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काउंसलिंग के दौरान अक्सर प्रेमिकाएं/पत्नियां एक बात कहती पाई जातीं हैं किBy Vnita kasnia Punjab ?‘उसने मुझे तब छोड़ा जब मुझे उसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी। मैंने उसे इतना प्यार किया,उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?’गौतम बुद्ध ने तब गृह त्याग किया जब उनकी पत्नी यशोधरा नवजात शिशु की मां थी।राम ने सीता का त्याग तब किया जब सीता गर्भवती थी।सीता की अग्निपरीक्षा के कारण राम आज भी कटघरे में खड़े किए जाते हैं।कुंती ने जब सूर्य से कहा कि ‘आपके प्रेम का प्रताप मेरे गर्भ में पल रहा है’ तो सूर्य बादलों में छुप गए।कर्ण भी अपने पिता से सवाल पूछने के बजाय कुंती से ही पूछते हैं- ‘आपने मुझे जन्म देते ही गंगा में प्रवाहित कर दिया, फिर कैसी माता?’यह नहीं सोचा कि अगर उनके महान पिता सूर्य देवता उन्हें अपना नाम देते तो कोई भी कुंती कर्ण को कभी खुद से अलग नहीं करती।[1]महिलाएं कई बार शादी से पहले मां बन जाती हैं क्योंकि उनके विवाहित प्रेमी उन्हें झांसा देते हैं कि कुछ ही दिनों में उनका तलाक होने वाला है।ऐसे सवाल जब-जब उठते हैं,सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि क्या वाकई स्त्री की स्वायत्तता और अस्मिता तब तक निर्धारित नहीं होती जब तक उसे पुरुष का संरक्षण न मिले?शकुंतला की कहानी सबको मालूम है। राजा दुष्यंत ने उसे जंगल में देखा और उससे प्रेम विवाह किया। फिर शकुंतला गर्भवती हुई। इस बीच दुष्यंत राजधानी लौट गए।जब शकुंतला उनसे मिलने पहुंची तो राजा ने उसे पहचानने से इनकार कर दिया। कथा यह है कि ऐसा ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण हुआ।जो भी हो शकुंतला को परित्यक्ता की तरह रहना पड़ा।यही हाल सीता का भी हुआ। एक आम नागरिक के कहने पर राम ने लोकापवाद का हवाला देकर अपनी गर्भवती पत्नी सीता को वनवास दे दिया,जबकि इससे पहले वे उनकी अग्निपरीक्षा ले चुके थे।काफी समय बाद सीता ने अकेले दम पर पाले गए अपने पुत्रों को उनके पिता को सौंप दिया और स्वयं धरती में समा गईं।शकुंतलापुत्र भरत जब शेर के मुंह में हाथ डालकर उसके दांत गिन रहा था,तो दुष्यंत को लगा कि जरूर यह किसी राजवंश का उत्तराधिकारी है।उन्होंने भी शकुंतला से अपने पुत्र को यह कहकर ले लिया कि यह तो मेरा बेटा है, इसलिए राजमहल में रहेगा।शकुंतला ने पुत्र को तो सौंप दिया लेकिन उनके साथ स्वयं नहीं गई।यह एक स्वाभिमानी स्त्री का आत्मसम्मान था। वह उस पति को क्यों स्वीकार करे,जिसने उसे तब छोड़ दिया,जब उसे उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी?और बुद्ध तो सत्य, ज्ञान और शांति की खोज में निकले थे।क्या वे नहीं जानते थे कि अकेली औरतों की समाज में क्या दशा होती है?आज भी सवाल सिर्फ औरतों से पूछे जाते हैं। अकेली यशोधरा ने कैसे पाला होगा अपने बेटे राहुल को?[2]एक बच्चे को पालने में मां और बाप दोनों की भूमिका होती है।अगर बच्चे का बाप नहीं है तो कोई बात नहीं,लेकिन अगर है तो वह अनाथ की तरह क्यों जिए?एक बार यशोधरा बुद्ध के आश्रम में गईं और उनसे सवाल किया, ‘आप तो बुद्धत्व प्राप्ति के लिए निकल पड़े। मेरा क्या? मेरे बारे में सोचा?’ कहते हैं,बुद्ध के पास कोई उत्तर नहीं था,सिवाय मौन के। [3]खैर,राम और बुद्ध बहुत बड़े प्रयोजन के लिए धरा पर अवतरित हुए थे।उनकी जीवनसंगिनियों को अपने पतियों का लम्बे समय तक का सान्निध्य नसीब होना विधि के विधान में ही नहीं था।तत्कालीन समाज स्त्रियों की इस सहनशक्ति को शक्ति का पर्याय मानकर पूजता था।'लाज और शर्म स्त्री का गहना होता है',कहकर उसी को परिवार और समाज से सामंजस्य करना सिखाया जाता था।पुरुष को जीवन की दूसरी चुनौतियो से जूझने में नारियों के अधिकारों और इच्छाओं के सम्बन्ध में सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती थीऔर तो और जो स्त्रियाँ दबे स्वर में भी अपनी इच्छाएं व्यक्त करने का साहस कर लेतीं थीं उनको उनके परिवार की ही वरिष्ठ नारियाँ 'निर्लज्ज' की संज्ञा दे डालतीं थीं।यह उन स्त्रियों का प्रारब्ध कह लें या जीवन की विडम्बना।आज की स्थिति बदल रही है,हालांकि पूरी तरह बदली नहीं है।आज की नारी को पहले जैसी भीषण स्थिति से उबारने के लिए कानून,आर्थिक निर्भरता और समाज का सहारा मिल रहा है।प्राचीन समय में नारी न्याय के लिए अपने परिवार के सहयोग की राह तकती थी।उस समय सीता,यशोधरा और शकुन्तला की सहना ही नियति थी,आज के समय में जो प्रासंगिक नहीं रह गई है।आखिर नारी भी तो इंसान है।अब सीता को अपना राम खुद बनना है,यशोधरा को अपना बुद्धत्व स्वयं पाना है और शकुन्तला भी दुष्यन्त के निमन्त्रण की कृपा की मोहताज नहीं है।अब अन्याय किसी भी सूरत में सहनीय नहीं होना चाहिए।नारी को अपने शारीरिक,मानसिक,भावनात्मक और आध्यात्मिक मूल्यों को सहेजते हुए अब उसे "जियो और जीने दो" के सिद्धान्त पर चलना है।नारी का पुरूष प्रतियोगी नहीं सहयोगी है।इतिहास में नारी पर हुए अन्याय का बदला नारीवाद का झंडा लेकर नारी द्वारा पुरुष का मानासिक शोषण करते हुए समाज का रूप विकृत करके नहीं मिलेगा,अपितु उसकी सुख-दुख में सहचरी बनकर मिलेगा।नारी को यदि सम्मान पाना है तो समाज और परिवार के सदस्यों का सम्मान करके ही मिलेगा।नारी हो या पुरूष,उसको समझना चाहिए कि कर्त्तव्यों के वृक्ष पर ही अधिकारों के फल लगते हैं।तब स्त्रियों के सम्बन्ध में राम और बुद्ध भले ही मौन रह गए हों,परन्तु अब पुरुष को नारी की इच्छाओं और आवश्यकताओं का सम्मान करना चाहिए….…जिससे नारी भी अपने नारीसुलभ कोमल गुणों से घर परिवार व समाज को सुन्दर रूप देने में स्वाभाविक ही आगे आए।"सम्मान दो,सम्मान लो।" दोनों पर यह बात लागू होनी चाहिए।जोर जबरदस्ती और उपदेश से ज्यादा प्रेमपूर्ण उदाहरण हमेशा बेहतर परिणाम देते हैं।अस्वीकरण : मेरा उद्देश्य इस उत्तर में युग पुरूषों और अवतारों राम और बुद्ध का तिरस्कार करना नहीं है अपितु विधि के विधान के कारण जो परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई,उसके कारण जनमानस में उनके विरूद्ध जो रोष उत्पन्न होता है,उसको कम करना है।उन नारियों का स्वाभिमान अपनी जगह सही था और उन युग पुरूषों ने चूंकि मानवता का कल्याण करना था,उसके कारण उनकी पत्नियों को उनसे अलग होना पड़ा जबकि वे दोनों उनसे अत्यधिक प्रेम करते थे।राम और बुद्ध का उदाहरण गृहस्थ धर्म के लिए लेना कहीं से भी श्रेयस्कर नहीं है।आंशिक स्त्रोत:Google Image Result for https://assets.saatchiart.com/saatchi/955709/art/5601091/4670901-SHHNIBPT-6.jpgस्त्री के लिए क्यों मौन रह गए बुद्ध और राम?फुटनोट[1] http://.काउंसलिंग के दौरान अक्सर प्रेमिकाएं/पत्नियां एक बात कहती पाई जातीं हैं कि ‘उसने मुझे तब छोड़ा जब मुझे उसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी। मैंने उसे इतना प्यार किया,उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?’ पति या प्रेमी कब भगोड़े नहीं थे? गौतम बुद्ध तब भागे जब उनकी पत्नी यशोधरा नवजात शिशु की मां थी। राम ने सीता का त्याग तब किया जब सीता गर्भवती थी। कुंती ने जब सूर्य से कहा कि ‘आपके प्रेम का प्रताप मेरे गर्भ में पल रहा है’ तो सूर्य बादलों में छुप गए। फिर भी बुद्ध ‘भगवान’ कहलाए और राम ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ और तो और, कर्ण भी अपने बाप से सवाल पूछने के बजाय कुंती से ही पूछते हैं- ‘आपने मुझे जन्म देते ही गंगा में प्रवाहित कर दिया, फिर कैसी माता?’ यह नहीं सोचा कि अगर उनके महान पिता सूर्य देवता उन्हें अपना नाम देते तो कोई भी कुंती कर्ण को कभी खुद से अलग नहीं करती। [2] http://.नारीवाद का नारा लगाने वाली औरतें भी कभी-कभी पक्षपात करती दिखाई देती हैं।जब किसी स्त्री का स्वाभिमान और सम्मान खतरे में हो तो नारीवाद वाली ऐसी बुद्धिजीवी स्त्रियां भी उन पुरुषों के पक्ष में खड़ी पाई जाती हैं जिनका समाज में रुतबा है। पद्मश्री रीता गांगुली (गजल गायिका और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में संस्कृत नाटक के मंचन से संबद्ध) ने नाटक की पात्र से कहा- ‘अब तुम शकुंतला का रोल बखूबी कर सकती हो।’ उसने पूछा, ‘क्यों?’ उन्होंने कहा कि ‘अब तुम परिपक्व हुईं। पति ने तुम्हें छोड़ दिया। समाज ने नकार दिया। तुम अपने अस्तिस्व के लिए,अपनी पहचान के लिए लड़ रही हो।अब तुम्हारे स्वाभिमान पर आन पड़ी है।’ [3] http://.एक बच्चे को पालने में मां और बाप दोनों की भूमिका होती है। अगर बच्चे का बाप नहीं है तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर है तो वह अनाथ की तरह क्यों जिए? बुद्ध (ज्ञाता) कहलाने वाला पुरुष अपनी सोती हुई पत्नी और दूध पीते बच्चे को छोड़ कर किस ज्ञान की प्राप्ति के लिए निकला? एक बार यशोधरा बुद्ध के आश्रम में गईं और उनसे सवाल किया, ‘आप तो बुद्धत्व प्राप्ति के लिए निकल पड़े। मेरा क्या? मेरे बारे में सोचा?’ कहते हैं,बुद्ध के पास कोई उत्तर नहीं था,सिवाय मौन के।

