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आत्मा को मुक्ति कैसे मिलती है?आत्मा तो नित्य मुक्त है.मोक्ष जीव बने आत्मा की है.पढ़े मेरा पूर्व लेख.अध्याय 24मुक्ति : By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबहम आत्मा हैं, परमेश्वर का अंश हैं *। परंतु हैं माया के बंधन में। इस बंधन का कारण श्रीमद्भागवत में राजा निमि को योगेश्वर कवि ने पुरुष/आत्मा का ईश्वर से विमुख होना बताया है। पुरुष/आत्मा जब ईश्वर से विमुख होता है तब ईश्वर की माया उस पर हावी हो जाती है और वह ‘मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ ’- ऐसा मानने लग जाता है और भ्रम में पड़ जाता है।***माया से संबंध होने पर आत्मा को जीव शब्द से जाना जाता है और यह मन प्रधान होता है। जीव वह है जो शरीर धारण करता है। जीव अनादि काल से बंधन में है, भ्रम में है। ऐसा कहना कि यह पहले बंधन में नहीं था मुक्त था और एक दिन बंधन में आ गया असत्य होगा। इसका अभिप्राय तो यही निकलेगा कि मुक्त होने के पश्चात पुनः बंधन आ जाता है ,तो फिर मुक्ति का कोई अर्थ ही नहीं रहेगा !मुक्ति क्या है? जन्म-मरण के चक्र से अवकाश को मुक्ति कहते हैं। साधारण भाषा में इसे परमसत्ता में लीन हो जाना या भगवत धाम ( ईसाई इसे हेवन, heaven कहते हैं और मुसलमान जन्नत) में हमेशा के लिए चले जाना और मृत्यु लोक में लौटकर नहीं आना समझा जाता है। सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष का अपने स्वरूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष है। @ न्याय-दर्शन सुख प्राप्ति स्वीकार नहीं करता क्योंकि सुख का राग से संबंध है और राग कारण है बंधन का। दुख और सुख गुण हैं, मुक्त होने पर आत्मा सभी गुणों से मुक्ति पा जाता है। मीमांसा कहती है, दृश्य जगत के साथ आत्मा के संबंध का विनाश ही मोक्ष है। अद्वैत वेदांत के अनुसार स्वयं स्वरूप में अवस्थान को मोक्ष कहते हैं। ज्यादातर दर्शनों ने दुख-निवृत्ति पर जोर दिया है।परन्तु, भक्तगण मोक्ष को दुख-निवृत्ति व आनंद- प्राप्ति कहते हैं। आत्मा को अप्राकृत शरीर प्राप्त होता है और वह भगवान की सन्निधि का, ना समाप्त होने वाले आनंद का, सदा के लिए अनुभव करता है। भगवान के धाम में भक्तों की मुक्ति में अभेद नहीं होता, भेद रहता है। भक्त और भगवान( यानी आनंद का पर्याय) साथ-साथ अलग-अलग शरीरों में रहते हैं। भगवान का नाम ही सत्-चित्-आनंद है।आत्मा नित्यमुक्त है, फिर मुक्ति किसकी? यह आत्मा ईश्वर का अंश है और इसमें ईश्वर के सारे गुण हैं, फिर इसका बंधन कैसे? यह स्थाई है, अचल है।** फिर, आना-जाना, जन्म-मृत्यु किसका होता है?इनका उत्तर है कि वास्तव में आत्मा मुक्त है, कभी बंधन में हो ही नहीं सकती परंतु यह माया/प्रकृति से झूठा संबंध जोड़कर अपने आप को बंधन में समझता है-- शरीर और संसार को "मैं "और "मेरा " मान लेता है। इसीलिए इसका ‘जन्म-मृत्यु’ प्रतीत होता है। आत्मा शुद्ध चेतन ब्रह्म का अंश है। वह माया से संबंध स्थापित करने के कारण जीव कहलाता है। यह सब मानने पर प्रश्न उठता है कि जब आत्मा का कहीं आना-जाना होता ही नहीं है केवल प्रतीति होता है तो फिर आवागमन से छूटने का प्रयास क्यों किया जाए? जो बंधन वास्तव में है ही नहीं, उसके लिए क्या छुटकारा ? इसका समाधान है कि आत्मा तो शुद्ध है उसका आवागमन हो ही नहीं सकता। जीवात्मा के लिए ही मोक्ष के साधन बताए जाते हैं। दुख-सुख जीवात्मा को होते हैं क्योंकि, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, यह माया से संबंध जोड़े हुए हैं और अपना असली स्वरूप भूले हुए है। विद्वान लोग जीव को ही भोक्ता मानते हैं। कोई-कोई कहते हैं कि मन, बुद्धि और अहंकार ही भोग भोगते हैं। उत्तर है कि ये जड़ हैं और भोक्ता नहीं हो सकते। यह सब माया के विकार हैं और उनके रहने का स्थान है अंतः करण। इसलिए माया से संबंध जोड़ने वाला आत्मा अथवा पुरुष/जीव ही दुख और सुख को भोगता है। हम आगे जो बात कर रहे हैं वह जीव की मुक्ति की है अर्थात् मोक्ष, माया/ प्रकृति और उससे संबंध जोड़नेवाले आत्मा, जो जीवात्मा कहलाता है, का ही होता है। गीता में भी यही कहा गया है कि क्रिया प्रकृति में है और दुख-सुख का भोक्ता पुरुष है। प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति के गुणों का भोक्ता बनता है, और गुणों का संग करने के कारण ऊँची-नीची योनियों में जन्म लेता है।@@भागवत में विदुर जी का ज्ञानवर्धन करते हुए मैत्रेयजी बताते हैं कि जो आत्मा सबका स्वामी है और मुक्तस्वरूप है वही दीनता और बंधन को प्राप्त हो-- यह बात युक्ति के विरुद्ध है, और यही तो भगवान की माया है! सपने में हम अपना सिर कटना आदि देखते हैं और हमें यह सत्य प्रतीत होता है, परंतु यह सत्य नहीं है। उसी प्रकार जीव को, उसका बंधन ना होते हुए भी ऐसा लग रहा है कि वह बंधन में है। फिर प्रश्न उठता है कि आत्मा जो कि ईश्वर का अंश है उसे तो यह सब भास रहा है और वह माया के बंधन में भी है, ईश्वर इस बंधन में क्यों नहीं? इसका उत्तर भी यह है कि जैसे चंद्रमा में कोई कंपन नहीं है। जल में चंद्रमा की जो छायाँ पड़ रही है उसमें हमें कंपन नज़र आता है यदि जल में कंपन हो। चंद्रमा में यह कंपन नज़र नहीं आता। इसी तरह अपने को शरीर समझने वाले जीव को ही दुख और सुख की अनुभूति होती है, ईश्वर को नही।=भागवत में( दूसरे स्कंध के दूसरे अध्याय)दो प्रकार की मुक्तियों का वर्णन मिलता है। एक को सद्यो मुक्ति बोलते हैं क्योंकि सीधे ही मुक्त होना होता है, दूसरी क्रम मुक्ति है: एक लोक से ऊँचे लोक में फिर उच्चतर लोक में और फिर भगवान के धाम में या परमब्रह्म में लीन होना बताया गया है। सद्यो मुक्ति में योगी मन और इंद्रियों को छोड़कर ब्रह्मरंध्र से शरीर का त्याग करता है और ब्रह्म ज्योति में लीन होता है अथवा भगवत धाम को जाता है। ऐसा वे योगी ही कर सकते हैं जिन्होंने प्राणवायु पर पूरी तरह से विजय प्राप्त करली और जिनकी कोई भौतिक इच्छाएँ नहीं है। ब्रह्मरंध्र से प्राण त्यागने हेतु योगी बाकी के छः छेद-- दो आँख, दो कान दो नासिका और एक मुँह को बंद कर देता है ताकि यहीं (ब्रह्मरंध्र) से प्राण निकले। जो योगी ब्रह्मलोक में जाने की इच्छा रखता है वह अपने मन और इंद्रियों को साथ लेकर जाता है। पहले आकाशमार्ग से अग्निलोक में जाता है, फिर श्रीहरि के शिशुमार चक्र में पहुँचता है, वहाँ से महरलोक जाता है और महरलोक से ब्रह्मलोक। यहाँ पर निर्भय होकर सूक्ष्म शरीर को पृथ्वी से मिला देता है, फिर पृथ्वी को जल से, जल को अग्नि से, अग्नि से वह वायुरूप और आकाश आवरण में जाता है। श्री श्रीधर स्वामी के अनुसार दृश्य जगत का विस्तार चार अरब मील का है। इसके पश्चात अग्नि का आवरण आता है, फिर वायु का और उसके पश्चात आकाश का। यह सब आवरण अपने से पहले वाले आवरण से दस गुना विस्तार वाले होते हैं। भूतों के सूक्ष्म और स्थूल आवर्णों को पार करके अहंकार में प्रवेश करता है। अहंकार से महतत्व में और यहाँ से प्रकृतिरूप आवरण में चला जाता है। महाप्रलय के समय जब प्रकृति रूप आवरण का भी लय हो जाता है तब योगी अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है अर्थात् निरावरण हो जाता है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को लगभग ऐसा ही ज्ञान दिया है। ==जो कैवल्य मुक्ति अथवा एकत्व मुक्ति नहीं चाहते वह क्रमशः अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल-पक्ष और उत्तरायण आदि के अभिमानी देवताओं के स्वरुप को प्राप्त होते हुए अमानव पुरुष के द्वारा दिव्य अप्राकृतिक शरीर से भगवान के परमधाम को ले जाए जाते हैं। इन्हें भक्तोंवाली मुक्तियाँ-- सारूप्य, सार्ष्टि, सालोक्य, सायुज्य(?) व सामीप्य-- मिलती है।श्री गोपीनाथ कविराज का कथन है सकामियों को, जो पितृयान से जाते हैं, तो वापस आना पड़ता है। क्रम मुक्ति उनकी होती है जिनमें ज्ञान और कर्म का मिश्रण होता है। कर्म का अंश ज्यादा होने पर एक के बाद एक ऊँचे लोकों में जाना पड़ता है--- हर स्टेशन पर उतरना पड़ता है वहाँ के भोग भोगने के लिए। पूर्ण ज्ञानी को कहीं नहीं जाना पड़ता, वह सीधे ही परमब्रह्म में लीन हो जाता है (और ज्यादा विस्तार से ‘लोक परलोक’ लेख में बताया गया है) । जिनमें ज्ञान का अंश ज्यादा होता है वह सीधे ही ब्रह्मलोक में जाते हैं। इनमें से जो कम ज्ञानी होते हैं या कम अधिकार रखते हैं, उन्हें ब्रह्माजी के लोक में सालोक्य मुक्ति मिलती है, ज्यादा अधिकार वालों को सारूप्य और भी उच्च अधिकारियों को सार्ष्टि व सामीप्य और जो चरम अवस्था में होते हैं उन्हें सायुज्य मुक्ति मिलती है। महाप्रलय के समय ब्रह्मांड के नाश होने के साथ-साथ ब्रह्माजी भी समाप्त हो जाते हैं। श्री गोपीनाथजी के अनुसार, उनके (ब्रह्माजी) अंगीभूत जीव परमब्रह्म के साथ अभेद प्राप्त करते हैं। जीव अपने -अपने इष्ट देव को प्राप्त होते हैं। गणपति के भक्त गणपति को, विष्णु के भक्त विष्णु को और देवी के भक्त देवी को प्राप्त होते है। यह उन लोगों की बात कर रहे हैं जो सीधे अपने इष्ट के लोक में नहीं जाते वरण क्रमानुसार ऊपर उठते हैं अर्थात् एक के बाद एक उच्चत्तरलोकों में जाते हुए अंत में परमधाम, वैकुण्ठ आदि हो जाते हैं।अब अलग-अलग प्रकार की मुक्तियों का वर्णन वेदों से l मुक्ति के संबंध में हनुमानजी को समझाते हुए रामजी ने विभिन्न प्रकार की मुक्तियों का मुक्ति-उपनिषद में वर्णन किया है। “कपि! कैवल्यमुक्ति तो एक ही प्रकार की है, वह परमार्थ रूप है। इसके अलावा मेरे नाम स्मरण करते रहने से दुराचार में लगा हुआ मनुष्य भी सालोक्यमुक्ति को प्राप्त होता है। वहाँ से वह अन्य लोकों में नहीं जाता। काशी क्षेत्र में मरनेवाला मेरे तारकमंत्र को प्राप्त करता है और उसे वह मुक्ति मिलती है जिससे उसे आवागमन में नहीं आना पड़ता। काशी क्षेत्र में शंकरजी जीव के दाहिने कान में मेरे तारकमंत्र का उपदेश करते हैं जिससे उसके सारे पाप धुल जाते हैं और वह मेरे सारूप्य को, समान रूप को प्राप्त हो जाता है। वही सालोक्य-सारूप्य मुक्ति कहलाती है। जो एकमात्र मेरा ही ध्यान करता है वह मेरे सामीप्य को प्राप्त करता है, सदा मेरे समीप रहता है। निराकार स्वरूप का ध्यान करने वाला सायुज्यमुक्ति को प्राप्त होता है।’’समस्त प्रकार की मुक्तियों का सार श्री जयदयाल जी गोयनका समझाते हैं l भेद उपासना के अनुसार मुक्तिययाँ चार प्रकार की है: सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य --- इन तीनों में साधन में भी भेद और फल में भी भेद है। चौथी सायुज्यमुक्ति में साधन में तो भेद है पर फल में भेद नहीं होता। शरीर छोड़ने के बाद भगवान के धाम में जाकर उनके लोक में निवास करने को सालोक्य मुक्ति कहते हैं। यह वात्सल्य भाव से जो भगवान की उपासना करते हैं उन्हें प्राप्त होती है। जैसे भगवान के रुप अनेक हैं ऐसे ही लोक भी अनेक हैं। भगवतधाम या यूँ कहें नित्य धामों का सामान्य नाम वैकुंठ है। यह लोक नित्य है। यह महाप्रलय में भी नष्ट नहीं होता, ज्यों का त्यों बना रहता है। यहाँ भगवान अपने पार्षदों के साथ निवास करते हैं। इस लोक में सूर्य, चंद्र, अग्नि का प्रकाश नहीं होता है, स्वयं प्रकाश है। यह पूरी तरह अप्राकृत है। यहाँ पहुँचकर जीव वापस जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ता। जहाँ भगवान कृष्ण रूप से विराजते हैं वह गोलोक है, श्रीराम का साकेत, देवि का मणिद्वीप, शिवजी का कैलाश और इसी प्रकार भगवान के अन्य रूप अन्य लोकों में रहते हैं।भगवान के अलग-अलग रूप और लोक क्यों है? इसका समाधान यह है कि जैसा भक्त चाहता है सर्वशक्तिमान वैसा ही बन जाता है अपने भक्तों के लिए। यह सिद्धांत मुद्गल उपनिषद् में, गीता में व भागवत में ब्रह्माजी ने कृष्ण की स्तुति करते हुए बताया है। ०(इस लेखक का लेखक की साईट पर अंग्रेजी में इसी विषय पर एक लेख है- 'आई एम एज़ माय सर्वेंट थिंक्स / एक्सपैक्टस आई एम' ) । सामीप्य, दास भाव से या मधुर भाव से भगवान की उपासना करने वाले को प्राप्त होती है। वह भगवान के लोक में भगवान के समीप निवास करता है। ( प्रभुपादजी के अनुसार यह भगवान का साक्षात पार्षद् बनता है)। भगवान के धाम में जाकर भगवान का जैसा रूप पा लेना सारूप्य मुक्ति है। रूप तो भगवान जैसा हो जाता है परंतु थोड़ा-सा अंतर रहता है जैसे कि श्रीवत्स का चिह्न नहीं मिलता आदि । यह सखा भाव से भगवान की उपासना करनेवाले को प्राप्त होती है। भगवान के स्वरुप में अभेद रूप से लीन हो जाने को सायुज्य मुक्ति या एकत्व कहते हैं।कोई इसे कैवल्य मोक्ष भी कहते हैं, इसी को निर्वाण बताते हैं। जिनकी भक्ति में ज्ञान भी है और जो शांत भाव से भगवान की उपासना करते हैं, सायुज्य मुक्ति उन्हें प्राप्त होती है। ऐसे ही वैर, द्वेष और भय से भगवान को भजनेवालों को भी यही मुक्ति मिलती है।भागवत पर भी थोड़ा गौ़र करें: जय दयाल जी की बात भागवत से पूर्णता मेल नहीं खाती है। भगवान की दुश्मनी और डर से दंतवक्त्र, शिशुपाल वअन्य राजागण जैसे पौंड्रक और कंस आदि को मुक्ति मिली; परंतु, कृष्ण से बैर और भय करने के कारण इन्हें उन्हीं का, भगवान का, शरीर प्राप्त हुआ। π कृष्ण के शरीर में शिशुपाल व दंतवक्त्र तो ज्योति के रूप में समाए। यह दोनों भगवान के पार्षद् थे जय और विजय, तीन जन्मों तक लगातार भगवान से बैर साधा और फिर शाप मुक्त हो उन्हीं के लोक में चले गए, फिर से इन दोनों ने अपना पार्षद वाला शरीर प्राप्त कर लिया। अभेद रूप से परम पुरुष वैकुंठ अधिपति श्री नारायण में लीन नहीं हुए। लिहाज़ा इन दोनों की सायुज्य मुक्ति नहीं हुई। पौंड्रक को भगवान का रूप प्राप्त हुआ । भगवान के रूप ही की कंस को प्राप्ति हुआ। भृंगी-कीट के उदाहरण से तो कृष्ण का स्वरूप ही प्राप्त होना था। जिसका ध्यान किया जाता है तन्मयता से, उस का ही रूप, प्राप्त होता है, भाव चाहे कोई सा भी हो--- प्रेम, भय, बैर आदि। ऐसी सूरत में निष्कर्ष यही है कि पौंड्रक और कंस को सायुज्य मुक्ति प्राप्त नहीं हुई, हालांकि वह क्रमशः बैर और डर से कृष्ण का पूरी तन्मयता से सुमिरन करते थे। इन्हें सारूप्य प्राप्त हुआ। और भी ज्यादा गहनता से गौ़र किया जाए तो इन दोनों प्रकार की मुक्तियों में बहुत ज्यादा अंतर भी नहीं है। एक में भक्त भगवत स्वरुप हो जाता है, उसमें और भगवान में कोई भेद नहीं रहता।तो दूसरी में उसे भगवान का जैसा रूप मिल जाता है,परंतु भक्त व भगवान में भेद रहता है।पृथक होने पर भी रूप एक ही हैlसायुज्य मुक्ति के लिए वेद का कथन है कि जिस प्रकार नदियों का जल अपने नाम-रूप को छोड़कर समुद्र में मिलकर समुद्र ही हो जाता है उसी प्रकार साधक भगवान में लीन होकर भगवद्स्वरूप हो जाता है । ०० परंतु , आत्मा की सत्ता का अस्तित्व बना ही रहता है। आत्मा और परमात्मा में एकत्व हो जाता है। अभेद हो जाने से क्या होता है, इसकी कुछ कुछ झलक हमें बालक ध्रुव के वृतांत में भागवत में मिलती है। भगवान देवताओं को समझाते हैं - "इस समय मेरे साथ उसकी अभिन्न धारणा सिद्ध हो गई है इसीसे उसके प्राण निरोध से तुम सबका प्राण भी रुक गया है... मैं बालक को तप से मुक्त कर दूँगा, तुम लोग जाओ।’’ अगर यहाँ पर बालक ध्रुव की आत्मा परमात्मा में समा जाने से समाप्त हो गई थी तो भगवान उसको तप से निवृत्त करने की बात क्यों कहते हैं? एकत्व में, सायुज्य मोक्ष में, कैवल्य मोक्ष में आत्मा समाप्त नहीं होती, परंतु इस तरह परमतत्व के साथ एक हो जाती है कि दोनों अभिन्न हों, फिर भी दोनों का अस्तित्व हो। जैसे, चंदन का बुरादा पानी में मिलकर पानी नहीं बनता, बल्कि पानी से एकमेव हो जाता है।