥


अर्थ : जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवचका स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञाका कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगलकी ही प्राप्ति होती हैं ।


आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: ।

तथा लिखितवान्‌ प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥


अर्थ : भगवान् शंकरने स्वप्नमें इस रामरक्षा स्तोत्रका आदेश बुध कौशिक ऋषिको दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागनेपर उसे वैसा ही लिख दिया |


आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम्‌ ।

अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान्‌ स न: प्रभु: ॥१६॥


अर्थ : जो कल्प वृक्षोंके बागके समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियोंको दूर करनेवाले हैं और जो तीनो लोकों में सुंदर हैं, वही श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं ।


तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।

पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥


अर्थ : जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमलके (पुण्डरीक) समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियोंकी समान वस्त्र एवं काले मृगका चर्म धारण करते हैं ।


फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।

पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥


अर्थ : जो फल और कंदका आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथके पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें ।


शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्‌ ।

रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥


अर्थ : ऐसे महाबली – रघुश्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियोंके शरणदाता, सभी धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ और राक्षसोंके कुलोंका समूल नाश करनेमें समर्थ हमारा रक्षण करें ।


आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्‌ग सङि‌गनौ ।

रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रत: पथि सदैव गच्छताम्‌ ॥२०॥


अर्थ : संघान किए धनुष धारण किए, बाणका स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणोसे युक्त तुणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करनेके लिए मेरे आगे चलें ।


संनद्ध: कवची खड्‌गी चापबाणधरो युवा ।

गच्छन्‌मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥२१॥


अर्थ : हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथमें खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्थावाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर हमारी रक्षा करें ।


रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली ।

काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥२२॥


अर्थ : भगवानका कथन है कि श्रीराम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुतम


वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: ।

जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥२३॥


अर्थ : वेदान्त्वेघ, यज्ञेश,पुराण पुरुषोतम , जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामोंका


इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्त: श्रद्धयान्वित: ।

अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥२४॥


अर्थ : नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करनेवालेको निश्चित रूपसे अश्वमेध यज्ञसे भी अधिक फल प्राप्त होता हैं ।


रामं दूर्वादलश्यामं पद्‌माक्षं पीतवाससम्‌ ।

स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥२५॥


अर्थ : दूर्वादलके समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीरामकी उपरोक्त दिव्य नामोंसे स्तुति करनेवाला संसारचक्रमें नहीं पडता ।


रामं लक्ष्मणं पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम्‌ ।

काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्‌

राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम्‌ ।

वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्‌ ॥२६॥


अर्थ : लक्ष्मण जीके पूर्वज , सीताजीके पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणाके सागर , गुण-निधान , विप्र भक्त, परम धार्मिक, राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथके पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकोंमें सुन्दर, रघुकुल तिलक , राघव एवं रावणके शत्रु भगवान् रामकी मैं वंदना करता हूं।


रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।

रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥२७॥


अर्थ : राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीताजीके स्वामीकी मैं वंदना करता हूं।


श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम ।

श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।

श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।

श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥


अर्थ : हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरतके अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए ।


श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि ।

श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।

श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि ।

श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥


अर्थ : मैं एकाग्र मनसे श्रीरामचंद्रजीके चरणोंका स्मरण और वाणीसे गुणगान करता हूं, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धाके साथ भगवान् रामचन्द्रके चरणोंको प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणोंकी शरण लेता हूं |


माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: ।

स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: ।

सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु ।

नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥


अर्थ : श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं ।इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं, उनके सिवामें किसी दुसरेको नहीं जानता ।


दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा ।

पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम्‌ ॥३१॥


अर्थ : जिनके दाईं और लक्ष्मणजी, बाईं और जानकीजी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथजीकी वंदना करता हूं ।


लोकाभिरामं रनरङ्‌गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्‌ ।

कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥


अर्थ : मैं सम्पूर्ण लोकोंमें सुन्दर तथा रणक्रीडामें धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणाकी मूर्ति और करुणाके भण्डार रुपी श्रीरामकी शरणमें हूं।


मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌ ।

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥


अर्थ : जिनकी गति मनके समान और वेग वायुके समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूतकी शरण लेता हूं ।


कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌ ।

आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥३४॥


अर्थ : मैं कवितामयी डालीपर बैठकर, मधुर अक्षरोंवाले ‘राम-राम’ के मधुर नामको कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयलकी वंदना करता हूं ।


आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्‌ ।

लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌ ॥३५॥


अर्थ : मैं इस संसारके प्रिय एवं सुन्दर , उन भगवान् रामको बार-बार नमन करता हूं, जो सभी आपदाओंको दूर करनेवाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करनेवाले हैं ।


भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम्‌ ।

तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्‌ ॥३६॥


अर्थ : ‘राम-राम’ का जप करनेसे मनुष्यके सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं । वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं । राम-रामकी गर्जनासे यमदूत सदा भयभीत रहते हैं ।


रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।

रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: ।

रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम्‌ ।

रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥


अर्थ : राजाओंमें श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजयको प्राप्त करते हैं । मैं लक्ष्मीपति भगवान् श्रीरामका भजन करता हूं। सम्पूर्ण राक्षस सेनाका नाश करनेवाले श्रीरामको मैं नमस्कार करता हूं । श्रीरामके समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं । मैं उन शरणागत वत्सलका दास हूं। मैं सद्सिव श्रीराममें ही लीन रहूं । हे श्रीराम! आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें ।


राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे । सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥


अर्थ : (शिव पार्वती से बोले –) हे सुमुखी ! राम- नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान हैं । मैं सदा रामका स्तवन करता हूं और राम-नाममें ही रमण करता हूं ।


इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥


By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब 🌹🙏🙏🌹



अर्थ : इस प्रकार बुधकौशिकद्वारा रचित श्रीराम रक्षा स्तोत्र सम्पूर्ण होता है ।


॥ श्री सीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

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,। 🌹भगवान का हर विधान मंगलकारी होता है.🌹पत्थर का स्वभाव है डूब जाना, अगर कोई पत्थर का आश्रय लेकर जल में उतरे तो वह भी पत्थर के साथ डूब जाता है। वानर का स्वभाव चीजों को तोड़ने वाला होता है, जोड़नेवाला नहीं। समुद्र स्वभाववश सबकुछ स्वयं में समा लेनेवाला है। नदियों के जल को स्वयं में समा लेनेवाला। वह किसी को कुछ सरलता से कहाँ देनेवाला है! तीनों ने रामकाज के लिए अपने स्वभाव से विपरीत कार्य कियापत्थर पानी में तैरने लग गए, वानरसेना ने सेतु बंधन किया, सागर ने सीना चीरकर मार्ग दिया और स्वयं सेतुबंधन में मदद की।इसी प्रकार जीवन में भी यदि कोई कार्य हमारे स्वभाव से विपरीत हो रहा हो पर वह सबके भले में हो तो जानना चाहिये कि शायद श्रीराम हमारे जीवन में कोई एक और सेतु बंधन कार्य कर रहे है। भगवान का हर विधान मंगलकारी होता है।🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब जय सीताराम जी 🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹,

