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राष्ट्र हिंदू धर्म में श्रीगणेश के अवतार By वनिता कासनियां पंजाब श्रीगणेश के अवतारहम सबने भगवान विष्णु के दशावतार और भगवान शंकर के १९ अवतारों के विषय में सुना है। किन्तु क्या आपको श्रीगणेश के अवतारों के विषय में पता है? वैसे तो श्रीगणेश के कई रूप और अवतार हैं किन्तु उनमें से आठ अवतार जिसे "अष्टरूप" कहते हैं, वो अधिक प्रसिद्ध हैं। इन आठ अवतारों की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि इन्ही सभी अवतारों में श्रीगणेश ने अपने शत्रुओं का वध नहीं किया बल्कि उनके प्रताप से वे सभी स्वतः उनके भक्त हो गए। आइये उसके विषय में कुछ जानते हैं।वक्रतुंड: मत्स्यरासुर नामक एक राक्षस था जो महादेव का बड़ा भक्त था। उसने भगवान शंकर की तपस्या कर ये वरदान प्राप्त किया कि उसे किसी का भय ना हो। वरदान पाने के बाद मत्सरासुर ने देवताओं को प्रताडि़त करना शुरू कर दिया। उसके दो पुत्र थे - सुंदरप्रिय और विषयप्रिय जो अपने पिता के समान ही अत्याचारी थे। उनके अत्याचार से तंग आकर सभी देवता महादेव की शरण में पहुंचे। शिवजी ने उन्हें श्रीगणेश का आह्वान करने को कहा। देवताओं की आराधना पर श्रीगणेश ने विकट सूंड वाले "वक्रतुंड" अवतार लिया और मत्सरासुर को ललकारा। अपने पिता की रक्षा के लिए सुंदरप्रिय और विषप्रिय दोनों ने उनपर आक्रमण किया किन्तु श्रीगणेश ने उन्हें तत्काल अपनी सूंड में लपेट कर मार डाला। ये देख कर मत्सरासुर ने अपनी पराजय स्वीकार की और श्रीगणेश का भक्त बन गया।एकदंत: एक बार महर्षि च्यवन को एक पुत्र की इच्छा हुई तो उन्होंने अपने तपोबल से मद नाम के राक्षस की रचना की। वह च्यवन का पुत्र कहलाया। मद ने दैत्यगुरु शुक्राचार्य से शिक्षा ली और हर प्रकार की विद्या और युद्धकला में निपुण बन गया। अपनी सिद्धियों के बल पर उसने देवताओं का विरोध शुरू कर दिया और सभी देवता उससे प्रताडि़त रहने लगे। सभी देवों ने एक स्वर में श्रीगणेश को पुकारा। इनकी रक्षा के लिए तब वे "एकदंत" के रूप में प्रकट हुए। उनकी चार भुजाएं और एक दांत था। वे चतुर्भुज रूप में थे जिनके हाथ में पाश, परशु, अंकुश और कमल था। एकदंत ने देवताओं को अभय का वरदान दिया और मदासुर को युद्ध में पराजित किया।महोदर: जब कार्तिकेय जी ने तारकासुर का वध कर दिया तो दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने मोहासुर नाम के दैत्य को देवताओं के विरुद्ध खड़ा किया। वे अनेक अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञाता था और उसका शरीर बहुत विशाल था। उसकी शक्ति की भी कोई सीमा नहीं थी। जब उस विकट रूप में मोहासुर देवताओं के सामने पहुंचा तो वे भयभीत हो गए। तब देवताओं की रक्षा के लिए श्रीगणेश ने "महोदर" अवतार लिया। उस रूप में उनका उदर अर्थात पेट इतना बड़ा था कि उसने आकाश को आच्छादित कर दिया। जब वे मोहासुर के समक्ष पहुंचे तो उनका वो अद्भुत रूप देख कर मोहासुर ने बिना युद्ध के ही आत्मसमर्पण कर दिया। उसके बाद उसने देव महोदर को ही अपना इष्ट बना लिया।विकट: जालंधर और वृंदा की कथा तो हम सभी जानते हैं। जब श्रीहरि ने जालंधर के विनाश हेतु उसकी पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग किया तो महादेव ने जालंधर का वध कर दिया। तत्पश्चात वृंदा ने आत्मदाह कर लिया और उन्ही के क्रोध से कामासुर का एक महापराक्रमी दैत्य उत्पन्न हुआ। उसने महादेव से कई अवतार प्राप्त कर त्रिलोक पर अधिकार जमा लिया। त्रिलोक को त्रस्त जान कर श्रीगणेश ने "विकट" रूप में अवतार लिया और अपने उस अवतार में उन्होंने अपने बड़े भाई कार्तिकेय के मयूर को अपना वाहन बनाया। उसके बाद उन्होंने कामासुर को घोर