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“रामायण” क्या है?? अगर कभी पढ़ो और समझो तो आंसुओ पे काबू रखना.......रामायण का एक छोटा सा वृतांत है, उसी से शायद कुछ समझा सकूँ... 😊एक रात की बात हैं, माता कौशल्या जी को सोते में अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट सुनाई दी। नींद खुल गई, पूछा कौन हैं ?मालूम पड़ा श्रुतकीर्ति जी (सबसे छोटी बहु, शत्रुघ्न जी की पत्नी)हैं ।माता कौशल्या जी ने उन्हें नीचे बुलाया |श्रुतकीर्ति जी आईं, चरणों में प्रणाम कर खड़ी रह गईंमाता कौशिल्या जी ने पूछा, श्रुति ! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही हो बेटी ? क्या नींद नहीं आ रही ?शत्रुघ्न कहाँ है ?श्रुतिकीर्ति की आँखें भर आईं, माँ की छाती से चिपटी, गोद में सिमट गईं, बोलीं, माँ उन्हें तो देखे हुए तेरह वर्ष हो गए ।उफ ! कौशल्या जी का ह्रदय काँप कर झटपटा गया ।तुरंत आवाज लगाई, सेवक दौड़े आए । आधी रात ही पालकी तैयार हुई, आज शत्रुघ्न जी की खोज होगी, माँ चली ।आपको मालूम है शत्रुघ्न जी कहाँ मिले ?अयोध्या जी के जिस दरवाजे के बाहर भरत जी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला हैं, उसी शिला पर, अपनी बाँह का तकिया बनाकर लेटे मिले !! माँ सिराहने बैठ गईं, बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्न जी नेआँखें खोलीं, माँ !उठे, चरणों में गिरे, माँ ! आपने क्यों कष्ट किया ? मुझे बुलवा लिया होता ।माँ ने कहा, शत्रुघ्न ! यहाँ क्यों ?"शत्रुघ्न जी की रुलाई फूट पड़ी, बोले- माँ ! भैया राम जी पिताजी की आज्ञा से वन चले गए, भैया लक्ष्मण जी उनके पीछे चले गए, भैया भरत जी भी नंदिग्राम में हैं, क्या ये महल, ये रथ, ये राजसी वस्त्र, विधाता ने मेरे ही लिए बनाए हैं ?माता कौशल्या जी निरुत्तर रह गईं ।देखो क्या है ये रामकथा...यह भोग की नहीं....त्याग की कथा हैं..!!यहाँ त्याग की ही प्रतियोगिता चल रही हैं और सभी प्रथम हैं, कोई पीछे नहीं रहा... चारो भाइयों का प्रेम और त्याग एक दूसरे के प्रति अद्भुत-अभिनव और अलौकिक हैं ।"रामायण" जीवन जीने की सबसे उत्तम शिक्षा देती हैं ।भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी सीता माईया ने भी सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया..!!परन्तु बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मण जी कैसे राम जी से दूर हो जाते! माता सुमित्रा से तो उन्होंने आज्ञा ले ली थी, वन जाने की.. परन्तु जब पत्नी “उर्मिला” के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो सोच रहे थे कि माँ ने तो आज्ञा दे दी, परन्तु उर्मिला को कैसे समझाऊंगा.??क्या बोलूँगा उनसे.?यहीं सोच विचार करके लक्ष्मण जी जैसे ही अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिला जी आरती का थाल लेके खड़ी थीं और बोलीं- "आप मेरी चिंता छोड़ प्रभु श्रीराम की सेवा में वन को जाओ...मैं आपको नहीं रोकूँगीं। मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा न आये, इसलिये साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी।"लक्ष्मण जी को कहने में संकोच हो रहा था.!!परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिला जी ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया..!!वास्तव में यहीं पत्नी का धर्म है..पति संकोच में पड़े, उससे पहले ही पत्नी उसके मन की बात जानकर उसे संकोच से बाहर कर दे.!!लक्ष्मण जी चले गये परन्तु 14 वर्ष तक उर्मिला ने एक तपस्विनी की भांति कठोर तप किया.!!वन में “प्रभु श्री राम माता सीता” की सेवा में लक्ष्मण जी कभी सोये नहीं , परन्तु उर्मिला ने भी अपने महलों के द्वार कभी बंद नहीं किये और सारी रात जाग जागकर उस दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया.!!मेघनाथ से युद्ध करते हुए जब लक्ष्मण जी को “शक्ति” लग जाती है और हनुमान जी उनके लिये संजीवनी का पर्वत लेके लौट रहे होते हैं, तो बीच में जब हनुमान जी अयोध्या के ऊपर से गुजर रहे थे तो भरत जी उन्हें राक्षस समझकर बाण मारते हैं और हनुमान जी गिर जाते हैं.!!तब हनुमान जी सारा वृत्तांत सुनाते हैं कि, सीता जी को रावण हर ले गया, लक्ष्मण जी युद्ध में मूर्छित हो गए हैं।यह सुनते ही कौशल्या जी कहती हैं कि राम को कहना कि “लक्ष्मण” के बिना अयोध्या में पैर भी मत रखना। राम वन में ही रहे.!!माता “सुमित्रा” कहती हैं कि राम से कहना कि कोई बात नहीं..अभी शत्रुघ्न है.!!मैं उसे भेज दूंगी..मेरे दोनों पुत्र “राम सेवा” के लिये ही तो जन्मे हैं.!!माताओं का प्रेम देखकर हनुमान जी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। परन्तु जब उन्होंने उर्मिला जी को देखा तो सोचने लगे कि, यह क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं?क्या इन्हें अपनी पति के प्राणों की कोई चिंता नहीं?हनुमान जी पूछते हैं- देवी! आपकी प्रसन्नता का कारण क्या है? आपके पति के प्राण संकट में हैं...सूर्य उदित होते ही सूर्य कुल का दीपक बुझ जायेगा। उर्मिला जी का उत्तर सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणी उनकी वंदना किये बिना नहीं रह पाएगा.!!उर्मिला बोलीं- "मेरा दीपक संकट में नहीं है, वो बुझ ही नहीं सकता.!!रही सूर्योदय की बात तो आप चाहें तो कुछ दिन अयोध्या में विश्राम कर लीजिये, क्योंकि आपके वहां पहुंचे बिना सूर्य उदित हो ही नहीं सकता.!!आपने कहा कि, प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर बैठे हैं..!जो “योगेश्वर प्रभु श्री राम” की गोदी में लेटा हो, काल उसे छू भी नहीं सकता..!!यह तो वो दोनों लीला कर रहे हैं..मेरे पति जब से वन गये हैं, तबसे सोये नहीं हैं..उन्होंने न सोने का प्रण लिया था..इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं..और जब भगवान् की गोद मिल गयी तो थोड़ा विश्राम ज्यादा हो गया...वे उठ जायेंगे..!!और “शक्ति” मेरे पति को लगी ही नहीं, शक्ति तो प्रभु श्री राम जी को लगी है.!!मेरे पति की हर श्वास में राम हैं, हर धड़कन में राम, उनके रोम रोम में राम हैं, उनके खून की बूंद बूंद में राम हैं, और जब उनके शरीर और आत्मा में ही सिर्फ राम हैं, तो शक्ति राम जी को ही लगी, दर्द राम जी को ही हो रहा.!!इसलिये हनुमान जी आप निश्चिन्त होके जाएँ..सूर्य उदित नहीं होगा।"