आज हम आपको वाल्मीकि रामायण की कुछ रोचक और अनसुनी बातें बतायेगें !!!!!!By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबभगवान राम को समर्पित दो ग्रंथ मुख्यतः लिखे गए है एक तुलसीदास द्वारा रचित ‘श्री रामचरित मानस’ और दूसरा वाल्मीकि कृत ‘रामायण’। इनके अलावा भी कुछ अन्य ग्रन्थ लिखे गए है पर इन सब में वाल्मीकि कृत रामायण को सबसे सटीक और प्रामाणिक माना जाता है।लेकिन बहुत कम लोग जानते है की श्री रामचरित मानस और रामायण में कुछ बातें अलग है जबकि कुछ बातें ऐसी है जिनका वर्णन केवल वाल्मीकि कृत रामायण में है। आज इस लेख में हम आपको वाल्मीकि कृत रामायण की कुछ ऐसी ही बातों के बारे में बताएँगे।1- तुलसीदास द्वारा श्रीरामचरित मानस में वर्णन है कि भगवान श्रीराम ने सीता स्वयंवर में शिव धनुष को उठाया और प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया, जबकि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में सीता स्वयंवर का वर्णन नहीं है।रामायण के अनुसार भगवान राम व लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ मिथिला पहुंचे थे। विश्वामित्र ने ही राजा जनक से श्रीराम को वह शिवधनुष दिखाने के लिए कहा। तब भगवान श्रीराम ने खेल ही खेल में उस धनुष को उठा लिया और प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया। राजा जनक ने यह प्रण किया था कि जो भी इस शिव धनुष को उठा लेगा, उसी से वे अपनी पुत्री सीता का विवाह कर देंगे।2- रामायण के अनुसार राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाया था। इस यज्ञ को मुख्य रूप से ऋषि ऋष्यश्रृंग ने संपन्न किया था। ऋष्यश्रृंग के पिता का नाम महर्षि विभाण्डक था। एक दिन जब वे नदी में स्नान कर रहे थे तब नदी में उनका वीर्यपात हो गया। उस जल को एक हिरणी ने पी लिया था, जिसके फलस्वरूप ऋषि ऋष्यश्रृंग का जन्म हुआ था।3- विश्व विजय करने के लिए जब रावण स्वर्ग लोक पहुंचा तो उसे वहां रंभा नाम की अप्सरा दिखाई दी। अपनी वासना पूरी करने के लिए रावण ने उसे पकड़ लिया।तब उस अप्सरा ने कहा कि आप मुझे इस तरह से स्पर्श न करें, मैं आपके बड़े भाई कुबेर के बेटे नलकुबेर के लिए आरक्षित हूं।इसलिए मैं आपकी पुत्रवधू के समान हूं, लेकिन रावण नहीं माना और उसने रंभा से दुराचार किया। यह बात जब नलकुबेर को पता चली तो उसने रावण को श्राप दिया कि आज के बाद रावण बिना किसी स्त्री की इच्छा के उसे स्पर्श करेगा तो उसका मस्तक सौ टुकड़ों में बंट जाएगा।4- ये बात सभी जानते हैं कि लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा के नाक-कान काटे जाने से क्रोधित होकर ही रावण ने सीता का हरण किया था, लेकिन स्वयं शूर्पणखा ने भी रावण का सर्वनाश होने का श्राप दिया था। क्योंकि रावण की बहन शूर्पणखा के पति का नाम विद्युतजिव्ह था। वो कालकेय नाम के राजा का सेनापति था। रावण जब विश्वयुद्ध पर निकला तो कालकेय से उसका युद्ध हुआ। उस युद्ध में रावण ने विद्युतजिव्ह का वध कर दिया। तब शूर्पणखा ने मन ही मन रावण को श्राप दिया कि मेरे ही कारण तेरा सर्वनाश होगा।5- श्रीरामचरित मानस के अनुसार सीता स्वयंवर के समय भगवान परशुराम वहां आए थे, जबकि रामायण के अनुसार सीता से विवाह के बाद जब श्रीराम पुन: अयोध्या लौट रहे थे, तब परशुराम वहां आए और उन्होंने श्रीराम से अपने धनुष पर बाण चढ़ाने के लिए कहा। श्रीराम के द्वारा बाण चढ़ा देने पर परशुराम वहां से चले गए थे।6- वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक बार रावण अपने पुष्पक विमान से कहीं जा रहा था, तभी उसे एक सुंदर स्त्री दिखाई दी, उसका नाम वेदवती था। वह भगवान विष्णु को पति रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थी। रावण ने उसके बाल पकड़े और अपने साथ चलने को कहा। उस तपस्विनी ने उसी क्षण अपनी देह त्याग दी और रावण को श्राप दिया कि एक स्त्री के कारण ही तेरी मृत्यु होगी। उसी स्त्री ने दूसरे जन्म में सीता के रूप में जन्म लिया l7- जिस समय भगवान श्रीराम वनवास गए, उस समय उनकी आयु लगभग 27 वर्ष की थी। राजा दशरथ श्रीराम को वनवास नहीं भेजना चाहते थे, लेकिन वे वचनबद्ध थे। जब श्रीराम को रोकने का कोई उपाय नहीं सूझा तो उन्होंने श्रीराम से यह भी कह दिया कि तुम मुझे बंदी बनाकर स्वयं राजा बन जाओ।8- अपने पिता राजा दशरथ की मृत्यु का आभास भरत को पहले ही एक स्वप्न के माध्यम से हो गया था। सपने में भरत ने राजा दशरथ को काले वस्त्र पहने हुए देखा था। उनके ऊपर पीले रंग की स्त्रियां प्रहार कर रही थीं। सपने में राजा दशरथ लाल रंग के फूलों की माला पहने और लाल चंदन लगाए गधे जुते हुए रथ पर बैठकर तेजी से दक्षिण (यम की दिशा) की ओर जा रहे थे।9- हिंदू धर्म में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं की मान्यता है, जबकि रामायण के अरण्यकांड के चौदहवे सर्ग के चौदहवे श्लोक में सिर्फ तैंतीस देवता ही बताए गए हैं। उसके अनुसार बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनी कुमार, ये ही कुल तैंतीस देवता हैं। 