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आज #मंगलवार है, आज हम सब मिलकर रामभक्त पवनकुमार हनुमानजी महाराज की भक्ति करेंगे, आज हम आपको बतायेगें कि #हनुमानजी अजर अमर यानी चिरंजीवी कैसे हुए????? #बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती वनिता #कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थानआठ महामानवों को पृथ्वी पर #चिरंजीवी माना जाता है- अश्वत्थामा, बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, परशुरामजी, कृपाचार्य और महामृत्युंजय मंत्र के रचयिता मार्कंडेय जी। हनुमानजी के चिरंजीवि होने की कथा संक्षेप में सुनाता हूं। आप यदि इस रहस्य को समझना चाहते हैं तो पूरे भाव से और पूरे धैर्य से पढ़ें-कथा को कभी रामचरितमानस की चौपाइयों और रामायण के उद्धरणों के साथ विस्तार से भी सुनाऊंगा उसमें आपको ज्यादा आनंद आएगा। हनुमानजी सीताजी को खोजते-खोजते अशोक वाटिका पहुंच गए। विभीषणजी से उन्हें लंका के बारे में संक्षिप्त परिचय प्राप्त हो ही चुका था।पवनसुत ने भगवान श्रीराम द्वारा दी हुई मुद्रिका चुपके से गिराई। रामचरित मानस को देखें तो हनुमानजी के अशोक वाटिका में पहुंचने के प्रसंग से ठीक पहले का प्रसंग है रावण के वहां अपनी रानियों और सेविकाओं के साथ आने का। वह माता सीता को तरह-तरह का प्रलोभन देता है उन्हें पटरानी बनाने की बात कहता है और समस्त रानियों को उनकी सेवा में तैनात कर देने की बात कहता है।परंतु सीताजी प्रभावित नहीं होतीं तो वह उन्हें डराने का दुस्साहस करता है. चंद्रमा के समान तेज प्रकाशवान चंद्रहास खड़ग निकालकर माता को डराता है और उन्हें एक मास का समय देता है विचार का, उसके बाद वह या तो उनके साथ बलपूर्वक विवाह करेगा अन्यथा वध कर देगा।#माता #सीता सशंकित है कुछ भयभीत भी. संकट के समय में भयभीत होना सहज स्वभाव है. तभी हनुमानजी वहां पहुंचे हैं. वृक्ष पर छुपकर बैठे हैं और उचित समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।हनुमानजी के साथ तीन उलझनें हैं- पहला तो माता सीता बहुत भयभीत हैं इसलिए यदि वह अचानक वहां पहुंच जाएं तो उन्हें देखकर माता और भयाक्रांत हो जाएंगी। हनुमानजी तो स्वयं को सेवक के भाव से देखते थे। सेवक अपने स्वामी के आदेश से आया है वह भी उसकी प्राणप्रिया की सुध लेने। जिसकी सुध लेने आया है उसे भयभीत कैसे कर दें।दूसरी उलझन, हनुमानजी के समक्ष एक उलझन है कि माता के समक्ष प्रथम बार जा रहा हूं. वानरकुल को ऐसे ही अशिष्ट माना जाता है. कहीं माता मेरे किसी आचरण को अशिष्टता या उदंडता न समझ लें. अगर आज के तौर-तरीके में कहूं तो उनके समक्ष भी वही उलझन है जो हमारे समक्ष होती है- तो क्या सर्वथा उचित व्यवहार, संबोधन आदि होगा. यह सब सोच रहे हैं।तीसरी उलझन, मैं किस भाषा का प्रयोग करूं अपनी बात कहने के लिए. रावण को उन्होंने उत्तम संस्कृत भाषा का प्रयोग करते सुना है. तो यदि वह भी संस्कृत भाषा बोलते हैं तो कहीं उन्हें भी रावण का भेजा हुआ कोई मायावी समझकर माता क्रोध में चिल्लाने लगें और रक्षकों की नींद खुल जाए. किष्किंधा की बोली का प्रयोग करूं तो माता के लिए यह अपिरिचत लगेगा. बहुत विचार करने पर वह अयोध्या की भाषा का प्रयोग करते हैं। संवाद बहुत काम करता है. जब ऋष्यमूक पर उनकी भेंट श्रीराम-लक्ष्मणजी से हुई थी तो वह एक ब्राह्मण का वेष धरकर पहुंचे थे और उत्तम संस्कृत भाषा का प्रयोग कर रहे थे तब श्रीराम ने कहा था कि इनकी वाणी में जितनी मिठास है उतनी ही सुंदर शैली, उतना ही उच्चकोटि का व्याकरण प्रयोग. ऐसे व्यक्ति यदि जिस राजा के मंत्री हों वह राजा कभी दुखी हो ही नहीं सकता।तो हनुमानजी ने मुद्रिका गिराई और माता की प्रतिक्रिया को बड़े गहराई से देखा. *तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर।।चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर श्रीरामजी की अँगूठी देखी. अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं. माता विभोर हैं, चकित हैं कि ये कहां से आई।यदि रामनाम के रस में डूबते हैं या रामनाम रसधारा की महिमा का आनंद लेना है तो इन तीन चौपाइयों के लिए आप तुलसीबाबा को उनकी भक्ति को देखते हुए श्रीहनुमानजी के समकक्ष रामभक्त मान लेंगे।जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई॥सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥सीताजी विचारने लगीं- श्री रघुनाथजी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी अँंगूठी बनाई ही नहीं जा सकती. सीताजी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं. इसी समय हनुमान्‌जी मधुर वचन बोले-रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥वे श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया. वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं. हनुमान्‌जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई।हनुमानजी को इसीलिए तो मैं कम्युनिकेशन का मास्टर कहता हूं. कम्युनिकेशन में सिर्फ यही मायने नहीं रखता कि कैसे अपनी बात रखकर किसी को प्रभावित किया जाए बल्कि किस स्थिति में किसके साथ किस प्रकार का आचरण करें. सीताजी पीड़ी में हैं, आत्मनाश तक के भाव से ग्रसिंत हो रही हैं उसी समय हनुमानजी उन्हें आनंदित करते हैं, उनके मुख पर मुस्कान ला देते हैं. आप ही निर्णय़ करें क्या हनुमानजी से बेहतर कम्युनिकेशन का कोई उदाहरण मिलता है।श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कही सो प्रगट होति किन भाई॥तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ।।(सीताजी बोलीं-) जिसने कानों के लिए अमृत रूप यह सुंदर कथा कही, वह हे भाई! प्रकट क्यों नहीं होता? तब हनुमान्‌जी पास चले गए. उन्हें देखकर सीताजी फिरकर (मुख फेरकर) बैठ गईं? उनके मन में आश्चर्य हुआ।अब देखिए अपने चातुर्य, अपनी बुद्धि का कैसा सुंदर परिचय हनुमानजी देते हैं. इस दोहे को पढ़ते तो मेरे रोंगटे हर्ष से खड़े हो जाते हैं।रामदूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥(हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता जानकी मैं श्री रामजी का दूत हूँ. करुणानिधान के सत्यशपथ के साथ कहता हूँ- हे माता! यह अँगूठी मैं ही लाया हूँ. श्री रामजी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है।कह माता सीता ने उसे तत्काल पहचान लिया. वैसे तो सुग्रीव ने हर दिशा में दूत भेजे थे पर प्रभु श्रीराम जानते थे कि उनकी प्राणप्रिया के पास पहुंचेंगे तो बस हनुमानजी. सीताजी उस समय क्या सोचेंगी वह भी प्रभु जानते थे. इसलिए उन्होंने हनुमानजी को पति-पत्नी के बीच का Code भी बता दिया था. दो अतिशय प्रिय व्यक्तियों के बीच एक कोड होता है, विश्वास का कोड ताकि कभी कहीं कोई मायावी अपनी माया फैलाए तो उससे परख सकें. मैंने सुना है पति-पत्नी के बीच भी कोड होता है।तो वह कोड क्या है जिसके कारण सीताजी को एक सेकेंड नहीं लगा यह निर्णय करने में कि यह वानर मायाजीव नहीं रामदूत हैं।