काउंसलिंग के दौरान अक्सर प्रेमिकाएं/पत्नियां एक बात कहती पाई जातीं हैं कि

By Vnita kasnia Punjab ?

उसने मुझे तब छोड़ा जब मुझे उसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी। मैंने उसे इतना प्यार किया,उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?’

  • गौतम बुद्ध ने तब गृह त्याग किया जब उनकी पत्नी यशोधरा नवजात शिशु की मां थी।
  • राम ने सीता का त्याग तब किया जब सीता गर्भवती थी।सीता की अग्निपरीक्षा के कारण राम आज भी कटघरे में खड़े किए जाते हैं।
  • कुंती ने जब सूर्य से कहा कि ‘आपके प्रेम का प्रताप मेरे गर्भ में पल रहा है’ तो सूर्य बादलों में छुप गए।
  • कर्ण भी अपने पिता से सवाल पूछने के बजाय कुंती से ही पूछते हैं- ‘आपने मुझे जन्म देते ही गंगा में प्रवाहित कर दिया, फिर कैसी माता?’
  • यह नहीं सोचा कि अगर उनके महान पिता सूर्य देवता उन्हें अपना नाम देते तो कोई भी कुंती कर्ण को कभी खुद से अलग नहीं करती।[1]

महिलाएं कई बार शादी से पहले मां बन जाती हैं क्योंकि उनके विवाहित प्रेमी उन्हें झांसा देते हैं कि कुछ ही दिनों में उनका तलाक होने वाला है।

ऐसे सवाल जब-जब उठते हैं,सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि क्या वाकई स्त्री की स्वायत्तता और अस्मिता तब तक निर्धारित नहीं होती जब तक उसे पुरुष का संरक्षण न मिले?

  • शकुंतला की कहानी सबको मालूम है। राजा दुष्यंत ने उसे जंगल में देखा और उससे प्रेम विवाह किया। फिर शकुंतला गर्भवती हुई। इस बीच दुष्यंत राजधानी लौट गए।
  • जब शकुंतला उनसे मिलने पहुंची तो राजा ने उसे पहचानने से इनकार कर दिया। कथा यह है कि ऐसा ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण हुआ।जो भी हो शकुंतला को परित्यक्ता की तरह रहना पड़ा।
  • यही हाल सीता का भी हुआ। एक आम नागरिक के कहने पर राम ने लोकापवाद का हवाला देकर अपनी गर्भवती पत्नी सीता को वनवास दे दिया,जबकि इससे पहले वे उनकी अग्निपरीक्षा ले चुके थे।
  • काफी समय बाद सीता ने अकेले दम पर पाले गए अपने पुत्रों को उनके पिता को सौंप दिया और स्वयं धरती में समा गईं।
  • शकुंतलापुत्र भरत जब शेर के मुंह में हाथ डालकर उसके दांत गिन रहा था,तो दुष्यंत को लगा कि जरूर यह किसी राजवंश का उत्तराधिकारी है।उन्होंने भी शकुंतला से अपने पुत्र को यह कहकर ले लिया कि यह तो मेरा बेटा है, इसलिए राजमहल में रहेगा।
  • शकुंतला ने पुत्र को तो सौंप दिया लेकिन उनके साथ स्वयं नहीं गई।यह एक स्वाभिमानी स्त्री का आत्मसम्मान था। वह उस पति को क्यों स्वीकार करे,जिसने उसे तब छोड़ दिया,जब उसे उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी?

और बुद्ध तो सत्य, ज्ञान और शांति की खोज में निकले थे।क्या वे नहीं जानते थे कि अकेली औरतों की समाज में क्या दशा होती है?आज भी सवाल सिर्फ औरतों से पूछे जाते हैं। अकेली यशोधरा ने कैसे पाला होगा अपने बेटे राहुल को?[2]

एक बच्चे को पालने में मां और बाप दोनों की भूमिका होती है।अगर बच्चे का बाप नहीं है तो कोई बात नहीं,लेकिन अगर है तो वह अनाथ की तरह क्यों जिए?

