सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

11-06-2021 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन"मीठे बच्चे - तुम अभी सच्चे-सच्चे राजयोगी हो, तुम्हें राजऋषि भी कहा जाता है, राजऋषि माना ही पवित्र''प्रश्नः-तुम बच्चे, मनुष्यों को माया रूपी रावण की दल-दल से कब निकाल सकेंगे?उत्तर:-जब तुम खुद उस दल-दल से निकले हुए होंगे। दल-दल से निकलने वालों की निशानी है - इच्छा मात्रम् अविद्या। एक बाप के सिवाए और कुछ भी याद न आये। अच्छा कपड़ा पहनें, अच्छी चीज़ खायें.. यह लालच न हो, तुम पूरा ही वनवाह में हो। इस शरीर को भी भूले हुए, मेरा कुछ भी नहीं, मैं आत्मा हूँ - ऐसे आत्म-अभिमानी बच्चे ही रावण की दल-दल से मनुष्यों को निकाल सकते हैं।गीत:-तू प्यार का सागर है....ओम् शान्ति। कोई समय गीत जब बजाया जाता था तो बच्चों से गीत का अर्थ भी पूछते थे। अब बताओ तुम कब से राह भूल हो? (कोई ने कहा द्वापर से, कोई ने कहा सतयुग से) जो कहते हैं द्वापर से भूले हैं, वे रांग हैं। सतयुग से राह भूले हैं। राह बताने वाला तो अभी तुमको मिला है। सतयुग में राह बताने वाले को नहीं जानते हैं। वहाँ कोई बाप को जानते ही नहीं। गोया भूले हुए हैं। भूलना भी ड्रामा में नूँध है। फिर अभी राह बताने आये हैं। कहते हैं ना प्रभू राह बताओ। हम सतयुग से लेकर बाप को भूले हैं। बाबा प्रश्न पूछते हैं - बुद्धि चलाने लिए। यह ज्ञान ही निराला है ना, ज्ञान का सागर बाप ही है। बाप सम्मुख समझाते हैं। ज्ञान का सागर, सुख का सागर मैं ही हूँ। तुम भी जानते हो - बरोबर पतित-पावन भी एक ही बाप है। यह तो भक्ति वाले भी मानते हैं। पावन दुनिया है ही शान्तिधाम और सुखधाम। अब सुखधाम और दु:खधाम आधा-आधा है। यह तो बच्चे अच्छी रीति जानते हैं। बाप प्यार का सागर है, तभी तो सब उनको फादर कह पुकारते हैं परन्तु वह कौन है, कैसे आते हैं, यह भूल जाते हैं। 5 हजार वर्ष की बात है, बरोबर इन देवी-देवताओं का राज्य था। सतयुग में है सद्गति फिर दुर्गति कैसे होती है, कौन बताये? बाप ही आकर समझाते हैं, द्वापर से तुम्हारी दुर्गति हुई है तब तो बुलाते हैं। तुम समझते हो यह कोई नई बात नहीं है। बाप कल्प-कल्प आते हैं। अभी निराकार बाप आत्माओं को समझाते हैं। कोई भी अपनी आत्मा को नहीं जानते। ऐसे कभी कोई नहीं बतायेंगे कि हमारी आत्मा में सारा पार्ट भरा हुआ है। कभी नहीं कहेंगे कि मैं अनेक बार यह बना हूँ, पार्ट बजाया है। ड्रामा को वह जानते ही नहीं। करके लाखों हजार वर्ष कहें फिर भी ड्रामा तो है ना। ड्रामा रिपीट होता है। यह तो कहेंगे ना। यह ज्ञान बाप ही बच्चों को सम्मुख देते हैं। मुख से बात कर रहे हैं। तुम जानते हो हमको शिवबाबा ने ब्रह्मा द्वारा अपना बनाए ब्राह्मण बनाया है। शिवबाबा का यह बच्चा भी है। वन्नी (स्त्री) भी है। देखो, कितने बच्चों की सम्भाल की जाती है। अकेला मेल होने के कारण सरस्वती को मददगार बनाया है कि बच्चों को सम्भालो। यह बातें शास्त्रों में नहीं हैं। यह है प्रैक्टिकल। बाप ही राजयोग सिखाते हैं, जिनको राजयोग सिखाया, वह राजायें बनें। 84 जन्मों में आये। बाइबिल, कुरान, वेद-शास्त्र आदि पढ़ते तो बहुत हैं परन्तु समझते कुछ भी नहीं हैं। अभी तुम कोई तत्व योगी नहीं हो। तुम्हारा तो बाप से योग है अर्थात् बाप की याद है। तुम अभी राजयोगी, राजऋषि हो अर्थात् योगीराज हो। योगी पवित्र को कहा जाता है। स्वर्ग की राजाई लेने लिए तुम योगी बने हो। बाप पहले-पहले कहते हैं पवित्र बनो। योगी नाम ही उनका है। तुम सब राजयोगी हो। यह तुम ब्रह्मा मुख वंशावली ब्राह्मणों की बात है। तुमको राजयोग सिखा रहे हैं, स्टूडेन्ट हो गये ना। स्टूडेन्टस को कब टीचर भूलेगा क्या? जानते हो शिवबाबा हमको पढ़ा रहे हैं। परन्तु माया फिर भी भुला देती है। तुम अपने पढ़ाने वाले टीचर को भूल जाते हो। भगवान पढ़ाते हैं - यह समझें तब तो नशा चढ़े। स्कूल में आई.सी.एस. पढ़ते हैं तो कितना नशा रहता है। तुम बच्चे तो 21 जन्म के लिए यह राजयोग की पढ़ाई पढ़ते हो। पढ़ना तो फिर भी होता है। राजविद्या भी पढ़नी पड़े, भाषा आदि सीखनी पड़े।तुम बच्चे समझते हो सतयुग से हम यह राह भूलनी शुरू करते हैं। फिर एक-एक ढाका (पौढ़ी-स्टैप), एक-एक जन्म में नीचे उतरते हैं। अभी तुमको सारा याद है। कैसे हम चढ़ते हैं, कैसे हम उतरते हैं। यह सीढ़ी अच्छी रीति याद करो। 84 जन्म पूरे हुए, अब हमको जाना है। तो खुशी होती है, यह बेहद का नाटक है। आत्मा कितनी छोटी है। पार्ट बजाते-बजाते आत्मा थक जाती है तब कहते हैं बाबा राह बताओ तो हम विश्राम पायें, सुख-शान्ति पायें। तुम सुखधाम में हो तो तुम्हारे लिए वहाँ सुख-शान्ति भी है। वहाँ कोई हंगामा नहीं। आत्मा को शान्ति है। शान्ति के दो स्थान हैं - शान्तिधाम और सुखधाम। दु:खधाम में अशान्ति है। यह पढ़ाई है, तुम जानते हो हमको बाबा सुखधाम वाया शान्तिधाम में ले जा रहे हैं। तुमको कहने की दरकार नहीं। तुम जानते हो हम यहाँ पार्ट बजाने आये हैं फिर जाना है। यह खुशी है। शान्ति की खुशी नहीं है। पार्ट बजाने में हमको मजा आता है, खुशी होती है। जानते हैं बाप को याद करने से विकर्म विनाश होंगे। कोई कहते हैं हमको मन की शान्ति मिले। यह अक्षर भी रांग है। नहीं, हम बाप को याद करते हैं कि विकर्म विनाश हों। शान्त तो मन रह न सके। कर्म बिगर रह नहीं सकते। बाकी महसूसता आती है, हम बाप से पवित्रता, सुख-शान्ति का वर्सा ले रहे हैं, तो खुशी होनी चाहिए। यह तो है ही दु:खधाम। इसमें सुख हो नहीं सकता। मनुष्य शान्तिधाम सुखधाम को भूल गये हैं। तो जिनको बहुत पैसे हैं, समझते हैं हम सुख में हैं, संन्यासी घरबार छोड़ जंगल में जाते हैं। कोई हंगामा तो है नहीं। तो शान्त तो हो जाते हैं परन्तु वह हुआ अल्पकाल के लिए। आत्मा का जो शान्ति स्वधर्म है, उसमें तुम शान्ति में रहते हो। यहाँ तो प्रवृत्ति में आना ही है। पार्ट बजाना ही है। यहाँ आते ही हैं कर्म करने। कर्म में तो आत्मा को जरूर आना ही है। तुम बच्चे समझते हो - यह समझानी बेहद का बाप दे रहे हैं। निराकार भगवानुवाच - अब तुम जानते हो हम आत्मा हैं, हमारा बाप परम आत्मा है। परम आत्मा माना परमात्मा। उनको यह आत्मा बुलाती है। वह बाप ही सर्व का सद्गति दाता है। अब बाप कहते हैं - बच्चे देही-अभिमानी बनो। यही मेहनत है। आधाकल्प से जो खाद पड़ती है, वह इस याद से ही निकलेगी। तुमको सच्चा सोना बनना है। जैसे सच्चे सोने में खाद मिलाए फिर जेवर बनाते हैं। तुम असुल में सच्चा सोना थे फिर तुम्हारे में खाद पड़ती है। अब