हनुमानजी ने कहा- अतिशय प्रिय करूणानिधान की. करूणानिधान संसार में सिर्फ माता सीता ही श्रीराम को एकांत में कहती थीं. उसके अलावा और कोई नहीं. माता ने जब यह सुना तो उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि यह कोई मायावी वानर नहीं श्रीराम का सेवक ही है।माता ने अपने नाथ का कुशलक्षेम पूछा. हनुमानजी ने उनकी विरह वेदना बताई कि हे माता आपके विरह में प्रभु इतने दुर्बल हो गए हैं कि जो मुद्रिका मैं लेकर आया हूं वह अब उनकी उंगलियों में नहीं आते बल्कि कंकण यानी कंगन की तरह पहनने योग्य हो गए हैं।इस प्रसंग को संक्षेप में छोड़ रहा हूं क्योंकि यह इतना सरस है कि इस पर ही लिखूं तो एक पोस्ट कम पड़ जाए. पोस्ट लंबी हो जाए तो प्रेमीजन पढ़ते नहीं तो इसे अभी विराम देता हूं। फिर कभी लिखा जाएगा कि कैसे प्रभु की अंगूठी भगवान के लिए कलाई में धारण करने योग्य कंगन जैसी हो गई है।हनुमानजी ने प्रभु का संदेश माता को दिया। माता का कुशलक्षेम पूछा. माता से आज्ञा लेकर वाटिका के फल खाए. हनुमानजी ने फल इसलिए खाए क्योंकि माता को आशंका थी कि हनुमानजी जैसे वानरों के सहयोग से क्या प्रभु रावण को जीत सकेंगे।माता पूछती हैं कि क्या सारे वानर तुम्हारे ही जैसे हैं. तो हनुमानजी कहते हैं कुछ मेरे से छोटे भी हैं. तो माता को शंका होती है कि फिर कैसे होगा? हनुमानजी ज्ञानियों के बीच अग्रगण्य हैं यानी ज्ञानीजनों में भी श्रेष्ठ हैं और कम्युनिकेशन के मास्टर तो हैं ही.लका पार करके वह अपने सामर्थ्य शक्ति का परिचय दे चुके हैं. अपनी बातों से माता को प्रभावितकर वाकशक्ति को सिद्ध कर चुके हैं अब उन्हें अपने मित्रों-साथियों की शक्ति का भीतो परिचय देना है।इसके साथ-साथ रामदूत हनुमानजी को शत्रु के मन में श्रीराम की शक्ति का प्रदर्शन कर एक चेतावनी भी देनी थी. राक्षसों के मन में प्रभु का भय न पैदा करें, ऐसा कैसे संभव था?हनुमानजी ने फल खाने के बहाने वाटिका में इतना उत्पात मचाया कि रावण ने अपने परमवीर पुत्र अक्षय कुमार को हनुमानजी को पकड़ने भेजा।#रावण का अजेय पुत्र अक्षय कुमार बजरंग बली के हाथों मारा गया. अक्षय जैसे वीर का वध एक वानर ने कर दिया, यह सोचकर रावण घबरा गया।उसने #इंद्रजीत को हनुमानजी को पकड़ने भेजा. इंद्रजीत को भी हनुमानजी ने नाकों चने चबवा दिए. हारकर उसने पवनसुत पर ब्रह्मास्त्र चलाया. ब्रह्मास्त्र का मान रखने को हनुमानजी अल्प मूर्च्छा में आए तो नागपाश में इंद्रजीत ने उन्हें बांध लिया।हनुमानजी को रावण के दरबार में लाया गया. एक झटके में ही उन्होंने खुद को मुक्त कर लिया।रावण ने इंद्रजीत को हनुमानजी का वध करने को कहा लेकिन विभीषण ने समझाया कि दूत का वध करना पाप है. बौखलाए रावण ने अंगभंग की सजा सुनाई. हनुमानजी की पूंछ में आग लगाने की सजा मिली।राक्षसों ने बजरंग बली की पूंछ में कपड़ा और तेल लपेटकर पूरी लंका में घुमाया. इस प्रकार हनुमानजी ने पूरी लंका देख ली. सीताजी को भी सूचना मिली कि रावण हनुमानजी की पूंछ में आग लगाने वाला है. इससे वह बहुत व्यथित हुईं।माता ने अग्निदेव की प्रार्थना की. अग्निदेव प्रकट हुए तो माता ने कहा- अग्निदेव यदि मैं सच्ची पतिव्रता हूं तो आप मेरे पुत्र हनुमान को अपने तेज से पीड़ित मत कीजिएगा।अग्निदेव ने कहा- ऐसा ही होगा माता. आप चिंता न करें. आपने जिसे पुत्र माना है वह श्रीराम का कार्य करने आए हैं. उनके कार्य में बाधा हो ही नहीं सकती।हनुमानजी ने पूरी लंका का निरीक्षण कर लिया उसके बाद घूम-घूमकर पूरी लंका जला दी. माता की कृपा से पूंछ में आग लगने के बावजूद हनुमानजी की पूंछ नहीं जली. हनुमानजी ने लंका में दो घर छोड़ दिए।एक घर विभीषण का, क्योंकि वह रामभक्त थे. दूसरा कुंभकर्ण का. जब वह कुंभकर्ण के महल पहुंचे तो कुंभकर्ण गहरी नींद में सो रहा था।उसकी पत्नी ने हनुमानजी से विनती की कि उसके पति गहरी निद्रा में सो रहे हैं. वह इस अपराध में सम्मिलित ही नहीं हैं. श्रीराम तो न्यायप्रिय हैं. किसी को अकारण दंड नहीं देते।उसने कहा कि सीताहरण में उसके पति की सहमति ही नहीं हैं क्योंकि वह तो सो रहे हैं. उन्हें कुछ भी ज्ञात नहीं. हनुमानजी ने उसका महल भी नहीं जलाया।पवनसुत तसल्ली से पूरी लंका जला फिर भी अग्नि अभी शेष थी. पूंछ की आग बुझाने के लिए पवनसुत समुद्र में गए. आग बुझाते समय उन्हें अचानक बड़ा पछतावा हुआ. उन्हें लगा कि मैंने पूरी लंका जला दी कहीं अनर्थ तो नहीं हो गया।उन्हें आशंका हुई कि सारी लंका तो जला डाली, कहीं ऐसा तो नहीं कि उससे आग वन में चली गई हो और माता सीता भी कहीं जल गई हों।बजरंग बली के मन में भय हुआ कि जिसकी सूचना लेने आए थे, कहीं उसका अनिष्ट तो नहीं कर दिया।उन्हें इस बात ध्यान ही न रहा कि जिसकी आज्ञा से अग्नि ने उनकी पूंछ न जलाई, वह भला स्वयं सीताजी को क्या जलाएंगे!भोले-भाले मन वाले बजरंग बली फिर तुरंत भागे लंका माता की सुधि लेने. हालांकि उनके मन में यह ख्याल यह भी आ रहा है कि सीताजी पर अग्नि का भला क्या प्रभाव होगा परंतु माता ने उन्हें पुत्र कहकर संबोधित किया था।इसलिए उस समय उनके मन में पुत्ररूप वाला भाव आ रहा था. संकटकाल में मन के कोमल भाव सबसे ज्यादा पुष्ट हो जाते हैं. परिजनों के लिए पीडा उभरती है इससे हनुमानजी भी मोहित हो गए हैं।बजरंग बली धर्मसंकट में हैं कि माता के सम्मुख जाएं भी तो जाएं कैसे? आखिर क्या बहाना बनाया जाए।वह यह कैसे कहेंगे कि मैं यह देखने आया हूं कि आप तो लंका की आग में भस्म नहीं हुई. अग्नि श्रीराम से बैर मोलने की हिम्मत कर नहीं सकते।इस धुन में खोए पवनसुत फिर से अशोक वाटिका पहुंचे और कहा कि आपसे आज्ञा लेने आया हूं।माता तो अंतर्यामी ठहरीं. हनुमानजी को सकुशल देखकर वह बड़ी प्रसन्न हुईं, सब समझ गईं. सर्वप्रथम उन्होंने अग्निदेव का आभार व्यक्त किया।अब हनुमानजी पुत्र के भाव से आए हैं और माता ने पढ़ लिया है तो वह भी अब देवी नहीं एक माता की भांति सोच रही हैं. हर माता अपने पुत्र को चिरंजीवि और अमर ही कर देना चाहती है. माता सीता भी उसी भाव में हैं।हनुमानजी को कुशल देखकर इतनी प्रसन्न हुईं कि उन्होंने बजरंग बली को अमर होने का वरदान दे दिया. माता के इसी वरदान से हनुमानजी अमर हो गए थे. इंद्र ने पहले ही उन्हें बाल्यकाल में इच्छानुसार जीवनत्याग का वरदान दिया ही था परंतु माता ने तो अशोक वाटिका में अमर ही कर दिया।हनुमान वापस क्यों आए हैं माता यह बात समझ गईं थी पर रामदूत उनके सहारे बने थे, इसलिए पुत्र को झेंप हों यह भी उचित नहीं. इसलिए माता ने कहा- पुत्र हनुमान तुमने मेरे मन की बात समझ ली. मेरी इच्छा थी कि लंका से विदा होने से पहले तुम मेरे पास एक बार और आकर मिलो।हनुमानजी गदगद हो गए. उन्होंने कहा- आपसे मुझे मेरी अपनी जननी माता अंजना जैसा प्रेम मिला है. माता पुत्र होने के नाते तो मेरा कर्तव्य है कि माता के संकट को तत्काल दूर करना. मैं तो अभी आपको अपने साथ लेकर चल सकता हूं लेकिन जिसने प्रभु को पीड़ा दी है, उसे दंड भी प्रभु ही देंगे।इसलिए मैं प्रभु #श्रीराम के साथ आउंगा और #अत्याचारी का अंत कर आपको कौशलपुरी लेकर जाउंगा। हनुमानजी ने आशीर्वाद लिया और उन्हें वचन दिया कि एक माह के भीतर वह #प्रभु के साथ आकर #रावण का नाशकर उन्हें ले जाएंगे. इस प्रकार हनुमानजी अमर हुए।जय #सियाराम जय जय हनुमान जी