युद्ध कर उसे पराजित किया और देवताओं को निष्कंटक किया। बाद में कामासुर श्रीगणेश का भक्त बन गया। गजानन: एक बार धनपति कुबेर को अपने धन पर अहंकार और लोभ हो गया। उनके लोभ से लोभासुर नाम के असुर का जन्म हुआ। मार्गदर्शन के लिए वो शुक्राचार्य की शरण में गया। शुक्राचार्य ने उसे महादेव की तपस्या करने का आदेश दिया। उसने भोलेनाथ की घोर तपस्या की जिसके बाद महादेव ने उसे त्रिलोक विजय का वरदान दे दिया। उस वरदान के मद में लोभासुर स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल का अधिपति हो गया। सारे देवता स्वर्ग से हाथ धोकर अपने गुरु बृहस्पति के पास गए। देवगुरु ने उन्हें श्रीगणेश की तपस्या करने को कहा। देवराज इंद्र के साथ सभी देवों ने श्रीगणेश की तपस्या की जिससे श्रीगणेश प्रसन्न हुए और उन्होंने देवताओं को आश्वासन दिया कि वे अवश्य उनका उद्धार करेंगे। गणेशजी "गजानन" रूप में पृथ्वी पर आये और अपने मूषक द्वारा लोभासुर को युद्ध का सन्देश भेजा। जब शुक्राचार्य ने जाना कि गजानन स्वयं आये हैं तो लोभासुर की पराजय निश्चित जान कर उन्होंने उसे श्रीगणेश की शरण में जाने का उपदेश दिया। अपनी गुरु की बात सुनकर लोभासुर ने बिना युद्ध किए ही अपनी पराजय स्वीकार कर ली और उनका भक्त बन गया।लंबोदर: क्रोधासुर नाम नाम का एक दैत्य था जो अजेय बनना चाहता था। उसने इसी इच्छा से भगवान सूर्यनारायण की तपस्या की और उनसे ब्रह्माण्ड विजय का वरदान प्राप्त कर लिया। वरदान प्राप्त करने के बाद क्रोधासुर विश्वविजय के अभियान पर निकला। उसे स्वर्ग की ओर आते देख इंद्र और सभी देवता भयभीत हो गए। उन्होंने श्रीगणेश से प्रार्थना की कि वो किसी भी प्रकार क्रोधासुर को स्वर्ग पहुँचने से रोकें। तब वे "लम्बोदर" का रूप लेकर क्रोधासुर के पास आये और उसे समझाया कि वो कभी भी अजेय नहीं बन सकता। इस पर क्रोधासुर उनकी बात ना मान कर स्वर्ग की ओर बढ़ने लगा। ये देख कर श्रीगणेश ने अपने उदर (पेट) द्वारा उस मार्ग को बंद कर दिया। ये देख कर क्रोधासुर दूसरे मार्ग की ओर मुड़ा। तब लम्बोदर रुपी श्रीगणेश ने अपने उदर को विस्तृत कर वो मार्ग भी रुद्ध कर दिया। क्रोधासुर जिस भी मार्ग पर जाता, श्रीगणेश अपने उदर से उस मार्ग को बंद कर देते। ये देख कर क्रोधासुर का अभिमान समाप्त हुआ और वो श्रीगणेश का भक्त बन गया। उनके आदेश पर उसने अपना युद्ध अभियान बंद कर दिया और पाताल में जाकर बस गया।विघ्नराज: एक बार माता पार्वती कैलाश पर अपनी सखियों के साथ बातचीत कर रही थी। उसी दौरान वे जोर से हंस पड़ीं। उनकी हंसी से एक विशाल पुरुष की उत्पत्ति हुई। चूँकि उसका जन्म माता पार्वती के ममता भाव से हुआ था इसीलिए उन्होंने उसका नाम मम रखा। बाद में मम देवी पार्वती की आज्ञा से वन में तपस्या करने चला गया। वही वो असुरराज शंबरासुर से मिला। उसे योग्य जान कर शम्बरासुर ने उसे कई प्रकार की आसुरी शक्तियां सिखा दीं। बाद में शम्बरासुर ने मम को श्री गणेश की उपासना करने को कहा। मम ने गणपति को प्रसन्न कर अपार शक्ति का स्वामी बन गया। तप पूर्ण होने के बाद शम्बरासुर ने उसका विवाह अपनी पुत्री मोहिनी के साथ कर दिया। जब दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने मम के तप के बारे में सुना तो उन्होंने उसे दैत्यराज के पद पर विभूषित कर दिया। अपने बल के मद में आकर ममासुर ने देवताओं पर आक्रमण किया और उन्हें परास्त कर कारागार में डाल दिया। तब उसी कारावास में देवताओं ने गणेश की उपासना की जिससे प्रसन्न हो श्रीगणेश "विघ्नराज" (विघ्नेश्वर) के रूप में अवतरित हुए। उन्होंने ममासुर को युद्ध के लिए ललकारा और उसे परास्त कर उसका मान मर्दन किया। अंततः ममासुर उनकी शरण में आ गया। तत्पश्चात