तुम्हारी बुद्धि में है, हमने पार्ट बजाया है। अब हम जाते हैं पियर घर। जैसे विलायत से जब पियर घर लौटते हो तो खुशी होती है, तुम्हें भी खुशी है, तुम जानते हो बाबा हमारे लिए स्वर्ग लाया है। बेहद के बाप की सौगात है - बेहद की बादशाही अर्थात् सद्गति। संन्यासी लोग मुक्ति की सौगात पसन्द करते हैं। कोई मरता है तो भी कहते हैं स्वर्गवासी हुआ। संन्यासी कहेंगे ज्योति ज्योत समाया, जिसमें सब मिल जायेंगे। वह तो रहने का स्थान है, जहाँ हम आत्मायें रहती हैं। बाकी कोई ज्योति वा आग थोड़ेही है, जिसमें सब मिल जाएं। ब्रह्म महतत्व है, जिसमें आत्मायें रहती हैं। बाप भी वहाँ रहते हैं। वह भी है बिन्दी। बिन्दी का किसको साक्षात्कार हो तो समझ नहीं सकेंगे। बच्चे बहुत कहते हैं - बाबा याद करने में दिक्कत होती है। बिन्दी रूप को कैसे याद करें। आधाकल्प तो बड़े लिंग रूप को याद किया। वह भी बाप समझाते हैं। बिन्दी की तो पूजा हो न सके। इनका मन्दिर कैसे बनायेंगे? बिन्दी तो देखने में भी न आये, इसलिए शिवलिंग बड़ा बनाते हैं। बाकी आत्माओं के सालिग्राम तो बहुत छोटे-छोटे बनाते हैं। अण्डे मिसल बनाते हैं। कहेंगे पहले यह क्यों नहीं बताया - परमात्मा बिन्दी मिसल है। बाप कहते हैं - उस समय यह बताने का पार्ट ही नहीं था। अरे तुम आई.सी.एस. शुरू से क्यों नहीं पढ़ते हो? पढ़ाई के भी कायदे हैं ना। कोई ऐसी बात पूछे तो तुम कह सकते हो - अच्छा बाबा से पूछते हैं वा हमारे से बड़ी टीचर है उनसे लिखकर पूछते हैं। बाबा को बताना होगा तो बतायेंगे वा तो कहेंगे आगे चल समझ लेंगे। एक ही टाइम तो नहीं सुनायेंगे। यह सब हैं नई बातें। तुम्हारे वेद-शास्त्रों में जो है - बाप बैठ सार बताते हैं। यह भी भक्ति मार्ग की नूँध है, फिर भी तुमको पढ़ने ही होंगे। यह भक्ति का पार्ट बजाना ही होगा। पतित बनने का भी पार्ट बजाना है। कहते हैं भक्ति के दुबन में फँस गये हैं। बाहर से तो खूबसूरती बहुत है। जैसे रूण्य के पानी का मिसाल देते हैं। भक्ति भी सुहैनी (आकर्षक) बहुत है। बाप कहते हैं यह रूण्य का पानी है। (मृगतृष्णा समान) इस दुबन में फँस जाते हैं। फिर निकलना ही मुश्किल हो जाता है, एकदम फँस पड़ते हैं। जाते हैं औरों को निकालने फिर खुद ही फँस पड़ते हैं। ऐसे बहुत फँस पड़े। आश्चर्यवत सुनन्ती, कथन्ती औरों को निकालवन्ती, चलते-चलते फिर खुद फँस पड़ते हैं। कितने अच्छे-अच्छे फर्स्टक्लास थे। फिर उनको निकलना बड़ा मुश्किल हो जाता है। बाप को भूल जाते हैं, तो दुबन से निकालने में कितनी मेहनत लगती है। कितना भी समझाओ बुद्धि में नहीं बैठता। अब तुम समझ सकते हो कि हम माया रूपी रावण की दल-दल से कितना निकले हैं। जितना-जितना निकलते जाते हैं, उतना-उतना खुशी होती है। जो खुद निकला होगा उनके पास शक्ति होगी दूसरे को निकालने की। बाण चलाने वाले कोई तीखे होते हैं, कोई कमजोर होते हैं। भील और अर्जुन का भी मिसाल है ना। अर्जुन साथ रहने वाला था, अर्जुन एक को नहीं, जो बाप के बनकर बाप के साथ रहते हैं, उनको कहा जाता है अर्जुन। साथ में रहने वाले और बाहर में रहने वाले की रेस कराई जाती है। भील अर्थात् बाहर रहने वाला तीखा चला गया। दृष्टान्त एक का दिया जाता है। बात तो बहुतों की है। तीर भी यह ज्ञान का है। हर एक अपने को समझ सकते हैं, हम कितना बाप को याद करते हैं, और कोई की याद तो नहीं आती है! अच्छी चीज़ पहनने वा खाने की लालच तो नहीं रहती! यहाँ अच्छा पहनेंगे तो वहाँ कम हो जायेगा। हमको यहाँ तो वनवाह में रहना है। बाप कहते हैं तुम अपने इस शरीर को भी भूल जाओ। यह तो पुराना तमोप्रधान शरीर है। तुम स्वर्ग के मालिक बनते हो। इच्छा मात्रम् अविद्या।बाप कहते हैं - तुम यहाँ जेवर आदि भी नहीं पहनों, ऐसे क्यों कहते हैं? इसके भी अनेक कारण हैं। कोई का जेवर गुम हो जायेगा तो कहेंगे वहाँ बी.के. को देकर आई है और फिर चोर-चकार भी रास्ते चलते छीन लेते हैं। आजकल माईयाँ भी लूटने वाली बहुत निकली हैं। फीमेल भी डाका मारती हैं। दुनिया का हाल देखो क्या है? तुम समझते हो, यह दुनिया बिल्कुल वेश्यालय है। हम यहाँ शिवालय में बैठे हैं - शिवबाबा के साथ। वह सत है, चैतन्य है, आनंद स्वरूप है। आत्मा की ही महिमा है। आत्मा ही कहती हैं मैं प्रेजीडेंट बना हूँ, मैं फलाना हूँ। और तुम्हारी आत्मा कहती है हम ब्राह्मण हैं। बाबा से वर्सा ले रहे हैं। आत्म-अभिमान में रहना है, इसमें ही मेहनत है। यह मेरा फलाना है, यह मेरा है.. यह याद रहता है, हम आत्मा भाई-भाई हैं, यह भूल जाते हैं। यहाँ मेरा-मेरा छोड़ना पड़ता है। मैं आत्मा हूँ, इनकी आत्मा भी जानती है। बाप समझा रहे हैं, मैं भी सुनता रहता हूँ। पहले मैं सुनता हूँ, भल मैं भी सुना सकता हूँ परन्तु बच्चों के कल्याण अर्थ कहता हूँ - तुम सदा समझो कि शिवबाबा समझाते हैं। विचार सागर मंथन करना बच्चों का काम है। जैसे तुम करते हो, वैसे मैं भी करता हूँ। नहीं तो पहले नम्बर में कैसे जायेंगे लेकिन अपने को गुप्त रखते हैं। अच्छा।मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।धारणा के लिए मुख्य सार:-1) मेरा-मेरा सब छोड़ अपने को आत्मा समझना है। आत्म-अभिमानी रहने की मेहनत करनी है। यहाँ बिल्कुल वनवाह में रहना है। कोई भी पहनने, खाने की इच्छा से इच्छा मात्रम् अविद्या बनना है।2) पार्ट बजाते हुए कर्म करते अपने शान्ति स्वधर्म में स्थित रहना है। शान्तिधाम और सुखधाम को याद करना है। इस दु:खधाम को भूल जाना है।वरदान:-हर संकल्प, समय, शब्द और कर्म द्वारा ईश्वरीय सेवा करने वाले सम्पूर्ण वफादार भवसम्पूर्ण वफादार उन्हें कहा जाता है जो हर वस्तु की पूरी-पूरी सम्भाल करते हैं। कोई भी चीज़ व्यर्थ नहीं जाने देते। जब से जन्म हुआ तब से संकल्प, समय और कर्म सब ईश्वरीय सेवा अर्थ हो। यदि ईश्वरीय सेवा के बजाए कहाँ भी संकल्प वा समय जाता है, व्यर्थ बोल निकलते हैं या तन द्वारा व्यर्थ कार्य होता है तो उनको सम्पूर्ण वफादार नहीं कहेंगे। ऐसे नहीं कि एक सेकण्ड वा एक पैसा व्यर्थ गया - तो क्या बड़ी बात है। नहीं। सम्पूर्ण वफादार अर्थात् सब कुछ सफल करने वाले।by समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबस्लोगन:-श्रीमत को यथार्थ समझकर उस पर कदम-कदम चलने में ही सफलता समाई हुई है।

11-06-2021 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन

"मीठे बच्चे - तुम अभी सच्चे-सच्चे राजयोगी हो, तुम्हें राजऋषि भी कहा जाता है, राजऋषि माना ही पवित्र''

प्रश्नः-

तुम बच्चे, मनुष्यों को माया रूपी रावण की दल-दल से कब निकाल सकेंगे?

