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, श्री राम चरित मानस में लंका काण्ड 13. लक्ष्मण-मेघनाद युद्ध, लक्ष्मणजी को शक्ति लगना14. हनुमानजी का सुषेण वैद्य को लाना एवं संजीवनी के लिए जाना, कालनेमि-रावण संवाद, मकरी उद्धार, कालनेमि उद्धार15. भरत जी के बाण से हनुमान्‌ का मूर्च्छित होना, भरत-हनुमान्‌ संवाद16. श्री रामजी की प्रलापलीला, हनुमान्‌जी का लौटना, लक्ष्मणजी का उठ बैठना17. रावण का कुम्भकर्ण को जगाना, कुम्भकर्ण का रावण को उपदेश और विभीषण-कुम्भकर्ण संवाद18. कुम्भकर्ण युद्ध और उसकी परमगतिकालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध।सिव बिरंचि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध॥48 ख॥जो कालस्वरूप हैं, दुष्टों के समूह रूपी वन के भस्म करने वाले (अग्नि) हैं, गुणों के धाम और ज्ञानघन हैं एवं शिवजी और ब्रह्माजी भी जिनकी सेवा करते हैं, उनसे वैर कैसा?॥48 (ख)॥चौपाई :परिहरि बयरु देहु बैदेही।भजहु कृपानिधि परम सनेही॥ताके बचन बान सम लागे।करिआ मुँह करि जाहि अभागे॥1॥(अतः) वैर छोड़कर उन्हें जानकीजी को दे दो और कृपानिधान परम स्नेही श्री रामजी का भजन करो। रावण को उसके वचन बाण के समान लगे। (वह बोला-) अरे अभागे! मुँह काला करके (यहाँ से) निकल जा॥1॥बूढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही।अब जनि नयन देखावसि मोही॥तेहिं अपने मन अस अनुमाना।बध्यो चहत एहि कृपानिधाना॥2॥तू बूढ़ा हो गया, नहीं तो तुझे मार ही डालता। अब मेरी आँखों को अपना मुँह न दिखला। रावण के ये वचन सुनकर उसने (माल्यवान्‌ ने) अपने मन में ऐसा अनुमान किया कि इसे कृपानिधान श्री रामजी अब मारना ही चाहते हैं॥2॥सो उठि गयउ कहत दुर्बादा।तब सकोप बोलेउ घननादा॥कौतुक प्रात देखिअहु मोरा।करिहउँ बहुत कहौं का थोरा॥3॥वह रावण को दुर्वचन कहता हुआ उठकर चला गया। तब मेघनाद क्रोधपूर्वक बोला- सबेरे मेरी करामात देखना। मैं बहुत कुछ करूँगा, थोड़ा क्या कहूँ? (जो कुछ वर्णन करूँगा थोड़ा ही होगा)॥3॥सुनि सुत बचन भरोसा आवा।प्रीति समेत अंक बैठावा॥करत बिचार भयउ भिनुसारा।लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा॥4॥पुत्र के वचन सुनकर रावण को भरोसा आ गया। उसने प्रेम के साथ उसे गोद में बैठा लिया। विचार करते-करते ही सबेरा हो गया। वानर फिर चारों दरवाजों पर जा लगे॥4॥कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा।नगर कोलाहलु भयउ घनेरा॥बिबिधायुध धर निसिचर धाए।गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए॥5॥वानरों ने क्रोध करके दुर्गम कलिे को घेर लिया। नगर में बहुत ही कोलाहल (शोर) मच गया। राक्षस बहुत तरह के अस्त्र-शस्त्र धारण करके दौड़े और उन्होंने कलिे पर पहाड़ों के शिखर ढहाए॥5॥छंद :ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले।घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले॥मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए।गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहि जहँ सो तहँ निसिचर हए॥उन्होंने पर्वतों के करोड़ों शिखर ढहाए, अनेक प्रकार से गोले चलने लगे। वे गोले ऐसा घहराते हैं जैसे वज्रपात हुआ हो (बिजली गिरी हो) और योद्धा ऐसे गरजते हैं, मानो प्रलयकाल के बादल हों। विकट वानर योद्धा भिड़ते हैं, कट जाते हैं (घायल हो जाते हैं), उनके शरीर जर्जर (चलनी) हो जाते हैं, तब भी वे लटते नहीं (हिम्मत नहीं हारते)। वे पहाड़ उठाकर उसे कलिे पर फेंकते हैं। राक्षस जहाँ के तहाँ (जो जहाँ होते हैं, वहीं) मारे जाते हैं।दोहा :मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ पुनि छेंका आइ।उतर्‌यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ॥49॥मेघनाद ने कानों से ऐसा सुना कि वानरों ने आकर फिर कलिे को घेर लिया है। तब वह वीर कलिे से उतरा और डंका बजाकर उनके सामने चला॥49॥चौपाई :कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता।धन्वी सकल लोत बिख्याता॥कहँ नल नील दुबदि सुग्रीवा।अंगद हनूमंत बल सींवा॥1॥(मेघनाद ने पुकारकर कहा-) समस्त लोकों में प्रसदि्ध धनुर्धर कोसलाधीश दोनों भाई कहाँ हैं? नल, नील, द्विवदि, सुग्रीव और बल की सीमा अंगद और हनुमान्‌ कहाँ हैं?॥1॥कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही।आजु सबहि हठि मारउँ ओही॥अस कहि कठिन बान संधाने।अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने॥2॥भाई से द्रोह करने वाला विभीषण कहाँ है? आज मैं सबको और उस दुष्ट को तो हठपूर्वक (अवश्य ही) मारूँगा। ऐसा कहकर उसने धनुष पर कठिन बाणों का सन्धान किया और अत्यंत क्रोध करके उसे कान तक खींचा॥2॥सर समूह सो छाड़ै लागा।जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा॥जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर।सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर॥3॥वह बाणों के समूह छोड़ने लगा। मानो बहुत से पंखवाले साँप दौड़े जा रहे हों। जहाँ-तहाँ वानर गिरते दिखाई पड़ने लगे। उस समय कोई भी उसके सामने न हो सके॥3॥जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा।बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा॥सो कपि भालु न रन महँ देखा।कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा॥4॥रीछ-वानर जहाँ-तहाँ भाग चले। सबको युद्ध की इच्छा भूल गई। रणभूमि में ऐसा एक भी वानर या भालू नहीं दिखाई पड़ा, जिसको उसने प्राणमात्र अवशेष न कर दिया हो (अर्थात्‌ जिसके केवल प्राणमात्र ही न बचे हों, बल, पुरुषार्थ सारा जाता न रहा हो)॥4॥दोहा :दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर।सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर॥50॥फिर उसने सबको दस-दस बाण मारे, वानर वीर पृथ्वी पर गिर पड़े। बलवान्‌ और धीर मेघनाद सिंह के समान नाद करके गरजने लगा॥50॥चौपाई :देखि पवनसुत कटक बिहाला।क्रोधवंत जनु धायउ काला॥महासैल एक तुरत उपारा।अति रिस मेघनाद पर डारा॥1॥सारी सेना को बेहाल (व्याकुल) देखकर पवनसुत हनुमान्‌ क्रोध करके ऐसे दौड़े मानो स्वयं काल दौड़ आता हो। उन्होंने तुरंत एक बड़ा भारी पहाड़ उखाड़ लिया और बड़े ही क्रोध के साथ उसे मेघनाद पर छोड़ा॥1॥आवत देखि गयउ नभ सोई।रथ सारथी तुरग सब खोई॥बार बार पचार हनुमाना।निकट न आव मरमु सो जाना॥2॥पहाड़ों को आते देखकर वह आकाश में उड़ गया। (उसके) रथ, सारथी और घोड़े सब नष्ट हो गए (चूर-चूर हो गए) हनुमान्‌जी उसे बार-बार ललकारते हैं। पर वह निकट नहीं आता, क्योंकि वह उनके बल का मर्म जानता था॥2॥रघुपति निकट गयउ घननादा।नाना भाँति करेसि दुर्बादा॥अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे।कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे॥3॥(तब) मेघनाद श्री रघुनाथजी के पास गया और उसने (उनके प्रति) अनेकों प्रकार के दुर्वचनों का प्रयोग किया। (फिर) उसने उन पर अस्त्र-शस्त्र तथा और सब हथियार चलाए। प्रभु ने खेल में ही सबको काटकर अलग कर दिया॥3॥देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना।करै लाग माया बिधि नाना॥जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला।डरपावै गहि स्वल्प सपेला॥4॥श्री रामजी का प्रताप (सामर्थ्य) देखकर वह मूर्ख लज्जित हो गया और अनेकों प्रकार की माया करने लगा। जैसे कोई व्यक्ति छोटा सा साँप का बच्चा हाथ में लेकर गरुड़ को डरावे और उससे खेल करे॥4॥दोहा :जासु प्रबल माया बस सिव बिरंचि बड़ छोट।ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट॥51॥शिवजी और ब्रह्माजी तक बड़े-छोटे (सभी) जिनकी अत्यंत बलवान्‌ माया के वश में हैं, नीच बुद्धि निशाचर उनको अपनी माया दिखलाता है॥51॥चौपाई : :नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा।महि ते प्रगट होहिं जलधारा॥नाना भाँति पिसाच पिसाची।मारु काटु धुनि बोलहिं नाची॥1॥आकाश में (ऊँचे) चढ़कर वह बहुत से अंगारे बरसाने लगा। पृथ्वी से जल की धाराएँ प्रकट होने लगीं। अनेक प्रकार के पिशाच तथा पिशाचिनियाँ नाच-नाचकर 'मारो, काटो' की आवाज करने लगीं॥1॥बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़ा।बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा॥बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा।सूझ न आपन हाथ पसारा॥2॥वह कभी तो विष्टा, पीब, खून, बाल और हड्डियाँ बरसाता था और कभी बहुत से पत्थर फेंक देता था। फिर उसने धूल बरसाकर ऐसा अँधेरा कर दिया कि अपना ही पसारा हुआ हाथ नहीं सूझता था॥2॥कपि अकुलाने माया देखें।सब कर मरन बना ऐहि लेखें॥कौतुक देखि राम मुसुकाने।भए सभीत सकल कपि जाने॥