दास भाव वाले हनुमान जी को कल्पांत में सायुज्य मुक्ति मिलेगी, अध्यात्म रामायणानुसारl•योगी लोग प्राकृत ऐश्वर्य का वर्णन करते हैं। योग के द्वारा प्रकृति और पुरुष एक हो जाते हैं। यह अवस्था ईश्वर का स्वरुप है। शक्ति और शैव्यागमों के अनुसार पूरी तरह से अनंत सत्ता में सत्तावान होना, अनंत लीला का अभिनय करना ही पूर्णता को प्राप्त करना या मुक्ति पाना है। इसमें अभिनय करते ही नहीं बल्कि अभिनय देखते भी हैं, तटस्थ रूप से नहीं बल्कि भावरंजित दृष्टि से। लीलातीत में अखंड आनंद है और लीला में अनंत विचित्रता है। यही पूर्णता है--- इसमें एक साथ विश्व और विश्वातीत होने का अनुभव रहता है। बाकी की तीन मुक्तियों में--सारूप्य, सालोक्य व सामीप्य- शरीर, मंन, बुद्धि और इन्द्रियाँ रहते हैं। राजा जनक व्यास पुत्र शुकदेवजी को मुक्ति का स्वरुप समझाते हैं, महोपनिषद के द्वितीय अध्याय में - "मुक्ति की अवस्था में जीव की ना उन्नति होती है ना अवनति होती है और ना उसका लय ही होता है; वह अवस्था ना तो सत् है, ना तो असत् है और ना दूरस्थ है। उसमें ना अहंभाव है और ना पराया भाव है। विदेह, मुक्ति गंभीर स्तब्ध अवस्था होती है; उसमें ना तेज व्याप्त होता है और ना अंधकार। उसमें अनिर्वचनीय औरअभिव्यक्त ना होने वाला एक प्रकार का सत् अवशिष्ट रहता है। वह ना शून्य होता है ना आकारयुक्त, ना दृश्य होता है और ना दर्शन होता है..... इसमें भूत और पदार्थों के समूह नहीं होते-- केवल सत् अनंत रूप से अवस्थित होता है।यह अद्भुत तत्व है जिसके स्वरूप का निर्देश नहीं किया जा सकता … इसका आदि मध्य अंत नहीं होता, संकल्प हीनता होती है..।’’व्यासजी का मत है कि इस कैवल्य-मोक्ष में मन और इंद्रियाँ नहीं रहतीं। जैमिनी का मत इसके विपरीत है कि मुक्ति की अवस्था में भी मन और इंद्रियाँ बनी रहती है। इन दोनों मतों का समन्वय करते हुए शंकराचार्यजी ब्रह्मसूत्र के भाष्य में स्पष्ट करते हैं कि आत्मा सत्य संकल्प है; जब शरीरता का संकल्प करता है तब इसके पास शरीर हो जाता है, जब वह अशरीरता का संकल्प करता है तब शरीर नहीं रहता। कहने का तात्पर्य है कि आत्मा की सत्ता का कभी अभाव नहीं होता। पद्म पुराण में महामुनि का शरीर भगवान में लीन हो गया था और फिर से नारायण मुनि के रूप में प्रकट हुआ। इसी प्रकार नरसिंह पुराण में ब्राह्मण और वेश्या दोनों एक साथ भगवान ने लीन हो गए। उसके बाद पुन: पत्नी के साथ प्रहलाद के रूप में प्रकट हुए। यह कथा नरसिंह चतुर्दशी व्रत के प्रसंग में आती है। इन सबसे ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मा की सत्ता कभी समाप्त नहीं होती।इसके अलावा कोई-कोई संत समर्ष्टि मुक्ति भी बताते हैं, जिसमें ऐश्वर्य भगवान जितना भक्त को प्राप्त हो जाता है। ऊपर बताई गए सभी प्रकार की मोक्ष में भक्त भगवान जैसा ही बन जाता है; परंतु उसमें जगत को बनाने की, जगत के पालन की और जगत के संहार करने की शक्ति नहीं होती है, ना ही कर्मों के अनुसार जीवों को फल देने की। यह शक्तियाँ भगवान अपने पास ही रखते हैं ! जो भगवान के वास्तविक भक्त होते हैं वह यह सब-- पाँच मुक्तियाँ- नहीं चाहते। उन्हें तो भगवान की सेवा ही चाहिए। पाठकों को स्मरण होगा कि भागवत का आरंभ ही ऐसे होता है: "इसमें अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष के अलावा धर्म का निरूपण किया जा रहा है।” । ∆ चैतन्य महाप्रभु ने तो मोक्ष को डाकिनी बताया है। "मैं आपसे इतना ही चाहता हूँ कि जन्म-जन्मांतर आपके चरणकमलों का शुद्ध भक्त बना रहूँ.”... चैतन्य चरितामृत। यह जन्म-मृत्यु से नहीं घबराते, इन्हें तो बस भगवान का साथ चाहिए, इसके अलावा कुछ नहीं।यह सब विदेह मुक्तियाँ हैं। इसके अलावा शरीर के रहते हुए ही जीवनकाल में ही मोक्ष प्राप्त करनेवाले को जीवनमुक्त कहते हैं। जीवनमुक्त कैसा होता है? मुक्ति उपनिषद् के दूसरे अध्याय में हनुमानजी को समझाते हुए रामजी आगे बताते हैं कि जीवनमुक्ति क्या है? "हनुमन ! मैं भोक्ता हूँ, मैं कर्ता हूँ, मैं सुखी हूँ और मैं दुखी हूँ…….आदि जो ज्ञान है, वह चित् का धर्म है। यही ज्ञान क्लेश रूप होने के कारण उसके लिए बंधन का कारण हो जाता है। इस प्रकार के ज्ञान का निरोध जीवनमुक्ति है।’’ जीवनमुक्ति का वर्णन भागवत में भी है। कृष्ण उद्धव को समझाते हैं। "जीवनमुक्त पुरुष भला-बुरा कुछ काम नहीं करते, ना ही सोचते हैं, आत्मानंद में ही मग्न रहते हैं, जड़ के समान रहते हैं जैसे कोई मूर्ख हो। " कैसे मान लें कि जीवनमुक्त पुरुष कोई कार्य नहीं करते जबकि वह सब कुछ करते हुए दिखते हैं? उठते हैं, बैठते हैं, आते हैं, जाते हैं, खाते हैं, पीते हैं, सोते हैं, जागते हैं, मल त्यागते हैं, बोलते हैं…. आदि। इसका समाधान श्री जयदयाल गोयंदका ने किया है अपनी पुस्तक 'तत्व चिंतामणि' में जीव संबंधित प्रश्न- उत्तर में। उनका समझाना है कि लोकदृष्टि में जीवनमुक्त कर्म करता हुआ प्रतीत होता है। परंतु, वास्तव में उसका कर्मों से कोई संबंध नहीं होता। संबंध बिना कर्म कैसे होते हैं? उत्तर : वास्तव में वह किसी कर्म का कर्ता नहीं है। प्रारब्ध का जो भाग बचा हुआ है उसके भोग के लिए ही उसी के वेग से कुलाल के ना रहने पर भी कुला चक्र की तरह कर्ता के अभाव में भी परमेश्वर की सत्ता-स्फूर्ति से पूर्व स्वभावानुसार कर्म होते रहते हैं। परंतु, यह कर्तृत्वाभिमान से शून्य होते हैं, इसलिए किसी नए पाप या पुण्य का उत्पादन नहीं होता है। लिहाजा यह कर्म नहीं समझे जाते हैं। इसे ऐसा भी समझा जा सकता है कि धक्का देने पर पहिया घूमता है और काफी समय तक घूमता ही रहता है। धक्का समाप्त होने पर भी कुछ देर तक घूमता है और उसके बाद शांत होता है। जगतगुरुत्तम कृपालुजी ने बहुत ही सुंदर शब्दों में स्पष्ट किया है कि जीवनमुक्तों का कर्त्ता (गवर्नर(governor,)भगवान होता है। इनके द्वारा कर्म नहीं किए जाते बल्कि भगवान द्वारा ही किए जाते हैं। गीता में इन लोगों को स्थिर बुद्धिवाला, योगारूढ़, गुणातीत (ज्ञानी)और भक्त कहा गया है। ऐसे लोगों में कोई कामना नहीं होती है। यह राग, भय और क्रोध से तथा कामना से, ममता से, स्पृहा से रहित होते हैं। सुख और दुख को सम मानते हैं। जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है ऐसे ही स्थिर बुद्धि वाला इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को हटा लेता है। इन लोगों के लिए मिट्टी और सोने में कोई फ़र्क़ नहीं। चांडाल, ब्राह्मण गाय, गधा, हाथी, कुत्ता, मित्र-शत्रु, साधु-दुष्ट, दुराचारी-सदाचारी--- सब में--- परमात्मा दिखता है। ऐसे लोग ब्रह्म में स्थित रहते हैं। ऐसे महापुरुष अपने को कर्ता नहीं मानते। प्रकृति के गुण सब कार्य कर रहे हैं, ऐसा यह जानते हैं। ∆∆ भक्त को तो हर जगह भगवान श्रीकृष्ण ही नजर आते हैं। इस संसार की हर परिस्थिति, व्यक्ति और पदार्थ में --- चाहे अनुकूल हों, चाहे प्रतिकूल हों-- यह लोग सम रहते हैं, एक-सा ही मानते हैं, ना हर्षित होते है ना दुखी। “हे अर्जुन! जिस पुरुष के अंतःकरण में ‘मैं कर्त्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और संपूर्ण कर्मों में लिपायमान नहीं होती वह पुरुष इन सब प्राणियों को मारकर भी वास्तव में ना तो मारता है और ना पाप से बंधता है।××अन्य धर्म भी ऐसी बातें बताते हैं lदीवाने शम्से तब्रीज में आर ए निकलसन समझाते हैं कि खुदा से एकता हो जाने के कारण कार्य फकीर के नहीं होते वे तो खुदाई होते हैं अर्थात कर्त्ता ईश्वर होता है l जलाल उद्दीन रूमी अपने ग्रंथ मसनबी में लिखते हैं कि फकीर जिसने भगवत्प्राप्ति कर ली है उसके लिए कयामत के दिन कारनामों की किताब नहीं देखी जाती क्योंकि ऐसे लोग कुछ करते ही नहीं l उनके कर्त्ता भगवान होते हैं l बाइबिल में इसी प्रकार बताती है कि कर्त्ता भगवान है l ÷शरीर रहते हुए मुक्त होने का सबसे सरल उपाय गीता बताती है। कृष्ण की शरण में रहना, अनन्य चित्तवाला होना और हमेशा कृष्ण का स्मरण करना। सब कर्म कृष्ण की प्रसन्नता के लिए करना, कोई भी कर्म करे तो ऐसा समझना कि कृष्ण की पूजा है, फल की कोई इच्छा ना रखना और समस्त कर्म कृष्ण को अर्पण करना।कपिल भगवान की माता देवहुति के शरीर की हालत मोक्ष के पहले क्या थी इसका वर्णन भागवत में मिलता है । “वह निरंतर समाधि में रहती थीं। वह जान गईं कि विषय अनित्य हैं, सत्य नहीं है, इनसे सुख नहीं मिल सकता। उन्हें अपने शरीर की सुध भी नहीं रहती थी, जैसे जागे हुए व्यक्ति को अपने सपनों में देखे हुए शरीर की नहीं रहती। उनके शरीर का पोषण दूसरे लोग ही करते थे। उन्हें कोई दुख नहीं था इसलिए शरीर कमजोर नहीं हुआ--- शरीर पर तेज था। शरीर की रक्षा प्रारब्ध ही करता था। उन्होंने शीघ्र ही भगवान को प्राप्त कर लिया।’’ इससे यह बात साफ है कि जो लोग जीते जी ही माया के बंधन से मुक्त हो चुके होते हैं, उनका शरीर कमजोर नहीं होता हालांकि उन्हें खाने-पीने की सुध नहीं होती है। भगवान की कृपा से दूसरे लोग ही उनको खाने-पीने की सामग्री देते हैं जुटाकर और शरीर पर एक तेज होता है, कोई दुख नहीं होता हमेशा एक आनंद में रहते हैं।ऊपर हम देख चुके हैं कि श्रीराम ने हनुमान को मुक्ति उपनिषद के पहले अध्याय में उपदेश दिया है कि पापी भी यदि भगवान का नाम ले तो मुक्त हो जाता है। भगवान के नाम की महिमा अपार है। रूप ध्यान सहित नाम जप भगवत्प्राप्ति का, मुक्तिका( चारों प्रकार की मुक्ति जो भक्तों को मिलती हैं जिसका वर्णन ऊपर किया गया है)/ व अनंत काल के लिए भगवान की सेवा की प्राप्ति का, जिसे भक्त समस्त प्रकार के मोक्ष ठुकराकर माँगते हैं, सबसे सहज साधन है। चेतन महाप्रभु ने मुक्ति को डाकिनी बताया। भक्त भगवान से एकत्व नहीं चाहते, भक्त प्रेम चाहते हैं। प्रेम में दो का होना जरूरी है-- एक प्रेम करने वाला और एक वो जिससे प्रेम किया जाए। जीव को चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण का नित्य दास बताया है।रामानुजाचार्य इस दास भाव को शेष-शेषी भाव कहते हैं।माधवाचार्य जीव को हरि का अनुचर कहते हैं।और, तुलसीदासजी कहते हैं सेवक और सेव्य भाव के बिना भवसागर से पार नहीं जाया जा सकता +इन्हीं कारणों से भक्त भगवान की सेवा ही माँगते हैं।इसका मनोवैज्ञानिक कारण भी है। भोगों से, विषयों से, इंद्रियों के आनंद से अलग होना दुर्गम है, इनका दमन करना मुश्किल है। इन्हें भगवान की ओर मोड़ना आसान है। भक्ति में राग रहता है, परंतु यह राग भगवान से होता है, इसलिए बंधनकारी नहीं है, भगवान की प्राप्ति कराने वाला है। भागवत में मुक्ति को भक्ति की दासी बताया है। स्वामिनी को छोड़ दासी की ओर जाना, क्या बुद्धिमानी है? ज्ञान और वैराग्य इसके पुत्र हैं। जहाँ भक्ति जाती है वहाँ उसकी दासी और पुत्र भी अपने आप जाते हैं। इस प्रकार भक्ति करने से मुक्ति, ज्ञान और वैराग्य स्वयंमेव मिल जाते हैं।मुक्ति मिलती है माया से जीव द्वारा स्थापित किए गए संबंध को तोड़ने से। इस संबंध को तोड़ने के, मुक्ति प्राप्त करने के, प्रहलादजी ने दस उपाय बताए हैं : मौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्म पालन, शास्त्रों की व्याख्या, एकांत सेवन जप और समाधि। बहुत से विद्वान, जैसे श्री प्रभुदत्त ब्रहमचारी ने इन पर विस्तार से टीका लिखी है, परंतु भक्ति मार्ग वाले इन दसों बातों पर विशेष ध्यान नहीं देते। चैतन्य महाप्रभु का मत है कि मनुष्य को चौबीस घंटे भगवान की महिमा का कीर्तन करते रहना चाहिए, मौन की आवश्यकता नहीं।(सत्संग पर लेख देखें)। प्रभुपाद जी के अनुसार यह दस विधियां भक्तों के लिए नहीं है।मोक्ष को माया को पार करना भी कहते हैं। माया को कैसे पार करें? श्रीकृष्ण गीता में हमें बताते हैं कि माया उनकी है। इससे पार पाना कठिन है। उनकी शरण में जाने से इसे पार किया जा सकता है। निष्कर्ष यही निकला कि मोक्ष पाने का सबसे आसान उपाय भगवान की भक्ति है और भगवान की भक्ति के सभी अधिकारी हैं राक्षस, पशु, पक्षी, स्त्री पुरुष, सभी । ÷÷ अर्थात् सभी मोक्ष पाने के और भगवत धाम जाने के अधिकरी हैं। विशेषकर मानव शरीर तो भगवत प्राप्ति के लिए ही मिला है। यह देवदुर्लभ है। अभी मिल गया है तो इससे अपना काम बना लेना चाहिए ना जाने फिर कितने सर्गों के बाद में प्राप्त हो।कुछ लोगों का मानना है कि मुक्ति तो होती है परंतु हमेशा के लिए नहीं। महाप्रलय तक ही मुक्ति रहती है। जब सृष्टि होती है तब जीव को वापस आना पड़ता है। यह बात मान ली जाए तो मुक्ति तो स्वर्ग आदि लोको में जाने जैसी ही हो गई, फिर स्वर्ग प्राप्ति और मुक्ति में क्या अंतर हुआ। ना तो दुखों का अभाव हुआ ना ही सुख का मिलना! इसलिए इन लोगों की यह बात गलत है। गीता में कृष्ण ने बताया है कि उनके धाम में जाने के बाद वापस नहीं आना पड़ता, कृष्ण का धाम प्राकृतिक लोकों जैसा नहीं है, वह सूर्य और चंद्र या अग्नि का प्रकाश नहीं होता।मुक्ति के विरुद्ध यह भी कहा जाता है कि यदि सभी जीव मुक्त हो गए तो संसार में कोई जीव ही नहीं रहेगा संसार चल ही नहीं पाएगा। यह भी बेबुनियाद है। प्रथम तो जीव अनंत हैं कितनों की ही मुक्ति हो जाए अनंत जीव बचेंगे ही, क्योंकि अनंत में से अनंत निकाला जाए तो अनंत ही शेष रहता है। दूसरे, श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि उनकी प्राप्ति करने के लिए हजारों में से कोई एक प्रयास करता है, और ऐसा प्रयास करने वालों में से कोई बिरला ही उन्हें पूर्णतः जान पाता है। इस तरह से मोक्ष पाने वाले जीवों की संख्या ना के बराबर ही है। लिहाजा मुक्ति के विपक्ष के उपरोक्त दोनों ही पक्ष सत्य प्रतीत नहीं होते। ऊपर जिन पुराणों-वेदों की चर्चा की गई है उनके अनुसार मुक्ति सत्य है।ऊपर बताई गई पाँचों मुक्तियों में थोड़ा-थोड़ा अंतर है। यह अंतर साधना भेद से है। जो निराकार ब्रह्म की साधना करता है, “ ब्रह्म ही सब कुछ है, ब्रह्म के अलावा कुछ नहीं, जो ब्रह्म है वह मैं हूँ, मैं ही ब्रह्म हूँ मेरे सिवाय कुछ नहीं, मैं और ब्रह्म एक ही हैं।’’ ऐसी साधना करने वाले साधक ब्रह्म से एकत्व प्राप्त करते हैं, परमसत्ता में लीन हो जाते हैं। इसे कैवल्य मोक्ष भी कहा है। दूसरे कई भक्त जो स्वयं को अपने इष्ट / भगवान के तद्रूप मानते हैं, वे भगवान में लीन हो जाते हैं, यह साकार भगवान में लीन होते हैं। उदाहरण के तौर पर जो स्वयं को कृष्ण मानते हैं, "मैं कृष्ण हूँ, कृष्ण और मैं एक ही हैं’’ वह लोग कृष्णरूप हो जाते हैं (कृष्ण का सारूप्य नहीं) यह सायुज्य मुक्ति है। गोपाल उत्तर तापनी उपनिषद व भागवत के छठे स्कंद में नारायण कवच के प्रसंग में, इस प्रकार की साधना का वर्णन मिलता है। जो निराकार ब्रह्म में लीन होता है उसकी मुक्ति और जो साकार भगवान में लीन होता है उसकी मुक्ति में बस इतना-सा ही अंतर होता है। परंतु, इन सभी मुक्तियों में बहुत-सी समानताएँ हैं। मुक्ति चाहे किसी भी प्रकार की हो इससे प्रकृति से संबंध विच्छेद हो जाता है। शरीर और शरीर के सारे क्लेश मिट जाते हैं अर्थात् दुख की निवृत्ति हो जाती है। आवागमन से छुटकारा मिलता है। दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता। हाँ, भगवान की आज्ञा से पुनः इस संसार में आ सकते हैं। भगवान की लीलाओं में भी भगवान की इच्छानुसार भाग लेने के लिए दुनिया में आ सकते हैं।