एक बार यशोधरा बुद्ध के आश्रम में गईं और उनसे सवाल किया, ‘आप तो बुद्धत्व प्राप्ति के लिए निकल पड़े। मेरा क्या? मेरे बारे में सोचा?’ कहते हैं,बुद्ध के पास कोई उत्तर नहीं था,सिवाय मौन के। [3]


खैर,राम और बुद्ध बहुत बड़े प्रयोजन के लिए धरा पर अवतरित हुए थे।उनकी जीवनसंगिनियों को अपने पतियों का लम्बे समय तक का सान्निध्य नसीब होना विधि के विधान में ही नहीं था।

तत्कालीन समाज स्त्रियों की इस सहनशक्ति को शक्ति का पर्याय मानकर पूजता था।'लाज और शर्म स्त्री का गहना होता है',कहकर उसी को परिवार और समाज से सामंजस्य करना सिखाया जाता था।

पुरुष को जीवन की दूसरी चुनौतियो से जूझने में नारियों के अधिकारों और इच्छाओं के सम्बन्ध में सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती थी

और तो और जो स्त्रियाँ दबे स्वर में भी अपनी इच्छाएं व्यक्त करने का साहस कर लेतीं थीं उनको उनके परिवार की ही वरिष्ठ नारियाँ 'निर्लज्ज' की संज्ञा दे डालतीं थीं।

  • यह उन स्त्रियों का प्रारब्ध कह लें या जीवन की विडम्बना।आज की स्थिति बदल रही है,हालांकि पूरी तरह बदली नहीं है।
  • आज की नारी को पहले जैसी भीषण स्थिति से उबारने के लिए कानून,आर्थिक निर्भरता और समाज का सहारा मिल रहा है।
  • प्राचीन समय में नारी न्याय के लिए अपने परिवार के सहयोग की राह तकती थी।
  • उस समय सीता,यशोधरा और शकुन्तला की सहना ही नियति थी,आज के समय में जो प्रासंगिक नहीं रह गई है।आखिर नारी भी तो इंसान है।
  • अब सीता को अपना राम खुद बनना है,यशोधरा को अपना बुद्धत्व स्वयं पाना है और शकुन्तला भी दुष्यन्त के निमन्त्रण की कृपा की मोहताज नहीं है।अब अन्याय किसी भी सूरत में सहनीय नहीं होना चाहिए।
  • नारी को अपने शारीरिक,मानसिक,भावनात्मक और आध्यात्मिक मूल्यों को सहेजते हुए अब उसे "जियो और जीने दो" के सिद्धान्त पर चलना है।
  • नारी का पुरूष प्रतियोगी नहीं सहयोगी है।इतिहास में नारी पर हुए अन्याय का बदला नारीवाद का झंडा लेकर नारी द्वारा पुरुष का मानासिक शोषण करते हुए समाज का रूप विकृत करके नहीं मिलेगा,अपितु उसकी सुख-दुख में सहचरी बनकर मिलेगा।
  • नारी को यदि सम्मान पाना है तो समाज और परिवार के सदस्यों का सम्मान करके ही मिलेगा।
  • नारी हो या पुरूष,उसको समझना चाहिए कि कर्त्तव्यों के वृक्ष पर ही अधिकारों के फल लगते हैं।

तब स्त्रियों के सम्बन्ध में राम और बुद्ध भले ही मौन रह गए हों,परन्तु अब पुरुष को नारी की इच्छाओं और आवश्यकताओं का सम्मान करना चाहिए….

जिससे नारी भी अपने नारीसुलभ कोमल गुणों से घर परिवार व समाज को सुन्दर रूप देने में स्वाभाविक ही आगे आए।

"सम्मान दो,सम्मान लो।" दोनों पर यह बात लागू होनी चाहिए।

जोर जबरदस्ती और उपदेश से ज्यादा प्रेमपूर्ण उदाहरण हमेशा बेहतर परिणाम देते हैं।

अस्वीकरण : मेरा उद्देश्य इस उत्तर में युग पुरूषों और अवतारों राम और बुद्ध का तिरस्कार करना नहीं है अपितु विधि के विधान के कारण जो परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई,उसके कारण जनमानस में उनके विरूद्ध जो रोष उत्पन्न होता है,उसको कम करना है।

उन नारियों का स्वाभिमान अपनी जगह सही था और उन युग पुरूषों ने चूंकि मानवता का कल्याण करना था,उसके कारण उनकी पत्नियों को उनसे अलग होना पड़ा जबकि वे दोनों उनसे अत्यधिक प्रेम करते थे।राम और बुद्ध का उदाहरण गृहस्थ धर्म के लिए लेना कहीं से भी श्रेयस्कर नहीं है।

आंशिक स्त्रोत:

Google Image Result for https://assets.saatchiart.com/saatchi/955709/art/5601091/4670901-SHHNIBPT-6.jpg

स्त्री के लिए क्यों मौन रह गए बुद्ध और राम?