3॥माया देखकर वानर अकुला उठे। वे सोचने लगे कि इस हिसाब से (इसी तरह रहा) तो सबका मरण आ बना। यह कौतुक देखकर श्री रामजी मुस्कुराए। उन्होंने जान लिया कि सब वानर भयभीत हो गए हैं॥3॥एक बान काटी सब माया।जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया॥कृपादृष्टि कपि भालु बलिोके।भए प्रबल रन रहहिं न रोके॥4॥तब श्री रामजी ने एक ही बाण से सारी माया काट डाली, जैसे सूर्य अंधकार के समूह को हर लेता है। तदनन्तर उन्होंने कृपाभरी दृष्टि से वानर-भालुओं की ओर देखा, (जिससे) वे ऐसे प्रबल हो गए कि रण में रोकने पर भी नहीं रुकते थे॥4॥दोहा :आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ।लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ॥52॥श्री रामजी से आज्ञा माँगकर, अंगद आदि वानरों के साथ हाथों में धनुष-बाण लिए हुए श्री लक्ष्मणजी क्रुद्ध होकर चले॥।52॥चौपाई :छतज नयन उर बाहु बिसाला।हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥इहाँ दसानन सुभट पठाए।नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए॥1॥उनके लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं। हिमाचल पर्वत के समान उज्ज्वल (गौरवर्ण) शरीर कुछ ललाई लिए हुए है। इधर रावण ने भी बड़े-बड़े योद्धा भेजे, जो अनेकों अस्त्र-शस्त्र लेकर दौड़े॥1॥भूधर नख बिटपायुध धारी।धाए कपि जय राम पुकारी॥भिरे सकल जोरिहि सन जोरी।इत उत जय इच्छा नहिं थोरी॥2॥पर्वत, नख और वृक्ष रूपी हथियार धारण किए हुए वानर 'श्री रामचंद्रजी की जय' पुकारकर दौड़े। वानर और राक्षस सब जोड़ी से जोड़ी भिड़ गए। इधर और उधर दोनों ओर जय की इच्छा कम न थी (अर्थात्‌ प्रबल थी)॥2॥मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं।कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं॥मारु मारु धरु धरु धरु मारू।सीस तोरि गहि भुजा उपारू॥3॥वानर उनको घूँसों और लातों से मारते हैं, दाँतों से काटते हैं। विजयशील वानर उन्हें मारकर फिर डाँटते भी हैं। 'मारो, मारो, पकड़ो, पकड़ो, पकड़कर मार दो, सिर तोड़ दो और भुजाऐँ पकड़कर उखाड़ लो'॥3॥असि रव पूरि रही नव खंडा।धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा॥देखहिं कौतुक नभ सुर बृंदा।कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा॥4॥नवों खंडों में ऐसी आवाज भर रही है। प्रचण्ड रुण्ड (धड़) जहाँ-तहाँ दौड़ रहे हैं। आकाश में देवतागण यह कौतुक देख रहे हैं। उन्हें कभी खेद होता है और कभी आनंद॥4॥दोहा :रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ।जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ॥53॥खून गड्ढों में भर-भरकर जम गया है और उस पर धूल उड़कर पड़ रही है (वह दृश्य ऐसा है) मानो अंगारों के ढेरों पर राख छा रही हो॥53॥चौपाई :घायल बीर बिराजहिं कैसे।कुसुमति किंसुक के तरु जैसे॥लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा।भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा॥1॥घायल वीर कैसे शोभित हैं, जैसे फूले हुए पलास के पेड़। लक्ष्मण और मेघनाद दोनों योद्धा अत्यंत क्रोध करके एक-दूसरे से भिड़ते हैं॥1॥एकहि एक सकइ नहिं जीती।निसिचर छल बल करइ अनीती॥क्रोधवंत तब भयउ अनंता।भंजेउ रथ सारथी तुरंता॥2॥एक-दूसरे को (कोई किसी को) जीत नहीं सकता। राक्षस छल-बल (माया) और अनीति (अधर्म) करता है, तब भगवान्‌ अनन्तजी (लक्ष्मणजी) क्रोधित हुए और उन्होंने तुरंत उसके रथ को तोड़ डाला और सारथी को टुकड़े-टुकड़े कर दिया!॥2॥नाना बिधि प्रहार कर सेषा।राच्छस भयउ प्रान अवसेषा॥रावन सुत निज मन अनुमाना।संकठ भयउ हरिहि मम प्राना॥3॥शेषजी (लक्ष्मणजी) उस पर अनेक प्रकार से प्रहार करने लगे। राक्षस के प्राणमात्र शेष रह गए। रावणपुत्र मेघनाद ने मन में अनुमान किया कि अब तो प्राण संकट आ बना, ये मेरे प्राण हर लेंगे॥3॥बीरघातिनी छाड़िसि साँगी।तेजपुंज लछिमन उर लागी॥मुरुछा भई सक्ति के लागें।तब चलि गयउ निकट भय त्यागें॥4॥तब उसने वीरघातिनी शक्ति चलाई। वह तेजपूर्ण शक्ति लक्ष्मणजी की छाती में लगी। शक्ति लगने से उन्हें मूर्छा आ गई। तब मेघनाद भय छोड़कर उनके पास चला गया॥4॥दोहा :मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ।जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ॥54॥