Vaisakh Shukla 09/10 Shri Ram Charit Manas Balakand Gatank Doha No. Before proceeding from 05 to Sri Sitaram while worshiping meditation in the feet, we have to observe the subject till today, by observing up to 10 all Doha numbers 10
वैसाख शुक्ल ०९/१० श्री राम चरित मानस बालकाण्ड गतांक दोहा क्रमांक ०५से आगे बढ़ने के पूर्व श्री सीताराम चरणों में ध्यान पूजन आराधना करते हुए आज की प्रसंग की ओर ➡हम सब दोहा क्रमांक १०तक अवलोकन 👀कर अपना मानव जीवन कृतार्थ करेंगे By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब👉🥀 दोहा :
*भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥
शब्दार्थ:-भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किए रहता है। अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष की मारने में॥5॥
चौपाई :
*खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥1॥
शब्दार्थ:-दुष्टों के पापों और अवगुणों की और साधुओं के गुणों की कथाएँ- दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं। इसी से कुछ गुण और दोषों का वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता॥1॥
*भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥2॥
शब्दार्थ:-भले-बुरे सभी ब्रह्मा के पैदा किए हुए हैं, पर गुण और दोषों को विचार कर वेदों ने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है॥2॥
*दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥3॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥4॥
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥5॥
शब्दार्थ:-दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।) वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है॥3-5॥
दोहा :
*जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
शब्दार्थ:-विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥6॥
चौपाई :
*अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥
शब्दार्थ:-विधाता जब इस प्रकार का (हंस का सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं॥1॥
*सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥2॥
शब्दार्थ:-भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥2॥
*लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥
शब्दार्थ:-जो (वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा (साधु का सा) वेष बनाए देखकर वेष के प्रताप से जगत पूजता है, परन्तु एक न एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं, अंत तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहु का हाल हुआ ॥3॥
*किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥4॥
शब्दार्थ:-बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत में जाम्बवान् और हनुमान्जी का हुआ। बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं॥4॥
*गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥5॥
शब्दार्थ:-पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं॥5॥
*धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥6॥
शब्दार्थ:-कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के संग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बन जाता है॥6॥
दोहा :
*ग्रह भेजष जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7 (क)॥
शब्दार्थ:-ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र- ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार में बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं॥7 (क)॥
*सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7 (ख)॥
शब्दार्थ:-महीने के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है (एक का नाम शुक्ल और दूसरे का नाम कृष्ण रख दिया)। एक को चन्द्रमा का बढ़ाने वाला और दूसरे को उसका घटाने वाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया॥7 (ख)॥
रामरूप से जीवमात्र की वंदना :
*जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥7(ग)॥
शब्दार्थ:-जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ॥7 (ग)॥
*देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥7 (घ)
शब्दार्थ:-देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। अब सब मुझ पर कृपा कीजिए॥7 (घ)॥
चौपाई :
*आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥1॥
शब्दार्थ:-चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ॥1॥
तुलसीदासजी की दीनता और राम भक्तिमयी कविता की महिमा
*जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाहीं॥2॥
शब्दार्थ:-मुझको अपना दास जानकर कृपा की खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिए। मुझे अपने बुद्धि-बल का भरोसा नहीं है, इसीलिए मैं सबसे विनती करता हूँ॥2॥
*करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राउ॥3॥
शब्दार्थ:-मैं श्री रघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और श्री रामजी का चरित्र अथाह है। इसके लिए मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात् कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा है॥3॥
*मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥4॥
शब्दार्थ:-मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने की है, पर जगत में जुड़ती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेंगे॥4॥
*जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥5॥
शब्दार्थ:-जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं, किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचार वाले लोग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किए रहते हैं (अर्थात् जिन्हें पराए दोष ही प्यारे लगते हैं), हँसेंगे॥5॥
*निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥6॥
शब्दार्थ:-रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत में बहुत नहीं हैं॥6॥
*जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई॥
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥7॥