फुटनोट

[1] http://.काउंसलिंग के दौरान अक्सर प्रेमिकाएं/पत्नियां एक बात कहती पाई जातीं हैं कि ‘उसने मुझे तब छोड़ा जब मुझे उसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी। मैंने उसे इतना प्यार किया,उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?’ पति या प्रेमी कब भगोड़े नहीं थे? गौतम बुद्ध तब भागे जब उनकी पत्नी यशोधरा नवजात शिशु की मां थी। राम ने सीता का त्याग तब किया जब सीता गर्भवती थी। कुंती ने जब सूर्य से कहा कि ‘आपके प्रेम का प्रताप मेरे गर्भ में पल रहा है’ तो सूर्य बादलों में छुप गए। फिर भी बुद्ध ‘भगवान’ कहलाए और राम ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ और तो और, कर्ण भी अपने बाप से सवाल पूछने के बजाय कुंती से ही पूछते हैं- ‘आपने मुझे जन्म देते ही गंगा में प्रवाहित कर दिया, फिर कैसी माता?’ यह नहीं सोचा कि अगर उनके महान पिता सूर्य देवता उन्हें अपना नाम देते तो कोई भी कुंती कर्ण को कभी खुद से अलग नहीं करती। 
[2] http://.नारीवाद का नारा लगाने वाली औरतें भी कभी-कभी पक्षपात करती दिखाई देती हैं।जब किसी स्त्री का स्वाभिमान और सम्मान खतरे में हो तो नारीवाद वाली ऐसी बुद्धिजीवी स्त्रियां भी उन पुरुषों के पक्ष में खड़ी पाई जाती हैं जिनका समाज में रुतबा है। पद्मश्री रीता गांगुली (गजल गायिका और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में संस्कृत नाटक के मंचन से संबद्ध) ने नाटक की पात्र से कहा- ‘अब तुम शकुंतला का रोल बखूबी कर सकती हो।’ उसने पूछा, ‘क्यों?’ उन्होंने कहा कि ‘अब तुम परिपक्व हुईं। पति ने तुम्हें छोड़ दिया। समाज ने नकार दिया। तुम अपने अस्तिस्व के लिए,अपनी पहचान के लिए लड़ रही हो।अब तुम्हारे स्वाभिमान पर आन पड़ी है।’ 