मेघनाद के समान सौ करोड़ (अगणित) योद्धा उन्हें उठा रहे हैं, परन्तु जगत्‌ के आधार श्री शेषजी (लक्ष्मणजी) उनसे कैसे उठते? तब वे लजाकर चले गए॥54॥चौपाई :सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू।जारइ भुवन चारदिस आसू॥सक संग्राम जीति को ताही।सेवहिं सुर नर अग जग जाही॥1॥(शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! सुनो, (प्रलयकाल में) जिन (शेषनाग) के क्रोध की अग्नि चौदहों भुवनों को तुरंत ही जला डालती है और देवता, मनुष्य तथा समस्त चराचर (जीव) जिनकी सेवा करते हैं, उनको संग्राम में कौन जीत सकता है?॥1॥यह कौतूहल जानइ सोई।जा पर कृपा राम कै होई॥संध्या भय फिरि द्वौ बाहनी।लगे सँभारन निज निज अनी॥2॥इस लीला को वही जान सकता है, जिस पर श्री रामजी की कृपा हो। संध्या होने पर दोनों ओर की सेनाएँ लौट पड़ीं, सेनापति अपनी-अपनी सेनाएँ संभालने लगे॥2॥व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर।लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥तब लगि लै आयउ हनुमाना।अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥3॥व्यापक, ब्रह्म, अजेय, संपूर्ण ब्रह्मांड के ईश्वर और करुणा की खान श्री रामचंद्रजी ने पूछा- लक्ष्मण कहाँ है? तब तक हनुमान्‌ उन्हें ले आए। छोटे भाई को (इस दशा में) देखकर प्रभु ने बहुत ही दुःख माना॥3॥जामवंत कह बैद सुषेना।लंकाँ रहइ को पठई लेना॥धरि लघु रूप गयउ हनुमंता।आनेउ भवन समेत तुरंता॥4॥जाम्बवान्‌ ने कहा- लंका में सुषेण वैद्य रहता है, उसे लाने के लिए किसको भेजा जाए? हनुमान्‌जी छोटा रूप धरकर गए और सुषेण को उसके घर समेत तुरंत ही उठा लाए॥4॥दोहा :राम पदारबिंद सिर नायउ आइ सुषेन।कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन ॥55॥सुषेण ने आकर श्री रामजी के चरणारविन्दों में सिर नवाया। उसने पर्वत और औषध का नाम बताया, (और कहा कि) हे पवनपुत्र! औषधि लेने जाओ॥55॥चौपाई :राम चरन सरसिज उर राखी।चला प्रभंजनसुत बल भाषी॥उहाँ दूत एक मरमु जनावा।रावनु कालनेमि गृह आवा॥1॥श्री रामजी के चरणकमलों को हृदय में रखकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी अपना बल बखानकर (अर्थात्‌ मैं अभी लिए आता हूँ, ऐसा कहकर) चले। उधर एक गुप्तचर ने रावण को इस रहस्य की खबर दी। तब रावण कालनेमि के घर आया॥1॥दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना।पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना॥देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा।तासु पंथ को रोकन पारा॥2॥रावण ने उसको सारा मर्म (हाल) बतलाया। कालनेमि ने सुना और बार-बार सिर पीटा (खेद प्रकट किया)। (उसने कहा-) तुम्हारे देखते-देखते जिसने नगर जला डाला, उसका मार्ग कौन रोक सकता है?॥2॥भजि रघुपति करु हित आपना।छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना॥नील कंज तनु सुंदर स्यामा।हृदयँ राखु लोचनाभिरामा॥3॥श्री रघुनाथजी का भजन करके तुम अपना कल्याण करो! हे नाथ! झूठी बकवाद छोड़ दो। नेत्रों को आनंद देने वाले नीलकमल के समान सुंदर श्याम शरीर को अपने हृदय में रखो॥3॥मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू।महा मोह निसि सूतत जागू॥काल ब्याल कर भच्छक जोई।सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई॥4॥मैं-तू (भेद-भाव) और ममता रूपी मूढ़ता को त्याग दो। महामोह (अज्ञान) रूपी रात्रि में सो रहे हो, सो जाग उठो, जो काल रूपी सर्प का भी भक्षक है, कहीं स्वप्न में भी वह रण में जीता जा सकता है?॥4॥दोहा :सुनि दसकंठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार।राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार॥56॥उसकी ये बातें सुनकर रावण बहुत ही क्रोधित हुआ। तब कालनेमि ने मन में विचार किया कि (इसके हाथ से मरने की अपेक्षा) श्री रामजी के दूत के हाथ से ही मरूँ तो अच्छा है। यह दुष्ट तो पाप समूह में रत है॥56॥चौपाई :अस कहि चला रचिसि मग माया।सर मंदिर बर बाग बनाया॥मारुतसुत देखा सुभ आश्रम।मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम॥1॥वह मन ही मन ऐसा कहकर चला और उसने मार्ग में माया रची। तालाब, मंदिर और सुंदर बाग बनाया। हनुमान्‌जी ने सुंदर आश्रम देखकर सोचा कि मुनि से पूछकर जल पी लूँ, जिससे थकावट दूर हो जाए॥