दुख निवृत्ति तो समस्त दर्शन बताते हैं। कुछ दर्शन आनंद प्राप्ति भी बताते हैं। इस आनंद प्राप्ति पर विचार करना उचित होगा। यह सुख किस प्रकार का होता है यह हम गीता से जानेंगे । निश्चित तौर पर यह सुख मायिक /प्राकृतिक नहीं होता, क्योंकि माया/ प्रकृति से मुक्ति में हमारा संबंध विच्छेद हो चुका है; हमारा और उसका अब कोई लेना-देना नहीं। यह सुख प्रकृति से परे है। इस सुख को बुद्धि नहीं जान सकती। यह सुख अपनेआपसे अपनेआपमें अपनेआपको मिलता है। इसे स्वरूपबोध भी कहते हैं.. यह सुख प्राप्त होने के बाद इससे और ज्यादा मात्रा का कौन-सा सुख होगा ऐसा विचार ही नहीं आता, इसे आत्यंतिक सुख, एेकांतिक सुख, गुणातीत सुख और आत्मिक सुख भी कहते हैं। इससे मिलता-जुलता सुख सुषुप्ति में भी गाढ़ी नींद में मिलता है, परंतु तब बुद्धि नहीं होती है। आत्मिक सुख में मन और बुद्धि दोनों रहते हैं, परंतु इस सुख का अनुभव नहीं कर पाते क्योंकि यह सुख इनसे पर है इसलिए स्वरुप ही इसका अनुभव कर सकता है। रामसुखदास जी ने बहुत अच्छी तरह इसको समझाया है- “यह संपूर्ण सुखों की आखिरी हद है---इससे मनुष्य कभी चलायमान नहीं होता। समाधि से तो व्युतत्थान होता है, परंतु इस सुख से नहीं क्योंकि प्रकृति से संबंध विच्छेद हो चुका है, इसलिए प्राकृतिक दुख अब यहाँ तक नहीं पहुँच सकते, उसका स्पर्श नहीं कर सकते। इसलिए, शरीर पर कैसी ही विपत्ति क्यों ना आए ऐसा सुख पानेवाला अपनी स्थिति से विचलित नहीं किया जा सकता।" यह सुख जो मिलता है इसका आश्रय सिर्फ श्रीकृष्ण ही है क्योंकि वह ब्रह्म, अविनाशी, अमृत, शाश्वत धर्म और एक एकांतिक सुख का आश्रय हैंl इसलिए मुक्ति किसी भी प्रकार की मिले उन सबका आश्रय श्री कृष्ण ही है।मुक्ति संबंधी राजा जनक, व्यासजी और शंकराचार्यजी के मत हम ऊपर पहले ही देख चुके हैं। यह अनिर्वचनीय स्थिति है, परंतु है आनंद से भरपूर और हमेशा के लिए।यदि आप यहाँ तक पहुँच चुके हैं तो आप उन गिने-चुने लोगों में से हैं जो दोबारा जन्म लेना नहीं चाहते, जन्म लेते-लेते परेशान हो गए हैं, इस जन्म को अपना आखिरी जन्म बनाना चाहते हैं तो आप जैसों के लिए भगवत्प्राप्ति/ मुक्ति के तीन ही रास्ते हैं -भक्ति योग, कर्मयोग योग और ज्ञान योग। जो ध्यान योग भगवान ने अर्जुन को गीता में और उद्धव को भागवत में समझाया है वह वास्तव में एक तरह से भक्तियोग ही है। ++तीनों ही मार्गो में मन को हमे परम सत्ता के साथ जोड़ना होता है--- चाहे उसे साकार माने, चाहे निराकार माने और चाहे यह माने कि “मैं वह हूँ।" उसमें मन लगाने के लिए सवेरे जागने से लगाकर सोने तक लगातार उसी का चिंतन करना है।₹ इस हेतु कार्य तो हाथ पैर और इंद्रियों से करने हैं, मन उसमें रखना है । ₹₹ यदि आप गाड़ी चला रहे हैं तो ऐसा कर सकते हैं, दुश्मन पर गोली बरसा रहे हैं तो भी ऐसा कर सकते हैं; परंतु यदि गणित के सवाल हल कर रहे हैं या हिसाब-किताब लिख रहे हैं, लेखा-जोखा कर रहे हैं तो मन में भगवान को रखना संभव नहीं है। इन परिस्थितियों में संतों का कहना है कि कार्य शुरू करने से पहले भगवान को याद कर लिया और कार्य समाप्त होने पर फिर भगवान को याद कर लिया तो भगवान मान लेते हैं कि बीच में भी उन्हें ही याद किया गया है-- यह मत रामसुखदास जैसे कई संतों का है। सब कर्म भगवान को अर्पण करने से भी मन भगवान में लगता है, बंधन नहीं होताऔर भगवान की प्राप्ति होती है। ₹₹₹ भगवान की पूजा समझकर समस्त कर्म करने से भगवान की ही प्राप्ति होती है । यदि किसी से यह सब कुछ भी ना हो, तो वह कुछ भी ना करें। बिना कुछ साधन किए भी भगवत्प्राप्ति हो सकती है! वह सब कुछ छोड़ कर भगवान की शरण में चला जाए और बिल्कुल भी ना डरे। बिल्ली के बच्चे की तरह म्याऊं-म्याऊं करता रहे और कुछ भी ना करें, जो कुछ करना है वह स्वयं भगवान करेंगे। म्याऊं-म्याऊं करने का अर्थ है हमेशा भगवान को याद रखें, उन्हें रो-रोकर पुकारते रहें। यह वादा श्री कृष्ण जी ने अर्जुन से गीता में और उधव से भागवत में।“भगवान ही मेरे हैं’’ ऐसा विश्वास रखें। (शरणागति पर लेखक का लेख देखें बाल वनिता महिला आश्रमसाइट पर “कम टू मी ओनली, आए एम द वे ‘’.)यदि हम ऐसा करेंगे तो हमें हमारे अंत समय में परम तत्व याद रहेगा और उसे याद रखते हुए शरीर छोड़ने पर हमें उसकी ही प्राप्ति । श्रीमद्भागवत भी यही कहती है कि अंत समय में ज्ञान से भक्ति से या धर्म से किसी भी उपाय से उसे याद रखना है।।अंत समय में भगवान को याद रखना बहुत कठिन है, यदि जीवन भर उसे याद नहीं रखा है, इसीलिए तो भगवान ने कहा है कि सब समय में उनका स्मरण किया जाए। ₹₹संत रामसुखदास जी के अनुसार ऐसे भी अपवाद हैं जब अंत समय में भगवान याद आ सकते हाँलाकि हमने जीवन भर उन्हें याद नहीं रखा है :- यदि आखिरी समय में भगवान को प्राप्त किए हुए भक्त के दर्शन हो जाएँ या भगवान की कोई विशेष कृपा हो जाए; भय के कारण हमें भगवान याद आ जाएँ; तीर्थ स्थान के प्रभाव के कारण भी अंत समय में भगवान की स्मृति हो सकती है, जैसे काशी, वृंदावन, द्वारिका आदि; ऐसे स्थान का प्रभाव जहाँ नित्य कीर्तन होता हो या कोई भगवान को प्राप्त हुआ संत या जीवनमुक्त साधना करता हो या मरने वाले के समक्ष कोई नाम कीर्तन करें या गीता का आठवाँ अध्याय सुनाए या किसी भी तरह उसका मन भगवान में लग जाए।देवी भागवत के अनुसार यदि कोई यह भावना लेकर के शरीर त्यागे “ मैं शरीर से पृथक निर्गुण अविनाशी आत्मा हूं, शरीर भले ही नष्ट हो जाए मैं सदा रहने वाला विकार शुन्य ब्रह्म हूं, मैं इस दुख से भरे संसार और शरीर से अलग हूंl’’तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता l इसी प्रकार का नियम वेद भी बताते हैं l तैत्तिरीय उपनिषद की शीक्षावल्ली के दशम अनु वाक्य में ऋषि त्रिशंकु का अनुभव बताया गया है जिस में भी यही कहा गया है कि ऐसी भावना लेकर शरीर छोड़ा जाए कि दोबारा जन्म नहीं होगा तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता l ऐसे तो मुक्ति के तीन ही मार्ग है ज्ञान, कर्म और भक्ति योग l परंतु भगवान ने अपनी करुणा दिखाते हुए एक अपवाद भी बना दिया है कि जीवन भर मुझे याद नहीं किया है अंत समय में मुझे याद कर ले तो भी तू मुझे ही प्राप्त होगा lऐसा भगवत कानून होते हुए भी साधारण मनुष्य शरीर त्यागते समय शरीर से,बेटे- बेटी,पति -पत्नी, पोते-पोती ,धन ,मकान ,जायजाद, संसार के सुख दुखआदि से चिपकता है, शरीर छोड़ना नहीं चाहता, उसका मन संसार और सांसारिक विषयों में रहता हैl इसलिए वह भगवान को प्राप्त नहीं होता औरअंतिम भाव के अनुसार बार बार जन्म लेता है और मरता है lउसका देव दुर्लभ मनुष्य जीवन यूं ही समाप्त हो जाता है lशरीर त्यागते समय के कुछ उदाहरण. भीष्म पितामह तीरों की शैया पर लेटे हुए थे। मृत्यु उनके हाथ में थी, इच्छा मृत्यु का वरदान था। सूरज जब उत्तरायण में आया तब शरीर त्यागने का अवसर सही समझा। उनके सामने कृष्ण व पांडव थे। कृष्ण के लिए उन्होंने बताया कि वे साक्षात भगवान हैं, सबके आदि कारण और परम पुरुष नारायण है और इन्हें शंकर, नारद और कपिल भगवान के अलावा कोई नहीं जानता। गूढ़ रहस्य बताते हुए समझाया कि जो भगवान में मन लगाकर और वाणी से इनके नाम का कीर्तन करते हुए शरीर का त्याग करते हैं वह लोग उनकी कामनाओं से तथा कर्म के बंधन से छूट जाते हैं और भीष्म पितामह ने मन, वाणी और दृष्टि से श्रीकृष्ण में अपने आप को लीन कर दिया, उनके प्राण वही विलीन हो गए और वह शांत हो गए। इस प्रकार भगवान का ध्यान करते हुए भीष्म ने शरीर का त्याग किया और अनंत ब्रह्म में लीन हो गए । # # महाभारत में दूसरा विवरण है जिसके अनुसार कृष्ण के आदेश से भीष्म प्राण छोड़कर अपने वसुलोक को गए, उनका मोक्ष नहीं हुआ। ### ऐसा कल्प/मन्वन्तर भेद के कारण है। भागवत की घटनाएँ पद्मकल्प की हैं और महाभारत की घटनाएँ किसी अन्य कल्प की। हर कल्प व मन्वन्तर में घटनाएँ पूर्णतः एक जैसी हो ऐसा आवश्यक नहीं है। (प्रलय संबंधी लेख में यह सब बातें समझा दी गई हैं।)राजा खटवांग को जब पता चला कि उनकी आयु के केवल दो घड़ी शेष हैं, तो उन्होंने मन संसार के विषयों से हटा दिया : “मैं विषयों को छोड़ रहा हूँ और केवल भगवान की शरण ले रहा हूँ।” अपने शरीर का त्याग कर दिया और अपने वास्तविक स्वरुप में स्थित हो गए। “यह शून्य के समान है परंतु शून्य नहीं है, परम सत्य है भक्तजन इसका भगवान वासुदेव के नाम से वर्णन करते हैं..। " #कपिल भगवान की माता देवहुति का शरीर त्याग। सब सांसारिक मोह का त्याग करके उन्होंने भगवान का ध्यान किया। भगवान में बुद्धि स्थित हो जाने के कारण उनका जीव भाव निवृत्त हो गया और वह समस्त क्लेशों से छूटकर परमानंद में मग्न हो गई। वह निरंतर समाधि में रहती। उन्हें शरीर की भी सुध ना थी। शरीर का पोषण भी दूसरों द्वारा ही होता था। परंतु उन्हें कोई मानसिक दुख नहीं था। इस कारण से शरीर दुर्बल नहीं हुआ और तेजोमय बन गया। योगसाधना से उनके शरीर के सारे मल दूर हो गए और उनका शरीर एक नदी के रूप में बदल गया। उन्होंने इस प्रकार भगवान में ही मन लगाकर भगवान को प्राप्त कर लिया। और इसी प्रकार ऋषि ऋचीक की पत्नी सत्यवती कौशिकी नाम की पुण्य नदी बन गईं।।भक्त राजा ध्रुव का शरीर त्याग करना भी ऊपर बताए गए गीता के सिद्धांतों के अनुसार ही था। संसार से उनका मन भर गया, राजपाट अपने पुत्र को दिया और हिमालय में बद्रिका आश्रम में पहुँच गए। वहाँ एकांत में योग साधना की। चिंतन करते करते ध्रुवजी भगवान में इस तरह तन्मय हो गए कि भूल गए “मैं ध्रुव हूँ ”। उन्होंने एक विशाल और सुंदर विमान को आते हुए देखा। विमान में भगवान के दो पार्षद नंद-सुनंदा चार भुजाधारी श्याम वर्ण के सुंदर व्यक्तित्व वाले, इन्हें भगवान के लोक में लेने आए। मृत्यु भी आया। ध्रुवजी मृत्यु के सिर पर पैर रखकर विमान में चढ़े। मृत्यु साधारण मनुष्य को भी आती है और भगवान के भक्तों को भी आती है। साधारण मनुष्य परेशान होते हुए त्यागता है देह को। भक्त मृत्यु के सिर पर पैर रखकर जाता है। एक बंधन में फंसा हुआ जाता है, एक मुक्त होकर जाता है। हम जैसे प्राणियों को लगता है कि दोनों ही एक समान मरे हैं। ध्रुवजी के भगवत धाम जाने में एक विलक्षण बात और थी। उन्होंने अपनी भौतिक देह का त्याग नहीं किया, वही दिव्य शरीर बन गया। वह सोने की तरह चमक रहा था और इस दिव्य शरीर से माता को भी साथ लेकर भगवान के नित्य धाम में पधारे। ईसा मसीह भी इसी प्रकार सशरीर भगवान के धाम गए। इसके विपरीत मृत्यु के समय नारद जी का पंचभौतिक शरीर नष्ट हो गया और उन्हें पार्षद शरीर प्राप्त हुआ।. नष्ट होने से अभिप्राय है कि उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया, शरीर पीछे नहीं छूटा, जैसे साधारण लोगों का छूटता है। अन्य दूसरे ही उसको जलाते हैं या दफनाते हैं या जानवर चील कौवे खा लेते हैं। अजामिल ने पंच भौतिक शरीर को त्याग दिया और तत्काल पार्षदों का स्वरूप प्राप्त कर लिया और विमान में बैठ कर भगवान के पार्षदों के साथ भगवान लक्ष्मीपति के निवास वैकुंठ को चले गए । त्यागने से मतलब है कि आत्मा ने वह शरीर छोड़ दिया, वह शरीर इस जगत में रहा।राजा पृथु योग मार्ग द्वारा संसार के विषयों को त्यागकर अपने ब्रह्मस्वरूप में स्थित हुए और फिर उन्होंने शरीर त्यागा प्राण को ब्रह्मरंध्र में ले जाकर। कृष्ण के मामा कंस, राजा शिशुपाल और दंतवक्र तथा हाथी गजेंद्र का मन भी अंत समय में भगवान में लगा हुआ था इसलिए इन्हें भी भगवान की प्राप्ति हुई। । गजेंद्र ने भी अपना हाथी का शरीर त्यागा और चारभुजाधारी पार्षद, भगवान द्वारा बना दिया गया। अंतिम समय में यदि मन भगवान में स्थित हो, भाव चाहे जो हो, तो प्राप्ति भगवान की ही होती है--(-श्रीमद् भगवद गीता 8/5-15) ।ऊपर हमने देखा कि हम भगवान के अंश है. और भगवान आनंद है, उसे सत् -चित्-आनन्द कहते हैं, पहले दो अक्षर आनंद के विशेषण है, वास्तविक नाम है आनंद। भगवान आनंद है यह कहना ठीक है; भगवान में आनंद है, यह ठीक नहीं l ऐसा लगता है कि आनंद और भगवान दो-दो चीज हो जैसे कि रसगुल्ले में रस और गुल्ला अलग-अलग दो हैं। भगवान के अंश होने के कारण हम आनंद की खोज में हैं; परन्तु अभी तक हमें आनंद प्राप्त नहीं हुआ है। कारण हम संसार में आनंद खोज रहे हैं। जहाँ वह है ही नहीं। आनंद भगवान में है। जब हम भगवान में आनंद खोजेंगे तब हमें आनंद मिल सकता है। आनंद पाने हेतु भगवान की ओर जाना है और हमें यह भी ज्ञान होना चाहिए कि धरती के अलावा भी बहुत से लोक हैं।(लोक-परलोक लेख में विस्तार से बताया गया है) यह सब अनित्य हैं. केवल भगवत धाम ही नित्य है। इस धाम में जाने का प्रयास करेंगे तब ही हम आवागमन से मुक्त हो सकते हैं।अंत समय का भाव और शरीर छोड़ते समय का चिंतन ज्ञानी के लिए भी महत्वपूर्ण है l देवी भागवत के अनुसार,ऐसा चिंतन लेकर शरीर त्यागा जाए कि “ मैं इस संसार से अलग हूं,’’ और वेदों के अनुसार ऐसा चिंतन करते हुए शरीर त्यागा जाए कि “यह मेरा आखिरी जंम है मेरा पुनर्जन्म नहीं होने वाला क्योंकि मैं संसार रूपी वृक्ष का उच्छेद करने वाला हूं’’l 🎞 तो इस प्रकार से भाव रखकर शरीर छोड़ने वाले का आवागमन के चक्र से छुटकारा हो जाता है और वह पूर्णब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाता हैl यहां पर यह स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं कि यह भाव मृत्यु के समय तब ही आएगा जबकि जीवन भर इस प्रकार के भाव की साधना की है और इस भाव को स्थाई कर लिया है lतत्काल मोक्ष?"एक तो शरीर इंद्रियाँ मन बुद्धि साथ लेते हुए साधन करना और एक सीधा परमात्मा के साथ संबंध जोड़ देने।" तत्काल मोक्ष कैसे मिले यह राम सुखदासजी ने बताया है:" मेरे स्वरूप में कोई विकार नहीं है "...इसमें स्थित रहने से बहुत जल्दी सिद्धी होती है।मनन निदिध्यासन आदि की आवश्यकता भी नहीं।बात भी सही है। भगवान ने हमें कर्ता बनया ही नही, असँख्य् शरीर धारण करने पर भी हम सभी शरीरओ से और कर्मो से असंग ही हैं।"० इस ज्ञान से मुक्ति हो जाएगी।बाल वनिता महिला आश्रम"मैं भगवान का हूं" ऐसा मानते ही सिद्धि हो जाती है । मान्यता ऐसी हो जिसको कोई हटा नहीं सके पूर्ण दृढ़ता हो। स्वयं शंकर जी आकर कह दे मैं तेरे को स्वीकार नहीं करता तो भी मैं उन्हें नहीं छोडूंगी ऐसा विश्वास पार्वती जी का था । भगवत प्राप्ति हेतु हमें भी ऐसा ही दृढ़ निश्चय करना है "मैं भगवान का हूं, चाहें मुझे हजारों जन्म तक ना मिलें और खुद ही आकर क्यों ना कह दे कि मैं तेरे को स्वीकार नहीं करता।"गीता के कर्म योग में कामनाओं का त्याग होने पर स्वरूप में स्थिति हो जाती है, तत्काल।ध्यान में बहुत दूर तक जड़ता रहती है।समाधि से उतरते ही पुनः माया लग जाती है।(तत्काल सिद्धि का मार्ग,साधन -सुधा- सिन्धु ,गीता प्रेस गोरखपुर)है ना मुक्ति बहुत आसान !ठुकराओ संसार कोसमाप्त करो आने-जाने को,अपने घर की देखो राह को।सदा लो हरि का नाम,पहुँचो उनके धाम,फिर वहाँ रहो हरदम।आध्यात्मिक सिद्धांत निम्न:-भागवतसे11/2/37,3/9/11,7/20/39,7/1/13,10/7/8,10/66/24,10/44/39,12/9/22,7/1/27,2/1/15,4/8/82,3/39/30,1/1/2,11/11/7,9/9/47,9/9/42,1/6/28,8/4/12,3/5/2,सांख्यसूत्र 3/65,महाभारत।167/46-47,*गीता15/7, 13/31, जैनिसिस 1/26-27,**गीता 2/16-29, @@ गीता 13/19-21,==गीता 8/24, ∆∆ 3/27, ∆∆∆8/5, ÷÷9/30-32, ××18/17, ₹18/65, ₹₹ 8/7, ₹₹₹9/27to 28, "० ५/१४, १३/३२ सभी गीता से हैं,० भागवत 3/9/11, 4/11गईतआ, 3/3 मद. उप.=भागवत 3/7/9-11, π भागवत 7/10/39, ***भागवत 11/2/37, ००० भागवत 1/1//2, #भआगवत 9/9/42-49, ++ भागवत 11/15/24, गीता 6/47, 12/2, 5,# # भागवत 1/9/44, # # # महाभारत 167/46-47,@ सांख्य सूत्र3/65,०० कठोपनिषद 2/1/15 ,🎞 तैत्तिरीय उप. शिक्षावल्ली 10 वां अनुवाक्•६/१६/१०-१५ अध्यात्म रामायणइतिश्री अध्याय 24