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ज्ञान क्या है? By वनिता कासनियां पंजाब वेद, उपनिषद, गीता, श्री आदि शंकराचार्य जी, प्रभु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, गुरू नानक देव जी, संत कबीरदास जी, प्रभु जीसस क्राइस्, प्रभु गौतमबुद्ध जी व सम्पूर्ण विश्व के धर्मों का सार यही कहता हैं कि ज्ञानी व्यक्ति या स्थितप्रज्ञा की अवस्था वाले व्यक्ति में यह सभी सूक्ष्म लक्षण होते हैं: ⤵️कर्तव्य निभाने से सम्बंधित लक्षण:प्रतिदिन जितना सम्भव हो सके परमात्मा के प्रति ध्यान-उपासना का निरन्तर एकान्त में भक्ति व प्रेमपूर्वक अभ्यासगृहस्थ जीवन व जीविका अर्जित के सभी कार्यों को सदैव पूर्ण ब्रह्मा की प्रेमभरी सतत याद में डूबे रह कर (जितना सम्भव हो सके) एकान्त में, सेवा भाव में तत्पर रहते हुए निभानासदा सत्य बोलने का साहस होनासमस्त प्राणियों में पूर्ण परमात्मा श्रीकृष्ण को वर्तमान जानना और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति अद्रोह का भाव रखना। [ईशवर की भक्ति व प्रेम से हृदय (आत्मा) पर लगातार ध्यान साधना से समस्त प्राणियों के प्रति स्वतः ही मन में संवेदना, दया व करूणा उत्पन्न हो जाती है।]स्वभाव व व्यवहारिक लक्षण:इनके अलावा प्रारब्धा (संस्कारों या) कर्मों के अनुकूल मिलने वाले हानि-लाभ में सन्तोष रखनास्त्री और पुत्र आदि में ममता व लगाव शून्य होनाअहङ्कार और क्रोध से रहित होनासरल व मृदु भाषी होनाप्रसन्न-चित्त रहनाअपनी निन्दा-स्तुति के प्रति विरक्त रहते हुए सदा एक समान रहनाजीवन के सुख दुःख, उतार-चढ़ाव और शीतोष्णादि द्वन्द्वों को सदैव समर्पण भाव से शान्तिपूर्ण सहन करनाआपत्तियों व कठिनाइयों से भय न करनानिद्रा, आहार और विहार आदि से अनासक्त रहनाव्यर्थ वार्तालाप व गतिविधियों के लिये स्वयं को अवकाश न देनाहृदय के भीतर की अवस्था के लक्षण:श्रेष्ठतम गुरू के मार्गदर्शन के अनुसार निष्ठा के साथ ध्यान-साधना करना; ईश्वर के अनन्त प्रेम के स्त्रोत से अटूट जुड़ाव का लगातार प्रयास व अहसास करना ताकि उपरोक्त लक्षण हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बन सके।श्रीकृष्ण के सतत-स्मरण से अर्जित प्रबोध-सुधाकर (दिव्य आलोक के परम सत्य) में निरन्तर शान्तचित्त रहनाकोई भगवत्सम्बन्धी गीत व भजन के गान अथवा बाँसुरी (वाद्ययन्त्र द्वारा राग) बजाने या सुनने पर हृदय में एक ही समय में एक साथ आनन्द का आविर्भाव और सात्त्विक भावों का प्रौढ़ उद्रेक हो जाना।जीवात्मा मन के पूर्वाग्रही अज्ञान (संस्कारों के आवरणों) से मलीन है। जीवात्मा का स्वयं के दिव्य स्वरूप (आत्मा पर) प्रेमपूर्वक सतत ध्यान करने पर प्राप्त होने वाले दिव्य ज्ञान से वह पुनः निर्मल होती है आत्मज्ञान के ज्ञानाभ्यास से अपने आप अज्ञान का नाश हो जाता है जैसे सोते समय स्वप्न सच्चा सा मालूम होता है और जागने के बाद झूठा लगता है, वैसे ही अज्ञान व मलिन दशा में संसार सच्चा व ज्ञान होने तथा जानने पर झूठा लगने लगता है।श्री आदि शंकराचार्य जी आत्मबोध के श्लोक 32 से 34 में कहते हैं:जन्म, बुढ़ापा, दुबला-मोटा होना, रोग, मृत्यु आदि सिर्फ़ देह में है, आत्मा में नहीं है। आत्मा उनसे अन्य (सूक्ष्म दिव्य शरीर) है और बिना इन्द्रियवाला है। इससे शब्द, स्पर्श, स्वाद आदि विषयों का संग भी नहीं है। और बिना मन वाला होने से राग, द्वेष, दुःख, भय आदि भी आत्मा में नहीं है ॥32॥इस आत्मा से प्राण, मन व सब इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, अग्नि, जल और संसार को धारण करनेवाली पृथ्वी उत्पन्न होती है ॥33॥आत्मा सत्, रज, तम गुणों से रहित, सदैव रहनेवाला, जाना-आना आदि क्रिया से रहित, संकल्प विकल्प से रहित, माया के दोषों से रहित; तथा सभी षट् विकारों: जन्म, शरीर-वृद्धि, बाल्यावस्था, प्रौढ़ता, वार्द्धक्य, व मृत्यु; तथा काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अरू (ज़ख़्म, रोग), व मत्सर (ईर्ष्या-द्वेष) से रहित, निराकार, सदा मुक्तस्वरूप निर्मल है ॥34॥श्री आदि शंकराचार्य जी के अनुसार:अन्तःकरण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी के चरणकमलों की भक्ति के बिना कभी शुद्ध नहीं हो सकता। जैसे वस्त्र को खारयुक्त जल से शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार चित्त को भक्ति से निर्मल किया जा सकता है ।