राम राज्य की नींव जनक जी की बेटियां ही थीं... कभी “सीता” तो कभी “उर्मिला”..!! भगवान् राम ने तो केवल राम राज्य का कलश स्थापित किया ..परन्तु वास्तव में राम राज्य इन सबके प्रेम, त्याग, समर्पण और बलिदान से ही आया .!!जिस मनुष्य में प्रेम, त्याग, समर्पण की भावना हो उस मनुष्य में राम हि बसता है... कभी समय मिले तो अपने वेद, पुराण, गीता, रामायण को पढ़ने और समझने का प्रयास कीजिएगा .,जीवन को एक अलग नज़रिए से देखने और जीने का सऊर मिलेगा .!!"लक्ष्मण सा भाई हो, कौशल्या माई हो,स्वामी तुम जैसा, मेरा रघुराइ हो.. नगरी हो अयोध्या सी, रघुकुल सा घराना हो, चरण हो राघव के, जहाँ मेरा ठिकाना हो..हो त्याग भरत जैसा, सीता सी नारी हो, लव कुश के जैसी, संतान हमारी हो.. श्रद्धा हो श्रवण जैसी, सबरी सी भक्ति हो, हनुमत के जैसी, निष्ठा और शक्ति हो... "ये रामायण है, पुण्य कथा श्री राम की।कृपया आगे सभी को भेजें।!! जय जय श्री राम !!,

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ज्ञान क्या है? By वनिता कासनियां पंजाब वेद, उपनिषद, गीता, श्री आदि शंकराचार्य जी, प्रभु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, गुरू नानक देव जी, संत कबीरदास जी, प्रभु जीसस क्राइस्, प्रभु गौतमबुद्ध जी व सम्पूर्ण विश्व के धर्मों का सार यही कहता हैं कि ज्ञानी व्यक्ति या स्थितप्रज्ञा की अवस्था वाले व्यक्ति में यह सभी सूक्ष्म लक्षण होते हैं: ⤵️कर्तव्य निभाने से सम्बंधित लक्षण:प्रतिदिन जितना सम्भव हो सके परमात्मा के प्रति ध्यान-उपासना का निरन्तर एकान्त में भक्ति व प्रेमपूर्वक अभ्यासगृहस्थ जीवन व जीविका अर्जित के सभी कार्यों को सदैव पूर्ण ब्रह्मा की प्रेमभरी सतत याद में डूबे रह कर (जितना सम्भव हो सके) एकान्त में, सेवा भाव में तत्पर रहते हुए निभानासदा सत्य बोलने का साहस होनासमस्त प्राणियों में पूर्ण परमात्मा श्रीकृष्ण को वर्तमान जानना और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति अद्रोह का भाव रखना। [ईशवर की भक्ति व प्रेम से हृदय (आत्मा) पर लगातार ध्यान साधना से समस्त प्राणियों के प्रति स्वतः ही मन में संवेदना, दया व करूणा उत्पन्न हो जाती है।]स्वभाव व व्यवहारिक लक्षण:इनके अलावा प्रारब्धा (संस्कारों या) कर्मों के अनुकूल मिलने वाले हानि-लाभ में सन्तोष रखनास्त्री और पुत्र आदि में ममता व लगाव शून्य होनाअहङ्कार और क्रोध से रहित होनासरल व मृदु भाषी होनाप्रसन्न-चित्त रहनाअपनी निन्दा-स्तुति के प्रति विरक्त रहते हुए सदा एक समान रहनाजीवन के सुख दुःख, उतार-चढ़ाव और शीतोष्णादि द्वन्द्वों को सदैव समर्पण भाव से शान्तिपूर्ण सहन करनाआपत्तियों व कठिनाइयों से भय न करनानिद्रा, आहार और विहार आदि से अनासक्त रहनाव्यर्थ वार्तालाप व गतिविधियों के लिये स्वयं को अवकाश न देनाहृदय के भीतर की अवस्था के लक्षण:श्रेष्ठतम गुरू के मार्गदर्शन के अनुसार निष्ठा के साथ ध्यान-साधना करना; ईश्वर के अनन्त प्रेम के स्त्रोत से अटूट जुड़ाव का लगातार प्रयास व अहसास करना ताकि उपरोक्त लक्षण हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बन सके।