आज #मंगलवार है, आज हम सब मिलकर रामभक्त पवनकुमार हनुमानजी महाराज की भक्ति करेंगे, आज हम आपको बतायेगें कि #हनुमानजी अजर अमर यानी चिरंजीवी कैसे हुए?????

#बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती वनिता #कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थान

आठ महामानवों को पृथ्वी पर #चिरंजीवी माना जाता है- अश्वत्थामा, बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, परशुरामजी, कृपाचार्य और महामृत्युंजय मंत्र के रचयिता मार्कंडेय जी। हनुमानजी के चिरंजीवि होने की कथा संक्षेप में सुनाता हूं। आप यदि इस रहस्य को समझना चाहते हैं तो पूरे भाव से और पूरे धैर्य से पढ़ें-

कथा को कभी रामचरितमानस की चौपाइयों और रामायण के उद्धरणों के साथ विस्तार से भी सुनाऊंगा उसमें आपको ज्यादा आनंद आएगा। हनुमानजी सीताजी को खोजते-खोजते अशोक वाटिका पहुंच गए। विभीषणजी से उन्हें लंका के बारे में संक्षिप्त परिचय प्राप्त हो ही चुका था।

पवनसुत ने भगवान श्रीराम द्वारा दी हुई मुद्रिका चुपके से गिराई। रामचरित मानस को देखें तो हनुमानजी के अशोक वाटिका में पहुंचने के प्रसंग से ठीक पहले का प्रसंग है रावण के वहां अपनी रानियों और सेविकाओं के साथ आने का। वह माता सीता को तरह-तरह का प्रलोभन देता है उन्हें पटरानी बनाने की बात कहता है और समस्त रानियों को उनकी सेवा में तैनात कर देने की बात  कहता है।

परंतु सीताजी प्रभावित नहीं होतीं तो वह उन्हें डराने का दुस्साहस करता है. चंद्रमा के समान तेज प्रकाशवान चंद्रहास खड़ग निकालकर माता को डराता है और उन्हें एक मास का समय देता है विचार का, उसके बाद वह या तो उनके साथ बलपूर्वक विवाह करेगा अन्यथा वध कर देगा।

#माता #सीता सशंकित है कुछ भयभीत भी. संकट के समय में भयभीत होना सहज स्वभाव है. तभी हनुमानजी वहां पहुंचे हैं. वृक्ष पर छुपकर बैठे हैं और उचित समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