बाइबल में सेंट थियोडोरोस कहते हैं: "इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता जिसकी पिता स्वरूप प्रभु ने इतनी अच्छी तरह से पुष्टि की है, कि मनुष्य को मन में लगातार केवल इस विचार को बनाये रखने के अलावा कहीं और आराम नहीं मिलता है कि उसके हृदय के भीतर बसे (आराध्य) परमात्मा और वह (उपासक आत्मा) अकेले मौजूद हैं; और इसलिए वह अपनी बुद्धि को संसार की किसी भी अन्य चीज के लिए बिल्कुल भी भटकने नहीं देता है; बल्कि वह पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए तरसता है, सिर्फ़ उसके लिए। केवल ऐसे व्यक्ति को ही सच्चा सुख व आराम मिलेगा और अनगिनत कामनाओं के निर्मम जुनून से मुक्ति मिलेगी।” (द फिलोकलिया v.II. p. 34, 91)हमारे मन व बुद्धि जब दिव्य संतों के वचनों से प्रभावित होते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि जब कोई मनुष्य पूर्ण परमात्मा (सर्वज्ञाता, सर्वोपरि व सर्वव्यापक) को जानता है तो ऐसा कुछ भी शेष नहीं रह जाता है जो उसे वास्तव में जानने की आवश्यकता हो। क्योंकि पूर्ण परमात्मा को जानने का अर्थ है सब कुछ जान लेना।इसलिए, सच्चा ज्ञान खुद को (हृदय की नितांत गहराइयों में स्वयं को खो देने के पश्चात) प्रेम व भक्तिसागर की रहस्यमय असीम शांति में डूबाने पर ही प्राप्त होता है।इस प्रकार, जब मनुष्य को अपने भीतर ईश्वर का पूर्ण ज्ञान होता है, तो उसकी बुद्धि को ज्ञान की तलाश में नहीं भागना पढ़ता।और जब किसी व्यक्ति के पास ऐसा विवेक (अंतर्ज्ञान) हो अर्थात् विश्लेणात्मक तर्क के बिना सीधे अनन्त दिव्य ज्ञान के स्तोत्र से जानने की क्षमता हो; जब कोई इस तरह के अतुलनीय दिव्य ज्ञान का अधिकारी हो जाता तो कुछ भी ओर जानना बेमानी हो जाता है।जब तक किसी व्यक्ति का मन चंचल है; उसके मन में विचार दौड़ते रहते है, तो वह इस बात का प्रतीक है कि उसने अभी तक अपरिहार्य रूप से अपने उत्कृष्ट आत्मिक पहलुओं या स्वयं के उच्च (दिव्य) स्वभाव में बसना यानि अपनी आत्मा में आराम करना नहीं सीखा है।सेंट मैक्सिमोस इस तर्क को स्पष्ट करते हुए कहते हैं: “एक व्यक्ति का मन व बुद्धि जब अपने शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करके स्वयं को मुक्त कर लेती है तो उसे खुशी और दर्द का अनुभव नहीं होता है, पर मनुष्य ऐसा तब कर पाता है जब वह अपने मन व बुद्धि को परमात्मा से बांधता है या एकजुट कर लेता है; उस पूर्ण परमात्मा को चाहता है जो प्यार, लगाव व इच्छा का वास्तविक लक्ष्य व सर्वश्रेष्ठ सुपात्र है।“ (द फिलोकलिया (The Philokalia) v.II, p.175, 54)निस्वार्थ प्रेम में ईश्वर की याद में मन व बुद्धि का भक्ति मे डूबे रह कर खो जाने में ईश्वरीय शांति मिली है; प्रभु श्रीकृष्ण ने भगवत गीता के अध्याय 2:58 के चिंतनशील मणि रूपी श्लोक में इस स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है:जिस प्रकार कछुवा अपने बचाव हेतु बार-बार अपने अंगो को संकुचित करके अपने खोल के भीतर कर लेता है, उसी तरह योगी, भक्त या आत्मसिद्ध व्यक्ति अपने मन व इन्द्रियों (ध्यान) को भक्तिभाव द्वारा इन्द्रियविषयों से खीँच कर पूर्ण ब्रह्मा की पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर कर लेता है |तात्पर्यः अधिकांश व्यक्ति अपनी इन्द्रियों व मन के दास बने रहते हैं और इन्द्रियों के ही कहने पर चलते हैं। इन्द्रियों की तुलना विषैले सर्पों से की गई है; मानव का मन व इन्द्रियाँ सदैव अत्यन्त स्वतंत्रतापूर्वक तथा बिना किसी नियन्त्रण के कर्म करना चाहती हैं। योगी या भक्त का इन सर्पों को वश में करने के लिए, ईश्वर भक्ति की धुन में अत्यन्त प्रबल होना अति आवश्यक है। वह उन्हें कभी भी कार्य करने की छूट नहीं देता।जैसे कछुआ किसी भी समय अपने अंग समेट लेता है उसी तरह भक्त (ज्ञानी) परमात्मा के स्मरण में अपने मन व सभी इंद्रियों को इंद्रियों के आनंद के आकर्षण से तुरंत वापस खींच लेता है। और पुनः वह विशिष्ट उद्देश्यों से आवश्यकतानुसार उन्हें प्रकट कर लेता है तभी वह सदा कृष्णभावनामृत में स्थिर रह पाता है। (BG-Ch-2, V-58)http://vnita40.blogspot.com/2022/08/19-yoga-for-knee-pain-how-yogasana.htmlगलातियनस (Galatians) 5:24 के अनुसार: "वे सभी जो ईसा मसीह (ईश्वर/God) के हैं, उनसे सच्चा प्रेम करते हैं उन्होंने अपने निम्न स्वयं के साथ, अपने सभी जुनूनों और इच्छाओं को क्रूस पर चढ़ाया है।"