1॥राच्छस कपट बेष तहँ सोहा।मायापति दूतहि चह मोहा॥जाइ पवनसुत नायउ माथा।लाग सो कहै राम गुन गाथा॥2॥राक्षस वहाँ कपट (से मुनि) का वेष बनाए विराजमान था। वह मूर्ख अपनी माया से मायापति के दूत को मोहित करना चाहता था। मारुति ने उसके पास जाकर मस्तक नवाया। वह श्री रामजी के गुणों की कथा कहने लगा॥2॥होत महा रन रावन रामहिं।जितिहहिं राम न संसय या महिं॥इहाँ भएँ मैं देखउँ भाई।ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई॥3॥(वह बोला-) रावण और राम में महान्‌ युद्ध हो रहा है। रामजी जीतेंगे, इसमें संदेह नहीं है। हे भाई! मैं यहाँ रहता हुआ ही सब देख रहा हूँ। मुझे ज्ञानदृष्टि का बहुत बड़ा बल है॥3॥मागा जल तेहिं दीन्ह कमंडल।कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल॥सर मज्जन करि आतुर आवहु।दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु॥4॥हनुमान्‌जी ने उससे जल माँगा, तो उसने कमण्डलु दे दिया। हनुमान्‌जी ने कहा- थोड़े जल से मैं तृप्त नहीं होने का। तब वह बोला- तालाब में स्नान करके तुरंत लौट आओ तो मैं तुम्हे दीक्षा दूँ, जिससे तुम ज्ञान प्राप्त करो॥4॥दोहा :सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान।मारी सो धरि दिब्य तनु चली गगन चढ़ि जान॥57॥तालाब में प्रवेश करते ही एक मगरी ने अकुलाकर उसी समय हनुमान्‌जी का पैर पकड़ लिया। हनुमान्‌जी ने उसे मार डाला। तब वह दिव्य देह धारण करके विमान पर चढ़कर आकाश को चली॥57॥चौपाई :कपि तव दरस भइउँ निष्पापा।मिटा तात मुनिबर कर सापा॥मुनि न होइ यह निसिचर घोरा।मानहु सत्य बचन कपि मोरा॥1॥(उसने कहा-) हे वानर! मैं तुम्हारे दर्शन से पापरहित हो गई। हे तात! श्रेष्ठ मुनि का शाप मिट गया। हे कपि! यह मुनि नहीं है, घोर निशाचर है। मेरा वचन सत्य मानो॥1॥अस कहि गई अपछरा जबहीं।निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं॥कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू।पाछें हमहिं मंत्र तुम्ह देहू॥2॥ऐसा कहकर ज्यों ही वह अप्सरा गई, त्यों ही हनुमान्‌जी निशाचर के पास गए। हनुमान्‌जी ने कहा- हे मुनि! पहले गुरुदक्षिणा ले लीजिए। पीछे आप मुझे मंत्र दीजिएगा॥2॥सिर लंगूर लपेटि पछारा।निज तनु प्रगटेसि मरती बारा॥राम राम कहि छाड़ेसि प्राना।सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना॥3॥हनुमान्‌जी ने उसके सिर को पूँछ में लपेटकर उसे पछाड़ दिया। मरते समय उसने अपना (राक्षसी) शरीर प्रकट किया। उसने राम-राम कहकर प्राण छोड़े। यह (उसके मुँह से राम-राम का उच्चारण) सुनकर हनुमान्‌जी मन में हर्षित होकर चले॥3॥देखा सैल न औषध चीन्हा।सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥गहि गिरि निसि नभ धावक भयऊ।अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ॥4॥उन्होंने पर्वत को देखा, पर औषध न पहचान सके। तब हनुमान्‌जी ने एकदम से पर्वत को ही उखाड़ लिया। पर्वत लेकर हनुमान्‌जी रात ही में आकाश मार्ग से दौड़ चले और अयोध्यापुरी के ऊपर पहुँच गए॥4॥दोहा :देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि॥58॥भरतजी ने आकाश में अत्यंत विशाल स्वरूप देखा, तब मन में अनुमान किया कि यह कोई राक्षस है। उन्होंने कान तक धनुष को खींचकर बिना फल का एक बाण मारा॥58॥चौपाई :परेउ मुरुछि महि लागत सायक।सुमिरत राम राम रघुनायक॥सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए।कपि समीप अति आतुर आए॥1॥बाण लगते ही हनुमान्‌जी 'राम, राम, रघुपति' का उच्चारण करते हुए मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। प्रिय वचन (रामनाम) सुनकर भरतजी उठकर दौड़े और बड़ी उतावली से हनुमान्‌जी के पास आए॥1॥बिकल बलिोकि कीस उर लावा।जागत नहिं बहु भाँति जगावा॥मुख मलीन मन भए दुखारी।कहत बचन भरि लोचन बारी॥2॥हनुमान्‌जी को व्याकुल देखकर उन्होंने हृदय से लगा लिया। बहुत तरह से जगाया, पर वे जागते न थे! तब भरतजी का मुख उदास हो गया। वे मन में बड़े दुःखी हुए और नेत्रों में (विषाद के आँसुओं का) जल भरकर ये वचन बोले-॥2॥जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा।तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा॥जौं मोरें मन बच अरु काया॥ प्रीति राम पद कमल अमाया॥3॥