श्रीकृष्ण के सतत-स्मरण से अर्जित प्रबोध-सुधाकर (दिव्य आलोक के परम सत्य) में निरन्तर शान्तचित्त रहनाकोई भगवत्सम्बन्धी गीत व भजन के गान अथवा बाँसुरी (वाद्ययन्त्र द्वारा राग) बजाने या सुनने पर हृदय में एक ही समय में एक साथ आनन्द का आविर्भाव और सात्त्विक भावों का प्रौढ़ उद्रेक हो जाना।जीवात्मा मन के पूर्वाग्रही अज्ञान (संस्कारों के आवरणों) से मलीन है। जीवात्मा का स्वयं के दिव्य स्वरूप (आत्मा पर) प्रेमपूर्वक सतत ध्यान करने पर प्राप्त होने वाले दिव्य ज्ञान से वह पुनः निर्मल होती है आत्मज्ञान के ज्ञानाभ्यास से अपने आप अज्ञान का नाश हो जाता है जैसे सोते समय स्वप्न सच्चा सा मालूम होता है और जागने के बाद झूठा लगता है, वैसे ही अज्ञान व मलिन दशा में संसार सच्चा व ज्ञान होने तथा जानने पर झूठा लगने लगता है।श्री आदि शंकराचार्य जी आत्मबोध के श्लोक 32 से 34 में कहते हैं:जन्म, बुढ़ापा, दुबला-मोटा होना, रोग, मृत्यु आदि सिर्फ़ देह में है, आत्मा में नहीं है। आत्मा उनसे अन्य (सूक्ष्म दिव्य शरीर) है और बिना इन्द्रियवाला है। इससे शब्द, स्पर्श, स्वाद आदि विषयों का संग भी नहीं है। और बिना मन वाला होने से राग, द्वेष, दुःख, भय आदि भी आत्मा में नहीं है ॥32॥इस आत्मा से प्राण, मन व सब इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, अग्नि, जल और संसार को धारण करनेवाली पृथ्वी उत्पन्न होती है ॥33॥आत्मा सत्, रज, तम गुणों से रहित, सदैव रहनेवाला, जाना-आना आदि क्रिया से रहित, संकल्प विकल्प से रहित, माया के दोषों से रहित; तथा सभी षट् विकारों: जन्म, शरीर-वृद्धि, बाल्यावस्था, प्रौढ़ता, वार्द्धक्य, व मृत्यु; तथा काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अरू (ज़ख़्म, रोग), व मत्सर (ईर्ष्या-द्वेष) से रहित, निराकार, सदा मुक्तस्वरूप निर्मल है ॥34॥श्री आदि शंकराचार्य जी के अनुसार:अन्तःकरण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी के चरणकमलों की भक्ति के बिना कभी शुद्ध नहीं हो सकता। जैसे वस्त्र को खारयुक्त जल से शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार चित्त को भक्ति से निर्मल किया जा सकता है ।बाइबल में सेंट थियोडोरोस कहते हैं: "इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता जिसकी पिता स्वरूप प्रभु ने इतनी अच्छी तरह से पुष्टि की है, कि मनुष्य को मन में लगातार केवल इस विचार को बनाये रखने के अलावा कहीं और आराम नहीं मिलता है कि उसके हृदय के भीतर बसे (आराध्य) परमात्मा और वह (उपासक आत्मा) अकेले मौजूद हैं; और इसलिए वह अपनी बुद्धि को संसार की किसी भी अन्य चीज के लिए बिल्कुल भी भटकने नहीं देता है; बल्कि वह पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए तरसता है, सिर्फ़ उसके लिए। केवल ऐसे व्यक्ति को ही सच्चा सुख व आराम मिलेगा और अनगिनत कामनाओं के निर्मम जुनून से मुक्ति मिलेगी।” (द फिलोकलिया v.II. p. 34, 91)हमारे मन व बुद्धि जब दिव्य संतों के वचनों से प्रभावित होते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि जब कोई मनुष्य पूर्ण परमात्मा (सर्वज्ञाता, सर्वोपरि व सर्वव्यापक) को जानता है तो ऐसा कुछ भी शेष नहीं रह जाता है जो उसे वास्तव में जानने की आवश्यकता हो। क्योंकि पूर्ण परमात्मा को जानने का अर्थ है सब कुछ जान लेना।