उत्तर:-

जब तुम खुद उस दल-दल से निकले हुए होंगे। दल-दल से निकलने वालों की निशानी है - इच्छा मात्रम् अविद्या। एक बाप के सिवाए और कुछ भी याद न आये। अच्छा कपड़ा पहनें, अच्छी चीज़ खायें.. यह लालच न हो, तुम पूरा ही वनवाह में हो। इस शरीर को भी भूले हुए, मेरा कुछ भी नहीं, मैं आत्मा हूँ - ऐसे आत्म-अभिमानी बच्चे ही रावण की दल-दल से मनुष्यों को निकाल सकते हैं।

गीत:-

तू प्यार का सागर है....

ओम् शान्ति। कोई समय गीत जब बजाया जाता था तो बच्चों से गीत का अर्थ भी पूछते थे। अब बताओ तुम कब से राह भूल हो? (कोई ने कहा द्वापर से, कोई ने कहा सतयुग से) जो कहते हैं द्वापर से भूले हैं, वे रांग हैं। सतयुग से राह भूले हैं। राह बताने वाला तो अभी तुमको मिला है। सतयुग में राह बताने वाले को नहीं जानते हैं। वहाँ कोई बाप को जानते ही नहीं। गोया भूले हुए हैं। भूलना भी ड्रामा में नूँध है। फिर अभी राह बताने आये हैं। कहते हैं ना प्रभू राह बताओ। हम सतयुग से लेकर बाप को भूले हैं। बाबा प्रश्न पूछते हैं - बुद्धि चलाने लिए। यह ज्ञान ही निराला है ना, ज्ञान का सागर बाप ही है। बाप सम्मुख समझाते हैं। ज्ञान का सागर, सुख का सागर मैं ही हूँ। तुम भी जानते हो - बरोबर पतित-पावन भी एक ही बाप है। यह तो भक्ति वाले भी मानते हैं। पावन दुनिया है ही शान्तिधाम और सुखधाम। अब सुखधाम और दु:खधाम आधा-आधा है। यह तो बच्चे अच्छी रीति जानते हैं। बाप प्यार का सागर है, तभी तो सब उनको फादर कह पुकारते हैं परन्तु वह कौन है, कैसे आते हैं, यह भूल जाते हैं। 5 हजार वर्ष की बात है, बरोबर इन देवी-देवताओं का राज्य था। सतयुग में है सद्गति फिर दुर्गति कैसे होती है, कौन बताये? बाप ही आकर समझाते हैं, द्वापर से तुम्हारी दुर्गति हुई है तब तो बुलाते हैं। तुम समझते हो यह कोई नई बात नहीं है। बाप कल्प-कल्प आते हैं। अभी निराकार बाप आत्माओं को समझाते हैं। कोई भी अपनी आत्मा को नहीं जानते। ऐसे कभी कोई नहीं बतायेंगे कि हमारी आत्मा में सारा पार्ट भरा हुआ है। कभी नहीं कहेंगे कि मैं अनेक बार यह बना हूँ, पार्ट बजाया है। ड्रामा को वह जानते ही नहीं। करके लाखों हजार वर्ष कहें फिर भी ड्रामा तो है ना। ड्रामा रिपीट होता है। यह तो कहेंगे ना। यह ज्ञान बाप ही बच्चों को सम्मुख देते हैं। मुख से बात कर रहे हैं। तुम जानते हो हमको शिवबाबा ने ब्रह्मा द्वारा अपना बनाए ब्राह्मण बनाया है। शिवबाबा का यह बच्चा भी है। वन्नी (स्त्री) भी है। देखो, कितने बच्चों की सम्भाल की जाती है। अकेला मेल होने के कारण सरस्वती को मददगार बनाया है कि बच्चों को सम्भालो। यह बातें शास्त्रों में नहीं हैं। यह है प्रैक्टिकल। बाप ही राजयोग सिखाते हैं, जिनको राजयोग सिखाया, वह राजायें बनें। 84 जन्मों में आये। बाइबिल, कुरान, वेद-शास्त्र आदि पढ़ते तो बहुत हैं परन्तु समझते कुछ भी नहीं हैं। अभी तुम कोई तत्व योगी नहीं हो। तुम्हारा तो बाप से योग है अर्थात् बाप की याद है। तुम अभी राजयोगी, राजऋषि हो अर्थात् योगीराज हो। योगी पवित्र को कहा जाता है। स्वर्ग की राजाई लेने लिए तुम योगी बने हो। बाप पहले-पहले कहते हैं पवित्र बनो। योगी नाम ही उनका है। तुम सब राजयोगी हो। यह तुम ब्रह्मा मुख वंशावली ब्राह्मणों की बात है। तुमको राजयोग सिखा रहे हैं, स्टूडेन्ट हो गये ना। स्टूडेन्टस को कब टीचर भूलेगा क्या? जानते हो शिवबाबा हमको पढ़ा रहे हैं। परन्तु माया फिर भी भुला देती है। तुम अपने पढ़ाने वाले टीचर को भूल जाते हो। भगवान पढ़ाते हैं - यह समझें तब तो नशा चढ़े। स्कूल में आई.सी.एस. पढ़ते हैं तो कितना नशा रहता है। तुम बच्चे तो 21 जन्म के लिए यह राजयोग की पढ़ाई पढ़ते हो। पढ़ना तो फिर भी होता है। राजविद्या भी पढ़नी पड़े, भाषा आदि सीखनी पड़े।