10- रघुवंश में एक परम प्रतापी राजा हुए थे, जिनका नाम अनरण्य था। जब रावण विश्वविजय करने निकला तो राजा अनरण्य से उसका भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्ध में राजा अनरण्य की मृत्यु हो गई, लेकिन मरने से पहले उन्होंने रावण को श्राप दिया कि मेरे ही वंश में उत्पन्न एक युवक तेरी मृत्यु का कारण बनेगा।11- रावण जब विश्व विजय पर निकला तो वह यमलोक भी जा पहुंचा। वहां यमराज और रावण के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जब यमराज ने रावण के प्राण लेने के लिए कालदण्ड का प्रयोग करना चाहा तो ब्रह्मा ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया क्योंकि किसी देवता द्वारा रावण का वध संभव नहीं था।12- सीताहरण करते समय जटायु नामक गिद्ध ने रावण को रोकने का प्रयास किया था। रामायण के अनुसार जटायु के पिता अरुण बताए गए हैं। ये अरुण ही भगवान सूर्यदेव के रथ के सारथी हैं।13- जिस दिन रावण सीता का हरण कर अपनी अशोक वाटिका में लाया। उसी रात को भगवान ब्रह्मा के कहने पर देवराज इंद्र माता सीता के लिए खीर लेकर आए, पहले देवराज ने अशोक वाटिका में उपस्थित सभी राक्षसों को मोहित कर सुला दिया। उसके बाद माता सीता को खीर अर्पित की, जिसके खाने से सीता की भूख-प्यास शांत हो गई।14- जब भगवान राम और लक्ष्मण वन में सीता की खोज कर रहे थे। उस समय कबंध नामक राक्षस का राम-लक्ष्मण ने वध कर दिया। वास्तव में कबंध एक श्राप के कारण ऐसा हो गया था। जब श्रीराम ने उसके शरीर को अग्नि के हवाले किया तो वह श्राप से मुक्त हो गया। कबंध ने ही श्रीराम को सुग्रीव से मित्रता करने के लिए कहा था।15- श्रीरामचरितमानस के अनुसार समुद्र ने लंका जाने के लिए रास्ता नहीं दिया तो लक्ष्मण बहुत क्रोधित हो गए थे, जबकि वाल्मीकि रामायण में वर्णन है कि लक्ष्मण नहीं बल्कि भगवान श्रीराम समुद्र पर क्रोधित हुए थे और उन्होंने समुद्र को सुखा देने वाले बाण भी छोड़ दिए थे। तब लक्ष्मण व अन्य लोगों ने भगवान श्रीराम को समझाया था।16- सभी जानते हैं कि समुद्र पर पुल का निर्माण नल और नील नामक वानरों ने किया था। क्योंकि उसे श्राप मिला था कि उसके द्वारा पानी में फेंकी गई वस्तु पानी में डूबेगी नहीं, जबकि वाल्मीकि रामायण के अनुसार नल देवताओं के शिल्पी (इंजीनियर) विश्वकर्मा के पुत्र थे और वह स्वयं भी शिल्पकला में निपुण था। अपनी इसी कला से उसने समुद्र पर सेतु का निर्माण किया था।17- रामायण के अनुसार समुद्र पर पुल बनाने में पांच दिन का समय लगा। पहले दिन वानरों ने 14 योजन, दूसरे दिन 20 योजन, तीसरे दिन 21 योजन, चौथे दिन 22 योजन और पांचवे दिन 23 योजन पुल बनाया था। इस प्रकार कुल 100 योजन लंबाई का पुल समुद्र पर बनाया गया। यह पुल 10 योजन चौड़ा था। (एक योजन लगभग 13-16 किमी होता है)18- एक बार रावण जब भगवान शंकर से मिलने कैलाश गया। वहां उसने नंदीजी को देखकर उनके स्वरूप की हंसी उड़ाई और उन्हें बंदर के समान मुख वाला कहा। तब नंदीजी ने रावण को श्राप दिया कि बंदरों के कारण ही तेरा सर्वनाश होगा।19- रामायण के अनुसार जब रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कैलाश पर्वत उठा लिया तब माता पार्वती भयभीत हो गई थी और उन्होंने रावण को श्राप दिया था कि तेरी मृत्यु किसी स्त्री के कारण ही होगी।20- जिस समय राम-रावण का अंतिम युद्ध चल रहा था, उस समय देवराज इंद्र ने अपना दिव्य रथ श्रीराम के लिए भेजा था। उस रथ में बैठकर ही भगवान श्रीराम ने रावण का वध किया था।21- जब काफी समय तक राम-रावण का युद्ध चलता रहा तब अगस्त्य मुनि ने श्रीराम से आदित्य ह्रदय स्त्रोत का पाठ करने को कहा, जिसके प्रभाव से भगवान श्रीराम ने रावण का वध किया।22- रामायण के अनुसार रावण जिस सोने की लंका में रहता था वह लंका पहले रावण के भाई कुबेर की थी। जब रावण ने विश्व विजय पर निकला तो उसने अपने भाई कुबेर को हराकर सोने की लंका तथा पुष्पक विमान पर अपना कब्जा कर लिया।23- रावण ने अपनी पत्नी की बड़ी बहन माया के साथ भी छल किया था। माया के पति वैजयंतपुर के शंभर राजा थे। एक दिन रावण शंभर के यहां गया। वहां रावण ने माया को अपनी बातों में फंसा लिया। इस बात का पता लगते ही शंभर ने रावण को बंदी बना लिया। उसी समय शंभर पर राजा दशरथ ने आक्रमण कर दिया। उस युद्ध में शंभर की मृत्यु हो गई। जब माया सती होने लगी तो रावण ने उसे अपने साथ चलने को कहा। तब माया ने कहा कि तुमने वासनायुक्त मेरा सतित्व भंग करने का प्रयास किया इसलिए मेरे पति की मृत्यु हो गई, अत: तुम्हारी मृत्यु भी इसी कारण होगी।24- रावण के पुत्र मेघनाद ने जब युद्ध में इंद्र को बंदी बना लिया तो ब्रह्माजी ने देवराज इंद्र को छोडऩे को कहा। इंद्र पर विजय प्राप्त करने के कारण ही मेघनाद इंद्रजीत के नाम से विख्यात हुआ।25- रावण जब विशव विजय पर निकला तब वह यमलोक भी जा पहुंचा। वहां रावण और यमराज के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जब यमराज ने कालदंड के प्रयोग द्वारा रावण के प्राण लेने चाहे तो ब्रह्मा ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया क्योंकि किसी देवता द्वारा रावण का वध संभव नहीं था।26- वाल्मीकि रामायण में 24 हज़ार श्लोक, 500 उपखण्ड, तथा सात कांड है।