हनुमानजी के साथ तीन उलझनें हैं- पहला तो माता सीता बहुत भयभीत हैं इसलिए यदि वह अचानक वहां पहुंच जाएं तो उन्हें देखकर माता और भयाक्रांत हो जाएंगी। हनुमानजी तो स्वयं को सेवक के भाव से देखते थे। सेवक अपने स्वामी के आदेश से आया है वह भी उसकी प्राणप्रिया की सुध लेने। जिसकी सुध लेने आया है उसे भयभीत कैसे कर दें।

दूसरी उलझन, हनुमानजी के समक्ष एक उलझन है कि माता के समक्ष प्रथम बार जा रहा हूं. वानरकुल को ऐसे ही अशिष्ट माना जाता है. कहीं माता मेरे किसी आचरण को अशिष्टता या उदंडता न समझ लें. अगर आज के तौर-तरीके में कहूं तो उनके समक्ष भी वही उलझन है जो हमारे समक्ष होती है- तो क्या सर्वथा उचित व्यवहार, संबोधन आदि होगा. यह सब सोच रहे हैं।

तीसरी उलझन, मैं किस भाषा का प्रयोग करूं अपनी बात कहने के लिए. रावण को उन्होंने उत्तम संस्कृत भाषा का प्रयोग करते सुना है. तो यदि वह भी संस्कृत भाषा बोलते हैं तो कहीं उन्हें भी रावण का भेजा हुआ कोई मायावी समझकर माता क्रोध में चिल्लाने लगें और रक्षकों की नींद खुल जाए. किष्किंधा की बोली का प्रयोग करूं तो माता के लिए यह अपिरिचत लगेगा. बहुत विचार करने पर वह अयोध्या की भाषा का प्रयोग करते हैं।

 संवाद बहुत काम करता है. जब ऋष्यमूक पर उनकी भेंट श्रीराम-लक्ष्मणजी से हुई थी तो वह एक ब्राह्मण का वेष धरकर पहुंचे थे और उत्तम संस्कृत भाषा का प्रयोग कर रहे थे तब श्रीराम ने कहा था कि इनकी वाणी में जितनी मिठास है उतनी ही सुंदर शैली, उतना ही उच्चकोटि का व्याकरण प्रयोग. ऐसे व्यक्ति यदि जिस राजा के मंत्री हों वह राजा कभी दुखी हो ही नहीं सकता।

तो हनुमानजी ने मुद्रिका गिराई और माता की प्रतिक्रिया को बड़े गहराई से देखा. *

तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर।।
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥

तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर श्रीरामजी की अँगूठी देखी. अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं. माता विभोर हैं, चकित हैं कि ये कहां से आई।

यदि रामनाम के रस में डूबते हैं या रामनाम रसधारा की महिमा का आनंद लेना है तो इन तीन चौपाइयों के लिए आप तुलसीबाबा को उनकी भक्ति को देखते हुए श्रीहनुमानजी के समकक्ष रामभक्त मान लेंगे।

जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥

सीताजी विचारने लगीं- श्री रघुनाथजी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी अँंगूठी बनाई ही नहीं जा सकती. सीताजी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं. इसी समय हनुमान्‌जी मधुर वचन बोले-

रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥

वे श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया. वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं. हनुमान्‌जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई।

हनुमानजी को इसीलिए तो मैं कम्युनिकेशन का मास्टर कहता हूं. कम्युनिकेशन में सिर्फ यही मायने नहीं रखता कि कैसे अपनी बात रखकर किसी को प्रभावित किया जाए बल्कि किस स्थिति में किसके साथ किस प्रकार का आचरण करें. सीताजी पीड़ी में हैं, आत्मनाश तक के भाव से ग्रसिंत हो रही हैं उसी समय हनुमानजी उन्हें आनंदित करते हैं, उनके मुख पर मुस्कान ला देते हैं. आप ही निर्णय़ करें क्या हनुमानजी से बेहतर कम्युनिकेशन का कोई उदाहरण मिलता है।

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कही सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ।।

(सीताजी बोलीं-) जिसने कानों के लिए अमृत रूप यह सुंदर कथा कही, वह हे भाई! प्रकट क्यों नहीं होता? तब हनुमान्‌जी पास चले गए. उन्हें देखकर सीताजी फिरकर (मुख फेरकर) बैठ गईं? उनके मन में आश्चर्य हुआ।

अब देखिए अपने चातुर्य, अपनी बुद्धि का कैसा सुंदर परिचय हनुमानजी देते हैं. इस दोहे को पढ़ते तो मेरे रोंगटे हर्ष से खड़े हो जाते हैं।

रामदूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥

(हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता जानकी मैं श्री रामजी का दूत हूँ. करुणानिधान के सत्यशपथ के साथ कहता हूँ- हे माता! यह अँगूठी मैं ही लाया हूँ. श्री रामजी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है।

कह माता सीता ने उसे तत्काल पहचान लिया. वैसे तो सुग्रीव ने हर दिशा में दूत भेजे थे पर  प्रभु श्रीराम जानते थे कि उनकी प्राणप्रिया के पास पहुंचेंगे तो बस हनुमानजी. सीताजी उस समय क्या सोचेंगी वह भी प्रभु जानते थे. इसलिए उन्होंने हनुमानजी को पति-पत्नी के बीच का Code भी बता दिया था. दो अतिशय प्रिय व्यक्तियों के बीच एक कोड होता है, विश्वास का कोड ताकि कभी कहीं कोई मायावी अपनी माया फैलाए तो उससे परख सकें. मैंने सुना है पति-पत्नी के बीच भी कोड होता है।

तो वह कोड क्या है जिसके कारण सीताजी को एक सेकेंड नहीं लगा यह निर्णय करने में कि यह वानर मायाजीव नहीं रामदूत हैं।

हनुमानजी ने कहा- अतिशय प्रिय करूणानिधान की. करूणानिधान संसार में सिर्फ माता सीता ही श्रीराम को एकांत में कहती थीं. उसके अलावा और कोई नहीं. माता ने जब यह सुना तो उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि यह कोई मायावी वानर नहीं श्रीराम का सेवक ही है।

माता ने अपने नाथ का कुशलक्षेम पूछा. हनुमानजी ने उनकी विरह वेदना बताई कि हे माता आपके विरह में प्रभु इतने दुर्बल हो गए हैं कि जो मुद्रिका मैं लेकर आया हूं वह अब उनकी उंगलियों में नहीं आते बल्कि कंकण यानी कंगन की तरह पहनने योग्य हो गए हैं।

इस प्रसंग को संक्षेप में छोड़ रहा हूं क्योंकि यह इतना सरस है कि इस पर ही लिखूं तो एक पोस्ट कम पड़ जाए. पोस्ट लंबी हो जाए तो प्रेमीजन पढ़ते नहीं तो इसे अभी विराम देता हूं। फिर कभी लिखा जाएगा कि कैसे प्रभु की अंगूठी भगवान के लिए कलाई में धारण करने योग्य कंगन जैसी हो गई है।

हनुमानजी ने प्रभु का संदेश माता को दिया। माता का कुशलक्षेम पूछा. माता से आज्ञा लेकर वाटिका के फल खाए. हनुमानजी ने फल इसलिए खाए क्योंकि माता को आशंका थी कि हनुमानजी जैसे वानरों के सहयोग से क्या प्रभु रावण को जीत सकेंगे।