इसलिए, सच्चा ज्ञान खुद को (हृदय की नितांत गहराइयों में स्वयं को खो देने के पश्चात) प्रेम व भक्तिसागर की रहस्यमय असीम शांति में डूबाने पर ही प्राप्त होता है।इस प्रकार, जब मनुष्य को अपने भीतर ईश्वर का पूर्ण ज्ञान होता है, तो उसकी बुद्धि को ज्ञान की तलाश में नहीं भागना पढ़ता।और जब किसी व्यक्ति के पास ऐसा विवेक (अंतर्ज्ञान) हो अर्थात् विश्लेणात्मक तर्क के बिना सीधे अनन्त दिव्य ज्ञान के स्तोत्र से जानने की क्षमता हो; जब कोई इस तरह के अतुलनीय दिव्य ज्ञान का अधिकारी हो जाता तो कुछ भी ओर जानना बेमानी हो जाता है।जब तक किसी व्यक्ति का मन चंचल है; उसके मन में विचार दौड़ते रहते है, तो वह इस बात का प्रतीक है कि उसने अभी तक अपरिहार्य रूप से अपने उत्कृष्ट आत्मिक पहलुओं या स्वयं के उच्च (दिव्य) स्वभाव में बसना यानि अपनी आत्मा में आराम करना नहीं सीखा है।सेंट मैक्सिमोस इस तर्क को स्पष्ट करते हुए कहते हैं: “एक व्यक्ति का मन व बुद्धि जब अपने शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करके स्वयं को मुक्त कर लेती है तो उसे खुशी और दर्द का अनुभव नहीं होता है, पर मनुष्य ऐसा तब कर पाता है जब वह अपने मन व बुद्धि को परमात्मा से बांधता है या एकजुट कर लेता है; उस पूर्ण परमात्मा को चाहता है जो प्यार, लगाव व इच्छा का वास्तविक लक्ष्य व सर्वश्रेष्ठ सुपात्र है।“ (द फिलोकलिया (The Philokalia) v.II, p.175, 54)निस्वार्थ प्रेम में ईश्वर की याद में मन व बुद्धि का भक्ति मे डूबे रह कर खो जाने में ईश्वरीय शांति मिली है; प्रभु श्रीकृष्ण ने भगवत गीता के अध्याय 2:58 के चिंतनशील मणि रूपी श्लोक में इस स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है:जिस प्रकार कछुवा अपने बचाव हेतु बार-बार अपने अंगो को संकुचित करके अपने खोल के भीतर कर लेता है, उसी तरह योगी, भक्त या आत्मसिद्ध व्यक्ति अपने मन व इन्द्रियों (ध्यान) को भक्तिभाव द्वारा इन्द्रियविषयों से खीँच कर पूर्ण ब्रह्मा की पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर कर लेता है |तात्पर्यः अधिकांश व्यक्ति अपनी इन्द्रियों व मन के दास बने रहते हैं और इन्द्रियों के ही कहने पर चलते हैं। इन्द्रियों की तुलना विषैले सर्पों से की गई है; मानव का मन व इन्द्रियाँ सदैव अत्यन्त स्वतंत्रतापूर्वक तथा बिना किसी नियन्त्रण के कर्म करना चाहती हैं। योगी या भक्त का इन सर्पों को वश में करने के लिए, ईश्वर भक्ति की धुन में अत्यन्त प्रबल होना अति आवश्यक है। वह उन्हें कभी भी कार्य करने की छूट नहीं देता।जैसे कछुआ किसी भी समय अपने अंग समेट लेता है उसी तरह भक्त (ज्ञानी) परमात्मा के स्मरण में अपने मन व सभी इंद्रियों को इंद्रियों के आनंद के आकर्षण से तुरंत वापस खींच लेता है। और पुनः वह विशिष्ट उद्देश्यों से आवश्यकतानुसार उन्हें प्रकट कर लेता है तभी वह सदा कृष्णभावनामृत में स्थिर रह पाता है। (BG-Ch-2, V-58)http://vnita40.blogspot.com/2022/08/19-yoga-for-knee-pain-how-yogasana.htmlगलातियनस (Galatians) 5:24 के अनुसार: "वे सभी जो ईसा मसीह (ईश्वर/God) के हैं, उनसे सच्चा प्रेम करते हैं उन्होंने अपने निम्न स्वयं के साथ, अपने सभी जुनूनों और इच्छाओं को क्रूस पर चढ़ाया है।"