तुम बच्चे समझते हो सतयुग से हम यह राह भूलनी शुरू करते हैं। फिर एक-एक ढाका (पौढ़ी-स्टैप), एक-एक जन्म में नीचे उतरते हैं। अभी तुमको सारा याद है। कैसे हम चढ़ते हैं, कैसे हम उतरते हैं। यह सीढ़ी अच्छी रीति याद करो। 84 जन्म पूरे हुए, अब हमको जाना है। तो खुशी होती है, यह बेहद का नाटक है। आत्मा कितनी छोटी है। पार्ट बजाते-बजाते आत्मा थक जाती है तब कहते हैं बाबा राह बताओ तो हम विश्राम पायें, सुख-शान्ति पायें। तुम सुखधाम में हो तो तुम्हारे लिए वहाँ सुख-शान्ति भी है। वहाँ कोई हंगामा नहीं। आत्मा को शान्ति है। शान्ति के दो स्थान हैं - शान्तिधाम और सुखधाम। दु:खधाम में अशान्ति है। यह पढ़ाई है, तुम जानते हो हमको बाबा सुखधाम वाया शान्तिधाम में ले जा रहे हैं। तुमको कहने की दरकार नहीं। तुम जानते हो हम यहाँ पार्ट बजाने आये हैं फिर जाना है। यह खुशी है। शान्ति की खुशी नहीं है। पार्ट बजाने में हमको मजा आता है, खुशी होती है। जानते हैं बाप को याद करने से विकर्म विनाश होंगे। कोई कहते हैं हमको मन की शान्ति मिले। यह अक्षर भी रांग है। नहीं, हम बाप को याद करते हैं कि विकर्म विनाश हों। शान्त तो मन रह न सके। कर्म बिगर रह नहीं सकते। बाकी महसूसता आती है, हम बाप से पवित्रता, सुख-शान्ति का वर्सा ले रहे हैं, तो खुशी होनी चाहिए। यह तो है ही दु:खधाम। इसमें सुख हो नहीं सकता। मनुष्य शान्तिधाम सुखधाम को भूल गये हैं। तो जिनको बहुत पैसे हैं, समझते हैं हम सुख में हैं, संन्यासी घरबार छोड़ जंगल में जाते हैं। कोई हंगामा तो है नहीं। तो शान्त तो हो जाते हैं परन्तु वह हुआ अल्पकाल के लिए। आत्मा का जो शान्ति स्वधर्म है, उसमें तुम शान्ति में रहते हो। यहाँ तो प्रवृत्ति में आना ही है। पार्ट बजाना ही है। यहाँ आते ही हैं कर्म करने। कर्म में तो आत्मा को जरूर आना ही है। तुम बच्चे समझते हो - यह समझानी बेहद का बाप दे रहे हैं। निराकार भगवानुवाच - अब तुम जानते हो हम आत्मा हैं, हमारा बाप परम आत्मा है। परम आत्मा माना परमात्मा। उनको यह आत्मा बुलाती है। वह बाप ही सर्व का सद्गति दाता है। अब बाप कहते हैं - बच्चे देही-अभिमानी बनो। यही मेहनत है। आधाकल्प से जो खाद पड़ती है, वह इस याद से ही निकलेगी। तुमको सच्चा सोना बनना है। जैसे सच्चे सोने में खाद मिलाए फिर जेवर बनाते हैं। तुम असुल में सच्चा सोना थे फिर तुम्हारे में खाद पड़ती है। अब तुम्हारी बुद्धि में है, हमने पार्ट बजाया है। अब हम जाते हैं पियर घर। जैसे विलायत से जब पियर घर लौटते हो तो खुशी होती है, तुम्हें भी खुशी है, तुम जानते हो बाबा हमारे लिए स्वर्ग लाया है। बेहद के बाप की सौगात है - बेहद की बादशाही अर्थात् सद्गति। संन्यासी लोग मुक्ति की सौगात पसन्द करते हैं। कोई मरता है तो भी कहते हैं स्वर्गवासी हुआ। संन्यासी कहेंगे ज्योति ज्योत समाया, जिसमें सब मिल जायेंगे। वह तो रहने का स्थान है, जहाँ हम आत्मायें रहती हैं। बाकी कोई ज्योति वा आग थोड़ेही है, जिसमें सब मिल जाएं। ब्रह्म महतत्व है, जिसमें आत्मायें रहती हैं। बाप भी वहाँ रहते हैं। वह भी है बिन्दी। बिन्दी का किसको साक्षात्कार हो तो समझ नहीं सकेंगे। बच्चे बहुत कहते हैं - बाबा याद करने में दिक्कत होती है। बिन्दी रूप को कैसे याद करें। आधाकल्प तो बड़े लिंग रूप को याद किया। वह भी बाप समझाते हैं। बिन्दी की तो पूजा हो न सके। इनका मन्दिर कैसे बनायेंगे? बिन्दी तो देखने में भी न आये, इसलिए शिवलिंग बड़ा बनाते हैं। बाकी आत्माओं के सालिग्राम तो बहुत छोटे-छोटे बनाते हैं। अण्डे मिसल बनाते हैं। कहेंगे पहले यह क्यों नहीं बताया - परमात्मा बिन्दी मिसल है। बाप कहते हैं - उस समय यह बताने का पार्ट ही नहीं था। अरे तुम आई.सी.एस. शुरू से क्यों नहीं पढ़ते हो? पढ़ाई के भी कायदे हैं ना। कोई ऐसी बात पूछे तो तुम कह सकते हो - अच्छा बाबा से पूछते हैं वा हमारे से बड़ी टीचर है उनसे लिखकर पूछते हैं। बाबा को बताना होगा तो बतायेंगे वा तो कहेंगे आगे चल समझ लेंगे। एक ही टाइम तो नहीं सुनायेंगे। यह सब हैं नई बातें। तुम्हारे वेद-शास्त्रों में जो है - बाप बैठ सार बताते हैं। यह भी भक्ति मार्ग की नूँध है, फिर भी तुमको पढ़ने ही होंगे। यह भक्ति का पार्ट बजाना ही होगा। पतित बनने का भी पार्ट बजाना है। कहते हैं भक्ति के दुबन में फँस गये हैं। बाहर से तो खूबसूरती बहुत है। जैसे रूण्य के पानी का मिसाल देते हैं। भक्ति भी सुहैनी (आकर्षक) बहुत है। बाप कहते हैं यह रूण्य का पानी है। (मृगतृष्णा समान) इस दुबन में फँस जाते हैं। फिर निकलना ही मुश्किल हो जाता है, एकदम फँस पड़ते हैं। जाते हैं औरों को निकालने फिर खुद ही फँस पड़ते हैं। ऐसे बहुत फँस पड़े। आश्चर्यवत सुनन्ती, कथन्ती औरों को निकालवन्ती, चलते-चलते फिर खुद फँस पड़ते हैं। कितने अच्छे-अच्छे फर्स्टक्लास थे। फिर उनको निकलना बड़ा मुश्किल हो जाता है। बाप को भूल जाते हैं, तो दुबन से निकालने में कितनी मेहनत लगती है। कितना भी समझाओ बुद्धि में नहीं बैठता। अब तुम समझ सकते हो कि हम माया रूपी रावण की दल-दल से कितना निकले हैं। जितना-जितना निकलते जाते हैं, उतना-उतना खुशी होती है। जो खुद निकला होगा उनके पास शक्ति होगी दूसरे को निकालने की। बाण चलाने वाले कोई तीखे होते हैं, कोई कमजोर होते हैं। भील और अर्जुन का भी मिसाल है ना। अर्जुन साथ रहने वाला था, अर्जुन एक को नहीं, जो बाप के बनकर बाप के साथ रहते हैं, उनको कहा जाता है अर्जुन। साथ में रहने वाले और बाहर में रहने वाले की रेस कराई जाती है। भील अर्थात् बाहर रहने वाला तीखा चला गया। दृष्टान्त एक का दिया जाता है। बात तो बहुतों की है। तीर भी यह ज्ञान का है। हर एक अपने को समझ सकते हैं, हम कितना बाप को याद करते हैं, और कोई की याद तो नहीं आती है! अच्छी चीज़ पहनने वा खाने की लालच तो नहीं रहती! यहाँ अच्छा पहनेंगे तो वहाँ कम हो जायेगा। हमको यहाँ तो वनवाह में रहना है। बाप कहते हैं तुम अपने इस शरीर को भी भूल जाओ। यह तो पुराना तमोप्रधान शरीर है। तुम स्वर्ग के मालिक बनते हो। इच्छा मात्रम् अविद्या।

बाप कहते हैं - तुम यहाँ जेवर आदि भी नहीं पहनों, ऐसे क्यों कहते हैं? इसके भी अनेक कारण हैं। कोई का जेवर गुम हो जायेगा तो कहेंगे वहाँ बी.के. को देकर आई है और फिर चोर-चकार भी रास्ते चलते छीन लेते हैं। आजकल माईयाँ भी लूटने वाली बहुत निकली हैं। फीमेल भी डाका मारती हैं। दुनिया का हाल देखो क्या है? तुम समझते हो, यह दुनिया बिल्कुल वेश्यालय है। हम यहाँ शिवालय में बैठे हैं - शिवबाबा के साथ। वह सत है, चैतन्य है, आनंद स्वरूप है। आत्मा की ही महिमा है। आत्मा ही कहती हैं मैं प्रेजीडेंट बना हूँ, मैं फलाना हूँ। और तुम्हारी आत्मा कहती है हम ब्राह्मण हैं। बाबा से वर्सा ले रहे हैं। आत्म-अभिमान में रहना है, इसमें ही मेहनत है। यह मेरा फलाना है, यह मेरा है.. यह याद रहता है, हम आत्मा भाई-भाई हैं, यह भूल जाते हैं। यहाँ मेरा-मेरा छोड़ना पड़ता है। मैं आत्मा हूँ, इनकी आत्मा भी जानती है। बाप समझा रहे हैं, मैं भी सुनता रहता हूँ। पहले मैं सुनता हूँ, भल मैं भी सुना सकता हूँ परन्तु बच्चों के कल्याण अर्थ कहता हूँ - तुम सदा समझो कि शिवबाबा समझाते हैं। विचार सागर मंथन करना बच्चों का काम है। जैसे तुम करते हो, वैसे मैं भी करता हूँ। नहीं तो पहले नम्बर में कैसे जायेंगे लेकिन अपने को गुप्त रखते हैं। अच्छा।

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।

धारणा के लिए मुख्य सार:-

1) मेरा-मेरा सब छोड़ अपने को आत्मा समझना है। आत्म-अभिमानी रहने की मेहनत करनी है। यहाँ बिल्कुल वनवाह में रहना है। कोई भी पहनने, खाने की इच्छा से इच्छा मात्रम् अविद्या बनना है।

2) पार्ट बजाते हुए कर्म करते अपने शान्ति स्वधर्म में स्थित रहना है। शान्तिधाम और सुखधाम को याद करना है। इस दु:खधाम को भूल जाना है।

वरदान:-

हर संकल्प, समय, शब्द और कर्म द्वारा ईश्वरीय सेवा करने वाले सम्पूर्ण वफादार भव

सम्पूर्ण वफादार उन्हें कहा जाता है जो हर वस्तु की पूरी-पूरी सम्भाल करते हैं। कोई भी चीज़ व्यर्थ नहीं जाने देते। जब से जन्म हुआ तब से संकल्प, समय और कर्म सब ईश्वरीय सेवा अर्थ हो। यदि ईश्वरीय सेवा के बजाए कहाँ भी संकल्प वा समय जाता है, व्यर्थ बोल निकलते हैं या तन द्वारा व्यर्थ कार्य होता है तो उनको सम्पूर्ण वफादार नहीं कहेंगे। ऐसे नहीं कि एक सेकण्ड वा एक पैसा व्यर्थ गया - तो क्या बड़ी बात है। नहीं। सम्पूर्ण वफादार अर्थात् सब कुछ सफल करने वाले।