माता पूछती हैं कि क्या सारे वानर तुम्हारे ही जैसे हैं. तो हनुमानजी कहते हैं कुछ मेरे से छोटे भी हैं. तो माता को शंका होती है कि फिर कैसे होगा? हनुमानजी ज्ञानियों के बीच अग्रगण्य हैं यानी ज्ञानीजनों में भी श्रेष्ठ हैं और कम्युनिकेशन के मास्टर तो हैं ही.लका पार करके वह अपने सामर्थ्य शक्ति का परिचय दे चुके हैं. अपनी बातों से माता को प्रभावितकर वाकशक्ति को सिद्ध कर चुके हैं अब उन्हें अपने मित्रों-साथियों की शक्ति का भीतो परिचय देना है।

इसके साथ-साथ रामदूत हनुमानजी को शत्रु के मन में श्रीराम की शक्ति का प्रदर्शन कर एक चेतावनी भी देनी थी. राक्षसों के मन में प्रभु का भय न पैदा करें, ऐसा कैसे संभव था?

हनुमानजी ने फल खाने के बहाने वाटिका में इतना उत्पात मचाया कि रावण ने अपने परमवीर पुत्र अक्षय कुमार को हनुमानजी को पकड़ने भेजा।

#रावण का अजेय पुत्र अक्षय कुमार बजरंग बली के हाथों मारा गया. अक्षय जैसे वीर का वध एक वानर ने कर दिया, यह सोचकर रावण घबरा गया।

उसने #इंद्रजीत को हनुमानजी को पकड़ने भेजा. इंद्रजीत को भी हनुमानजी ने नाकों चने चबवा दिए. हारकर उसने पवनसुत पर ब्रह्मास्त्र चलाया. ब्रह्मास्त्र का मान रखने को हनुमानजी अल्प मूर्च्छा में आए तो नागपाश में इंद्रजीत ने उन्हें बांध लिया।

हनुमानजी को रावण के दरबार में लाया गया. एक झटके में ही उन्होंने खुद को मुक्त कर लिया।

रावण ने इंद्रजीत को हनुमानजी का वध करने को कहा लेकिन विभीषण ने समझाया कि दूत का वध करना पाप है. बौखलाए रावण ने अंगभंग की सजा सुनाई. हनुमानजी की पूंछ में आग लगाने की सजा मिली।

राक्षसों ने बजरंग बली की पूंछ में कपड़ा और तेल लपेटकर पूरी लंका में घुमाया. इस प्रकार हनुमानजी ने पूरी लंका देख ली. सीताजी को भी सूचना मिली कि रावण हनुमानजी की पूंछ में आग लगाने वाला है. इससे वह बहुत व्यथित हुईं।

माता ने अग्निदेव की प्रार्थना की. अग्निदेव प्रकट हुए तो माता ने कहा- अग्निदेव यदि मैं सच्ची पतिव्रता हूं तो आप मेरे पुत्र हनुमान को अपने तेज से पीड़ित मत कीजिएगा।

अग्निदेव ने कहा- ऐसा ही होगा माता. आप चिंता न करें. आपने जिसे पुत्र माना है वह श्रीराम का कार्य करने आए हैं. उनके कार्य में बाधा हो ही नहीं सकती।

हनुमानजी ने पूरी लंका का निरीक्षण कर लिया उसके बाद घूम-घूमकर पूरी लंका जला दी. माता की कृपा से पूंछ में आग लगने के बावजूद हनुमानजी की पूंछ नहीं जली. हनुमानजी ने लंका में दो घर छोड़ दिए।

एक घर विभीषण का, क्योंकि वह रामभक्त थे. दूसरा कुंभकर्ण का. जब वह कुंभकर्ण के महल पहुंचे तो कुंभकर्ण गहरी नींद में सो रहा था।

उसकी पत्नी ने हनुमानजी से विनती की कि उसके पति गहरी निद्रा में सो रहे हैं. वह इस अपराध में सम्मिलित ही नहीं हैं. श्रीराम तो न्यायप्रिय हैं. किसी को अकारण दंड नहीं देते।

उसने कहा कि सीताहरण में उसके पति की सहमति ही नहीं हैं क्योंकि वह तो सो रहे हैं. उन्हें कुछ भी ज्ञात नहीं. हनुमानजी ने उसका महल भी नहीं जलाया।

पवनसुत तसल्ली से पूरी लंका जला फिर भी अग्नि अभी शेष थी. पूंछ की आग बुझाने के लिए पवनसुत समुद्र में गए. आग बुझाते समय उन्हें अचानक बड़ा पछतावा हुआ. उन्हें लगा कि मैंने पूरी लंका जला दी कहीं अनर्थ तो नहीं हो गया।

उन्हें आशंका हुई कि सारी लंका तो जला डाली, कहीं ऐसा तो नहीं कि उससे आग वन में चली गई हो और माता सीता भी कहीं जल गई हों।

बजरंग बली के मन में भय हुआ कि जिसकी सूचना लेने आए थे, कहीं उसका अनिष्ट तो नहीं कर दिया।

उन्हें इस बात ध्यान ही न रहा कि जिसकी आज्ञा से अग्नि ने उनकी पूंछ न जलाई, वह भला स्वयं सीताजी को क्या जलाएंगे!

भोले-भाले मन वाले बजरंग बली फिर तुरंत भागे लंका माता की सुधि लेने. हालांकि उनके मन में यह ख्याल यह भी आ रहा है कि सीताजी पर अग्नि का भला क्या प्रभाव होगा परंतु माता ने उन्हें पुत्र कहकर संबोधित किया था।

इसलिए उस समय उनके मन में पुत्ररूप वाला भाव आ रहा था. संकटकाल में मन के कोमल भाव सबसे ज्यादा पुष्ट हो जाते हैं. परिजनों के लिए पीडा उभरती है इससे हनुमानजी भी मोहित हो गए हैं।

बजरंग बली धर्मसंकट में हैं कि माता के सम्मुख जाएं भी तो जाएं कैसे? आखिर क्या बहाना बनाया जाए।

वह यह कैसे कहेंगे कि मैं यह देखने आया हूं कि आप तो लंका की आग में भस्म नहीं हुई. अग्नि श्रीराम से बैर मोलने की हिम्मत कर नहीं सकते।

इस धुन में खोए पवनसुत फिर से अशोक वाटिका पहुंचे और कहा कि आपसे आज्ञा लेने आया हूं।

माता तो अंतर्यामी ठहरीं. हनुमानजी को सकुशल देखकर वह बड़ी प्रसन्न हुईं, सब समझ गईं. सर्वप्रथम उन्होंने अग्निदेव का आभार व्यक्त किया।

अब हनुमानजी पुत्र के भाव से आए हैं और माता ने पढ़ लिया है तो वह भी अब देवी नहीं एक माता की भांति सोच रही हैं. हर माता अपने पुत्र को चिरंजीवि और अमर ही कर देना चाहती है. माता सीता भी उसी भाव में हैं।