शब्दार्थ:-हे भाई! जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात् अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं)। समुद्र सा तो कोई एक बिरला ही सज्जन होता है, जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है॥7॥
दोहा :
*भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥8॥
शब्दार्थ:-मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परन्तु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सज्जन सभी सुख पावेंगे और दुष्ट हँसी उड़ावेंगे॥8॥
चौपाई :
*खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥1॥
शब्दार्थ:-किन्तु दुष्टों के हँसने से मेरा हित ही होगा। मधुर कण्ठ वाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते हैं। जैसे बगुले हंस को और मेंढक पपीहे को हँसते हैं, वैसे ही मलिन मन वाले दुष्ट निर्मल वाणी को हँसते हैं॥1॥
*कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जो हँसें नहिं खोरी॥2॥
शब्दार्थ:-जो न तो कविता के रसिक हैं और न जिनका श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम है, उनके लिए भी यह कविता सुखद हास्यरस का काम देगी। प्रथम तो यह भाषा की रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है, इससे यह हँसने के योग्य ही है, हँसने में उन्हें कोई दोष नहीं॥2॥
*प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी॥
हरि हर पद रति मति न कुतर की। तिन्ह कहँ मधुर कथा रघुबर की॥3॥
शब्दार्थ:-जिन्हें न तो प्रभु के चरणों में प्रेम है और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी। जिनकी श्री हरि (भगवान विष्णु) और श्री हर (भगवान शिव) के चरणों में प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करने वाली नहीं है (जो श्री हरि-हर में भेद की या ऊँच-नीच की कल्पना नहीं करते), उन्हें श्री रघुनाथजी की यह कथा मीठी लगेगी॥3॥
*राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥4॥
शब्दार्थ:-सज्जनगण इस कथा को अपने जी में श्री रामजी की भक्ति से भूषित जानकर सुंदर वाणी से सराहना करते हुए सुनेंगे। मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ॥4॥
*आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥5॥
शब्दार्थ:-नाना प्रकार के अक्षर, अर्थ और अलंकार, अनेक प्रकार की छंद रचना, भावों और रसों के अपार भेद और कविता के भाँति-भाँति के गुण-दोष होते हैं॥5॥
*कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥6॥
शब्दार्थ:-इनमें से काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर (शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूँ॥6॥
दोहा :
*भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक॥9॥
शब्दार्थ:-मेरी रचना सब गुणों से रहित है, इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है। उसे विचारकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेंगे॥9॥
चौपाई :
*एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥1॥
शब्दार्थ:-इसमें श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हरने वाला है, जिसे पार्वतीजी सहित भगवान शिवजी सदा जपा करते हैं॥1॥
*भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोउ॥
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी॥2॥
शब्दार्थ:-जो अच्छे कवि के द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी राम नाम के बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चन्द्रमा के समान मुख वाली सुंदर स्त्री सब प्रकार से सुसज्जित होने पर भी वस्त्र के बिना शोभा नहीं देती॥2॥
*सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥3॥
शब्दार्थ:-इसके विपरीत, कुकवि की रची हुई सब गुणों से रहित कविता को भी, राम के नाम एवं यश से अंकित जानकर, बुद्धिमान लोग आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं, क्योंकि संतजन भौंरे की भाँति गुण ही को ग्रहण करने वाले होते हैं॥3॥
*जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रगट एहि माहीं॥
सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा॥4॥
शब्दार्थ:-यद्यपि मेरी इस रचना में कविता का एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्री रामजी का प्रताप प्रकट है। मेरे मन में यही एक भरोसा है। भले संग से भला, किसने बड़प्पन नहीं पाया?॥4॥
*धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥5॥
शब्दार्थ:-धुआँ भी अगर के संग से सुगंधित होकर अपने स्वाभाविक कड़ुवेपन को छोड़ देता है। मेरी कविता अवश्य भद्दी है, परन्तु इसमें जगत का कल्याण करने वाली रामकथा रूपी उत्तम वस्तु का वर्णन किया गया है। (इससे यह भी अच्छी ही समझी जाएगी।)॥5॥
छंद :
*मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥
शब्दार्थ:-तुलसीदासजी कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की कथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली है। मेरी इस भद्दी कविता रूपी नदी की चाल पवित्र जल वाली नदी (गंगाजी) की चाल की भाँति टेढ़ी है। प्रभु श्री रघुनाथजी के सुंदर यश के संग से यह कविता सुंदर तथा सज्जनों के मन को भाने वाली हो जाएगी। श्मशान की अपवित्र राख भी श्री महादेवजी के अंग के संग से सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करने वाली होती है।
दोहाः
*प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।
दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥10 क॥
शब्दार्थ:-श्री रामजी के यश के संग से मेरी कविता सभी को अत्यन्त प्रिय लगेगी। जैसे मलय पर्वत के संग से काष्ठमात्र (चंदन बनकर) वंदनीय हो जाता है, फिर क्या कोई काठ (की तुच्छता) का विचार करता है?॥10 (क)॥
*स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥10 ख॥
शब्दार्थ:-श्यामा गो काली होने पर भी उसका दूध उज्ज्वल और बहुत गुणकारी होता है। यही समझकर सब लोग उसे पीते हैं। इसी तरह गँवारू भाषा में होने पर भी श्री सीतारामजी के यश को बुद्धिमान लोग बड़े चाव से गाते और सुनते हैं॥10 (ख)॥क्रमशः---------श्री सीताराम चरणौ👣👣🌷🌷 शरणम् प्रपद्ये🚩🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏
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