गलातियनस 3:28 कहता है: "कोई यहूदी या ग्रीक नहीं है; कोई गुलाम या स्वतंत्र नहीं है; न ही कोई पुरुष या महिला है - क्योंकि सभी यीशु मसीह में एक है; वे सभी एक परमात्मा का (समानुरूप से) अभिन्न अंश हैं।”बाइबल के 11:24 में सेंट ल्यूक ने बड़ी ख़ूबसूरती से कहा है: "जब कोई (संस्कारों के आवरणों से ढकी) अशुद्ध प्यासी आत्मा मन के ज़रिए शान्ति व सुकून की तलाश में बाहर झांकती है तो उसे भौतिक जगत में कहीं भी दिव्यता का पवित्र जल नहीं मिलता, उसे जलरहित देशों से गुजरना पढ़ता है; वह चिरस्थायी आराम करने के लिए जगह तलाशती रहती है, और जब उसे कहीं भी शान्ति, सूकून व आराम नहीं मिलता है तो आखिरकार वह निर्णय लेती है कि मैं अपने घर वापस जाउगी जहां से मैं आयी हूँ।”इफिसियों (Ephesians) 4: 22-24 में कहा गया है कि: “हमें अपने पुराने स्व को (अर्थात अपनी पुरानी सोच व पूर्वाग्रहों को, पुरानी आदतों, पसन्द-नापसंदों आदि को) सदा अलग रखना चाहिये, क्योंकि वह हमारे पुराने (पिछले जन्मों के) तरीकों से संबंधित है और वह पुरानी भ्रामक इच्छाओं व धारणाओं का पालन करके भ्रष्ट हो चुकी है। तथा वह केवल हमारे मन का आत्मा पर ध्यान व लगाव करने से नवीनीकृत होती हैं; केवल तभी मनुष्य अपने (निम्न) स्वयं को परिवर्तित कर पुनः (उच्च) दिव्य मानव में ढाल सकता है। — मानव की वह उच्चतम दिव्य अवस्था जो परमेश्वर के दिव्य सनातनी सिद्धांतों पर, सत्य की पवित्रता व सार्वभौमिक न्याय पर अवधारित होती है।”श्री आदि शंकराचार्य जी ने आत्मबोध में बताया है कि ऐसी प्रतिदिन की अभ्यासवाली यह वासना कि मैं ब्रह्म ही हूँ अज्ञान के विक्षेपों को दूर करती है जैसे रसायन रोगों को ॥37॥ एकान्त स्थान में आसन पर बैठ वैराग्यवान् व जितेन्द्रिय हो एकाग्रचित्त कर उस अनन्त अद्वितीय परमात्मा का ध्यान करे ॥38॥वे आगे लिखते हैं कि: सुन्दर बुद्धिवाला ज्ञानी पुरुष अंतर्दृष्टि वाली बुद्धि से सब देखते हुए संसार को आत्मा में ही लीन करके सदा निर्मल आकाश की तरह एक परमात्मा का ही ध्यान करता है ॥39॥ आत्मज्ञानी पुरुष सब नामवर्ण (self-identity) आदि छोड़के पूरे चैतन्यानन्द रूप से रहता है ॥40॥श्री आदि शंकराचार्य जी कहते हैं कि: ज्ञानी व्यक्ति बाहर के झूठे सुखों का लगाव छोड़ आत्मसुख से युक्त अपने अंतस में ही घड़े में रक्खे दीपक की तरह साफ प्रकाशता है ॥51॥ सब कुछ जानता हुआ भी योगी पुरूष अज्ञानी की तरह रहता है और बिना लगाव के वायु की तरह आचरण करता है ॥52॥ईश्वरीय मनन में रहने वाला ज्ञानी व योगी उपाधियों से अलगाव बनाये रख कर भगवान् में पूरी रीति से लीन होता है जैसे जल में जल प्रकाश में प्रकाश और अग्नि में अग्नि ॥53॥ जिस आत्म लाभ से अधिक दूसरा लाभ नहीं जिस सुख से अधिक दूसरा सुख नहीं जिस ज्ञान से अधिक दूसरा ज्ञान नहीं वही ब्रह्मा है ऐसा विचार अपने मन व हृदय में बनाये रखता है ॥54॥अंत में श्री आदि शंकराचार्य जी कहते हैं कि: आत्मा ज्ञानरूपी सूर्य है। आकाशरूपी हृदय में उदय हो अन्धकाररूपी अज्ञान को दूर कर सबमें व्याप्त होकर सबको धारण करते व सबको प्रकाशित करते सुशोभित होता है ॥