जिस विधाता ने मुझे श्री राम से विमुख किया, उसी ने फिर यह भयानक दुःख भी दिया। यदि मन, वचन और शरीर से श्री रामजी के चरणकमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो,॥3॥तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला।जौं मो पर रघुपति अनुकूला॥सुनत बचन उठि बैठ कपीसा।कहि जय जयति कोसलाधीसा॥4॥और यदि श्री रघुनाथजी मुझ पर प्रसन्न हों तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए। यह वचन सुनते ही कपिराज हनुमान्‌जी 'कोसलपति श्री रामचंद्रजी की जय हो, जय हो' कहते हुए उठ बैठे॥4॥सोरठा :लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल।प्रीति न हृदय समाइ सुमिरि राम रघुकुल तलिक॥59॥भरतजी ने वानर (हनुमान्‌जी) को हृदय से लगा लिया, उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनंद तथा प्रेम के आँसुओं का) जल भर आया। रघुकुलतलिक श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके भरतजी के हृदय में प्रीति समाती न थी॥59॥चौपाई :तात कुसल कहु सुखनिधान की।सहित अनुज अरु मातु जानकी॥लकपि सब चरित समास बखाने।भए दुखी मन महुँ पछिताने॥1॥(भरतजी बोले-) हे तात! छोटे भाई लक्ष्मण तथा माता जानकी सहित सुखनिधान श्री रामजी की कुशल कहो। वानर (हनुमान्‌जी) ने संक्षेप में सब कथा कही। सुनकर भरतजी दुःखी हुए और मन में पछताने लगे॥1॥अहह दैव मैं कत जग जायउँ।प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥जानि कुअवसरु मन धरि धीरा।पुनि कपि सन बोले बलबीरा॥2॥हा दैव! मैं जगत्‌ में क्यों जन्मा? प्रभु के एक भी काम न आया। फिर कुअवसर (विपरीत समय) जानकर मन में धीरज धरकर बलवीर भरतजी हनुमान्‌जी से बोले-॥2॥तात गहरु होइहि तोहि जाता।काजु नसाइहि होत प्रभाता॥चढ़ु मम सायक सैल समेता।पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता॥3॥हे तात! तुमको जाने में देर होगी और सबेरा होते ही काम बिगड़ जाएगा। (अतः) तुम पर्वत सहित मेरे बाण पर चढ़ जाओ, मैं तुमको वहाँ भेज दूँ जहाँ कृपा के धाम श्री रामजी हैं॥3॥सुनि कपि मन उपजा अभिमाना।मोरें भार चलिहि किमि बाना॥राम प्रभाव बिचारि बहोरी।बंदि चरन कह कपि कर जोरी॥4॥भरतजी की यह बात सुनकर (एक बार तो) हनुमान्‌जी के मन में अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा? (किन्तु) फिर श्री रामचंद्रजी के प्रभाव का विचार करके वे भरतजी के चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोले-॥4॥दोहा :तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत।अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥60 क॥हे नाथ! हे प्रभो! मैं आपका प्रताप हृदय में रखकर तुरंत चला जाऊँगा। ऐसा कहकर आज्ञा पाकर और भरतजी के चरणों की वंदना करके हनुमान्‌जी चले॥60 (क)॥भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार॥60 ख॥भरतजी के बाहुबल, शील (सुंदर स्वभाव), गुण और प्रभु के चरणों में अपार प्रेम की मन ही मन बारंबार सराहना करते हुए मारुति श्री हनुमान्‌जी चले जा रहे हैं॥60 (ख)॥चौपाई :उहाँ राम लछिमनहि निहारी।बोले बचन मनुज अनुसारी॥अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ।राम उठाइ अनुज उर लायउ॥1॥वहाँ लक्ष्मणजी को देखकर श्री रामजी साधारण मनुष्यों के अनुसार (समान) वचन बोले- आधी रात बीत चुकी है, हनुमान्‌ नहीं आए। यह कहकर श्री रामजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को उठाकर हृदय से लगा लिया॥1॥सकहु न दुखित देखि मोहि काउ।बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ॥मम हित लागि तजेहु पितु माता।सहेहु बिपिन हिम आतप बाता॥2॥(और बोले-) हे भाई! तुम मुझे कभी दुःखी नहीं देख सकते थे। तुम्हारा स्वभाव सदा से ही कोमल था। मेरे हित के लिए तुमने माता-पिता को भी छोड़ दिया और वन में जाड़ा, गरमी और हवा सब सहन किया॥2॥सो अनुराग कहाँ अब भाई।उठहु न सुनि मम बच बिकलाई॥जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू।पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू॥3॥हे भाई! वह प्रेम अब कहाँ है? मेरे व्याकुलतापूर्वक वचन सुनकर उठते क्यों नहीं? यदि मैं जानता कि वन में भाई का विछोह होगा तो मैं पिता का वचन (जिसका मानना मेरे लिए परम कर्तव्य था) उसे भी न मानता॥3॥सुत बित नारि भवन परिवारा।होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥अस बिचारि जियँ जागहु ताता।