आज हम आपको वाल्मीकि रामायण की कुछ रोचक और अनसुनी बातें बतायेगें !!!!!! By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब भगवान राम को समर्पित दो ग्रंथ मुख्यतः लिखे गए है एक तुलसीदास द्वारा रचित ‘श्री रामचरित मानस’ और दूसरा वाल्मीकि कृत ‘रामायण’। इनके अलावा भी कुछ अन्य ग्रन्थ लिखे गए है पर इन सब में वाल्मीकि कृत रामायण को सबसे सटीक और प्रामाणिक माना जाता है। बाल वनिता महिला आश्रम लेकिन बहुत कम लोग जानते है की श्री रामचरित मानस और रामायण में कुछ बातें अलग है जबकि कुछ बातें ऐसी है जिनका वर्णन केवल वाल्मीकि कृत रामायण में है। आज इस लेख में हम आपको वाल्मीकि कृत रामायण की कुछ ऐसी ही बातों के बारे में बताएँगे। 1- तुलसीदास द्वारा श्रीरामचरित मानस में वर्णन है कि भगवान श्रीराम ने सीता स्वयंवर में शिव धनुष को उठाया और प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया, जबकि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में सीता स्वयंवर का वर्णन नहीं है। रामायण के अनुसार भगवान राम व लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ मिथिला पहुंचे थे। विश्वामित्र ने ही राजा जनक से श्रीराम को वह शिवधनुष दिखाने के लिए कहा। तब भगवान श्रीराम ने खेल ही खेल में उस

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