हनुमानजी को कुशल देखकर इतनी प्रसन्न हुईं कि उन्होंने बजरंग बली को अमर होने का वरदान दे दिया. माता के इसी वरदान से हनुमानजी अमर हो गए थे. इंद्र ने पहले ही उन्हें बाल्यकाल में इच्छानुसार जीवनत्याग का वरदान दिया ही था परंतु माता ने तो अशोक वाटिका में अमर ही कर दिया।

हनुमान वापस क्यों आए हैं माता यह बात समझ गईं थी पर रामदूत उनके सहारे बने थे, इसलिए पुत्र को झेंप हों यह भी उचित नहीं. इसलिए माता ने कहा- पुत्र हनुमान तुमने मेरे मन की बात समझ ली. मेरी इच्छा थी कि लंका से विदा होने से पहले तुम मेरे पास एक बार और आकर मिलो।

हनुमानजी गदगद हो गए. उन्होंने कहा- आपसे मुझे मेरी अपनी जननी माता अंजना जैसा प्रेम मिला है. माता पुत्र होने के नाते तो मेरा कर्तव्य है कि माता के संकट को तत्काल दूर करना. मैं तो अभी आपको अपने साथ लेकर चल सकता हूं लेकिन जिसने प्रभु को पीड़ा दी है, उसे दंड भी प्रभु ही देंगे।

इसलिए मैं प्रभु #श्रीराम के साथ आउंगा और #अत्याचारी का अंत कर आपको कौशलपुरी लेकर जाउंगा। हनुमानजी ने आशीर्वाद लिया और उन्हें वचन दिया कि एक माह के भीतर वह #प्रभु के साथ आकर #रावण का नाशकर उन्हें ले जाएंगे. इस प्रकार हनुमानजी अमर हुए।
जय #सियाराम जय जय हनुमान जी