गलातियनस 3:28 कहता है: "कोई यहूदी या ग्रीक नहीं है; कोई गुलाम या स्वतंत्र नहीं है; न ही कोई पुरुष या महिला है - क्योंकि सभी यीशु मसीह में एक है; वे सभी एक परमात्मा का (समानुरूप से) अभिन्न अंश हैं।”बाइबल के 11:24 में सेंट ल्यूक ने बड़ी ख़ूबसूरती से कहा है: "जब कोई (संस्कारों के आवरणों से ढकी) अशुद्ध प्यासी आत्मा मन के ज़रिए शान्ति व सुकून की तलाश में बाहर झांकती है तो उसे भौतिक जगत में कहीं भी दिव्यता का पवित्र जल नहीं मिलता, उसे जलरहित देशों से गुजरना पढ़ता है; वह चिरस्थायी आराम करने के लिए जगह तलाशती रहती है, और जब उसे कहीं भी शान्ति, सूकून व आराम नहीं मिलता है तो आखिरकार वह निर्णय लेती है कि मैं अपने घर वापस जाउगी जहां से मैं आयी हूँ।”इफिसियों (Ephesians) 4: 22-24 में कहा गया है कि: “हमें अपने पुराने स्व को (अर्थात अपनी पुरानी सोच व पूर्वाग्रहों को, पुरानी आदतों, पसन्द-नापसंदों आदि को) सदा अलग रखना चाहिये, क्योंकि वह हमारे पुराने (पिछले जन्मों के) तरीकों से संबंधित है और वह पुरानी भ्रामक इच्छाओं व धारणाओं का पालन करके भ्रष्ट हो चुकी है। तथा वह केवल हमारे मन का आत्मा पर ध्यान व लगाव करने से नवीनीकृत होती हैं; केवल तभी मनुष्य अपने (निम्न) स्वयं को परिवर्तित कर पुनः (उच्च) दिव्य मानव में ढाल सकता है। — मानव की वह उच्चतम दिव्य अवस्था जो परमेश्वर के दिव्य सनातनी सिद्धांतों पर, सत्य की पवित्रता व सार्वभौमिक न्याय पर अवधारित होती है।”श्री आदि शंकराचार्य जी ने आत्मबोध में बताया है कि ऐसी प्रतिदिन की अभ्यासवाली यह वासना कि मैं ब्रह्म ही हूँ अज्ञान के विक्षेपों को दूर करती है जैसे रसायन रोगों को ॥37॥ एकान्त स्थान में आसन पर बैठ वैराग्यवान् व जितेन्द्रिय हो एकाग्रचित्त कर उस अनन्त अद्वितीय परमात्मा का ध्यान करे ॥38॥वे आगे लिखते हैं कि: सुन्दर बुद्धिवाला ज्ञानी पुरुष अंतर्दृष्टि वाली बुद्धि से सब देखते हुए संसार को आत्मा में ही लीन करके सदा निर्मल आकाश की तरह एक परमात्मा का ही ध्यान करता है ॥39॥ आत्मज्ञानी पुरुष सब नामवर्ण (self-identity) आदि छोड़के पूरे चैतन्यानन्द रूप से रहता है ॥40॥श्री आदि शंकराचार्य जी कहते हैं कि: ज्ञानी व्यक्ति बाहर के झूठे सुखों का लगाव छोड़ आत्मसुख से युक्त अपने अंतस में ही घड़े में रक्खे दीपक की तरह साफ प्रकाशता है ॥51॥ सब कुछ जानता हुआ भी योगी पुरूष अज्ञानी की तरह रहता है और बिना लगाव के वायु की तरह आचरण करता है ॥52॥ईश्वरीय मनन में रहने वाला ज्ञानी व योगी उपाधियों से अलगाव बनाये रख कर भगवान् में पूरी रीति से लीन होता है जैसे जल में जल प्रकाश में प्रकाश और अग्नि में अग्नि ॥53॥ जिस आत्म लाभ से अधिक दूसरा लाभ नहीं जिस सुख से अधिक दूसरा सुख नहीं जिस ज्ञान से अधिक दूसरा ज्ञान नहीं वही ब्रह्मा है ऐसा विचार अपने मन व हृदय में बनाये रखता है ॥54॥अंत में श्री आदि शंकराचार्य जी कहते हैं कि: आत्मा ज्ञानरूपी सूर्य है। आकाशरूपी हृदय में उदय हो अन्धकाररूपी अज्ञान को दूर कर सबमें व्याप्त होकर सबको धारण करते व सबको प्रकाशित करते सुशोभित होता है ॥67॥जो विचार त्यागी पुरूष स्थान समय आदि को बिना देखे शीत उष्ण आदि के दूर करनेवाले सबमें रहने वाले माया रहित नित्य आनन्दरूप अपने आत्मतीर्थ को सेवन करता है वह सबकुछ जाननेवाला, सबमें रहता हुआ मुक्त होता है ॥68॥निष्कर्ष रूप में ज्ञान को शाब्दिक रूप में व्यक्त करना कठिन है चूँकि ज्ञान अनुभव से प्राप्त होता है अतः उसका व्यवहारिक रूप से ही प्रकटीकरण हो सकता है।अतः ज्ञान का अर्थ हुआ: मन, इन्द्रियों और शरीर द्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित होना।तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दन परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दन वासुदेव (पूर्ण परमात्मा) के सिवाय हृदय व मन में अन्य किसी के भी होनेपन का भाव न रहना।तथा श्रद्धा व भक्तिपूर्वक मन, वाणी और शरीर सब प्रकार से ईश्वर के शरण होकर; गृहस्थाश्रम में ही रहते हुए, निम्नलिखित तरीक़े से प्रेमपूर्वक निरन्तर पूर्ण परमात्मा का “सतत स्मरण” करना तथा उनके दिव्य गुणों और दिव्य स्वरूप को प्रभावसहित अपने आचरण में उतारना। ⤵️http://vnitak.blogspot.com/2022/08/check-this-post-from.htmlईश्वर करे आपका जीवन दिव्य प्रेम, ज्ञान, शान्ति व परमानन्द से भर जाये! आमीन! आमीन! आमीन!