आत्मा को मुक्ति कैसे मिलती है?आत्मा तो नित्य मुक्त है.मोक्ष जीव बने आत्मा की है.

पढ़े मेरा पूर्व लेख.

अध्याय 24

मुक्ति : By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब

हम आत्मा हैं, परमेश्वर का अंश हैं *। परंतु हैं माया के बंधन में। इस बंधन का कारण श्रीमद्भागवत में राजा निमि को योगेश्वर कवि ने पुरुष/आत्मा का ईश्वर से विमुख होना बताया है। पुरुष/आत्मा जब ईश्वर से विमुख होता है तब ईश्वर की माया उस पर हावी हो जाती है और वह ‘मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ ’- ऐसा मानने लग जाता है और भ्रम में पड़ जाता है।***माया से संबंध होने पर आत्मा को जीव शब्द से जाना जाता है और यह मन प्रधान होता है। जीव वह है जो शरीर धारण करता है। जीव अनादि काल से बंधन में है, भ्रम में है। ऐसा कहना कि यह पहले बंधन में नहीं था मुक्त था और एक दिन बंधन में आ गया असत्य होगा। इसका अभिप्राय तो यही निकलेगा कि मुक्त होने के पश्चात पुनः बंधन आ जाता है ,तो फिर मुक्ति का कोई अर्थ ही नहीं रहेगा !

मुक्ति क्या है? जन्म-मरण के चक्र से अवकाश को मुक्ति कहते हैं। साधारण भाषा में इसे परमसत्ता में लीन हो जाना या भगवत धाम ( ईसाई इसे हेवन, heaven कहते हैं और मुसलमान जन्नत) में हमेशा के लिए चले जाना और मृत्यु लोक में लौटकर नहीं आना समझा जाता है। सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष का अपने स्वरूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष है। @ न्याय-दर्शन सुख प्राप्ति स्वीकार नहीं करता क्योंकि सुख का राग से संबंध है और राग कारण है बंधन का। दुख और सुख गुण हैं, मुक्त होने पर आत्मा सभी गुणों से मुक्ति पा जाता है। मीमांसा कहती है, दृश्य जगत के साथ आत्मा के संबंध का विनाश ही मोक्ष है। अद्वैत वेदांत के अनुसार स्वयं स्वरूप में अवस्थान को मोक्ष कहते हैं। ज्यादातर दर्शनों ने दुख-निवृत्ति पर जोर दिया है।परन्तु, भक्तगण मोक्ष को दुख-निवृत्ति व आनंद- प्राप्ति कहते हैं। आत्मा को अप्राकृत शरीर प्राप्त होता है और वह भगवान की सन्निधि का, ना समाप्त होने वाले आनंद का, सदा के लिए अनुभव करता है। भगवान के धाम में भक्तों की मुक्ति में अभेद नहीं होता, भेद रहता है। भक्त और भगवान( यानी आनंद का पर्याय) साथ-साथ अलग-अलग शरीरों में रहते हैं। भगवान का नाम ही सत्-चित्-आनंद है।

आत्मा नित्यमुक्त है, फिर मुक्ति किसकी? यह आत्मा ईश्वर का अंश है और इसमें ईश्वर के सारे गुण हैं, फिर इसका बंधन कैसे? यह स्थाई है, अचल है।** फिर, आना-जाना, जन्म-मृत्यु किसका होता है?इनका उत्तर है कि वास्तव में आत्मा मुक्त है, कभी बंधन में हो ही नहीं सकती परंतु यह माया/प्रकृति से झूठा संबंध जोड़कर अपने आप को बंधन में समझता है-- शरीर और संसार को "मैं "और "मेरा " मान लेता है। इसीलिए इसका ‘जन्म-मृत्यु’ प्रतीत होता है। आत्मा शुद्ध चेतन ब्रह्म का अंश है। वह माया से संबंध स्थापित करने के कारण जीव कहलाता है। यह सब मानने पर प्रश्न उठता है कि जब आत्मा का कहीं आना-जाना होता ही नहीं है केवल प्रतीति होता है तो फिर आवागमन से छूटने का प्रयास क्यों किया जाए? जो बंधन वास्तव में है ही नहीं, उसके लिए क्या छुटकारा ? इसका समाधान है कि आत्मा तो शुद्ध है उसका आवागमन हो ही नहीं सकता। जीवात्मा के लिए ही मोक्ष के साधन बताए जाते हैं। दुख-सुख जीवात्मा को होते हैं क्योंकि, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, यह माया से संबंध जोड़े हुए हैं और अपना असली स्वरूप भूले हुए है। विद्वान लोग जीव को ही भोक्ता मानते हैं। कोई-कोई कहते हैं कि मन, बुद्धि और अहंकार ही भोग भोगते हैं। उत्तर है कि ये जड़ हैं और भोक्ता नहीं हो सकते। यह सब माया के विकार हैं और उनके रहने का स्थान है अंतः करण। इसलिए माया से संबंध जोड़ने वाला आत्मा अथवा पुरुष/जीव ही दुख और सुख को भोगता है। हम आगे जो बात कर रहे हैं वह जीव की मुक्ति की है अर्थात् मोक्ष, माया/ प्रकृति और उससे संबंध जोड़नेवाले आत्मा, जो जीवात्मा कहलाता है, का ही होता है। गीता में भी यही कहा गया है कि क्रिया प्रकृति में है और दुख-सुख का भोक्ता पुरुष है। प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति के गुणों का भोक्ता बनता है, और गुणों का संग करने के कारण ऊँची-नीची योनियों में जन्म लेता है।@@

भागवत में विदुर जी का ज्ञानवर्धन करते हुए मैत्रेयजी बताते हैं कि जो आत्मा सबका स्वामी है और मुक्तस्वरूप है वही दीनता और बंधन को प्राप्त हो-- यह बात युक्ति के विरुद्ध है, और यही तो भगवान की माया है! सपने में हम अपना सिर कटना आदि देखते हैं और हमें यह सत्य प्रतीत होता है, परंतु यह सत्य नहीं है। उसी प्रकार जीव को, उसका बंधन ना होते हुए भी ऐसा लग रहा है कि वह बंधन में है। फिर प्रश्न उठता है कि आत्मा जो कि ईश्वर का अंश है उसे तो यह सब भास रहा है और वह माया के बंधन में भी है, ईश्वर इस बंधन में क्यों नहीं? इसका उत्तर भी यह है कि जैसे चंद्रमा में कोई कंपन नहीं है। जल में चंद्रमा की जो छायाँ पड़ रही है उसमें हमें कंपन नज़र आता है यदि जल में कंपन हो। चंद्रमा में यह कंपन नज़र नहीं आता। इसी तरह अपने को शरीर समझने वाले जीव को ही दुख और सुख की अनुभूति होती है, ईश्वर को नही।=

भागवत में( दूसरे स्कंध के दूसरे अध्याय)दो प्रकार की मुक्तियों का वर्णन मिलता है। एक को सद्यो मुक्ति बोलते हैं क्योंकि सीधे ही मुक्त होना होता है, दूसरी क्रम मुक्ति है: एक लोक से ऊँचे लोक में फिर उच्चतर लोक में और फिर भगवान के धाम में या परमब्रह्म में लीन होना बताया गया है। सद्यो मुक्ति में योगी मन और इंद्रियों को छोड़कर ब्रह्मरंध्र से शरीर का त्याग करता है और ब्रह्म ज्योति में लीन होता है अथवा भगवत धाम को जाता है। ऐसा वे योगी ही कर सकते हैं जिन्होंने प्राणवायु पर पूरी तरह से विजय प्राप्त करली और जिनकी कोई भौतिक इच्छाएँ नहीं है। ब्रह्मरंध्र से प्राण त्यागने हेतु योगी बाकी के छः छेद-- दो आँख, दो कान दो नासिका और एक मुँह को बंद कर देता है ताकि यहीं (ब्रह्मरंध्र) से प्राण निकले। जो योगी ब्रह्मलोक में जाने की इच्छा रखता है वह अपने मन और इंद्रियों को साथ लेकर जाता है। पहले आकाशमार्ग से अग्निलोक में जाता है, फिर श्रीहरि के शिशुमार चक्र में पहुँचता है, वहाँ से महरलोक जाता है और महरलोक से ब्रह्मलोक। यहाँ पर निर्भय होकर सूक्ष्म शरीर को पृथ्वी से मिला देता है, फिर पृथ्वी को जल से, जल को अग्नि से, अग्नि से वह वायुरूप और आकाश आवरण में जाता है। श्री श्रीधर स्वामी के अनुसार दृश्य जगत का विस्तार चार अरब मील का है। इसके पश्चात अग्नि का आवरण आता है, फिर वायु का और उसके पश्चात आकाश का। यह सब आवरण अपने से पहले वाले आवरण से दस गुना विस्तार वाले होते हैं। भूतों के सूक्ष्म और स्थूल आवर्णों को पार करके अहंकार में प्रवेश करता है। अहंकार से महतत्व में और यहाँ से प्रकृतिरूप आवरण में चला जाता है। महाप्रलय के समय जब प्रकृति रूप आवरण का भी लय हो जाता है तब योगी अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है अर्थात् निरावरण हो जाता है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को लगभग ऐसा ही ज्ञान दिया है। ==

जो कैवल्य मुक्ति अथवा एकत्व मुक्ति नहीं चाहते वह क्रमशः अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल-पक्ष और उत्तरायण आदि के अभिमानी देवताओं के स्वरुप को प्राप्त होते हुए अमानव पुरुष के द्वारा दिव्य अप्राकृतिक शरीर से भगवान के परमधाम को ले जाए जाते हैं। इन्हें भक्तोंवाली मुक्तियाँ-- सारूप्य, सार्ष्टि, सालोक्य, सायुज्य(?) व सामीप्य-- मिलती है।

श्री गोपीनाथ कविराज का कथन है सकामियों को, जो पितृयान से जाते हैं, तो वापस आना पड़ता है। क्रम मुक्ति उनकी होती है जिनमें ज्ञान और कर्म का मिश्रण होता है। कर्म का अंश ज्यादा होने पर एक के बाद एक ऊँचे लोकों में जाना पड़ता है--- हर स्टेशन पर उतरना पड़ता है वहाँ के भोग भोगने के लिए। पूर्ण ज्ञानी को कहीं नहीं जाना पड़ता, वह सीधे ही परमब्रह्म में लीन हो जाता है (और ज्यादा विस्तार से ‘लोक परलोक’ लेख में बताया गया है) । जिनमें ज्ञान का अंश ज्यादा होता है वह सीधे ही ब्रह्मलोक में जाते हैं। इनमें से जो कम ज्ञानी होते हैं या कम अधिकार रखते हैं, उन्हें ब्रह्माजी के लोक में सालोक्य मुक्ति मिलती है, ज्यादा अधिकार वालों को सारूप्य और भी उच्च अधिकारियों को सार्ष्टि व सामीप्य और जो चरम अवस्था में होते हैं उन्हें सायुज्य मुक्ति मिलती है। महाप्रलय के समय ब्रह्मांड के नाश होने के साथ-साथ ब्रह्माजी भी समाप्त हो जाते हैं। श्री गोपीनाथजी के अनुसार, उनके (ब्रह्माजी) अंगीभूत जीव परमब्रह्म के साथ अभेद प्राप्त करते हैं। जीव अपने -अपने इष्ट देव को प्राप्त होते हैं। गणपति के भक्त गणपति को, विष्णु के भक्त विष्णु को और देवी के भक्त देवी को प्राप्त होते है। यह उन लोगों की बात कर रहे हैं जो सीधे अपने इष्ट के लोक में नहीं जाते वरण क्रमानुसार ऊपर उठते हैं अर्थात् एक के बाद एक उच्चत्तरलोकों में जाते हुए अंत में परमधाम, वैकुण्ठ आदि हो जाते हैं।

अब अलग-अलग प्रकार की मुक्तियों का वर्णन वेदों से l मुक्ति के संबंध में हनुमानजी को समझाते हुए रामजी ने विभिन्न प्रकार की मुक्तियों का मुक्ति-उपनिषद में वर्णन किया है। “कपि! कैवल्यमुक्ति तो एक ही प्रकार की है, वह परमार्थ रूप है। इसके अलावा मेरे नाम स्मरण करते रहने से दुराचार में लगा हुआ मनुष्य भी सालोक्यमुक्ति को प्राप्त होता है। वहाँ से वह अन्य लोकों में नहीं जाता। काशी क्षेत्र में मरनेवाला मेरे तारकमंत्र को प्राप्त करता है और उसे वह मुक्ति मिलती है जिससे उसे आवागमन में नहीं आना पड़ता। काशी क्षेत्र में शंकरजी जीव के दाहिने कान में मेरे तारकमंत्र का उपदेश करते हैं जिससे उसके सारे पाप धुल जाते हैं और वह मेरे सारूप्य को, समान रूप को प्राप्त हो जाता है। वही सालोक्य-सारूप्य मुक्ति कहलाती है। जो एकमात्र मेरा ही ध्यान करता है वह मेरे सामीप्य को प्राप्त करता है, सदा मेरे समीप रहता है। निराकार स्वरूप का ध्यान करने वाला सायुज्यमुक्ति को प्राप्त होता है।’’

समस्त प्रकार की मुक्तियों का सार श्री जयदयाल जी गोयनका समझाते हैं l भेद उपासना के अनुसार मुक्तिययाँ चार प्रकार की है: सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य --- इन तीनों में साधन में भी भेद और फल में भी भेद है। चौथी सायुज्यमुक्ति में साधन में तो भेद है पर फल में भेद नहीं होता। शरीर छोड़ने के बाद भगवान के धाम में जाकर उनके लोक में निवास करने को सालोक्य मुक्ति कहते हैं। यह वात्सल्य भाव से जो भगवान की उपासना करते हैं उन्हें प्राप्त होती है। जैसे भगवान के रुप अनेक हैं ऐसे ही लोक भी अनेक हैं। भगवतधाम या यूँ कहें नित्य धामों का सामान्य नाम वैकुंठ है। यह लोक नित्य है। यह महाप्रलय में भी नष्ट नहीं होता, ज्यों का त्यों बना रहता है। यहाँ भगवान अपने पार्षदों के साथ निवास करते हैं। इस लोक में सूर्य, चंद्र, अग्नि का प्रकाश नहीं होता है, स्वयं प्रकाश है। यह पूरी तरह अप्राकृत है। यहाँ पहुँचकर जीव वापस जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ता। जहाँ भगवान कृष्ण रूप से विराजते हैं वह गोलोक है, श्रीराम का साकेत, देवि का मणिद्वीप, शिवजी का कैलाश और इसी प्रकार भगवान के अन्य रूप अन्य लोकों में रहते हैं।

भगवान के अलग-अलग रूप और लोक क्यों है? इसका समाधान यह है कि जैसा भक्त चाहता है सर्वशक्तिमान वैसा ही बन जाता है अपने भक्तों के लिए। यह सिद्धांत मुद्गल उपनिषद् में, गीता में व भागवत में ब्रह्माजी ने कृष्ण की स्तुति करते हुए बताया है। ०(इस लेखक का लेखक की साईट पर अंग्रेजी में इसी विषय पर एक लेख है- 'आई एम एज़ माय सर्वेंट थिंक्स / एक्सपैक्टस आई एम' ) । सामीप्य, दास भाव से या मधुर भाव से भगवान की उपासना करने वाले को प्राप्त होती है। वह भगवान के लोक में भगवान के समीप निवास करता है। ( प्रभुपादजी के अनुसार यह भगवान का साक्षात पार्षद् बनता है)। भगवान के धाम में जाकर भगवान का जैसा रूप पा लेना सारूप्य मुक्ति है। रूप तो भगवान जैसा हो जाता है परंतु थोड़ा-सा अंतर रहता है जैसे कि श्रीवत्स का चिह्न नहीं मिलता आदि । यह सखा भाव से भगवान की उपासना करनेवाले को प्राप्त होती है। भगवान के स्वरुप में अभेद रूप से लीन हो जाने को सायुज्य मुक्ति या एकत्व कहते हैं।कोई इसे कैवल्य मोक्ष भी कहते हैं, इसी को निर्वाण बताते हैं। जिनकी भक्ति में ज्ञान भी है और जो शांत भाव से भगवान की उपासना करते हैं, सायुज्य मुक्ति उन्हें प्राप्त होती है। ऐसे ही वैर, द्वेष और भय से भगवान को भजनेवालों को भी यही मुक्ति मिलती है।

भागवत पर भी थोड़ा गौ़र करें: जय दयाल जी की बात भागवत से पूर्णता मेल नहीं खाती है। भगवान की दुश्मनी और डर से दंतवक्त्र, शिशुपाल वअन्य राजागण जैसे पौंड्रक और कंस आदि को मुक्ति मिली; परंतु, कृष्ण से बैर और भय करने के कारण इन्हें उन्हीं का, भगवान का, शरीर प्राप्त हुआ। π कृष्ण के शरीर में शिशुपाल व दंतवक्त्र तो ज्योति के रूप में समाए। यह दोनों भगवान के पार्षद् थे जय और विजय, तीन जन्मों तक लगातार भगवान से बैर साधा और फिर शाप मुक्त हो उन्हीं के लोक में चले गए, फिर से इन दोनों ने अपना पार्षद वाला शरीर प्राप्त कर लिया। अभेद रूप से परम पुरुष वैकुंठ अधिपति श्री नारायण में लीन नहीं हुए। लिहाज़ा इन दोनों की सायुज्य मुक्ति नहीं हुई। पौंड्रक को भगवान का रूप प्राप्त हुआ । भगवान के रूप ही की कंस को प्राप्ति हुआ। भृंगी-कीट के उदाहरण से तो कृष्ण का स्वरूप ही प्राप्त होना था। जिसका ध्यान किया जाता है तन्मयता से, उस का ही रूप, प्राप्त होता है, भाव चाहे कोई सा भी हो--- प्रेम, भय, बैर आदि। ऐसी सूरत में निष्कर्ष यही है कि पौंड्रक और कंस को सायुज्य मुक्ति प्राप्त नहीं हुई, हालांकि वह क्रमशः बैर और डर से कृष्ण का पूरी तन्मयता से सुमिरन करते थे। इन्हें सारूप्य प्राप्त हुआ। और भी ज्यादा गहनता से गौ़र किया जाए तो इन दोनों प्रकार की मुक्तियों में बहुत ज्यादा अंतर भी नहीं है। एक में भक्त भगवत स्वरुप हो जाता है, उसमें और भगवान में कोई भेद नहीं रहता।तो दूसरी में उसे भगवान का जैसा रूप मिल जाता है,परंतु भक्त व भगवान में भेद रहता है।पृथक होने पर भी रूप एक ही हैl