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ज्ञान क्या है? By वनिता कासनियां पंजाब वेद, उपनिषद, गीता, श्री आदि शंकराचार्य जी, प्रभु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, गुरू नानक देव जी, संत कबीरदास जी, प्रभु जीसस क्राइस्, प्रभु गौतमबुद्ध जी व सम्पूर्ण विश्व के धर्मों का सार यही कहता हैं कि ज्ञानी व्यक्ति या स्थितप्रज्ञा की अवस्था वाले व्यक्ति में यह सभी सूक्ष्म लक्षण होते हैं: ⤵️कर्तव्य निभाने से सम्बंधित लक्षण:प्रतिदिन जितना सम्भव हो सके परमात्मा के प्रति ध्यान-उपासना का निरन्तर एकान्त में भक्ति व प्रेमपूर्वक अभ्यासगृहस्थ जीवन व जीविका अर्जित के सभी कार्यों को सदैव पूर्ण ब्रह्मा की प्रेमभरी सतत याद में डूबे रह कर (जितना सम्भव हो सके) एकान्त में, सेवा भाव में तत्पर रहते हुए निभानासदा सत्य बोलने का साहस होनासमस्त प्राणियों में पूर्ण परमात्मा श्रीकृष्ण को वर्तमान जानना और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति अद्रोह का भाव रखना। [ईशवर की भक्ति व प्रेम से हृदय (आत्मा) पर लगातार ध्यान साधना से समस्त प्राणियों के प्रति स्वतः ही मन में संवेदना, दया व करूणा उत्पन्न हो जाती है।]स्वभाव व व्यवहारिक लक्षण:इनके अलावा प्रारब्धा (संस्कारों या) कर्मों के अनुकूल मिलने वाले हानि-लाभ में सन्तोष रखनास्त्री और पुत्र आदि में ममता व लगाव शून्य होनाअहङ्कार और क्रोध से रहित होनासरल व मृदु भाषी होनाप्रसन्न-चित्त रहनाअपनी निन्दा-स्तुति के प्रति विरक्त रहते हुए सदा एक समान रहनाजीवन के सुख दुःख, उतार-चढ़ाव और शीतोष्णादि द्वन्द्वों को सदैव समर्पण भाव से शान्तिपूर्ण सहन करनाआपत्तियों व कठिनाइयों से भय न करनानिद्रा, आहार और विहार आदि से अनासक्त रहनाव्यर्थ वार्तालाप व गतिविधियों के लिये स्वयं को अवकाश न देनाहृदय के भीतर की अवस्था के लक्षण:श्रेष्ठतम गुरू के मार्गदर्शन के अनुसार निष्ठा के साथ ध्यान-साधना करना; ईश्वर के अनन्त प्रेम के स्त्रोत से अटूट जुड़ाव का लगातार प्रयास व अहसास करना ताकि उपरोक्त लक्षण हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बन सके।श्रीकृष्ण के सतत-स्मरण से अर्जित प्रबोध-सुधाकर (दिव्य आलोक के परम सत्य) में निरन्तर शान्तचित्त रहनाकोई भगवत्सम्बन्धी गीत व भजन के गान अथवा बाँसुरी (वाद्ययन्त्र द्वारा राग) बजाने या सुनने पर हृदय में एक ही समय में एक साथ आनन्द का आविर्भाव और सात्त्विक भावों का प्रौढ़ उद्रेक हो जाना।जीवात्मा मन के पूर्वाग्रही अज्ञान (संस्कारों के आवरणों) से मलीन है। जीवात्मा का स्वयं के दिव्य स्वरूप (आत्मा पर) प्रेमपूर्वक सतत ध्यान करने पर प्राप्त होने वाले दिव्य ज्ञान से वह पुनः निर्मल होती है आत्मज्ञान के ज्ञानाभ्यास से अपने आप अज्ञान का नाश हो जाता है जैसे सोते समय स्वप्न सच्चा सा मालूम होता है और जागने के बाद झूठा लगता है, वैसे ही अज्ञान व मलिन दशा में संसार सच्चा व ज्ञान होने तथा जानने पर झूठा लगने लगता है।श्री आदि शंकराचार्य जी आत्मबोध के श्लोक 32 से 34 में कहते हैं:जन्म, बुढ़ापा, दुबला-मोटा होना, रोग, मृत्यु आदि सिर्फ़ देह में है, आत्मा में नहीं है। आत्मा उनसे अन्य (सूक्ष्म दिव्य शरीर) है और बिना इन्द्रियवाला है। इससे शब्द, स्पर्श, स्वाद आदि विषयों का संग भी नहीं है। और बिना मन वाला होने से राग, द्वेष, दुःख, भय आदि भी आत्मा में नहीं है ॥32॥इस आत्मा से प्राण, मन व सब इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, अग्नि, जल और संसार को धारण करनेवाली पृथ्वी उत्पन्न होती है ॥33॥आत्मा सत्, रज, तम गुणों से रहित, सदैव रहनेवाला, जाना-आना आदि क्रिया से रहित, संकल्प विकल्प से रहित, माया के दोषों से रहित; तथा सभी षट् विकारों: जन्म, शरीर-वृद्धि, बाल्यावस्था, प्रौढ़ता, वार्द्धक्य, व मृत्यु; तथा काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अरू (ज़ख़्म, रोग), व मत्सर (ईर्ष्या-द्वेष) से रहित, निराकार, सदा मुक्तस्वरूप निर्मल है ॥34॥श्री आदि शंकराचार्य जी के अनुसार:अन्तःकरण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी के चरणकमलों की भक्ति के बिना कभी शुद्ध नहीं हो सकता। जैसे वस्त्र को खारयुक्त जल से शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार चित्त को भक्ति से निर्मल किया जा सकता है ।बाइबल में सेंट थियोडोरोस कहते हैं: "इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता जिसकी पिता स्वरूप प्रभु ने इतनी अच्छी तरह से पुष्टि की है, कि मनुष्य को मन में लगातार केवल इस विचार को बनाये रखने के अलावा कहीं और आराम नहीं मिलता है कि उसके हृदय के भीतर बसे (आराध्य) परमात्मा और वह (उपासक आत्मा) अकेले मौजूद हैं; और इसलिए वह अपनी बुद्धि को संसार की किसी भी अन्य चीज के लिए बिल्कुल भी भटकने नहीं देता है; बल्कि वह पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए तरसता है, सिर्फ़ उसके लिए। केवल ऐसे व्यक्ति को ही सच्चा सुख व आराम मिलेगा और अनगिनत कामनाओं के निर्मम जुनून से मुक्ति मिलेगी।” (द फिलोकलिया v.II. p. 34, 91)हमारे मन व बुद्धि जब दिव्य संतों के वचनों से प्रभावित होते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि जब कोई मनुष्य पूर्ण परमात्मा (सर्वज्ञाता, सर्वोपरि व सर्वव्यापक) को जानता है तो ऐसा कुछ भी शेष नहीं रह जाता है जो उसे वास्तव में जानने की आवश्यकता हो। क्योंकि पूर्ण परमात्मा को जानने का अर्थ है सब कुछ जान लेना।इसलिए, सच्चा ज्ञान खुद को (हृदय की नितांत गहराइयों में स्वयं को खो देने के पश्चात) प्रेम व भक्तिसागर की रहस्यमय असीम शांति में डूबाने पर ही प्राप्त होता है।इस प्रकार, जब मनुष्य को अपने भीतर ईश्वर का पूर्ण ज्ञान होता है, तो उसकी बुद्धि को ज्ञान की तलाश में नहीं भागना पढ़ता।और जब किसी व्यक्ति के पास ऐसा विवेक (अंतर्ज्ञान) हो अर्थात् विश्लेणात्मक तर्क के बिना सीधे अनन्त दिव्य ज्ञान के स्तोत्र से जानने की क्षमता हो; जब कोई इस तरह के अतुलनीय दिव्य ज्ञान का अधिकारी हो जाता तो कुछ भी ओर जानना बेमानी हो जाता है।जब तक किसी व्यक्ति का मन चंचल है; उसके मन में विचार दौड़ते रहते है, तो वह इस बात का प्रतीक है कि उसने अभी तक अपरिहार्य रूप से अपने उत्कृष्ट आत्मिक पहलुओं या स्वयं के उच्च (दिव्य) स्वभाव में बसना यानि अपनी आत्मा में आराम करना नहीं सीखा है।सेंट मैक्सिमोस इस तर्क को स्पष्ट करते हुए कहते हैं: “एक व्यक्ति का मन व बुद्धि जब अपने शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करके स्वयं को मुक्त कर लेती है तो उसे खुशी और दर्द का अनुभव नहीं होता है, पर मनुष्य ऐसा तब कर पाता है जब वह अपने मन व बुद्धि को परमात्मा से बांधता है या एकजुट कर लेता है; उस पूर्ण परमात्मा को चाहता है जो प्यार, लगाव व इच्छा का वास्तविक लक्ष्य व सर्वश्रेष्ठ सुपात्र है।“ (द फिलोकलिया (The Philokalia) v.II, p.175, 54)निस्वार्थ प्रेम में ईश्वर की याद में मन व बुद्धि का भक्ति मे डूबे रह कर खो जाने में ईश्वरीय शांति मिली है; प्रभु श्रीकृष्ण ने भगवत गीता के अध्याय 2:58 के चिंतनशील मणि रूपी श्लोक में इस स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है:जिस प्रकार कछुवा अपने बचाव हेतु बार-बार अपने अंगो को संकुचित करके अपने खोल के भीतर कर लेता है, उसी तरह योगी, भक्त या आत्मसिद्ध व्यक्ति अपने मन व इन्द्रियों (ध्यान) को भक्तिभाव द्वारा इन्द्रियविषयों से खीँच कर पूर्ण ब्रह्मा की पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर कर लेता है |तात्पर्यः अधिकांश व्यक्ति अपनी इन्द्रियों व मन के दास बने रहते हैं और इन्द्रियों के ही कहने पर चलते हैं। इन्द्रियों की तुलना विषैले सर्पों से की गई है; मानव का मन व इन्द्रियाँ सदैव अत्यन्त स्वतंत्रतापूर्वक तथा बिना किसी नियन्त्रण के कर्म करना चाहती हैं। योगी या भक्त का इन सर्पों को वश में करने के लिए, ईश्वर भक्ति की धुन में अत्यन्त प्रबल होना अति आवश्यक है। वह उन्हें कभी भी कार्य करने की छूट नहीं देता।जैसे कछुआ किसी भी समय अपने अंग समेट लेता है उसी तरह भक्त (ज्ञानी) परमात्मा के स्मरण में अपने मन व सभी इंद्रियों को इंद्रियों के आनंद के आकर्षण से तुरंत वापस खींच लेता है। और पुनः वह विशिष्ट उद्देश्यों से आवश्यकतानुसार उन्हें प्रकट कर लेता है तभी वह सदा कृष्णभावनामृत में स्थिर रह पाता है। (BG-Ch-2, V-58)http://vnita40.blogspot.com/2022/08/19-yoga-for-knee-pain-how-yogasana.htmlगलातियनस (Galatians) 5:24 के अनुसार: "वे सभी जो ईसा मसीह (ईश्वर/God) के हैं, उनसे सच्चा प्रेम करते हैं उन्होंने अपने निम्न स्वयं के साथ, अपने सभी जुनूनों और इच्छाओं को क्रूस पर चढ़ाया है।"गलातियनस 3:28 कहता है: "कोई यहूदी या ग्रीक नहीं है; कोई गुलाम या स्वतंत्र नहीं है; न ही कोई पुरुष या महिला है - क्योंकि सभी यीशु मसीह में एक है; वे सभी एक परमात्मा का (समानुरूप से) अभिन्न अंश हैं।”बाइबल के 11:24 में सेंट ल्यूक ने बड़ी ख़ूबसूरती से कहा है: "जब कोई (संस्कारों के आवरणों से ढकी) अशुद्ध प्यासी आत्मा मन के ज़रिए शान्ति व सुकून की तलाश में बाहर झांकती है तो उसे भौतिक जगत में कहीं भी दिव्यता का पवित्र जल नहीं मिलता, उसे जलरहित देशों से गुजरना पढ़ता है; वह चिरस्थायी आराम करने के लिए जगह तलाशती रहती है, और जब उसे कहीं भी शान्ति, सूकून व आराम नहीं मिलता है तो आखिरकार वह निर्णय लेती है कि मैं अपने घर वापस जाउगी जहां से मैं आयी हूँ।”इफिसियों (Ephesians) 4: 22-24 में कहा गया है कि: “हमें अपने पुराने स्व को (अर्थात अपनी पुरानी सोच व पूर्वाग्रहों को, पुरानी आदतों, पसन्द-नापसंदों आदि को) सदा अलग रखना चाहिये, क्योंकि वह हमारे पुराने (पिछले जन्मों के) तरीकों से संबंधित है और वह पुरानी भ्रामक इच्छाओं व धारणाओं का पालन करके भ्रष्ट हो चुकी है। तथा वह केवल हमारे मन का आत्मा पर ध्यान व लगाव करने से नवीनीकृत होती हैं; केवल तभी मनुष्य अपने (निम्न) स्वयं को परिवर्तित कर पुनः (उच्च) दिव्य मानव में ढाल सकता है। — मानव की वह उच्चतम दिव्य अवस्था जो परमेश्वर के दिव्य सनातनी सिद्धांतों पर, सत्य की पवित्रता व सार्वभौमिक न्याय पर अवधारित होती है।”श्री आदि शंकराचार्य जी ने आत्मबोध में बताया है कि ऐसी प्रतिदिन की अभ्यासवाली यह वासना कि मैं ब्रह्म ही हूँ अज्ञान के विक्षेपों को दूर करती है जैसे रसायन रोगों को ॥37॥ एकान्त स्थान में आसन पर बैठ वैराग्यवान् व जितेन्द्रिय हो एकाग्रचित्त कर उस अनन्त अद्वितीय परमात्मा का ध्यान करे ॥38॥वे आगे लिखते हैं कि: सुन्दर बुद्धिवाला ज्ञानी पुरुष अंतर्दृष्टि वाली बुद्धि से सब देखते हुए संसार को आत्मा में ही लीन करके सदा निर्मल आकाश की तरह एक परमात्मा का ही ध्यान करता है ॥39॥ आत्मज्ञानी पुरुष सब नामवर्ण (self-identity) आदि छोड़के पूरे चैतन्यानन्द रूप से रहता है ॥40॥श्री आदि शंकराचार्य जी कहते हैं कि: ज्ञानी व्यक्ति बाहर के झूठे सुखों का लगाव छोड़ आत्मसुख से युक्त अपने अंतस में ही घड़े में रक्खे दीपक की तरह साफ प्रकाशता है ॥51॥ सब कुछ जानता हुआ भी योगी पुरूष अज्ञानी की तरह रहता है और बिना लगाव के वायु की तरह आचरण करता है ॥52॥ईश्वरीय मनन में रहने वाला ज्ञानी व योगी उपाधियों से अलगाव बनाये रख कर भगवान् में पूरी रीति से लीन होता है जैसे जल में जल प्रकाश में प्रकाश और अग्नि में अग्नि ॥53॥ जिस आत्म लाभ से अधिक दूसरा लाभ नहीं जिस सुख से अधिक दूसरा सुख नहीं जिस ज्ञान से अधिक दूसरा ज्ञान नहीं वही ब्रह्मा है ऐसा विचार अपने मन व हृदय में बनाये रखता है ॥54॥अंत में श्री आदि शंकराचार्य जी कहते हैं कि: आत्मा ज्ञानरूपी सूर्य है। आकाशरूपी हृदय में उदय हो अन्धकाररूपी अज्ञान को दूर कर सबमें व्याप्त होकर सबको धारण करते व सबको प्रकाशित करते सुशोभित होता है ॥67॥जो विचार त्यागी पुरूष स्थान समय आदि को बिना देखे शीत उष्ण आदि के दूर करनेवाले सबमें रहने वाले माया रहित नित्य आनन्दरूप अपने आत्मतीर्थ को सेवन करता है वह सबकुछ जाननेवाला, सबमें रहता हुआ मुक्त होता है ॥68॥निष्कर्ष रूप में ज्ञान को शाब्दिक रूप में व्यक्त करना कठिन है चूँकि ज्ञान अनुभव से प्राप्त होता है अतः उसका व्यवहारिक रूप से ही प्रकटीकरण हो सकता है।अतः ज्ञान का अर्थ हुआ: मन, इन्द्रियों और शरीर द्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित होना।तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दन परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दन वासुदेव (पूर्ण परमात्मा) के सिवाय हृदय व मन में अन्य किसी के भी होनेपन का भाव न रहना।तथा श्रद्धा व भक्तिपूर्वक मन, वाणी और शरीर सब प्रकार से ईश्वर के शरण होकर; गृहस्थाश्रम में ही रहते हुए, निम्नलिखित तरीक़े से प्रेमपूर्वक निरन्तर पूर्ण परमात्मा का “सतत स्मरण” करना तथा उनके दिव्य गुणों और दिव्य स्वरूप को प्रभावसहित अपने आचरण में उतारना। ⤵️http://vnitak.blogspot.com/2022/08/check-this-post-from.htmlईश्वर करे आपका जीवन दिव्य प्रेम, ज्ञान, शान्ति व परमानन्द से भर जाये! आमीन! आमीन! आमीन!