ज्ञान क्या है? By वनिता कासनियां पंजाब वेद, उपनिषद, गीता, श्री आदि शंकराचार्य जी, प्रभु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, गुरू नानक देव जी, संत कबीरदास जी, प्रभु जीसस क्राइस्, प्रभु   गौतमबुद्ध जी व सम्पूर्ण विश्व के  धर्मों का सार  यही कहता हैं कि  ज्ञानी  व्यक्ति या  स्थितप्रज्ञा  की अवस्था वाले व्यक्ति में यह सभी  सूक्ष्म लक्षण  होते हैं: ⤵️ कर्तव्य निभाने   से सम्बंधित लक्षण: प्रतिदिन जितना सम्भव हो सके परमात्मा के प्रति ध्यान-उपासना का निरन्तर एकान्त में भक्ति व प्रेमपूर्वक अभ्यास गृहस्थ जीवन व जीविका अर्जित के सभी कार्यों को सदैव पूर्ण ब्रह्मा की प्रेमभरी सतत याद में डूबे रह कर (जितना सम्भव हो सके) एकान्त में, सेवा भाव में तत्पर रहते हुए निभाना सदा सत्य बोलने का साहस होना समस्त प्राणियों में पूर्ण परमात्मा श्रीकृष्ण को वर्तमान जानना और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति अद्रोह का भाव रखना। [ईशवर की भक्ति व प्रेम से हृदय (आत्मा) पर लगातार ध्यान साधना से समस्त प्राणियों के प्रति स्वतः ही मन में संवेदना, दया व करूणा उत्पन्न हो जाती है।] स...

🌹 #दुःख में स्वयं की एक अंगुली आंसू पोंछती है#और सुख में दसो अंगुलियाँ ताली बजाती है🌹By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब🌹 #जब स्वयं का शरीर ही ऐसा करता है तो#दुनिया से गिला-शिकवा क्या करना...!!🌹 🌹 #दुनियाँ की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं #खुद को समझ लीजिए #सब समस्याओं का समाधान हो जाएगा...🌹 बाल वनिता महिला आश्रम ❤️ #जय श्री कृष्णा जय श्री राधे ❤️🌹 #शुभ_प्रभात🌹

🌹 #दुःख में स्वयं की एक अंगुली       आंसू पोंछती है #और सुख में दसो अंगुलियाँ           ताली बजाती है🌹 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब 🌹 #जब स्वयं का शरीर ही ऐसा            करता है तो #दुनिया से गिला-शिकवा          क्या करना...!!🌹          🌹 #दुनियाँ की सबसे       अच्छी किताब हम स्वयं हैं       #खुद को समझ लीजिए               #सब समस्याओं का          समाधान हो जाएगा...🌹                                                                                             बाल वनिता महिला आश्रम               ...