सायुज्य मुक्ति के लिए वेद का कथन है कि जिस प्रकार नदियों का जल अपने नाम-रूप को छोड़कर समुद्र में मिलकर समुद्र ही हो जाता है उसी प्रकार साधक भगवान में लीन होकर भगवद्स्वरूप हो जाता है । ०० परंतु , आत्मा की सत्ता का अस्तित्व बना ही रहता है। आत्मा और परमात्मा में एकत्व हो जाता है। अभेद हो जाने से क्या होता है, इसकी कुछ कुछ झलक हमें बालक ध्रुव के वृतांत में भागवत में मिलती है। भगवान देवताओं को समझाते हैं - "इस समय मेरे साथ उसकी अभिन्न धारणा सिद्ध हो गई है इसीसे उसके प्राण निरोध से तुम सबका प्राण भी रुक गया है... मैं बालक को तप से मुक्त कर दूँगा, तुम लोग जाओ।’’ अगर यहाँ पर बालक ध्रुव की आत्मा परमात्मा में समा जाने से समाप्त हो गई थी तो भगवान उसको तप से निवृत्त करने की बात क्यों कहते हैं? एकत्व में, सायुज्य मोक्ष में, कैवल्य मोक्ष में आत्मा समाप्त नहीं होती, परंतु इस तरह परमतत्व के साथ एक हो जाती है कि दोनों अभिन्न हों, फिर भी दोनों का अस्तित्व हो। जैसे, चंदन का बुरादा पानी में मिलकर पानी नहीं बनता, बल्कि पानी से एकमेव हो जाता है।

दास भाव वाले हनुमान जी को कल्पांत में सायुज्य मुक्ति मिलेगी, अध्यात्म रामायणानुसारl•

योगी लोग प्राकृत ऐश्वर्य का वर्णन करते हैं। योग के द्वारा प्रकृति और पुरुष एक हो जाते हैं। यह अवस्था ईश्वर का स्वरुप है। शक्ति और शैव्यागमों के अनुसार पूरी तरह से अनंत सत्ता में सत्तावान होना, अनंत लीला का अभिनय करना ही पूर्णता को प्राप्त करना या मुक्ति पाना है। इसमें अभिनय करते ही नहीं बल्कि अभिनय देखते भी हैं, तटस्थ रूप से नहीं बल्कि भावरंजित दृष्टि से। लीलातीत में अखंड आनंद है और लीला में अनंत विचित्रता है। यही पूर्णता है--- इसमें एक साथ विश्व और विश्वातीत होने का अनुभव रहता है। बाकी की तीन मुक्तियों में--सारूप्य, सालोक्य व सामीप्य- शरीर, मंन, बुद्धि और इन्द्रियाँ रहते हैं। राजा जनक व्यास पुत्र शुकदेवजी को मुक्ति का स्वरुप समझाते हैं, महोपनिषद के द्वितीय अध्याय में - "मुक्ति की अवस्था में जीव की ना उन्नति होती है ना अवनति होती है और ना उसका लय ही होता है; वह अवस्था ना तो सत् है, ना तो असत् है और ना दूरस्थ है। उसमें ना अहंभाव है और ना पराया भाव है। विदेह, मुक्ति गंभीर स्तब्ध अवस्था होती है; उसमें ना तेज व्याप्त होता है और ना अंधकार। उसमें अनिर्वचनीय औरअभिव्यक्त ना होने वाला एक प्रकार का सत् अवशिष्ट रहता है। वह ना शून्य होता है ना आकारयुक्त, ना दृश्य होता है और ना दर्शन होता है..... इसमें भूत और पदार्थों के समूह नहीं होते-- केवल सत् अनंत रूप से अवस्थित होता है।यह अद्भुत तत्व है जिसके स्वरूप का निर्देश नहीं किया जा सकता … इसका आदि मध्य अंत नहीं होता, संकल्प हीनता होती है..।’’

व्यासजी का मत है कि इस कैवल्य-मोक्ष में मन और इंद्रियाँ नहीं रहतीं। जैमिनी का मत इसके विपरीत है कि मुक्ति की अवस्था में भी मन और इंद्रियाँ बनी रहती है। इन दोनों मतों का समन्वय करते हुए शंकराचार्यजी ब्रह्मसूत्र के भाष्य में स्पष्ट करते हैं कि आत्मा सत्य संकल्प है; जब शरीरता का संकल्प करता है तब इसके पास शरीर हो जाता है, जब वह अशरीरता का संकल्प करता है तब शरीर नहीं रहता। कहने का तात्पर्य है कि आत्मा की सत्ता का कभी अभाव नहीं होता। पद्म पुराण में महामुनि का शरीर भगवान में लीन हो गया था और फिर से नारायण मुनि के रूप में प्रकट हुआ। इसी प्रकार नरसिंह पुराण में ब्राह्मण और वेश्या दोनों एक साथ भगवान ने लीन हो गए। उसके बाद पुन: पत्नी के साथ प्रहलाद के रूप में प्रकट हुए। यह कथा नरसिंह चतुर्दशी व्रत के प्रसंग में आती है। इन सबसे ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मा की सत्ता कभी समाप्त नहीं होती।

इसके अलावा कोई-कोई संत समर्ष्टि मुक्ति भी बताते हैं, जिसमें ऐश्वर्य भगवान जितना भक्त को प्राप्त हो जाता है। ऊपर बताई गए सभी प्रकार की मोक्ष में भक्त भगवान जैसा ही बन जाता है; परंतु उसमें जगत को बनाने की, जगत के पालन की और जगत के संहार करने की शक्ति नहीं होती है, ना ही कर्मों के अनुसार जीवों को फल देने की। यह शक्तियाँ भगवान अपने पास ही रखते हैं ! जो भगवान के वास्तविक भक्त होते हैं वह यह सब-- पाँच मुक्तियाँ- नहीं चाहते। उन्हें तो भगवान की सेवा ही चाहिए। पाठकों को स्मरण होगा कि भागवत का आरंभ ही ऐसे होता है: "इसमें अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष के अलावा धर्म का निरूपण किया जा रहा है।” । ∆ चैतन्य महाप्रभु ने तो मोक्ष को डाकिनी बताया है। "मैं आपसे इतना ही चाहता हूँ कि जन्म-जन्मांतर आपके चरणकमलों का शुद्ध भक्त बना रहूँ.”... चैतन्य चरितामृत। यह जन्म-मृत्यु से नहीं घबराते, इन्हें तो बस भगवान का साथ चाहिए, इसके अलावा कुछ नहीं।

यह सब विदेह मुक्तियाँ हैं। इसके अलावा शरीर के रहते हुए ही जीवनकाल में ही मोक्ष प्राप्त करनेवाले को जीवनमुक्त कहते हैं। जीवनमुक्त कैसा होता है? मुक्ति उपनिषद् के दूसरे अध्याय में हनुमानजी को समझाते हुए रामजी आगे बताते हैं कि जीवनमुक्ति क्या है? "हनुमन ! मैं भोक्ता हूँ, मैं कर्ता हूँ, मैं सुखी हूँ और मैं दुखी हूँ…….आदि जो ज्ञान है, वह चित् का धर्म है। यही ज्ञान क्लेश रूप होने के कारण उसके लिए बंधन का कारण हो जाता है। इस प्रकार के ज्ञान का निरोध जीवनमुक्ति है।’’ जीवनमुक्ति का वर्णन भागवत में भी है। कृष्ण उद्धव को समझाते हैं। "जीवनमुक्त पुरुष भला-बुरा कुछ काम नहीं करते, ना ही सोचते हैं, आत्मानंद में ही मग्न रहते हैं, जड़ के समान रहते हैं जैसे कोई मूर्ख हो। " कैसे मान लें कि जीवनमुक्त पुरुष कोई कार्य नहीं करते जबकि वह सब कुछ करते हुए दिखते हैं? उठते हैं, बैठते हैं, आते हैं, जाते हैं, खाते हैं, पीते हैं, सोते हैं, जागते हैं, मल त्यागते हैं, बोलते हैं…. आदि। इसका समाधान श्री जयदयाल गोयंदका ने किया है अपनी पुस्तक 'तत्व चिंतामणि' में जीव संबंधित प्रश्न- उत्तर में। उनका समझाना है कि लोकदृष्टि में जीवनमुक्त कर्म करता हुआ प्रतीत होता है। परंतु, वास्तव में उसका कर्मों से कोई संबंध नहीं होता। संबंध बिना कर्म कैसे होते हैं? उत्तर : वास्तव में वह किसी कर्म का कर्ता नहीं है। प्रारब्ध का जो भाग बचा हुआ है उसके भोग के लिए ही उसी के वेग से कुलाल के ना रहने पर भी कुला चक्र की तरह कर्ता के अभाव में भी परमेश्वर की सत्ता-स्फूर्ति से पूर्व स्वभावानुसार कर्म होते रहते हैं। परंतु, यह कर्तृत्वाभिमान से शून्य होते हैं, इसलिए किसी नए पाप या पुण्य का उत्पादन नहीं होता है। लिहाजा यह कर्म नहीं समझे जाते हैं। इसे ऐसा भी समझा जा सकता है कि धक्का देने पर पहिया घूमता है और काफी समय तक घूमता ही रहता है। धक्का समाप्त होने पर भी कुछ देर तक घूमता है और उसके बाद शांत होता है। जगतगुरुत्तम कृपालुजी ने बहुत ही सुंदर शब्दों में स्पष्ट किया है कि जीवनमुक्तों का कर्त्ता (गवर्नर(governor,)भगवान होता है। इनके द्वारा कर्म नहीं किए जाते बल्कि भगवान द्वारा ही किए जाते हैं। गीता में इन लोगों को स्थिर बुद्धिवाला, योगारूढ़, गुणातीत (ज्ञानी)और भक्त कहा गया है। ऐसे लोगों में कोई कामना नहीं होती है। यह राग, भय और क्रोध से तथा कामना से, ममता से, स्पृहा से रहित होते हैं। सुख और दुख को सम मानते हैं। जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है ऐसे ही स्थिर बुद्धि वाला इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को हटा लेता है। इन लोगों के लिए मिट्टी और सोने में कोई फ़र्क़ नहीं। चांडाल, ब्राह्मण गाय, गधा, हाथी, कुत्ता, मित्र-शत्रु, साधु-दुष्ट, दुराचारी-सदाचारी--- सब में--- परमात्मा दिखता है। ऐसे लोग ब्रह्म में स्थित रहते हैं। ऐसे महापुरुष अपने को कर्ता नहीं मानते। प्रकृति के गुण सब कार्य कर रहे हैं, ऐसा यह जानते हैं। ∆∆ भक्त को तो हर जगह भगवान श्रीकृष्ण ही नजर आते हैं। इस संसार की हर परिस्थिति, व्यक्ति और पदार्थ में --- चाहे अनुकूल हों, चाहे प्रतिकूल हों-- यह लोग सम रहते हैं, एक-सा ही मानते हैं, ना हर्षित होते है ना दुखी। “हे अर्जुन! जिस पुरुष के अंतःकरण में ‘मैं कर्त्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और संपूर्ण कर्मों में लिपायमान नहीं होती वह पुरुष इन सब प्राणियों को मारकर भी वास्तव में ना तो मारता है और ना पाप से बंधता है।××

अन्य धर्म भी ऐसी बातें बताते हैं lदीवाने शम्से तब्रीज में आर ए निकलसन समझाते हैं कि खुदा से एकता हो जाने के कारण कार्य फकीर के नहीं होते वे तो खुदाई होते हैं अर्थात कर्त्ता ईश्वर होता है l जलाल उद्दीन रूमी अपने ग्रंथ मसनबी में लिखते हैं कि फकीर जिसने भगवत्प्राप्ति कर ली है उसके लिए कयामत के दिन कारनामों की किताब नहीं देखी जाती क्योंकि ऐसे लोग कुछ करते ही नहीं l उनके कर्त्ता भगवान होते हैं l बाइबिल में इसी प्रकार बताती है कि कर्त्ता भगवान है l ÷

शरीर रहते हुए मुक्त होने का सबसे सरल उपाय गीता बताती है। कृष्ण की शरण में रहना, अनन्य चित्तवाला होना और हमेशा कृष्ण का स्मरण करना। सब कर्म कृष्ण की प्रसन्नता के लिए करना, कोई भी कर्म करे तो ऐसा समझना कि कृष्ण की पूजा है, फल की कोई इच्छा ना रखना और समस्त कर्म कृष्ण को अर्पण करना।

कपिल भगवान की माता देवहुति के शरीर की हालत मोक्ष के पहले क्या थी इसका वर्णन भागवत में मिलता है । “वह निरंतर समाधि में रहती थीं। वह जान गईं कि विषय अनित्य हैं, सत्य नहीं है, इनसे सुख नहीं मिल सकता। उन्हें अपने शरीर की सुध भी नहीं रहती थी, जैसे जागे हुए व्यक्ति को अपने सपनों में देखे हुए शरीर की नहीं रहती। उनके शरीर का पोषण दूसरे लोग ही करते थे। उन्हें कोई दुख नहीं था इसलिए शरीर कमजोर नहीं हुआ--- शरीर पर तेज था। शरीर की रक्षा प्रारब्ध ही करता था। उन्होंने शीघ्र ही भगवान को प्राप्त कर लिया।’’ इससे यह बात साफ है कि जो लोग जीते जी ही माया के बंधन से मुक्त हो चुके होते हैं, उनका शरीर कमजोर नहीं होता हालांकि उन्हें खाने-पीने की सुध नहीं होती है। भगवान की कृपा से दूसरे लोग ही उनको खाने-पीने की सामग्री देते हैं जुटाकर और शरीर पर एक तेज होता है, कोई दुख नहीं होता हमेशा एक आनंद में रहते हैं।

ऊपर हम देख चुके हैं कि श्रीराम ने हनुमान को मुक्ति उपनिषद के पहले अध्याय में उपदेश दिया है कि पापी भी यदि भगवान का नाम ले तो मुक्त हो जाता है। भगवान के नाम की महिमा अपार है। रूप ध्यान सहित नाम जप भगवत्प्राप्ति का, मुक्तिका( चारों प्रकार की मुक्ति जो भक्तों को मिलती हैं जिसका वर्णन ऊपर किया गया है)/ व अनंत काल के लिए भगवान की सेवा की प्राप्ति का, जिसे भक्त समस्त प्रकार के मोक्ष ठुकराकर माँगते हैं, सबसे सहज साधन है। चेतन महाप्रभु ने मुक्ति को डाकिनी बताया। भक्त भगवान से एकत्व नहीं चाहते, भक्त प्रेम चाहते हैं। प्रेम में दो का होना जरूरी है-- एक प्रेम करने वाला और एक वो जिससे प्रेम किया जाए। जीव को चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण का नित्य दास बताया है।

रामानुजाचार्य इस दास भाव को शेष-शेषी भाव कहते हैं।

माधवाचार्य जीव को हरि का अनुचर कहते हैं।

और, तुलसीदासजी कहते हैं सेवक और सेव्य भाव के बिना भवसागर से पार नहीं जाया जा सकता +

इन्हीं कारणों से भक्त भगवान की सेवा ही माँगते हैं।इसका मनोवैज्ञानिक कारण भी है। भोगों से, विषयों से, इंद्रियों के आनंद से अलग होना दुर्गम है, इनका दमन करना मुश्किल है। इन्हें भगवान की ओर मोड़ना आसान है। भक्ति में राग रहता है, परंतु यह राग भगवान से होता है, इसलिए बंधनकारी नहीं है, भगवान की प्राप्ति कराने वाला है। भागवत में मुक्ति को भक्ति की दासी बताया है। स्वामिनी को छोड़ दासी की ओर जाना, क्या बुद्धिमानी है? ज्ञान और वैराग्य इसके पुत्र हैं। जहाँ भक्ति जाती है वहाँ उसकी दासी और पुत्र भी अपने आप जाते हैं। इस प्रकार भक्ति करने से मुक्ति, ज्ञान और वैराग्य स्वयंमेव मिल जाते हैं।

मुक्ति मिलती है माया से जीव द्वारा स्थापित किए गए संबंध को तोड़ने से। इस संबंध को तोड़ने के, मुक्ति प्राप्त करने के, प्रहलादजी ने दस उपाय बताए हैं : मौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्म पालन, शास्त्रों की व्याख्या, एकांत सेवन जप और समाधि। बहुत से विद्वान, जैसे श्री प्रभुदत्त ब्रहमचारी ने इन पर विस्तार से टीका लिखी है, परंतु भक्ति मार्ग वाले इन दसों बातों पर विशेष ध्यान नहीं देते। चैतन्य महाप्रभु का मत है कि मनुष्य को चौबीस घंटे भगवान की महिमा का कीर्तन करते रहना चाहिए, मौन की आवश्यकता नहीं।(सत्संग पर लेख देखें)। प्रभुपाद जी के अनुसार यह दस विधियां भक्तों के लिए नहीं है।

मोक्ष को माया को पार करना भी कहते हैं। माया को कैसे पार करें? श्रीकृष्ण गीता में हमें बताते हैं कि माया उनकी है। इससे पार पाना कठिन है। उनकी शरण में जाने से इसे पार किया जा सकता है। निष्कर्ष यही निकला कि मोक्ष पाने का सबसे आसान उपाय भगवान की भक्ति है और भगवान की भक्ति के सभी अधिकारी हैं राक्षस, पशु, पक्षी, स्त्री पुरुष, सभी । ÷÷ अर्थात् सभी मोक्ष पाने के और भगवत धाम जाने के अधिकरी हैं। विशेषकर मानव शरीर तो भगवत प्राप्ति के लिए ही मिला है। यह देवदुर्लभ है। अभी मिल गया है तो इससे अपना काम बना लेना चाहिए ना जाने फिर कितने सर्गों के बाद में प्राप्त हो।

कुछ लोगों का मानना है कि मुक्ति तो होती है परंतु हमेशा के लिए नहीं। महाप्रलय तक ही मुक्ति रहती है। जब सृष्टि होती है तब जीव को वापस आना पड़ता है। यह बात मान ली जाए तो मुक्ति तो स्वर्ग आदि लोको में जाने जैसी ही हो गई, फिर स्वर्ग प्राप्ति और मुक्ति में क्या अंतर हुआ। ना तो दुखों का अभाव हुआ ना ही सुख का मिलना! इसलिए इन लोगों की यह बात गलत है। गीता में कृष्ण ने बताया है कि उनके धाम में जाने के बाद वापस नहीं आना पड़ता, कृष्ण का धाम प्राकृतिक लोकों जैसा नहीं है, वह सूर्य और चंद्र या अग्नि का प्रकाश नहीं होता।