स्लोगन:-

श्रीमत को यथार्थ समझकर उस पर कदम-कदम चलने में ही सफलता समाई हुई है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ज्ञान क्या है? By वनिता कासनियां पंजाब वेद, उपनिषद, गीता, श्री आदि शंकराचार्य जी, प्रभु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, गुरू नानक देव जी, संत कबीरदास जी, प्रभु जीसस क्राइस्, प्रभु गौतमबुद्ध जी व सम्पूर्ण विश्व के धर्मों का सार यही कहता हैं कि ज्ञानी व्यक्ति या स्थितप्रज्ञा की अवस्था वाले व्यक्ति में यह सभी सूक्ष्म लक्षण होते हैं: ⤵️कर्तव्य निभाने से सम्बंधित लक्षण:प्रतिदिन जितना सम्भव हो सके परमात्मा के प्रति ध्यान-उपासना का निरन्तर एकान्त में भक्ति व प्रेमपूर्वक अभ्यासगृहस्थ जीवन व जीविका अर्जित के सभी कार्यों को सदैव पूर्ण ब्रह्मा की प्रेमभरी सतत याद में डूबे रह कर (जितना सम्भव हो सके) एकान्त में, सेवा भाव में तत्पर रहते हुए निभानासदा सत्य बोलने का साहस होनासमस्त प्राणियों में पूर्ण परमात्मा श्रीकृष्ण को वर्तमान जानना और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति अद्रोह का भाव रखना। [ईशवर की भक्ति व प्रेम से हृदय (आत्मा) पर लगातार ध्यान साधना से समस्त प्राणियों के प्रति स्वतः ही मन में संवेदना, दया व करूणा उत्पन्न हो जाती है।]स्वभाव व व्यवहारिक लक्षण:इनके अलावा प्रारब्धा (संस्कारों या) कर्मों के अनुकूल मिलने वाले हानि-लाभ में सन्तोष रखनास्त्री और पुत्र आदि में ममता व लगाव शून्य होनाअहङ्कार और क्रोध से रहित होनासरल व मृदु भाषी होनाप्रसन्न-चित्त रहनाअपनी निन्दा-स्तुति के प्रति विरक्त रहते हुए सदा एक समान रहनाजीवन के सुख दुःख, उतार-चढ़ाव और शीतोष्णादि द्वन्द्वों को सदैव समर्पण भाव से शान्तिपूर्ण सहन करनाआपत्तियों व कठिनाइयों से भय न करनानिद्रा, आहार और विहार आदि से अनासक्त रहनाव्यर्थ वार्तालाप व गतिविधियों के लिये स्वयं को अवकाश न देनाहृदय के भीतर की अवस्था के लक्षण:श्रेष्ठतम गुरू के मार्गदर्शन के अनुसार निष्ठा के साथ ध्यान-साधना करना; ईश्वर के अनन्त प्रेम के स्त्रोत से अटूट जुड़ाव का लगातार प्रयास व अहसास करना ताकि उपरोक्त लक्षण हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बन सके।श्रीकृष्ण के सतत-स्मरण से अर्जित प्रबोध-सुधाकर (दिव्य आलोक के परम सत्य) में निरन्तर शान्तचित्त रहनाकोई भगवत्सम्बन्धी गीत व भजन के गान अथवा बाँसुरी (वाद्ययन्त्र द्वारा राग) बजाने या सुनने पर हृदय में एक ही समय में एक साथ आनन्द का आविर्भाव और सात्त्विक भावों का प्रौढ़ उद्रेक हो जाना।जीवात्मा मन के पूर्वाग्रही अज्ञान (संस्कारों के आवरणों) से मलीन है। जीवात्मा का स्वयं के दिव्य स्वरूप (आत्मा पर) प्रेमपूर्वक सतत ध्यान करने पर प्राप्त होने वाले दिव्य ज्ञान से वह पुनः निर्मल होती है आत्मज्ञान के ज्ञानाभ्यास से अपने आप अज्ञान का नाश हो जाता है जैसे सोते समय स्वप्न सच्चा सा मालूम होता है और जागने के बाद झूठा लगता है, वैसे ही अज्ञान व मलिन दशा में संसार सच्चा व ज्ञान होने तथा जानने पर झूठा लगने लगता है।श्री आदि शंकराचार्य जी आत्मबोध के श्लोक 32 से 34 में कहते हैं:जन्म, बुढ़ापा, दुबला-मोटा होना, रोग, मृत्यु आदि सिर्फ़ देह में है, आत्मा में नहीं है। आत्मा उनसे अन्य (सूक्ष्म दिव्य शरीर) है और बिना इन्द्रियवाला है। इससे शब्द, स्पर्श, स्वाद आदि विषयों का संग भी नहीं है। और बिना मन वाला होने से राग, द्वेष, दुःख, भय आदि भी आत्मा में नहीं है ॥32॥इस आत्मा से प्राण, मन व सब इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, अग्नि, जल और संसार को धारण करनेवाली पृथ्वी उत्पन्न होती है ॥33॥आत्मा सत्, रज, तम गुणों से रहित, सदैव रहनेवाला, जाना-आना आदि क्रिया से रहित, संकल्प विकल्प से रहित, माया के दोषों से रहित; तथा सभी षट् विकारों: जन्म, शरीर-वृद्धि, बाल्यावस्था, प्रौढ़ता, वार्द्धक्य, व मृत्यु; तथा काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अरू (ज़ख़्म, रोग), व मत्सर (ईर्ष्या-द्वेष) से रहित, निराकार, सदा मुक्तस्वरूप निर्मल है ॥34॥श्री आदि शंकराचार्य जी के अनुसार:अन्तःकरण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी के चरणकमलों की भक्ति के बिना कभी शुद्ध नहीं हो सकता। जैसे वस्त्र को खारयुक्त जल से शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार चित्त को भक्ति से निर्मल किया जा सकता है ।बाइबल में सेंट थियोडोरोस कहते हैं: "इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता जिसकी पिता स्वरूप प्रभु ने इतनी अच्छी तरह से पुष्टि की है, कि मनुष्य को मन में लगातार केवल इस विचार को बनाये रखने के अलावा कहीं और आराम नहीं मिलता है कि उसके हृदय के भीतर बसे (आराध्य) परमात्मा और वह (उपासक आत्मा) अकेले मौजूद हैं; और इसलिए वह अपनी बुद्धि को संसार की किसी भी अन्य चीज के लिए बिल्कुल भी भटकने नहीं देता है; बल्कि वह पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए तरसता है, सिर्फ़ उसके लिए। केवल ऐसे व्यक्ति को ही सच्चा सुख व आराम मिलेगा और अनगिनत कामनाओं के निर्मम जुनून से मुक्ति मिलेगी।” (द फिलोकलिया v.II. p. 34, 91)हमारे मन व बुद्धि जब दिव्य संतों के वचनों से प्रभावित होते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि जब कोई मनुष्य पूर्ण परमात्मा (सर्वज्ञाता, सर्वोपरि व सर्वव्यापक) को जानता है तो ऐसा कुछ भी शेष नहीं रह जाता है जो उसे वास्तव में जानने की आवश्यकता हो। क्योंकि पूर्ण परमात्मा को जानने का अर्थ है सब कुछ जान लेना।इसलिए, सच्चा ज्ञान खुद को (हृदय की नितांत गहराइयों में स्वयं को खो देने के पश्चात) प्रेम व भक्तिसागर की रहस्यमय असीम शांति में डूबाने पर ही प्राप्त होता है।इस प्रकार, जब मनुष्य को अपने भीतर ईश्वर का पूर्ण ज्ञान होता है, तो उसकी बुद्धि को ज्ञान की तलाश में नहीं भागना पढ़ता।और जब किसी व्यक्ति के पास ऐसा विवेक (अंतर्ज्ञान) हो अर्थात् विश्लेणात्मक तर्क के बिना सीधे अनन्त दिव्य ज्ञान के स्तोत्र से जानने की क्षमता हो; जब कोई इस तरह के अतुलनीय दिव्य ज्ञान का अधिकारी हो जाता तो कुछ भी ओर जानना बेमानी हो जाता है।जब तक किसी व्यक्ति का मन चंचल है; उसके मन में विचार दौड़ते रहते है, तो वह इस बात का प्रतीक है कि उसने अभी तक अपरिहार्य रूप से अपने उत्कृष्ट आत्मिक पहलुओं या स्वयं के उच्च (दिव्य) स्वभाव में बसना यानि अपनी आत्मा में आराम करना नहीं सीखा है।सेंट मैक्सिमोस इस तर्क को स्पष्ट करते हुए कहते हैं: “एक व्यक्ति का मन व बुद्धि जब अपने शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करके स्वयं को मुक्त कर लेती है तो उसे खुशी और दर्द का अनुभव नहीं होता है, पर मनुष्य ऐसा तब कर पाता है जब वह अपने मन व बुद्धि को परमात्मा से बांधता है या एकजुट कर लेता है; उस पूर्ण परमात्मा को चाहता है जो प्यार, लगाव व इच्छा का वास्तविक लक्ष्य व सर्वश्रेष्ठ सुपात्र है।“ (द फिलोकलिया (The Philokalia) v.II, p.175, 54)निस्वार्थ प्रेम में ईश्वर की याद में मन व बुद्धि का भक्ति मे डूबे रह कर खो जाने में ईश्वरीय शांति मिली है; प्रभु श्रीकृष्ण ने भगवत गीता के अध्याय 2:58 के चिंतनशील मणि रूपी श्लोक में इस स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है:जिस प्रकार कछुवा अपने बचाव हेतु बार-बार अपने अंगो को संकुचित करके अपने खोल के भीतर कर लेता है, उसी तरह योगी, भक्त या आत्मसिद्ध व्यक्ति अपने मन व इन्द्रियों (ध्यान) को भक्तिभाव द्वारा इन्द्रियविषयों से खीँच कर पूर्ण ब्रह्मा की पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर कर लेता है |तात्पर्यः अधिकांश व्यक्ति अपनी इन्द्रियों व मन के दास बने रहते हैं और इन्द्रियों के ही कहने पर चलते हैं। इन्द्रियों की तुलना विषैले सर्पों से की गई है; मानव का मन व इन्द्रियाँ सदैव अत्यन्त स्वतंत्रतापूर्वक तथा बिना किसी नियन्त्रण के कर्म करना चाहती हैं। योगी या भक्त का इन सर्पों को वश में करने के लिए, ईश्वर भक्ति की धुन में अत्यन्त प्रबल होना अति आवश्यक है। वह उन्हें कभी भी कार्य करने की छूट नहीं देता।जैसे कछुआ किसी भी समय अपने अंग समेट लेता है उसी तरह भक्त (ज्ञानी) परमात्मा के स्मरण में अपने मन व सभी इंद्रियों को इंद्रियों के आनंद के आकर्षण से तुरंत वापस खींच लेता है। और पुनः वह विशिष्ट उद्देश्यों से आवश्यकतानुसार उन्हें प्रकट कर लेता है तभी वह सदा कृष्णभावनामृत में स्थिर रह पाता है। (BG-Ch-2, V-58)http://vnita40.blogspot.com/2022/08/19-yoga-for-knee-pain-how-yogasana.htmlगलातियनस (Galatians) 5:24 के अनुसार: "वे सभी जो ईसा मसीह (ईश्वर/God) के हैं, उनसे सच्चा प्रेम करते हैं उन्होंने अपने निम्न स्वयं के साथ, अपने सभी जुनूनों और इच्छाओं को क्रूस पर चढ़ाया है।"गलातियनस 3:28 कहता है: "कोई यहूदी या ग्रीक नहीं है; कोई गुलाम या स्वतंत्र नहीं है; न ही कोई पुरुष या महिला है - क्योंकि सभी यीशु मसीह में एक है; वे सभी एक परमात्मा का (समानुरूप से) अभिन्न अंश हैं।”बाइबल के 11:24 में सेंट ल्यूक ने बड़ी ख़ूबसूरती से कहा है: "जब कोई (संस्कारों के आवरणों से ढकी) अशुद्ध प्यासी आत्मा मन के ज़रिए शान्ति व सुकून की तलाश में बाहर झांकती है तो उसे भौतिक जगत में कहीं भी दिव्यता का पवित्र जल नहीं मिलता, उसे जलरहित देशों से गुजरना पढ़ता है; वह चिरस्थायी आराम करने के लिए जगह तलाशती रहती है, और जब उसे कहीं भी शान्ति, सूकून व आराम नहीं मिलता है तो आखिरकार वह निर्णय लेती है कि मैं अपने घर वापस जाउगी जहां से मैं आयी हूँ।”इफिसियों (Ephesians) 4: 22-24 में कहा गया है कि: “हमें अपने पुराने स्व को (अर्थात अपनी पुरानी सोच व पूर्वाग्रहों को, पुरानी आदतों, पसन्द-नापसंदों आदि को) सदा अलग रखना चाहिये, क्योंकि वह हमारे पुराने (पिछले जन्मों के) तरीकों से संबंधित है और वह पुरानी भ्रामक इच्छाओं व धारणाओं का पालन करके भ्रष्ट हो चुकी है। तथा वह केवल हमारे मन का आत्मा पर ध्यान व लगाव करने से नवीनीकृत होती हैं; केवल तभी मनुष्य अपने (निम्न) स्वयं को परिवर्तित कर पुनः (उच्च) दिव्य मानव में ढाल सकता है। — मानव की वह उच्चतम दिव्य अवस्था जो परमेश्वर के दिव्य सनातनी सिद्धांतों पर, सत्य की पवित्रता व सार्वभौमिक न्याय पर अवधारित होती है।”श्री आदि शंकराचार्य जी ने आत्मबोध में बताया है कि ऐसी प्रतिदिन की अभ्यासवाली यह वासना कि मैं ब्रह्म ही हूँ अज्ञान के विक्षेपों को दूर करती है जैसे रसायन रोगों को ॥37॥ एकान्त स्थान में आसन पर बैठ वैराग्यवान् व जितेन्द्रिय हो एकाग्रचित्त कर उस अनन्त अद्वितीय परमात्मा का ध्यान करे ॥38॥वे आगे लिखते हैं कि: सुन्दर बुद्धिवाला ज्ञानी पुरुष अंतर्दृष्टि वाली बुद्धि से सब देखते हुए संसार को आत्मा में ही लीन करके सदा निर्मल आकाश की तरह एक परमात्मा का ही ध्यान करता है ॥39॥ आत्मज्ञानी पुरुष सब नामवर्ण (self-identity) आदि छोड़के पूरे चैतन्यानन्द रूप से रहता है ॥40॥श्री आदि शंकराचार्य जी कहते हैं कि: ज्ञानी व्यक्ति बाहर के झूठे सुखों का लगाव छोड़ आत्मसुख से युक्त अपने अंतस में ही घड़े में रक्खे दीपक की तरह साफ प्रकाशता है ॥51॥ सब कुछ जानता हुआ भी योगी पुरूष अज्ञानी की तरह रहता है और बिना लगाव के वायु की तरह आचरण करता है ॥52॥ईश्वरीय मनन में रहने वाला ज्ञानी व योगी उपाधियों से अलगाव बनाये रख कर भगवान् में पूरी रीति से लीन होता है जैसे जल में जल प्रकाश में प्रकाश और अग्नि में अग्नि ॥53॥ जिस आत्म लाभ से अधिक दूसरा लाभ नहीं जिस सुख से अधिक दूसरा सुख नहीं जिस ज्ञान से अधिक दूसरा ज्ञान नहीं वही ब्रह्मा है ऐसा विचार अपने मन व हृदय में बनाये रखता है ॥54॥अंत में श्री आदि शंकराचार्य जी कहते हैं कि: आत्मा ज्ञानरूपी सूर्य है। आकाशरूपी हृदय में उदय हो अन्धकाररूपी अज्ञान को दूर कर सबमें व्याप्त होकर सबको धारण करते व सबको प्रकाशित करते सुशोभित होता है ॥67॥जो विचार त्यागी पुरूष स्थान समय आदि को बिना देखे शीत उष्ण आदि के दूर करनेवाले सबमें रहने वाले माया रहित नित्य आनन्दरूप अपने आत्मतीर्थ को सेवन करता है वह सबकुछ जाननेवाला, सबमें रहता हुआ मुक्त होता है ॥68॥निष्कर्ष रूप में ज्ञान को शाब्दिक रूप में व्यक्त करना कठिन है चूँकि ज्ञान अनुभव से प्राप्त होता है अतः उसका व्यवहारिक रूप से ही प्रकटीकरण हो सकता है।अतः ज्ञान का अर्थ हुआ: मन, इन्द्रियों और शरीर द्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित होना।तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दन परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दन वासुदेव (पूर्ण परमात्मा) के सिवाय हृदय व मन में अन्य किसी के भी होनेपन का भाव न रहना।तथा श्रद्धा व भक्तिपूर्वक मन, वाणी और शरीर सब प्रकार से ईश्वर के शरण होकर; गृहस्थाश्रम में ही रहते हुए, निम्नलिखित तरीक़े से प्रेमपूर्वक निरन्तर पूर्ण परमात्मा का “सतत स्मरण” करना तथा उनके दिव्य गुणों और दिव्य स्वरूप को प्रभावसहित अपने आचरण में उतारना। ⤵️http://vnitak.blogspot.com/2022/08/check-this-post-from.htmlईश्वर करे आपका जीवन दिव्य प्रेम, ज्ञान, शान्ति व परमानन्द से भर जाये! आमीन! आमीन! आमीन!