ज्ञान क्या है? By वनिता कासनियां पंजाब वेद, उपनिषद, गीता, श्री आदि शंकराचार्य जी, प्रभु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, गुरू नानक देव जी, संत कबीरदास जी, प्रभु जीसस क्राइस्, प्रभु   गौतमबुद्ध जी व सम्पूर्ण विश्व के  धर्मों का सार  यही कहता हैं कि  ज्ञानी  व्यक्ति या  स्थितप्रज्ञा  की अवस्था वाले व्यक्ति में यह सभी  सूक्ष्म लक्षण  होते हैं: ⤵️ कर्तव्य निभाने   से सम्बंधित लक्षण: प्रतिदिन जितना सम्भव हो सके परमात्मा के प्रति ध्यान-उपासना का निरन्तर एकान्त में भक्ति व प्रेमपूर्वक अभ्यास गृहस्थ जीवन व जीविका अर्जित के सभी कार्यों को सदैव पूर्ण ब्रह्मा की प्रेमभरी सतत याद में डूबे रह कर (जितना सम्भव हो सके) एकान्त में, सेवा भाव में तत्पर रहते हुए निभाना सदा सत्य बोलने का साहस होना समस्त प्राणियों में पूर्ण परमात्मा श्रीकृष्ण को वर्तमान जानना और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति अद्रोह का भाव रखना। [ईशवर की भक्ति व प्रेम से हृदय (आत्मा) पर लगातार ध्यान साधना से समस्त प्राणियों के प्रति स्वतः ही मन में संवेदना, दया व करूणा उत्पन्न हो जाती है।] स...

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