मुक्ति के विरुद्ध यह भी कहा जाता है कि यदि सभी जीव मुक्त हो गए तो संसार में कोई जीव ही नहीं रहेगा संसार चल ही नहीं पाएगा। यह भी बेबुनियाद है। प्रथम तो जीव अनंत हैं कितनों की ही मुक्ति हो जाए अनंत जीव बचेंगे ही, क्योंकि अनंत में से अनंत निकाला जाए तो अनंत ही शेष रहता है। दूसरे, श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि उनकी प्राप्ति करने के लिए हजारों में से कोई एक प्रयास करता है, और ऐसा प्रयास करने वालों में से कोई बिरला ही उन्हें पूर्णतः जान पाता है। इस तरह से मोक्ष पाने वाले जीवों की संख्या ना के बराबर ही है। लिहाजा मुक्ति के विपक्ष के उपरोक्त दोनों ही पक्ष सत्य प्रतीत नहीं होते। ऊपर जिन पुराणों-वेदों की चर्चा की गई है उनके अनुसार मुक्ति सत्य है।

ऊपर बताई गई पाँचों मुक्तियों में थोड़ा-थोड़ा अंतर है। यह अंतर साधना भेद से है। जो निराकार ब्रह्म की साधना करता है, “ ब्रह्म ही सब कुछ है, ब्रह्म के अलावा कुछ नहीं, जो ब्रह्म है वह मैं हूँ, मैं ही ब्रह्म हूँ मेरे सिवाय कुछ नहीं, मैं और ब्रह्म एक ही हैं।’’ ऐसी साधना करने वाले साधक ब्रह्म से एकत्व प्राप्त करते हैं, परमसत्ता में लीन हो जाते हैं। इसे कैवल्य मोक्ष भी कहा है। दूसरे कई भक्त जो स्वयं को अपने इष्ट / भगवान के तद्रूप मानते हैं, वे भगवान में लीन हो जाते हैं, यह साकार भगवान में लीन होते हैं। उदाहरण के तौर पर जो स्वयं को कृष्ण मानते हैं, "मैं कृष्ण हूँ, कृष्ण और मैं एक ही हैं’’ वह लोग कृष्णरूप हो जाते हैं (कृष्ण का सारूप्य नहीं) यह सायुज्य मुक्ति है। गोपाल उत्तर तापनी उपनिषद व भागवत के छठे स्कंद में नारायण कवच के प्रसंग में, इस प्रकार की साधना का वर्णन मिलता है। जो निराकार ब्रह्म में लीन होता है उसकी मुक्ति और जो साकार भगवान में लीन होता है उसकी मुक्ति में बस इतना-सा ही अंतर होता है। परंतु, इन सभी मुक्तियों में बहुत-सी समानताएँ हैं। मुक्ति चाहे किसी भी प्रकार की हो इससे प्रकृति से संबंध विच्छेद हो जाता है। शरीर और शरीर के सारे क्लेश मिट जाते हैं अर्थात् दुख की निवृत्ति हो जाती है। आवागमन से छुटकारा मिलता है। दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता। हाँ, भगवान की आज्ञा से पुनः इस संसार में आ सकते हैं। भगवान की लीलाओं में भी भगवान की इच्छानुसार भाग लेने के लिए दुनिया में आ सकते हैं।

दुख निवृत्ति तो समस्त दर्शन बताते हैं। कुछ दर्शन आनंद प्राप्ति भी बताते हैं। इस आनंद प्राप्ति पर विचार करना उचित होगा। यह सुख किस प्रकार का होता है यह हम गीता से जानेंगे । निश्चित तौर पर यह सुख मायिक /प्राकृतिक नहीं होता, क्योंकि माया/ प्रकृति से मुक्ति में हमारा संबंध विच्छेद हो चुका है; हमारा और उसका अब कोई लेना-देना नहीं। यह सुख प्रकृति से परे है। इस सुख को बुद्धि नहीं जान सकती। यह सुख अपनेआपसे अपनेआपमें अपनेआपको मिलता है। इसे स्वरूपबोध भी कहते हैं.. यह सुख प्राप्त होने के बाद इससे और ज्यादा मात्रा का कौन-सा सुख होगा ऐसा विचार ही नहीं आता, इसे आत्यंतिक सुख, एेकांतिक सुख, गुणातीत सुख और आत्मिक सुख भी कहते हैं। इससे मिलता-जुलता सुख सुषुप्ति में भी गाढ़ी नींद में मिलता है, परंतु तब बुद्धि नहीं होती है। आत्मिक सुख में मन और बुद्धि दोनों रहते हैं, परंतु इस सुख का अनुभव नहीं कर पाते क्योंकि यह सुख इनसे पर है इसलिए स्वरुप ही इसका अनुभव कर सकता है। रामसुखदास जी ने बहुत अच्छी तरह इसको समझाया है- “यह संपूर्ण सुखों की आखिरी हद है---इससे मनुष्य कभी चलायमान नहीं होता। समाधि से तो व्युतत्थान होता है, परंतु इस सुख से नहीं क्योंकि प्रकृति से संबंध विच्छेद हो चुका है, इसलिए प्राकृतिक दुख अब यहाँ तक नहीं पहुँच सकते, उसका स्पर्श नहीं कर सकते। इसलिए, शरीर पर कैसी ही विपत्ति क्यों ना आए ऐसा सुख पानेवाला अपनी स्थिति से विचलित नहीं किया जा सकता।" यह सुख जो मिलता है इसका आश्रय सिर्फ श्रीकृष्ण ही है क्योंकि वह ब्रह्म, अविनाशी, अमृत, शाश्वत धर्म और एक एकांतिक सुख का आश्रय हैंl इसलिए मुक्ति किसी भी प्रकार की मिले उन सबका आश्रय श्री कृष्ण ही है।

मुक्ति संबंधी राजा जनक, व्यासजी और शंकराचार्यजी के मत हम ऊपर पहले ही देख चुके हैं। यह अनिर्वचनीय स्थिति है, परंतु है आनंद से भरपूर और हमेशा के लिए।

यदि आप यहाँ तक पहुँच चुके हैं तो आप उन गिने-चुने लोगों में से हैं जो दोबारा जन्म लेना नहीं चाहते, जन्म लेते-लेते परेशान हो गए हैं, इस जन्म को अपना आखिरी जन्म बनाना चाहते हैं तो आप जैसों के लिए भगवत्प्राप्ति/ मुक्ति के तीन ही रास्ते हैं -भक्ति योग, कर्मयोग योग और ज्ञान योग। जो ध्यान योग भगवान ने अर्जुन को गीता में और उद्धव को भागवत में समझाया है वह वास्तव में एक तरह से भक्तियोग ही है। ++तीनों ही मार्गो में मन को हमे परम सत्ता के साथ जोड़ना होता है--- चाहे उसे साकार माने, चाहे निराकार माने और चाहे यह माने कि “मैं वह हूँ।" उसमें मन लगाने के लिए सवेरे जागने से लगाकर सोने तक लगातार उसी का चिंतन करना है।₹ इस हेतु कार्य तो हाथ पैर और इंद्रियों से करने हैं, मन उसमें रखना है । ₹₹ यदि आप गाड़ी चला रहे हैं तो ऐसा कर सकते हैं, दुश्मन पर गोली बरसा रहे हैं तो भी ऐसा कर सकते हैं; परंतु यदि गणित के सवाल हल कर रहे हैं या हिसाब-किताब लिख रहे हैं, लेखा-जोखा कर रहे हैं तो मन में भगवान को रखना संभव नहीं है। इन परिस्थितियों में संतों का कहना है कि कार्य शुरू करने से पहले भगवान को याद कर लिया और कार्य समाप्त होने पर फिर भगवान को याद कर लिया तो भगवान मान लेते हैं कि बीच में भी उन्हें ही याद किया गया है-- यह मत रामसुखदास जैसे कई संतों का है। सब कर्म भगवान को अर्पण करने से भी मन भगवान में लगता है, बंधन नहीं होताऔर भगवान की प्राप्ति होती है। ₹₹₹ भगवान की पूजा समझकर समस्त कर्म करने से भगवान की ही प्राप्ति होती है । यदि किसी से यह सब कुछ भी ना हो, तो वह कुछ भी ना करें। बिना कुछ साधन किए भी भगवत्प्राप्ति हो सकती है! वह सब कुछ छोड़ कर भगवान की शरण में चला जाए और बिल्कुल भी ना डरे। बिल्ली के बच्चे की तरह म्याऊं-म्याऊं करता रहे और कुछ भी ना करें, जो कुछ करना है वह स्वयं भगवान करेंगे। म्याऊं-म्याऊं करने का अर्थ है हमेशा भगवान को याद रखें, उन्हें रो-रोकर पुकारते रहें। यह वादा श्री कृष्ण जी ने अर्जुन से गीता में और उधव से भागवत में।

“भगवान ही मेरे हैं’’ ऐसा विश्वास रखें। (शरणागति पर लेखक का लेख देखें बाल वनिता महिला आश्रमसाइट पर “कम टू मी ओनली, आए एम द वे ‘’.)

यदि हम ऐसा करेंगे तो हमें हमारे अंत समय में परम तत्व याद रहेगा और उसे याद रखते हुए शरीर छोड़ने पर हमें उसकी ही प्राप्ति । श्रीमद्भागवत भी यही कहती है कि अंत समय में ज्ञान से भक्ति से या धर्म से किसी भी उपाय से उसे याद रखना है।।अंत समय में भगवान को याद रखना बहुत कठिन है, यदि जीवन भर उसे याद नहीं रखा है, इसीलिए तो भगवान ने कहा है कि सब समय में उनका स्मरण किया जाए। ₹₹

संत रामसुखदास जी के अनुसार ऐसे भी अपवाद हैं जब अंत समय में भगवान याद आ सकते हाँलाकि हमने जीवन भर उन्हें याद नहीं रखा है :- यदि आखिरी समय में भगवान को प्राप्त किए हुए भक्त के दर्शन हो जाएँ या भगवान की कोई विशेष कृपा हो जाए; भय के कारण हमें भगवान याद आ जाएँ; तीर्थ स्थान के प्रभाव के कारण भी अंत समय में भगवान की स्मृति हो सकती है, जैसे काशी, वृंदावन, द्वारिका आदि; ऐसे स्थान का प्रभाव जहाँ नित्य कीर्तन होता हो या कोई भगवान को प्राप्त हुआ संत या जीवनमुक्त साधना करता हो या मरने वाले के समक्ष कोई नाम कीर्तन करें या गीता का आठवाँ अध्याय सुनाए या किसी भी तरह उसका मन भगवान में लग जाए।

देवी भागवत के अनुसार यदि कोई यह भावना लेकर के शरीर त्यागे “ मैं शरीर से पृथक निर्गुण अविनाशी आत्मा हूं, शरीर भले ही नष्ट हो जाए मैं सदा रहने वाला विकार शुन्य ब्रह्म हूं, मैं इस दुख से भरे संसार और शरीर से अलग हूंl’’तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता l इसी प्रकार का नियम वेद भी बताते हैं l तैत्तिरीय उपनिषद की शीक्षावल्ली के दशम अनु वाक्य में ऋषि त्रिशंकु का अनुभव बताया गया है जिस में भी यही कहा गया है कि ऐसी भावना लेकर शरीर छोड़ा जाए कि दोबारा जन्म नहीं होगा तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता l ऐसे तो मुक्ति के तीन ही मार्ग है ज्ञान, कर्म और भक्ति योग l परंतु भगवान ने अपनी करुणा दिखाते हुए एक अपवाद भी बना दिया है कि जीवन भर मुझे याद नहीं किया है अंत समय में मुझे याद कर ले तो भी तू मुझे ही प्राप्त होगा lऐसा भगवत कानून होते हुए भी साधारण मनुष्य शरीर त्यागते समय शरीर से,बेटे- बेटी,पति -पत्नी, पोते-पोती ,धन ,मकान ,जायजाद, संसार के सुख दुखआदि से चिपकता है, शरीर छोड़ना नहीं चाहता, उसका मन संसार और सांसारिक विषयों में रहता हैl इसलिए वह भगवान को प्राप्त नहीं होता औरअंतिम भाव के अनुसार बार बार जन्म लेता है और मरता है lउसका देव दुर्लभ मनुष्य जीवन यूं ही समाप्त हो जाता है l

शरीर त्यागते समय के कुछ उदाहरण. भीष्म पितामह तीरों की शैया पर लेटे हुए थे। मृत्यु उनके हाथ में थी, इच्छा मृत्यु का वरदान था। सूरज जब उत्तरायण में आया तब शरीर त्यागने का अवसर सही समझा। उनके सामने कृष्ण व पांडव थे। कृष्ण के लिए उन्होंने बताया कि वे साक्षात भगवान हैं, सबके आदि कारण और परम पुरुष नारायण है और इन्हें शंकर, नारद और कपिल भगवान के अलावा कोई नहीं जानता। गूढ़ रहस्य बताते हुए समझाया कि जो भगवान में मन लगाकर और वाणी से इनके नाम का कीर्तन करते हुए शरीर का त्याग करते हैं वह लोग उनकी कामनाओं से तथा कर्म के बंधन से छूट जाते हैं और भीष्म पितामह ने मन, वाणी और दृष्टि से श्रीकृष्ण में अपने आप को लीन कर दिया, उनके प्राण वही विलीन हो गए और वह शांत हो गए। इस प्रकार भगवान का ध्यान करते हुए भीष्म ने शरीर का त्याग किया और अनंत ब्रह्म में लीन हो गए । # # महाभारत में दूसरा विवरण है जिसके अनुसार कृष्ण के आदेश से भीष्म प्राण छोड़कर अपने वसुलोक को गए, उनका मोक्ष नहीं हुआ। ### ऐसा कल्प/मन्वन्तर भेद के कारण है। भागवत की घटनाएँ पद्मकल्प की हैं और महाभारत की घटनाएँ किसी अन्य कल्प की। हर कल्प व मन्वन्तर में घटनाएँ पूर्णतः एक जैसी हो ऐसा आवश्यक नहीं है। (प्रलय संबंधी लेख में यह सब बातें समझा दी गई हैं।)

राजा खटवांग को जब पता चला कि उनकी आयु के केवल दो घड़ी शेष हैं, तो उन्होंने मन संसार के विषयों से हटा दिया : “मैं विषयों को छोड़ रहा हूँ और केवल भगवान की शरण ले रहा हूँ।” अपने शरीर का त्याग कर दिया और अपने वास्तविक स्वरुप में स्थित हो गए। “यह शून्य के समान है परंतु शून्य नहीं है, परम सत्य है भक्तजन इसका भगवान वासुदेव के नाम से वर्णन करते हैं..। " #

कपिल भगवान की माता देवहुति का शरीर त्याग। सब सांसारिक मोह का त्याग करके उन्होंने भगवान का ध्यान किया। भगवान में बुद्धि स्थित हो जाने के कारण उनका जीव भाव निवृत्त हो गया और वह समस्त क्लेशों से छूटकर परमानंद में मग्न हो गई। वह निरंतर समाधि में रहती। उन्हें शरीर की भी सुध ना थी। शरीर का पोषण भी दूसरों द्वारा ही होता था। परंतु उन्हें कोई मानसिक दुख नहीं था। इस कारण से शरीर दुर्बल नहीं हुआ और तेजोमय बन गया। योगसाधना से उनके शरीर के सारे मल दूर हो गए और उनका शरीर एक नदी के रूप में बदल गया। उन्होंने इस प्रकार भगवान में ही मन लगाकर भगवान को प्राप्त कर लिया। और इसी प्रकार ऋषि ऋचीक की पत्नी सत्यवती कौशिकी नाम की पुण्य नदी बन गईं।।

भक्त राजा ध्रुव का शरीर त्याग करना भी ऊपर बताए गए गीता के सिद्धांतों के अनुसार ही था। संसार से उनका मन भर गया, राजपाट अपने पुत्र को दिया और हिमालय में बद्रिका आश्रम में पहुँच गए। वहाँ एकांत में योग साधना की। चिंतन करते करते ध्रुवजी भगवान में इस तरह तन्मय हो गए कि भूल गए “मैं ध्रुव हूँ ”। उन्होंने एक विशाल और सुंदर विमान को आते हुए देखा। विमान में भगवान के दो पार्षद नंद-सुनंदा चार भुजाधारी श्याम वर्ण के सुंदर व्यक्तित्व वाले, इन्हें भगवान के लोक में लेने आए। मृत्यु भी आया। ध्रुवजी मृत्यु के सिर पर पैर रखकर विमान में चढ़े। मृत्यु साधारण मनुष्य को भी आती है और भगवान के भक्तों को भी आती है। साधारण मनुष्य परेशान होते हुए त्यागता है देह को। भक्त मृत्यु के सिर पर पैर रखकर जाता है। एक बंधन में फंसा हुआ जाता है, एक मुक्त होकर जाता है। हम जैसे प्राणियों को लगता है कि दोनों ही एक समान मरे हैं। ध्रुवजी के भगवत धाम जाने में एक विलक्षण बात और थी। उन्होंने अपनी भौतिक देह का त्याग नहीं किया, वही दिव्य शरीर बन गया। वह सोने की तरह चमक रहा था और इस दिव्य शरीर से माता को भी साथ लेकर भगवान के नित्य धाम में पधारे। ईसा मसीह भी इसी प्रकार सशरीर भगवान के धाम गए। इसके विपरीत मृत्यु के समय नारद जी का पंचभौतिक शरीर नष्ट हो गया और उन्हें पार्षद शरीर प्राप्त हुआ।. नष्ट होने से अभिप्राय है कि उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया, शरीर पीछे नहीं छूटा, जैसे साधारण लोगों का छूटता है। अन्य दूसरे ही उसको जलाते हैं या दफनाते हैं या जानवर चील कौवे खा लेते हैं। अजामिल ने पंच भौतिक शरीर को त्याग दिया और तत्काल पार्षदों का स्वरूप प्राप्त कर लिया और विमान में बैठ कर भगवान के पार्षदों के साथ भगवान लक्ष्मीपति के निवास वैकुंठ को चले गए । त्यागने से मतलब है कि आत्मा ने वह शरीर छोड़ दिया, वह शरीर इस जगत में रहा।

राजा पृथु योग मार्ग द्वारा संसार के विषयों को त्यागकर अपने ब्रह्मस्वरूप में स्थित हुए और फिर उन्होंने शरीर त्यागा प्राण को ब्रह्मरंध्र में ले जाकर। कृष्ण के मामा कंस, राजा शिशुपाल और दंतवक्र तथा हाथी गजेंद्र का मन भी अंत समय में भगवान में लगा हुआ था इसलिए इन्हें भी भगवान की प्राप्ति हुई। । गजेंद्र ने भी अपना हाथी का शरीर त्यागा और चारभुजाधारी पार्षद, भगवान द्वारा बना दिया गया। अंतिम समय में यदि मन भगवान में स्थित हो, भाव चाहे जो हो, तो प्राप्ति भगवान की ही होती है--(-श्रीमद् भगवद गीता 8/5-15) ।

ऊपर हमने देखा कि हम भगवान के अंश है. और भगवान आनंद है, उसे सत् -चित्-आनन्द कहते हैं, पहले दो अक्षर आनंद के विशेषण है, वास्तविक नाम है आनंद। भगवान आनंद है यह कहना ठीक है; भगवान में आनंद है, यह ठीक नहीं l ऐसा लगता है कि आनंद और भगवान दो-दो चीज हो जैसे कि रसगुल्ले में रस और गुल्ला अलग-अलग दो हैं। भगवान के अंश होने के कारण हम आनंद की खोज में हैं; परन्तु अभी तक हमें आनंद प्राप्त नहीं हुआ है। कारण हम संसार में आनंद खोज रहे हैं। जहाँ वह है ही नहीं। आनंद भगवान में है। जब हम भगवान में आनंद खोजेंगे तब हमें आनंद मिल सकता है। आनंद पाने हेतु भगवान की ओर जाना है और हमें यह भी ज्ञान होना चाहिए कि धरती के अलावा भी बहुत से लोक हैं।(लोक-परलोक लेख में विस्तार से बताया गया है) यह सब अनित्य हैं. केवल भगवत धाम ही नित्य है। इस धाम में जाने का प्रयास करेंगे तब ही हम आवागमन से मुक्त हो सकते हैं।

अंत समय का भाव और शरीर छोड़ते समय का चिंतन ज्ञानी के लिए भी महत्वपूर्ण है l देवी भागवत के अनुसार,ऐसा चिंतन लेकर शरीर त्यागा जाए कि “ मैं इस संसार से अलग हूं,’’ और वेदों के अनुसार ऐसा चिंतन करते हुए शरीर त्यागा जाए कि “यह मेरा आखिरी जंम है मेरा पुनर्जन्म नहीं होने वाला क्योंकि मैं संसार रूपी वृक्ष का उच्छेद करने वाला हूं’’l 🎞 तो इस प्रकार से भाव रखकर शरीर छोड़ने वाले का आवागमन के चक्र से छुटकारा हो जाता है और वह पूर्णब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाता हैl यहां पर यह स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं कि यह भाव मृत्यु के समय तब ही आएगा जबकि जीवन भर इस प्रकार के भाव की साधना की है और इस भाव को स्थाई कर लिया है l

तत्काल मोक्ष?