ज्ञान क्या है? By वनिता कासनियां पंजाब वेद, उपनिषद, गीता, श्री आदि शंकराचार्य जी, प्रभु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, गुरू नानक देव जी, संत कबीरदास जी, प्रभु जीसस क्राइस्, प्रभु   गौतमबुद्ध जी व सम्पूर्ण विश्व के  धर्मों का सार  यही कहता हैं कि  ज्ञानी  व्यक्ति या  स्थितप्रज्ञा  की अवस्था वाले व्यक्ति में यह सभी  सूक्ष्म लक्षण  होते हैं: ⤵️ कर्तव्य निभाने   से सम्बंधित लक्षण: प्रतिदिन जितना सम्भव हो सके परमात्मा के प्रति ध्यान-उपासना का निरन्तर एकान्त में भक्ति व प्रेमपूर्वक अभ्यास गृहस्थ जीवन व जीविका अर्जित के सभी कार्यों को सदैव पूर्ण ब्रह्मा की प्रेमभरी सतत याद में डूबे रह कर (जितना सम्भव हो सके) एकान्त में, सेवा भाव में तत्पर रहते हुए निभाना सदा सत्य बोलने का साहस होना समस्त प्राणियों में पूर्ण परमात्मा श्रीकृष्ण को वर्तमान जानना और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति अद्रोह का भाव रखना। [ईशवर की भक्ति व प्रेम से हृदय (आत्मा) पर लगातार ध्यान साधना से समस्त प्राणियों के प्रति स्वतः ही मन में संवेदना, दया व करूणा उत्पन्न हो जाती है।] स...