67॥जो विचार त्यागी पुरूष स्थान समय आदि को बिना देखे शीत उष्ण आदि के दूर करनेवाले सबमें रहने वाले माया रहित नित्य आनन्दरूप अपने आत्मतीर्थ को सेवन करता है वह सबकुछ जाननेवाला, सबमें रहता हुआ मुक्त होता है ॥68॥निष्कर्ष रूप में ज्ञान को शाब्दिक रूप में व्यक्त करना कठिन है चूँकि ज्ञान अनुभव से प्राप्त होता है अतः उसका व्यवहारिक रूप से ही प्रकटीकरण हो सकता है।अतः ज्ञान का अर्थ हुआ: मन, इन्द्रियों और शरीर द्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित होना।तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दन परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दन वासुदेव (पूर्ण परमात्मा) के सिवाय हृदय व मन में अन्य किसी के भी होनेपन का भाव न रहना।तथा श्रद्धा व भक्तिपूर्वक मन, वाणी और शरीर सब प्रकार से ईश्वर के शरण होकर; गृहस्थाश्रम में ही रहते हुए, निम्नलिखित तरीक़े से प्रेमपूर्वक निरन्तर पूर्ण परमात्मा का “सतत स्मरण” करना तथा उनके दिव्य गुणों और दिव्य स्वरूप को प्रभावसहित अपने आचरण में उतारना। ⤵️http://vnitak.blogspot.com/2022/08/check-this-post-from.htmlईश्वर करे आपका जीवन दिव्य प्रेम, ज्ञान, शान्ति व परमानन्द से भर जाये! आमीन! आमीन! आमीन!

ज्ञान क्या है? By वनिता कासनियां पंजाब वेद, उपनिषद, गीता, श्री आदि शंकराचार्य जी, प्रभु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, गुरू नानक देव जी, संत कबीरदास जी, प्रभु जीसस क्राइस्, प्रभु   गौतमबुद्ध जी व सम्पूर्ण विश्व के  धर्मों का सार  यही कहता हैं कि  ज्ञानी  व्यक्ति या  स्थितप्रज्ञा  की अवस्था वाले व्यक्ति में यह सभी  सूक्ष्म लक्षण  होते हैं: ⤵️ कर्तव्य निभाने   से सम्बंधित लक्षण: प्रतिदिन जितना सम्भव हो सके परमात्मा के प्रति ध्यान-उपासना का निरन्तर एकान्त में भक्ति व प्रेमपूर्वक अभ्यास गृहस्थ जीवन व जीविका अर्जित के सभी कार्यों को सदैव पूर्ण ब्रह्मा की प्रेमभरी सतत याद में डूबे रह कर (जितना सम्भव हो सके) एकान्त में, सेवा भाव में तत्पर रहते हुए निभाना सदा सत्य बोलने का साहस होना समस्त प्राणियों में पूर्ण परमात्मा श्रीकृष्ण को वर्तमान जानना और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति अद्रोह का भाव रखना। [ईशवर की भक्ति व प्रेम से हृदय (आत्मा) पर लगातार ध्यान साधना से समस्त प्राणियों के प्रति स्वतः ही मन में संवेदना, दया व करूणा उत्पन्न हो जाती है।] स...

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🌹 #दुःख में स्वयं की एक अंगुली       आंसू पोंछती है #और सुख में दसो अंगुलियाँ           ताली बजाती है🌹 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब 🌹 #जब स्वयं का शरीर ही ऐसा            करता है तो #दुनिया से गिला-शिकवा          क्या करना...!!🌹          🌹 #दुनियाँ की सबसे       अच्छी किताब हम स्वयं हैं       #खुद को समझ लीजिए               #सब समस्याओं का          समाधान हो जाएगा...🌹                                                                                             बाल वनिता महिला आश्रम               ...