"एक तो शरीर इंद्रियाँ मन बुद्धि साथ लेते हुए साधन करना और एक सीधा परमात्मा के साथ संबंध जोड़ देने।" तत्काल मोक्ष कैसे मिले यह राम सुखदासजी ने बताया है:" मेरे स्वरूप में कोई विकार नहीं है "...इसमें स्थित रहने से बहुत जल्दी सिद्धी होती है।मनन निदिध्यासन आदि की आवश्यकता भी नहीं।बात भी सही है। भगवान ने हमें कर्ता बनया ही नही, असँख्य् शरीर धारण करने पर भी हम सभी शरीरओ से और कर्मो से असंग ही हैं।"० इस ज्ञान से मुक्ति हो जाएगी।
बाल वनिता महिला आश्रम
"मैं भगवान का हूं" ऐसा मानते ही सिद्धि हो जाती है । मान्यता ऐसी हो जिसको कोई हटा नहीं सके पूर्ण दृढ़ता हो। स्वयं शंकर जी आकर कह दे मैं तेरे को स्वीकार नहीं करता तो भी मैं उन्हें नहीं छोडूंगी ऐसा विश्वास पार्वती जी का था । भगवत प्राप्ति हेतु हमें भी ऐसा ही दृढ़ निश्चय करना है "मैं भगवान का हूं, चाहें मुझे हजारों जन्म तक ना मिलें और खुद ही आकर क्यों ना कह दे कि मैं तेरे को स्वीकार नहीं करता।"

गीता के कर्म योग में कामनाओं का त्याग होने पर स्वरूप में स्थिति हो जाती है, तत्काल।

ध्यान में बहुत दूर तक जड़ता रहती है।समाधि से उतरते ही पुनः माया लग जाती है।(तत्काल सिद्धि का मार्ग,साधन -सुधा- सिन्धु ,गीता प्रेस गोरखपुर)

है ना मुक्ति बहुत आसान !

ठुकराओ संसार को

समाप्त करो आने-जाने को,

अपने घर की देखो राह को।

सदा लो हरि का नाम,

पहुँचो उनके धाम,

फिर वहाँ रहो हरदम।

आध्यात्मिक सिद्धांत निम्न:-

भागवतसे11/2/37,3/9/11,7/20/39,7/1/13,10/7/8,10/66/24,10/44/39,12/9/22,7/1/27,2/1/15,4/8/82,3/39/30,1/1/2,11/11/7,9/9/47,9/9/42,1/6/28,8/4/12,3/5/2,

सांख्यसूत्र 3/65,

महाभारत।167/46-47,

*गीता15/7, 13/31, जैनिसिस 1/26-27,

**गीता 2/16-29, @@ गीता 13/19-21,

==गीता 8/24, ∆∆ 3/27, ∆∆∆8/5, ÷÷9/30-32, ××18/17, ₹18/65, ₹₹ 8/7, ₹₹₹9/27to 28, "० ५/१४, १३/३२ सभी गीता से हैं,

० भागवत 3/9/11, 4/11गईतआ, 3/3 मद. उप.

=भागवत 3/7/9-11, π भागवत 7/10/39, ***भागवत 11/2/37, ००० भागवत 1/1//2, #भआगवत 9/9/42-49, ++ भागवत 11/15/24, गीता 6/47, 12/2, 5,

# # भागवत 1/9/44, # # # महाभारत 167/46-47,

@ सांख्य सूत्र3/65,

०० कठोपनिषद 2/1/15 ,

🎞 तैत्तिरीय उप. शिक्षावल्ली 10 वां अनुवाक्

•६/१६/१०-१५ अध्यात्म रामायण

इतिश्री अध्याय 24

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By वनिता कासनियां पंजाब वेद, उपनिषद, गीता, श्री आदि शंकराचार्य जी, प्रभु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, गुरू नानक देव जी, संत कबीरदास जी, प्रभु जीसस क्राइस्, प्रभु गौतमबुद्ध जी व सम्पूर्ण विश्व के धर्मों का सार यही कहता हैं कि ज्ञानी व्यक्ति या स्थितप्रज्ञा की अवस्था वाले व्यक्ति में यह सभी सूक्ष्म लक्षण होते हैं: ⤵️कर्तव्य निभाने से सम्बंधित लक्षण:प्रतिदिन जितना सम्भव हो सके परमात्मा के प्रति ध्यान-उपासना का निरन्तर एकान्त में भक्ति व प्रेमपूर्वक अभ्यासगृहस्थ जीवन व जीविका अर्जित के सभी कार्यों को सदैव पूर्ण ब्रह्मा की प्रेमभरी सतत याद में डूबे रह कर (जितना सम्भव हो सके) एकान्त में, सेवा भाव में तत्पर रहते हुए निभानासदा सत्य बोलने का साहस होनासमस्त प्राणियों में पूर्ण परमात्मा श्रीकृष्ण को वर्तमान जानना और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति अद्रोह का भाव रखना। [ईशवर की भक्ति व प्रेम से हृदय (आत्मा) पर लगातार ध्यान साधना से समस्त प्राणियों के प्रति स्वतः ही मन में संवेदना, दया व करूणा उत्पन्न हो जाती है।]स्वभाव व व्यवहारिक लक्षण:इनके अलावा प्रारब्धा (संस्कारों या) कर्मों के अनुकूल मिलने वाले हानि-लाभ में सन्तोष रखनास्त्री और पुत्र आदि में ममता व लगाव शून्य होनाअहङ्कार और क्रोध से रहित होनासरल व मृदु भाषी होनाप्रसन्न-चित्त रहनाअपनी निन्दा-स्तुति के प्रति विरक्त रहते हुए सदा एक समान रहनाजीवन के सुख दुःख, उतार-चढ़ाव और शीतोष्णादि द्वन्द्वों को सदैव समर्पण भाव से शान्तिपूर्ण सहन करनाआपत्तियों व कठिनाइयों से भय न करनानिद्रा, आहार और विहार आदि से अनासक्त रहनाव्यर्थ वार्तालाप व गतिविधियों के लिये स्वयं को अवकाश न देनाहृदय के भीतर की अवस्था के लक्षण:श्रेष्ठतम गुरू के मार्गदर्शन के अनुसार निष्ठा के साथ ध्यान-साधना करना; ईश्वर के अनन्त प्रेम के स्त्रोत से अटूट जुड़ाव का लगातार प्रयास व अहसास करना ताकि उपरोक्त लक्षण हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बन सके।श्रीकृष्ण के सतत-स्मरण से अर्जित प्रबोध-सुधाकर (दिव्य आलोक के परम सत्य) में निरन्तर शान्तचित्त रहनाकोई भगवत्सम्बन्धी गीत व भजन के गान अथवा बाँसुरी (वाद्ययन्त्र द्वारा राग) बजाने या सुनने पर हृदय में एक ही समय में एक साथ आनन्द का आविर्भाव और सात्त्विक भावों का प्रौढ़ उद्रेक हो जाना।जीवात्मा मन के पूर्वाग्रही अज्ञान (संस्कारों के आवरणों) से मलीन है। जीवात्मा का स्वयं के दिव्य स्वरूप (आत्मा पर) प्रेमपूर्वक सतत ध्यान करने पर प्राप्त होने वाले दिव्य ज्ञान से वह पुनः निर्मल होती है आत्मज्ञान के ज्ञानाभ्यास से अपने आप अज्ञान का नाश हो जाता है जैसे सोते समय स्वप्न सच्चा सा मालूम होता है और जागने के बाद झूठा लगता है, वैसे ही अज्ञान व मलिन दशा में संसार सच्चा व ज्ञान होने तथा जानने पर झूठा लगने लगता है।श्री आदि शंकराचार्य जी आत्मबोध के श्लोक 32 से 34 में कहते हैं:जन्म, बुढ़ापा, दुबला-मोटा होना, रोग, मृत्यु आदि सिर्फ़ देह में है, आत्मा में नहीं है। आत्मा उनसे अन्य (सूक्ष्म दिव्य शरीर) है और बिना इन्द्रियवाला है। इससे शब्द, स्पर्श, स्वाद आदि विषयों का संग भी नहीं है। और बिना मन वाला होने से राग, द्वेष, दुःख, भय आदि भी आत्मा में नहीं है ॥32॥इस आत्मा से प्राण, मन व सब इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, अग्नि, जल और संसार को धारण करनेवाली पृथ्वी उत्पन्न होती है ॥33॥आत्मा सत्, रज, तम गुणों से रहित, सदैव रहनेवाला, जाना-आना आदि क्रिया से रहित, संकल्प विकल्प से रहित, माया के दोषों से रहित; तथा सभी षट् विकारों: जन्म, शरीर-वृद्धि, बाल्यावस्था, प्रौढ़ता, वार्द्धक्य, व मृत्यु; तथा काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अरू (ज़ख़्म, रोग), व मत्सर (ईर्ष्या-द्वेष) से रहित, निराकार, सदा मुक्तस्वरूप निर्मल है ॥34॥श्री आदि शंकराचार्य जी के अनुसार:अन्तःकरण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी के चरणकमलों की भक्ति के बिना कभी शुद्ध नहीं हो सकता। जैसे वस्त्र को खारयुक्त जल से शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार चित्त को भक्ति से निर्मल किया जा सकता है ।बाइबल में सेंट थियोडोरोस कहते हैं: "इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता जिसकी पिता स्वरूप प्रभु ने इतनी अच्छी तरह से पुष्टि की है, कि मनुष्य को मन में लगातार केवल इस विचार को बनाये रखने के अलावा कहीं और आराम नहीं मिलता है कि उसके हृदय के भीतर बसे (आराध्य) परमात्मा और वह (उपासक आत्मा) अकेले मौजूद हैं; और इसलिए वह अपनी बुद्धि को संसार की किसी भी अन्य चीज के लिए बिल्कुल भी भटकने नहीं देता है; बल्कि वह पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए तरसता है, सिर्फ़ उसके लिए। केवल ऐसे व्यक्ति को ही सच्चा सुख व आराम मिलेगा और अनगिनत कामनाओं के निर्मम जुनून से मुक्ति मिलेगी।” (द फिलोकलिया v.II. p. 34, 91)हमारे मन व बुद्धि जब दिव्य संतों के वचनों से प्रभावित होते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि जब कोई मनुष्य पूर्ण परमात्मा (सर्वज्ञाता, सर्वोपरि व सर्वव्यापक) को जानता है तो ऐसा कुछ भी शेष नहीं रह जाता है जो उसे वास्तव में जानने की आवश्यकता हो। क्योंकि पूर्ण परमात्मा को जानने का अर्थ है सब कुछ जान लेना।इसलिए, सच्चा ज्ञान खुद को (हृदय की नितांत गहराइयों में स्वयं को खो देने के पश्चात) प्रेम व भक्तिसागर की रहस्यमय असीम शांति में डूबाने पर ही प्राप्त होता है।इस प्रकार, जब मनुष्य को अपने भीतर ईश्वर का पूर्ण ज्ञान होता है, तो उसकी बुद्धि को ज्ञान की तलाश में नहीं भागना पढ़ता।और जब किसी व्यक्ति के पास ऐसा विवेक (अंतर्ज्ञान) हो अर्थात् विश्लेणात्मक तर्क के बिना सीधे अनन्त दिव्य ज्ञान के स्तोत्र से जानने की क्षमता हो; जब कोई इस तरह के अतुलनीय दिव्य ज्ञान का अधिकारी हो जाता तो कुछ भी ओर जानना बेमानी हो जाता है।जब तक किसी व्यक्ति का मन चंचल है; उसके मन में विचार दौड़ते रहते है, तो वह इस बात का प्रतीक है कि उसने अभी तक अपरिहार्य रूप से अपने उत्कृष्ट आत्मिक पहलुओं या स्वयं के उच्च (दिव्य) स्वभाव में बसना यानि अपनी आत्मा में आराम करना नहीं सीखा है।सेंट मैक्सिमोस इस तर्क को स्पष्ट करते हुए कहते हैं: “एक व्यक्ति का मन व बुद्धि जब अपने शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करके स्वयं को मुक्त कर लेती है तो उसे खुशी और दर्द का अनुभव नहीं होता है, पर मनुष्य ऐसा तब कर पाता है जब वह अपने मन व बुद्धि को परमात्मा से बांधता है या एकजुट कर लेता है; उस पूर्ण परमात्मा को चाहता है जो प्यार, लगाव व इच्छा का वास्तविक लक्ष्य व सर्वश्रेष्ठ सुपात्र है।“ (द फिलोकलिया (The Philokalia) v.II, p.175, 54)निस्वार्थ प्रेम में ईश्वर की याद में मन व बुद्धि का भक्ति मे डूबे रह कर खो जाने में ईश्वरीय शांति मिली है; प्रभु श्रीकृष्ण ने भगवत गीता के अध्याय 2:58 के चिंतनशील मणि रूपी श्लोक में इस स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है:जिस प्रकार कछुवा अपने बचाव हेतु बार-बार अपने अंगो को संकुचित करके अपने खोल के भीतर कर लेता है, उसी तरह योगी, भक्त या आत्मसिद्ध व्यक्ति अपने मन व इन्द्रियों (ध्यान) को भक्तिभाव द्वारा इन्द्रियविषयों से खीँच कर पूर्ण ब्रह्मा की पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर कर लेता है |तात्पर्यः अधिकांश व्यक्ति अपनी इन्द्रियों व मन के दास बने रहते हैं और इन्द्रियों के ही कहने पर चलते हैं। इन्द्रियों की तुलना विषैले सर्पों से की गई है; मानव का मन व इन्द्रियाँ सदैव अत्यन्त स्वतंत्रतापूर्वक तथा बिना किसी नियन्त्रण के कर्म करना चाहती हैं। योगी या भक्त का इन सर्पों को वश में करने के लिए, ईश्वर भक्ति की धुन में अत्यन्त प्रबल होना अति आवश्यक है। वह उन्हें कभी भी कार्य करने की छूट नहीं देता।जैसे कछुआ किसी भी समय अपने अंग समेट लेता है उसी तरह भक्त (ज्ञानी) परमात्मा के स्मरण में अपने मन व सभी इंद्रियों को इंद्रियों के आनंद के आकर्षण से तुरंत वापस खींच लेता है। और पुनः वह विशिष्ट उद्देश्यों से आवश्यकतानुसार उन्हें प्रकट कर लेता है तभी वह सदा कृष्णभावनामृत में स्थिर रह पाता है। (BG-Ch-2, V-58)http://vnita40.blogspot.com/2022/08/19-yoga-for-knee-pain-how-yogasana.htmlगलातियनस (Galatians) 5:24 के अनुसार: "वे सभी जो ईसा मसीह (ईश्वर/God) के हैं, उनसे सच्चा प्रेम करते हैं उन्होंने अपने निम्न स्वयं के साथ, अपने सभी जुनूनों और इच्छाओं को क्रूस पर चढ़ाया है।"गलातियनस 3:28 कहता है: "कोई यहूदी या ग्रीक नहीं है; कोई गुलाम या स्वतंत्र नहीं है; न ही कोई पुरुष या महिला है - क्योंकि सभी यीशु मसीह में एक है; वे सभी एक परमात्मा का (समानुरूप से) अभिन्न अंश हैं।”बाइबल के 11:24 में सेंट ल्यूक ने बड़ी ख़ूबसूरती से कहा है: "जब कोई (संस्कारों के आवरणों से ढकी) अशुद्ध प्यासी आत्मा मन के ज़रिए शान्ति व सुकून की तलाश में बाहर झांकती है तो उसे भौतिक जगत में कहीं भी दिव्यता का पवित्र जल नहीं मिलता, उसे जलरहित देशों से गुजरना पढ़ता है; वह चिरस्थायी आराम करने के लिए जगह तलाशती रहती है, और जब उसे कहीं भी शान्ति, सूकून व आराम नहीं मिलता है तो आखिरकार वह निर्णय लेती है कि मैं अपने घर वापस जाउगी जहां से मैं आयी हूँ।”इफिसियों (Ephesians) 4: 22-24 में कहा गया है कि: “हमें अपने पुराने स्व को (अर्थात अपनी पुरानी सोच व पूर्वाग्रहों को, पुरानी आदतों, पसन्द-नापसंदों आदि को) सदा अलग रखना चाहिये, क्योंकि वह हमारे पुराने (पिछले जन्मों के) तरीकों से संबंधित है और वह पुरानी भ्रामक इच्छाओं व धारणाओं का पालन करके भ्रष्ट हो चुकी है। तथा वह केवल हमारे मन का आत्मा पर ध्यान व लगाव करने से नवीनीकृत होती हैं; केवल तभी मनुष्य अपने (निम्न) स्वयं को परिवर्तित कर पुनः (उच्च) दिव्य मानव में ढाल सकता है। — मानव की वह उच्चतम दिव्य अवस्था जो परमेश्वर के दिव्य सनातनी सिद्धांतों पर, सत्य की पवित्रता व सार्वभौमिक न्याय पर अवधारित होती है।”श्री आदि शंकराचार्य जी ने आत्मबोध में बताया है कि ऐसी प्रतिदिन की अभ्यासवाली यह वासना कि मैं ब्रह्म ही हूँ अज्ञान के विक्षेपों को दूर करती है जैसे रसायन रोगों को ॥37॥ एकान्त स्थान में आसन पर बैठ वैराग्यवान् व जितेन्द्रिय हो एकाग्रचित्त कर उस अनन्त अद्वितीय परमात्मा का ध्यान करे ॥38॥वे आगे लिखते हैं कि: सुन्दर बुद्धिवाला ज्ञानी पुरुष अंतर्दृष्टि वाली बुद्धि से सब देखते हुए संसार को आत्मा में ही लीन करके सदा निर्मल आकाश की तरह एक परमात्मा का ही ध्यान करता है ॥39॥ आत्मज्ञानी पुरुष सब नामवर्ण (self-identity) आदि छोड़के पूरे चैतन्यानन्द रूप से रहता है ॥40॥श्री आदि शंकराचार्य जी कहते हैं कि: ज्ञानी व्यक्ति बाहर के झूठे सुखों का लगाव छोड़ आत्मसुख से युक्त अपने अंतस में ही घड़े में रक्खे दीपक की तरह साफ प्रकाशता है ॥51॥ सब कुछ जानता हुआ भी योगी पुरूष अज्ञानी की तरह रहता है और बिना लगाव के वायु की तरह आचरण करता है ॥52॥ईश्वरीय मनन में रहने वाला ज्ञानी व योगी उपाधियों से अलगाव बनाये रख कर भगवान् में पूरी रीति से लीन होता है जैसे जल में जल प्रकाश में प्रकाश और अग्नि में अग्नि ॥53॥ जिस आत्म लाभ से अधिक दूसरा लाभ नहीं जिस सुख से अधिक दूसरा सुख नहीं जिस ज्ञान से अधिक दूसरा ज्ञान नहीं वही ब्रह्मा है ऐसा विचार अपने मन व हृदय में बनाये रखता है ॥54॥अंत में श्री आदि शंकराचार्य जी कहते हैं कि: आत्मा ज्ञानरूपी सूर्य है। आकाशरूपी हृदय में उदय हो अन्धकाररूपी अज्ञान को दूर कर सबमें व्याप्त होकर सबको धारण करते व सबको प्रकाशित करते सुशोभित होता है ॥67॥जो विचार त्यागी पुरूष स्थान समय आदि को बिना देखे शीत उष्ण आदि के दूर करनेवाले सबमें रहने वाले माया रहित नित्य आनन्दरूप अपने आत्मतीर्थ को सेवन करता है वह सबकुछ जाननेवाला, सबमें रहता हुआ मुक्त होता है ॥68॥निष्कर्ष रूप में ज्ञान को शाब्दिक रूप में व्यक्त करना कठिन है चूँकि ज्ञान अनुभव से प्राप्त होता है अतः उसका व्यवहारिक रूप से ही प्रकटीकरण हो सकता है।अतः ज्ञान का अर्थ हुआ: मन, इन्द्रियों और शरीर द्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित होना।तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दन परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दन वासुदेव (पूर्ण परमात्मा) के सिवाय हृदय व मन में अन्य किसी के भी होनेपन का भाव न रहना।तथा श्रद्धा व भक्तिपूर्वक मन, वाणी और शरीर सब प्रकार से ईश्वर के शरण होकर; गृहस्थाश्रम में ही रहते हुए, निम्नलिखित तरीक़े से प्रेमपूर्वक निरन्तर पूर्ण परमात्मा का “सतत स्मरण” करना तथा उनके दिव्य गुणों और दिव्य स्वरूप को प्रभावसहित अपने आचरण में उतारना। ⤵️http://vnitak.blogspot.com/2022/08/check-this-post-from.htmlईश्वर करे आपका जीवन दिव्य प्रेम, ज्ञान, शान्ति व परमानन्द से भर जाये! आमीन! आमीन! आमीन!