🕉हनुमान जी जब पर्वत लेकर लौटते है तो भगवान से कहते है🕉🙏By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबप्रभु आपने मुझे संजीवनी बूटी लेने नहीं भेजा था.आपने तो मुझे मेरी मूर्छा दूर करने के लिए भेजा था. "सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू"हनुमान्‌जी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा है,प्रभु आज मेरा ये भ्रम टूट गया कि मै ही सबसे बड़ा भक्त,राम नाम का जप करने वाला हूँ.भगवान बोले कैसे ? हनुमान जी बोले - वास्तव में तो भरत जी संत है और उन्होंने ही राम नाम जपा है. आपको पता है जब लक्ष्मण जी को शक्ति लगी तो मै संजीवनी लेने गया पर जब मुझे भरत जी ने बाण मारा और मै गिरा, तो भरत जी ने, न तो संजीवनी मंगाई, न वैध बुलाया. कितना भरोसा है उन्हें आपके नाम पर, आपको पता है उन्होंने क्या किया."जौ मोरे मन बच अरू काया,प्रीति राम पद कमल अमाया"तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला,जौ मो पर रघुपति अनुकूला सुनत बचन उठि बैठ कपीसा,कहि जय जयति कोसलाधीसा"यदि मन वचन और शरीर से श्री राम जी के चरण कमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो तो यदि रघुनाथ जी मुझ पर प्रसन्न हो तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए. यह वचन सुनते हुई मै श्री राम, जय राम, जय-जय राम कहता हुआ उठ बैठा. मै नाम तो लेता हूँ पर भरोसा भरत जी जैसा नहीं किया, वरना मै संजीवनी लेने क्यों जाता,बस ऐसा ही हम करते है हम नाम तो भगवान का लेते है पर भरोसा नही करते, बुढ़ापे में बेटा ही सेवा करेगा, बेटे ने नहीं की तो क्या होगा?उस समय हम भूल जाते है कि जिस भगवान का नाम हम जप रहे है वे है न, पर हम भरोसा नहीं करते. बेटा सेवा करे न करे पर भरोसा हम उसी पर करते है.2.🕉 - दूसरी बात प्रभु! बाण लगते ही मै गिरा, पर्वत नहीं गिरा, क्योकि पर्वत तो आप उठाये हुए थे और मै अभिमान कर रहा था कि मै उठाये हुए हूँ. मेरा दूसरा अभिमान टूट गया, इसी तरह हम भी यही सोच लेते है कि गृहस्थी के बोझ को मै उठाये हुए हूँ,3.🕉 - फिर हनुमान जी कहते है -और एक बात प्रभु ! आपके तरकस में भी ऐसा बाण नहीं है जैसे बाण भरत जी के पास है. आपने सुबाहु मारीच को बाण से बहुत दूर गिरा दिया, आपका बाण तो आपसे दूर गिरा देता है, पर भरत जी का बाण तो आपके चरणों में ला देता है. मुझे बाण पर बैठाकर आपके पास भेज दिया.भगवान बोले - हनुमान जब मैंने ताडका को मारा और भी राक्षसों को मारा तो वे सब मरकर मुक्त होकर मेरे ही पास तो आये, इस पर हनुमान जी बोले प्रभु आपका बाण तो मारने के बाद सबको आपके पास लाता है पर भरत जी का बाण तो जिन्दा ही भगवान के पास ले आता है. भरत जी संत है और संत का बाण क्या है? संत का बाण है उसकी वाणी लेकिन हम करते क्या है, हम संत वाणी को समझते तो है पर सटकते नहीं है, और औषधि सटकने पर ही फायदा करती है.4.🕉 - हनुमान जी को भरत जी ने पर्वत सहित अपने बाण पर बैठाया तो उस समय हनुमान जी को थोडा अभिमान हो गया कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा ? परन्तु जब उन्होंने रामचंद्र जी के प्रभाव पर विचार किया तो वे भरत जी के चरणों की वंदना करके चले है.इसी तरह हम भी कभी-कभी संतो पर संदेह करते है, कि ये हमें कैसे भगवान तक पहुँचा देगे, संत ही तो है जो हमें सोते से जगाते है जैसे हनुमान जी को जगाया, क्योकि उनका मन,वचन,कर्म सब भगवान में लगा है. आप उन पर भरोसा तो करो, तुम्हे तुम्हारे बोझ सहित भगवान के चरणों तक पहुँचा देगे !#बाल_वनिता_महिला_आश्रम🕉जय जय श्री सीता राम🕉🙏

🕉हनुमान जी जब पर्वत लेकर लौटते है तो भगवान से कहते है🕉🙏 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब प्रभु आपने मुझे संजीवनी बूटी लेने नहीं भेजा था. आपने तो मुझे मेरी मूर्छा दूर करने के लिए भेजा था.   "सुमिरि पवनसुत पावन नामू।    अपने बस करि राखे रामू" हनुमान्‌जी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा है, प्रभु आज मेरा ये भ्रम टूट गया कि मै ही सबसे बड़ा भक्त,राम नाम का जप करने वाला हूँ. भगवान बोले कैसे ?  हनुमान जी बोले - वास्तव में तो भरत जी संत है और उन्होंने ही राम नाम जपा है.    आपको पता है जब लक्ष्मण जी को शक्ति लगी तो मै संजीवनी लेने गया पर जब मुझे भरत जी ने बाण मारा और मै गिरा, तो भरत जी ने, न तो संजीवनी मंगाई, न वैध बुलाया. कितना भरोसा है उन्हें आपके नाम पर, आपको पता है उन्होंने क्या किया. "जौ मोरे मन बच अरू काया, प्रीति राम पद कमल अमाया" तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला, जौ मो पर रघुपति अनुकूला  सुनत बचन उठि बैठ कपीसा, कहि जय जयति कोसलाधीसा" यदि मन वचन और शरीर से श्री राम जी के चरण कमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो तो यदि रघुनाथ जी मुझ प...