मलिइ न जगत सहोदर भ्राता॥4॥पुत्र, धन, स्त्री, घर और परिवार- ये जगत्‌ में बार-बार होते और जाते हैं, परन्तु जगत्‌ में सहोदर भाई बार-बार नहीं मलिता। हृदय में ऐसा विचार कर हे तात! जागो॥4॥जथा पंख बिनु खग अति दीना।मनि बिनु फनि करिबर कर हीना॥अस मम जिवन बंधु बिनु तोही।जौं जड़ दैव जिआवै मोही॥5॥जैसे पंख बिना पक्षी, मणि बिना सर्प और सूँड बिना श्रेष्ठ हाथी अत्यंत दीन हो जाते हैं, हे भाई! यदि कहीं जड़ दैव मुझे जीवित रखे तो तुम्हारे बिना मेरा जीवन भी ऐसा ही होगा॥5॥जैहउँ अवध कौन मुहु लाई।नारि हेतु प्रिय भाई गँवाई॥बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं।नारि हानि बिसेष छति नाहीं॥6॥स्त्री के लिए प्यारे भाई को खोकर, मैं कौन सा मुँह लेकर अवध जाऊँगा? मैं जगत्‌ में बदनामी भले ही सह लेता (कि राम में कुछ भी वीरता नहीं है जो स्त्री को खो बैठे)। स्त्री की हानि से (इस हानि को देखते) कोई विशेष क्षति नहीं थी॥6॥अब अपलोकु सोकु सुत तोरा।सहिहि निठुर कठोर उर मोरा॥निज जननी के एक कुमारा।तात तासु तुम्ह प्रान अधारा॥7॥अब तो हे पुत्र! मेरे निष्ठुर और कठोर हृदय यह अपयश और तुम्हारा शोक दोनों ही सहन करेगा। हे तात! तुम अपनी माता के एक ही पुत्र और उसके प्राणाधार हो॥7॥सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी।सब बिधि सुखद परम हित जानी॥उतरु काह दैहउँ तेहि जाई।उठि किन मोहि सिखावहु भाई॥8॥सब प्रकार से सुख देने वाला और परम हितकारी जानकर उन्होंने तुम्हें हाथ पकड़कर मुझे सौंपा था। मैं अब जाकर उन्हें क्या उत्तर दूँगा? हे भाई! तुम उठकर मुझे सिखाते (समझाते) क्यों नहीं?॥8॥बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन।स्रवत सललि राजिव दल लोचन॥उमा एक अखंड रघुराई।नर गति भगत कृपाल देखाई॥9॥सोच से छुड़ाने वाले श्री रामजी बहुत प्रकार से सोच कर रहे हैं। उनके कमल की पंखुड़ी के समान नेत्रों से (विषाद के आँसुओं का) जल बह रहा है। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रघुनाथजी एक (अद्वितीय) और अखंड (वियोगरहित) हैं। भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान्‌ ने (लीला करके) मनुष्य की दशा दिखलाई है॥9॥सोरठा :प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस॥61॥प्रभु के (लीला के लिए किए गए) प्रलाप को कानों से सुनकर वानरों के समूह व्याकुल हो गए। (इतने में ही) हनुमान्‌जी आ गए, जैसे करुणरस (के प्रसंग) में वीर रस (का प्रसंग) आ गया हो॥61॥चौपाई :हरषि राम भेंटेउ हनुमाना।अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥तुरत बैद तब कीन्ह उपाई।उठि बैठे लछिमन हरषाई॥1॥श्री रामजी हर्षित होकर हनुमान्‌जी से गले मलिे। प्रभु परम सुजान (चतुर) और अत्यंत ही कृतज्ञ हैं। तब वैद्य (सुषेण) ने तुरंत उपाय किया, (जिससे) लक्ष्मणजी हर्षित होकर उठ बैठे॥1॥हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता।हरषे सकल भालु कपि ब्राता॥कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा।जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा॥2॥प्रभु भाई को हृदय से लगाकर मलिे। भालू और वानरों के समूह सब हर्षित हो गए। फिर हनुमान्‌जी ने वैद्य को उसी प्रकार वहाँ पहुँचा दिया, जिस प्रकार वे उस बार (पहले) उसे ले आए थे॥2॥चौपाई :यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ।अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ॥ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा।बिबिध जतन करि ताहि जगावा॥3॥यह समाचार जब रावण ने सुना, तब उसने अत्यंत विषाद से बार-बार सिर पीटा। वह व्याकुल होकर कुंभकर्ण के पास गया और बहुत से उपाय करके उसने उसको जगाया॥3॥जागा निसिचर देखिअ कैसा।मानहुँ कालु देह धरि बैसा॥कुंभकरन बूझा कहु भाई।काहे तव मुख रहे सुखाई॥4॥कुंभकर्ण जगा (उठ बैठा) वह कैसा दिखाई देता है मानो स्वयं काल ही शरीर धारण करके बैठा हो। कुंभकर्ण ने पूछा- हे भाई! कहो तो, तुम्हारे मुख सूख क्यों रहे हैं?॥4॥कथा कही सब तेहिं अभिमानी।जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥तात कपिन्ह सब निसिचर मारे।महा महा जोधा संघारे॥5॥