ज्ञान क्या है? By वनिता कासनियां पंजाब वेद, उपनिषद, गीता, श्री आदि शंकराचार्य जी, प्रभु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, गुरू नानक देव जी, संत कबीरदास जी, प्रभु जीसस क्राइस्, प्रभु   गौतमबुद्ध जी व सम्पूर्ण विश्व के  धर्मों का सार  यही कहता हैं कि  ज्ञानी  व्यक्ति या  स्थितप्रज्ञा  की अवस्था वाले व्यक्ति में यह सभी  सूक्ष्म लक्षण  होते हैं: ⤵️ कर्तव्य निभाने   से सम्बंधित लक्षण: प्रतिदिन जितना सम्भव हो सके परमात्मा के प्रति ध्यान-उपासना का निरन्तर एकान्त में भक्ति व प्रेमपूर्वक अभ्यास गृहस्थ जीवन व जीविका अर्जित के सभी कार्यों को सदैव पूर्ण ब्रह्मा की प्रेमभरी सतत याद में डूबे रह कर (जितना सम्भव हो सके) एकान्त में, सेवा भाव में तत्पर रहते हुए निभाना सदा सत्य बोलने का साहस होना समस्त प्राणियों में पूर्ण परमात्मा श्रीकृष्ण को वर्तमान जानना और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति अद्रोह का भाव रखना। [ईशवर की भक्ति व प्रेम से हृदय (आत्मा) पर लगातार ध्यान साधना से समस्त प्राणियों के प्रति स्वतः ही मन में संवेदना, दया व करूणा उत्पन्न हो जाती है।] स...

🕉हनुमान जी जब पर्वत लेकर लौटते है तो भगवान से कहते है🕉🙏By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबप्रभु आपने मुझे संजीवनी बूटी लेने नहीं भेजा था.आपने तो मुझे मेरी मूर्छा दूर करने के लिए भेजा था. "सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू"हनुमान्‌जी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा है,प्रभु आज मेरा ये भ्रम टूट गया कि मै ही सबसे बड़ा भक्त,राम नाम का जप करने वाला हूँ.भगवान बोले कैसे ? हनुमान जी बोले - वास्तव में तो भरत जी संत है और उन्होंने ही राम नाम जपा है. आपको पता है जब लक्ष्मण जी को शक्ति लगी तो मै संजीवनी लेने गया पर जब मुझे भरत जी ने बाण मारा और मै गिरा, तो भरत जी ने, न तो संजीवनी मंगाई, न वैध बुलाया. कितना भरोसा है उन्हें आपके नाम पर, आपको पता है उन्होंने क्या किया."जौ मोरे मन बच अरू काया,प्रीति राम पद कमल अमाया"तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला,जौ मो पर रघुपति अनुकूला सुनत बचन उठि बैठ कपीसा,कहि जय जयति कोसलाधीसा"यदि मन वचन और शरीर से श्री राम जी के चरण कमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो तो यदि रघुनाथ जी मुझ पर प्रसन्न हो तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए. यह वचन सुनते हुई मै श्री राम, जय राम, जय-जय राम कहता हुआ उठ बैठा. मै नाम तो लेता हूँ पर भरोसा भरत जी जैसा नहीं किया, वरना मै संजीवनी लेने क्यों जाता,बस ऐसा ही हम करते है हम नाम तो भगवान का लेते है पर भरोसा नही करते, बुढ़ापे में बेटा ही सेवा करेगा, बेटे ने नहीं की तो क्या होगा?उस समय हम भूल जाते है कि जिस भगवान का नाम हम जप रहे है वे है न, पर हम भरोसा नहीं करते. बेटा सेवा करे न करे पर भरोसा हम उसी पर करते है.2.🕉 - दूसरी बात प्रभु! बाण लगते ही मै गिरा, पर्वत नहीं गिरा, क्योकि पर्वत तो आप उठाये हुए थे और मै अभिमान कर रहा था कि मै उठाये हुए हूँ. मेरा दूसरा अभिमान टूट गया, इसी तरह हम भी यही सोच लेते है कि गृहस्थी के बोझ को मै उठाये हुए हूँ,3.🕉 - फिर हनुमान जी कहते है -और एक बात प्रभु ! आपके तरकस में भी ऐसा बाण नहीं है जैसे बाण भरत जी के पास है. आपने सुबाहु मारीच को बाण से बहुत दूर गिरा दिया, आपका बाण तो आपसे दूर गिरा देता है, पर भरत जी का बाण तो आपके चरणों में ला देता है. मुझे बाण पर बैठाकर आपके पास भेज दिया.भगवान बोले - हनुमान जब मैंने ताडका को मारा और भी राक्षसों को मारा तो वे सब मरकर मुक्त होकर मेरे ही पास तो आये, इस पर हनुमान जी बोले प्रभु आपका बाण तो मारने के बाद सबको आपके पास लाता है पर भरत जी का बाण तो जिन्दा ही भगवान के पास ले आता है. भरत जी संत है और संत का बाण क्या है? संत का बाण है उसकी वाणी लेकिन हम करते क्या है, हम संत वाणी को समझते तो है पर सटकते नहीं है, और औषधि सटकने पर ही फायदा करती है.4.🕉 - हनुमान जी को भरत जी ने पर्वत सहित अपने बाण पर बैठाया तो उस समय हनुमान जी को थोडा अभिमान हो गया कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा ? परन्तु जब उन्होंने रामचंद्र जी के प्रभाव पर विचार किया तो वे भरत जी के चरणों की वंदना करके चले है.इसी तरह हम भी कभी-कभी संतो पर संदेह करते है, कि ये हमें कैसे भगवान तक पहुँचा देगे, संत ही तो है जो हमें सोते से जगाते है जैसे हनुमान जी को जगाया, क्योकि उनका मन,वचन,कर्म सब भगवान में लगा है. आप उन पर भरोसा तो करो, तुम्हे तुम्हारे बोझ सहित भगवान के चरणों तक पहुँचा देगे !#बाल_वनिता_महिला_आश्रम🕉जय जय श्री सीता राम🕉🙏

🕉हनुमान जी जब पर्वत लेकर लौटते है तो भगवान से कहते है🕉🙏 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब प्रभु आपने मुझे संजीवनी बूटी लेने नहीं भेजा था. आपने तो मुझे मेरी मूर्छा दूर करने के लिए भेजा था.   "सुमिरि पवनसुत पावन नामू।    अपने बस करि राखे रामू" हनुमान्‌जी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा है, प्रभु आज मेरा ये भ्रम टूट गया कि मै ही सबसे बड़ा भक्त,राम नाम का जप करने वाला हूँ. भगवान बोले कैसे ?  हनुमान जी बोले - वास्तव में तो भरत जी संत है और उन्होंने ही राम नाम जपा है.    आपको पता है जब लक्ष्मण जी को शक्ति लगी तो मै संजीवनी लेने गया पर जब मुझे भरत जी ने बाण मारा और मै गिरा, तो भरत जी ने, न तो संजीवनी मंगाई, न वैध बुलाया. कितना भरोसा है उन्हें आपके नाम पर, आपको पता है उन्होंने क्या किया. "जौ मोरे मन बच अरू काया, प्रीति राम पद कमल अमाया" तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला, जौ मो पर रघुपति अनुकूला  सुनत बचन उठि बैठ कपीसा, कहि जय जयति कोसलाधीसा" यदि मन वचन और शरीर से श्री राम जी के चरण कमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो तो यदि रघुनाथ जी मुझ प...

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥ श्रीगणेशायनम: । अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य । बुधकौशिक ऋषि: । श्रीसीतारामचंद्रोदेवता । अनुष्टुप्‌ छन्द: । सीता शक्ति: । श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ । श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥ अर्थ : इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्रके रचयिता बुधकौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमानजी कीलक है तथा श्रीरामचंद्रजीकी प्रसन्नताके लिए राम रक्षा स्तोत्रके जपमें विनियोग किया जाता है । ॥ अथ ध्यानम्‌ ॥ ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं । पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥ वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं । नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥ अर्थ : ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्ध पद्मासनकी मुद्रामें विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दलके समान स्पर्धा करते हैं, जो बायें ओर स्थित सीताजीके मुख कमलसे मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारोंसे विभूषित तथा जटाधारी श्रीरामका ध्यान करें । ॥ इति ध्यानम्‌ ॥ चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्‌ । एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌ ॥१॥ अर्थ : श्री रघुनाथजीका चरित्र सौ कोटि विस्तारवाला हैं ।उसका एक-एक अक्षर महापातकोंको नष्ट करनेवाला है । ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्‌ । जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम्‌ ॥२॥ अर्थ : नीले कमलके श्याम वर्णवाले, कमलनेत्रवाले , जटाओंके मुकुटसे सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्रीरामका स्मरण कर, सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम्‌ । स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्‌ ॥३॥ अर्थ : जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथोंमें खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसोंके संहार तथा अपनी लीलाओंसे जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीरामका स्मरण कर, रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम्‌ । शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४॥ अर्थ : मैं सर्वकामप्रद और पापोंको नष्ट करनेवाले राम रक्षा स्तोत्रका पाठ करता हूं । राघव मेरे सिरकी और दशरथके पुत्र मेरे ललाटकी रक्षा करें । कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती । घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥ अर्थ : कौशल्या नंदन मेरे नेत्रोंकी, विश्वामित्रके प्रिय मेरे कानोंकी, यज्ञरक्षक मेरे घ्राणकी और सुमित्राके वत्सल मेरे मुखकी रक्षा करें । जिव्हां विद्यानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: । स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥ अर्थ : विद्यानिधि मेरी जिह्वाकी रक्षा करें, कंठकी भरत-वंदित, कंधोंकी दिव्यायुध और भुजाओंकी महादेवजीका धनुष तोडनेवाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें । करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित्‌ । मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥ अर्थ : मेरे हाथोंकी सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदयकी जमदग्नि ऋषिके पुत्रको (परशुराम) जीतनेवाले, मध्य भागकी खरके (नामक राक्षस) वधकर्ता और नाभिकी जांबवानके आश्रयदाता रक्षा करें । सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: । ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत्‌ ॥८॥ अर्थ : मेरे कमरकी सुग्रीवके स्वामी, हडियोंकी हनुमानके प्रभु और रानोंकी राक्षस कुलका विनाश करनेवाले रघुकुलश्रेष्ठ रक्षा करें । जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्‌घे दशमुखान्तक: । पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥ अर्थ : मेरे जानुओंकी सेतुकृत, जंघाओकी दशानन वधकर्ता, चरणोंकी विभीषणको ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले और सम्पूर्ण शरीरकी श्रीराम रक्षा करें । एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत्‌ । स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्‌ ॥१०॥ अर्थ : शुभ कार्य करनेवाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धाके साथ रामबलसे संयुक्त होकर इस स्तोत्रका पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं । पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्‌मचारिण: । न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥ अर्थ : जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाशमें विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेशमें घूमते रहते हैं , वे राम नामोंसे सुरक्षित मनुष्यको देख भी नहीं पाते । रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन्‌ । नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥ अर्थ : राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामोंका स्मरण करनेवाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता, इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनोंको प्राप्त करता है । जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्‌ । य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥ अर्थ : जो संसारपर विजय करनेवाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्‌ । अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम्‌ ॥१४॥ अर्थ : जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवचका स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञाका कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगलकी ही प्राप्ति होती हैं । आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: । तथा लिखितवान्‌ प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥ अर्थ : भगवान् शंकरने स्वप्नमें इस रामरक्षा स्तोत्रका आदेश बुध कौशिक ऋषिको दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागनेपर उसे वैसा ही लिख दिया | आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम्‌ । अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान्‌ स न: प्रभु: ॥१६॥ अर्थ : जो कल्प वृक्षोंके बागके समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियोंको दूर करनेवाले हैं और जो तीनो लोकों में सुंदर हैं, वही श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं । तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ । पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥ अर्थ : जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमलके (पुण्डरीक) समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियोंकी समान वस्त्र एवं काले मृगका चर्म धारण करते हैं । फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ । पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥ अर्थ : जो फल और कंदका आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथके पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें । शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्‌ । रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥ अर्थ : ऐसे महाबली – रघुश्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियोंके शरणदाता, सभी धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ और राक्षसोंके कुलोंका समूल नाश करनेमें समर्थ हमारा रक्षण करें । आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्‌ग सङि‌गनौ । रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रत: पथि सदैव गच्छताम्‌ ॥२०॥ अर्थ : संघान किए धनुष धारण किए, बाणका स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणोसे युक्त तुणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करनेके लिए मेरे आगे चलें । संनद्ध: कवची खड्‌गी चापबाणधरो युवा । गच्छन्‌मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥२१॥ अर्थ : हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथमें खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्थावाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर हमारी रक्षा करें । रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली । काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥२२॥ अर्थ : भगवानका कथन है कि श्रीराम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुतम वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: । जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥२३॥ अर्थ : वेदान्त्वेघ, यज्ञेश,पुराण पुरुषोतम , जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामोंका इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्त: श्रद्धयान्वित: । अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥२४॥ अर्थ : नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करनेवालेको निश्चित रूपसे अश्वमेध यज्ञसे भी अधिक फल प्राप्त होता हैं । रामं दूर्वादलश्यामं पद्‌माक्षं पीतवाससम्‌ । स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥२५॥ अर्थ : दूर्वादलके समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीरामकी उपरोक्त दिव्य नामोंसे स्तुति करनेवाला संसारचक्रमें नहीं पडता । रामं लक्ष्मणं पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम्‌ । काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्‌ राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम्‌ । वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्‌ ॥२६॥ अर्थ : लक्ष्मण जीके पूर्वज , सीताजीके पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणाके सागर , गुण-निधान , विप्र भक्त, परम धार्मिक, राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथके पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकोंमें सुन्दर, रघुकुल तिलक , राघव एवं रावणके शत्रु भगवान् रामकी मैं वंदना करता हूं। रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे । रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥२७॥ अर्थ : राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीताजीके स्वामीकी मैं वंदना करता हूं। श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम । श्रीराम राम भरताग्रज राम राम । श्रीराम राम रणकर्कश राम राम । श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥ अर्थ : हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरतके अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए । श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥ अर्थ : मैं एकाग्र मनसे श्रीरामचंद्रजीके चरणोंका स्मरण और वाणीसे गुणगान करता हूं, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धाके साथ भगवान् रामचन्द्रके चरणोंको प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणोंकी शरण लेता हूं | माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: । स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: । सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु । नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥ अर्थ : श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं ।इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं, उनके सिवामें किसी दुसरेको नहीं जानता । दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा । पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम्‌ ॥३१॥ अर्थ : जिनके दाईं और लक्ष्मणजी, बाईं और जानकीजी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथजीकी वंदना करता हूं । लोकाभिरामं रनरङ्‌गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्‌ । कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥ अर्थ : मैं सम्पूर्ण लोकोंमें सुन्दर तथा रणक्रीडामें धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणाकी मूर्ति और करुणाके भण्डार रुपी श्रीरामकी शरणमें हूं। मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌ । वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥ अर्थ : जिनकी गति मनके समान और वेग वायुके समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूतकी शरण लेता हूं । कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌ । आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥३४॥ अर्थ : मैं कवितामयी डालीपर बैठकर, मधुर अक्षरोंवाले ‘राम-राम’ के मधुर नामको कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयलकी वंदना करता हूं । आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्‌ । लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌ ॥३५॥ अर्थ : मैं इस संसारके प्रिय एवं सुन्दर , उन भगवान् रामको बार-बार नमन करता हूं, जो सभी आपदाओंको दूर करनेवाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करनेवाले हैं । भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम्‌ । तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्‌ ॥३६॥ अर्थ : ‘राम-राम’ का जप करनेसे मनुष्यके सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं । वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं । राम-रामकी गर्जनासे यमदूत सदा भयभीत रहते हैं । रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे । रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: । रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम्‌ । रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥ अर्थ : राजाओंमें श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजयको प्राप्त करते हैं । मैं लक्ष्मीपति भगवान् श्रीरामका भजन करता हूं। सम्पूर्ण राक्षस सेनाका नाश करनेवाले श्रीरामको मैं नमस्कार करता हूं । श्रीरामके समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं । मैं उन शरणागत वत्सलका दास हूं। मैं सद्सिव श्रीराममें ही लीन रहूं । हे श्रीराम! आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें । राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे । सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥ अर्थ : (शिव पार्वती से बोले –) हे सुमुखी ! राम- नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान हैं । मैं सदा रामका स्तवन करता हूं और राम-नाममें ही रमण करता हूं । इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब 🌹🙏🙏🌹, अर्थ : इस प्रकार बुधकौशिकद्वारा रचित श्रीराम रक्षा स्तोत्र सम्पूर्ण होता है । ॥ श्री सीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

  ॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥ श्रीगणेशायनम: । अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य । बुधकौशिक ऋषि: । श्रीसीतारामचंद्रोदेवता । अनुष्टुप्‌ छन्द: । सीता शक्ति: । श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ । श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥ अर्थ : इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्रके रचयिता बुधकौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमानजी कीलक है तथा श्रीरामचंद्रजीकी प्रसन्नताके लिए राम रक्षा स्तोत्रके जपमें विनियोग किया जाता है । ॥ अथ ध्यानम्‌ ॥ ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं । पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥ वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं । नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥ अर्थ : ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्ध पद्मासनकी मुद्रामें विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दलके समान स्पर्धा करते हैं, जो बायें ओर स्थित सीताजीके मुख कमलसे मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारोंसे विभूषित तथा जटाधारी श्रीरामका ध्यान करें । ॥ इति ध्यानम्‌ ॥ चरितं रघुनाथस्य श...