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥ श्रीगणेशायनम: । अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य । बुधकौशिक ऋषि: । श्रीसीतारामचंद्रोदेवता । अनुष्टुप्‌ छन्द: । सीता शक्ति: । श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ । श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥ अर्थ : इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्रके रचयिता बुधकौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमानजी कीलक है तथा श्रीरामचंद्रजीकी प्रसन्नताके लिए राम रक्षा स्तोत्रके जपमें विनियोग किया जाता है । ॥ अथ ध्यानम्‌ ॥ ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं । पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥ वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं । नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥ अर्थ : ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्ध पद्मासनकी मुद्रामें विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दलके समान स्पर्धा करते हैं, जो बायें ओर स्थित सीताजीके मुख कमलसे मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारोंसे विभूषित तथा जटाधारी श्रीरामका ध्यान करें । ॥ इति ध्यानम्‌ ॥ चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्‌ । एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌ ॥१॥ अर्थ : श्री रघुनाथजीका चरित्र सौ कोटि विस्तारवाला हैं ।उसका एक-एक अक्षर महापातकोंको नष्ट करनेवाला है । ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्‌ । जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम्‌ ॥२॥ अर्थ : नीले कमलके श्याम वर्णवाले, कमलनेत्रवाले , जटाओंके मुकुटसे सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्रीरामका स्मरण कर, सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम्‌ । स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्‌ ॥३॥ अर्थ : जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथोंमें खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसोंके संहार तथा अपनी लीलाओंसे जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीरामका स्मरण कर, रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम्‌ । शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४॥ अर्थ : मैं सर्वकामप्रद और पापोंको नष्ट करनेवाले राम रक्षा स्तोत्रका पाठ करता हूं । राघव मेरे सिरकी और दशरथके पुत्र मेरे ललाटकी रक्षा करें । कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती । घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥ अर्थ : कौशल्या नंदन मेरे नेत्रोंकी, विश्वामित्रके प्रिय मेरे कानोंकी, यज्ञरक्षक मेरे घ्राणकी और सुमित्राके वत्सल मेरे मुखकी रक्षा करें । जिव्हां विद्यानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: । स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥ अर्थ : विद्यानिधि मेरी जिह्वाकी रक्षा करें, कंठकी भरत-वंदित, कंधोंकी दिव्यायुध और भुजाओंकी महादेवजीका धनुष तोडनेवाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें । करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित्‌ । मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥ अर्थ : मेरे हाथोंकी सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदयकी जमदग्नि ऋषिके पुत्रको (परशुराम) जीतनेवाले, मध्य भागकी खरके (नामक राक्षस) वधकर्ता और नाभिकी जांबवानके आश्रयदाता रक्षा करें । सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: । ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत्‌ ॥८॥ अर्थ : मेरे कमरकी सुग्रीवके स्वामी, हडियोंकी हनुमानके प्रभु और रानोंकी राक्षस कुलका विनाश करनेवाले रघुकुलश्रेष्ठ रक्षा करें । जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्‌घे दशमुखान्तक: । पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥ अर्थ : मेरे जानुओंकी सेतुकृत, जंघाओकी दशानन वधकर्ता, चरणोंकी विभीषणको ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले और सम्पूर्ण शरीरकी श्रीराम रक्षा करें । एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत्‌ । स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्‌ ॥१०॥ अर्थ : शुभ कार्य करनेवाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धाके साथ रामबलसे संयुक्त होकर इस स्तोत्रका पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं । पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्‌मचारिण: । न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥ अर्थ : जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाशमें विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेशमें घूमते रहते हैं , वे राम नामोंसे सुरक्षित मनुष्यको देख भी नहीं पाते । रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन्‌ । नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥ अर्थ : राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामोंका स्मरण करनेवाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता, इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनोंको प्राप्त करता है । जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्‌ । य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥ अर्थ : जो संसारपर विजय करनेवाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्‌ । अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम्‌ ॥१४॥ अर्थ : जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवचका स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञाका कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगलकी ही प्राप्ति होती हैं । आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: । तथा लिखितवान्‌ प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥ अर्थ : भगवान् शंकरने स्वप्नमें इस रामरक्षा स्तोत्रका आदेश बुध कौशिक ऋषिको दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागनेपर उसे वैसा ही लिख दिया | आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम्‌ । अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान्‌ स न: प्रभु: ॥१६॥ अर्थ : जो कल्प वृक्षोंके बागके समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियोंको दूर करनेवाले हैं और जो तीनो लोकों में सुंदर हैं, वही श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं । तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ । पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥ अर्थ : जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमलके (पुण्डरीक) समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियोंकी समान वस्त्र एवं काले मृगका चर्म धारण करते हैं । फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ । पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥ अर्थ : जो फल और कंदका आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथके पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें । शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्‌ । रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥ अर्थ : ऐसे महाबली – रघुश्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियोंके शरणदाता, सभी धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ और राक्षसोंके कुलोंका समूल नाश करनेमें समर्थ हमारा रक्षण करें । आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्‌ग सङि‌गनौ । रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रत: पथि सदैव गच्छताम्‌ ॥२०॥ अर्थ : संघान किए धनुष धारण किए, बाणका स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणोसे युक्त तुणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करनेके लिए मेरे आगे चलें । संनद्ध: कवची खड्‌गी चापबाणधरो युवा । गच्छन्‌मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥२१॥ अर्थ : हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथमें खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्थावाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर हमारी रक्षा करें । रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली । काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥२२॥ अर्थ : भगवानका कथन है कि श्रीराम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुतम वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: । जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥२३॥ अर्थ : वेदान्त्वेघ, यज्ञेश,पुराण पुरुषोतम , जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामोंका इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्त: श्रद्धयान्वित: । अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥२४॥ अर्थ : नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करनेवालेको निश्चित रूपसे अश्वमेध यज्ञसे भी अधिक फल प्राप्त होता हैं । रामं दूर्वादलश्यामं पद्‌माक्षं पीतवाससम्‌ । स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥२५॥ अर्थ : दूर्वादलके समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीरामकी उपरोक्त दिव्य नामोंसे स्तुति करनेवाला संसारचक्रमें नहीं पडता । रामं लक्ष्मणं पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम्‌ । काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्‌ राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम्‌ । वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्‌ ॥२६॥ अर्थ : लक्ष्मण जीके पूर्वज , सीताजीके पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणाके सागर , गुण-निधान , विप्र भक्त, परम धार्मिक, राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथके पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकोंमें सुन्दर, रघुकुल तिलक , राघव एवं रावणके शत्रु भगवान् रामकी मैं वंदना करता हूं। रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे । रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥२७॥ अर्थ : राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीताजीके स्वामीकी मैं वंदना करता हूं। श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम । श्रीराम राम भरताग्रज राम राम । श्रीराम राम रणकर्कश राम राम । श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥ अर्थ : हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरतके अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए । श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥ अर्थ : मैं एकाग्र मनसे श्रीरामचंद्रजीके चरणोंका स्मरण और वाणीसे गुणगान करता हूं, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धाके साथ भगवान् रामचन्द्रके चरणोंको प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणोंकी शरण लेता हूं | माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: । स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: । सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु । नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥ अर्थ : श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं ।इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं, उनके सिवामें किसी दुसरेको नहीं जानता । दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा । पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम्‌ ॥३१॥ अर्थ : जिनके दाईं और लक्ष्मणजी, बाईं और जानकीजी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथजीकी वंदना करता हूं । लोकाभिरामं रनरङ्‌गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्‌ । कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥ अर्थ : मैं सम्पूर्ण लोकोंमें सुन्दर तथा रणक्रीडामें धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणाकी मूर्ति और करुणाके भण्डार रुपी श्रीरामकी शरणमें हूं। मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌ । वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥ अर्थ : जिनकी गति मनके समान और वेग वायुके समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूतकी शरण लेता हूं । कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌ । आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥३४॥ अर्थ : मैं कवितामयी डालीपर बैठकर, मधुर अक्षरोंवाले ‘राम-राम’ के मधुर नामको कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयलकी वंदना करता हूं । आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्‌ । लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌ ॥३५॥ अर्थ : मैं इस संसारके प्रिय एवं सुन्दर , उन भगवान् रामको बार-बार नमन करता हूं, जो सभी आपदाओंको दूर करनेवाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करनेवाले हैं । भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम्‌ । तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्‌ ॥३६॥ अर्थ : ‘राम-राम’ का जप करनेसे मनुष्यके सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं । वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं । राम-रामकी गर्जनासे यमदूत सदा भयभीत रहते हैं । रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे । रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: । रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम्‌ । रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥ अर्थ : राजाओंमें श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजयको प्राप्त करते हैं । मैं लक्ष्मीपति भगवान् श्रीरामका भजन करता हूं। सम्पूर्ण राक्षस सेनाका नाश करनेवाले श्रीरामको मैं नमस्कार करता हूं । श्रीरामके समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं । मैं उन शरणागत वत्सलका दास हूं। मैं सद्सिव श्रीराममें ही लीन रहूं । हे श्रीराम! आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें । राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे । सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥ अर्थ : (शिव पार्वती से बोले –) हे सुमुखी ! राम- नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान हैं । मैं सदा रामका स्तवन करता हूं और राम-नाममें ही रमण करता हूं । इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब 🌹🙏🙏🌹, अर्थ : इस प्रकार बुधकौशिकद्वारा रचित श्रीराम रक्षा स्तोत्र सम्पूर्ण होता है । ॥ श्री सीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

  ॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥ श्रीगणेशायनम: । अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य । बुधकौशिक ऋषि: । श्रीसीतारामचंद्रोदेवता । अनुष्टुप्‌ छन्द: । सीता शक्ति: । श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ । श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥ अर्थ : इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्रके रचयिता बुधकौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमानजी कीलक है तथा श्रीरामचंद्रजीकी प्रसन्नताके लिए राम रक्षा स्तोत्रके जपमें विनियोग किया जाता है । ॥ अथ ध्यानम्‌ ॥ ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं । पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥ वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं । नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥ अर्थ : ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्ध पद्मासनकी मुद्रामें विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दलके समान स्पर्धा करते हैं, जो बायें ओर स्थित सीताजीके मुख कमलसे मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारोंसे विभूषित तथा जटाधारी श्रीरामका ध्यान करें । ॥ इति ध्यानम्‌ ॥ चरितं रघुनाथस्य श...