उस अभिमानी (रावण) ने उससे जिस प्रकार से वह सीता को हर लाया था (तब से अब तक की) सारी कथा कही। (फिर कहा-) हे तात! वानरों ने सब राक्षस मार डाले। बड़े-बड़े योद्धाओं का भी संहार कर डाला॥5॥दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी।भट अतिकाय अकंपन भारी॥अपर महोदर आदिक बीरा।परे समर महि सब रनधीरा॥6॥दुर्मुख, देवशत्रु (देवान्तक), मनुष्य भक्षक (नरान्तक), भारी योद्धा अतिकाय और अकम्पन तथा महोदर आदि दूसरे सभी रणधीर वीर रणभूमि में मारे गए॥6॥दोहा :सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बलिखान।जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥62॥तब रावण के वचन सुनकर कुंभकर्ण बलिखकर (दुःखी होकर) बोला- अरे मूर्ख! जगज्जननी जानकी को हर लाकर अब कल्याण चाहता है?॥62॥चौपाई :भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा।अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥अजहूँ तात त्यागि अभिमाना।भजहु राम होइहि कल्याना॥1॥हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्यों जगाया? हे तात! अब भी अभिमान छोड़कर श्री रामजी को भजो तो कल्याण होगा॥1॥हैं दससीस मनुज रघुनायक।जाके हनूमान से पायक॥अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई।प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई॥2॥हे रावण! जिनके हनुमान्‌ सरीखे सेवक हैं, वे श्री रघुनाथजी क्या मनुष्य हैं? हाय भाई! तूने बुरा किया, जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं सुनाया॥2॥कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक।सिव बिरंचि सुर जाके सेवक॥नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा।कहतेउँ तोहि समय निरबाहा॥3॥हे स्वामी! तुमने उस परम देवता का विरोध किया, जिसके शिव, ब्रह्मा आदि देवता सेवक हैं। नारद मुनि ने मुझे जो ज्ञान कहा था, वह मैं तुझसे कहता, पर अब तो समय जाता रहा॥3॥अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई।लोचन सुफल करौं मैं जाई॥स्याम गात सरसीरुह लोचन।देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥4॥हे भाई! अब तो (अन्तिम बार) अँकवार भरकर मुझसे मलि ले। मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूँ। तीनों तापों को छुड़ाने वाले श्याम शरीर, कमल नेत्र श्री रामजी के जाकर दर्शन करूँ॥4॥दोहा :राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक।रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक॥63॥श्री रामचंद्रजी के रूप और गुणों को स्मरण करके वह एक क्षण के लिए प्रेम में मग्न हो गया। फिर रावण से करोड़ों घड़े मदिरा और अनेकों भैंसे मँगवाए॥63॥चौपाई :महिषखाइ करि मदिरा पाना।गर्जा बज्राघात समाना॥कुंभकरन दुर्मद रन रंगा।चला दुर्ग तजि सेन न संगा॥1॥भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह वज्रघात (बिजली गिरने) के समान गरजा। मद से चूर रण के उत्साह से पूर्ण कुंभकर्ण कलिा छोड़कर चला। सेना भी साथ नहीं ली॥1॥देखि बिभीषनु आगें आयउ।परेउ चरन निज नाम सुनायउ॥अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो।रघुपति भक्त जानि मन भायो॥2॥उसे देखकर विभीषण आगे आए और उसके चरणों

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,। 🌹भगवान का हर विधान मंगलकारी होता है.🌹पत्थर का स्वभाव है डूब जाना, अगर कोई पत्थर का आश्रय लेकर जल में उतरे तो वह भी पत्थर के साथ डूब जाता है। वानर का स्वभाव चीजों को तोड़ने वाला होता है, जोड़नेवाला नहीं। समुद्र स्वभाववश सबकुछ स्वयं में समा लेनेवाला है। नदियों के जल को स्वयं में समा लेनेवाला। वह किसी को कुछ सरलता से कहाँ देनेवाला है! तीनों ने रामकाज के लिए अपने स्वभाव से विपरीत कार्य कियापत्थर पानी में तैरने लग गए, वानरसेना ने सेतु बंधन किया, सागर ने सीना चीरकर मार्ग दिया और स्वयं सेतुबंधन में मदद की।इसी प्रकार जीवन में भी यदि कोई कार्य हमारे स्वभाव से विपरीत हो रहा हो पर वह सबके भले में हो तो जानना चाहिये कि शायद श्रीराम हमारे जीवन में कोई एक और सेतु बंधन कार्य कर रहे है। भगवान का हर विधान मंगलकारी होता है।🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब जय सीताराम जी 🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹,

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