उन्होंने देवताओं को मुक्त कर उनके विघ्न का नाश किया। धूम्रवर्ण: एक बार भगवान सूर्यनारायण को छींक आ गई और उनकी छींक से एक दैत्य की उत्पत्ति हुई। उस दैत्य का नाम उन्होंने अहम रखा। उसने दैत्यगुरु शुक्राचार्य से शिक्षा ली और अहंतासुर नाम से प्रसिद्ध हुआ। बाद में उसने अपना स्वयं का राज्य बसाया और तप कर श्रीगणेश को प्रसन्न किया। उनसे उसे अनेकानेक वरदान प्राप्त हुए। वरदान प्राप्त कर वो निरंकुश हो गया और बहुत अत्याचार और अनाचार फैलाया। तब उसे रोकने के लिए श्री गणेश ने धुंए के रंग वाले रूप में अवतार लिया और उसी कारण उनका नाम "धूम्रवर्ण" पड़ा। उनके हाथ में एक दुर्जय पाश था जिससे सदैव ज्वालाएं निकलती रहती थीं। धूम्रवर्ण के रुप में गणेश जी ने अहंतासुर को उस पाश से जकड लिया। अहम् ने उस पाश से छूटने का बड़ा प्रयास किया किन्तु सफल नहीं हुआ। अंत में उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली और देव धूम्रवर्ण की शरण में आ गया। तब उन्होंने अहंतासुर को अपनी अनंत भक्ति प्रदान की।

राष्ट्र हिंदू धर्म में श्रीगणेश के अवतार

श्रीगणेश के अवतार
हम सबने भगवान विष्णु के दशावतार और भगवान शंकर के १९ अवतारों के विषय में सुना है। किन्तु क्या आपको श्रीगणेश के अवतारों के विषय में पता है? वैसे तो श्रीगणेश के कई रूप और अवतार हैं किन्तु उनमें से आठ अवतार जिसे "अष्टरूप" कहते हैं, वो अधिक प्रसिद्ध हैं। इन आठ अवतारों की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि इन्ही सभी अवतारों में श्रीगणेश ने अपने शत्रुओं का वध नहीं किया बल्कि उनके प्रताप से वे सभी स्वतः उनके भक्त हो गए। आइये उसके विषय में कुछ जानते हैं।
  1. वक्रतुंड: मत्स्यरासुर नामक एक राक्षस था जो महादेव का बड़ा भक्त था। उसने भगवान शंकर की तपस्या कर ये वरदान प्राप्त किया कि उसे किसी का भय ना हो। वरदान पाने के बाद मत्सरासुर ने देवताओं को प्रताडि़त करना शुरू कर दिया। उसके दो पुत्र थे - सुंदरप्रिय और विषयप्रिय जो अपने पिता के समान ही अत्याचारी थे। उनके अत्याचार से तंग आकर सभी देवता महादेव की शरण में पहुंचे। शिवजी ने उन्हें श्रीगणेश का आह्वान करने को कहा। देवताओं की आराधना पर श्रीगणेश ने विकट सूंड वाले "वक्रतुंड" अवतार लिया और मत्सरासुर को ललकारा। अपने पिता की रक्षा के लिए सुंदरप्रिय और विषप्रिय दोनों ने उनपर आक्रमण किया किन्तु श्रीगणेश ने उन्हें तत्काल अपनी सूंड में लपेट कर मार डाला। ये देख कर मत्सरासुर ने अपनी पराजय स्वीकार की और श्रीगणेश का भक्त बन गया।
  2. एकदंत: एक बार महर्षि च्यवन को एक पुत्र की इच्छा हुई तो उन्होंने अपने तपोबल से मद नाम के राक्षस की रचना की। वह च्यवन का पुत्र कहलाया। मद ने दैत्यगुरु शुक्राचार्य से शिक्षा ली और हर प्रकार की विद्या और युद्धकला में निपुण बन गया। अपनी सिद्धियों के बल पर उसने देवताओं का विरोध शुरू कर दिया और सभी देवता उससे प्रताडि़त रहने लगे। सभी देवों ने एक स्वर में श्रीगणेश को पुकारा। इनकी रक्षा के लिए तब वे "एकदंत" के रूप में प्रकट हुए। उनकी चार भुजाएं और एक दांत था। वे चतुर्भुज रूप में थे जिनके हाथ में पाश, परशु, अंकुश और कमल था। एकदंत ने देवताओं को अभय का वरदान दिया और मदासुर को युद्ध में पराजित किया।
  3. महोदर: जब कार्तिकेय जी ने तारकासुर का वध कर दिया तो दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने मोहासुर नाम के दैत्य को देवताओं के विरुद्ध खड़ा किया। वे अनेक अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञाता था और उसका शरीर बहुत विशाल था। उसकी शक्ति की भी कोई सीमा नहीं थी। जब उस विकट रूप में मोहासुर देवताओं के सामने पहुंचा तो वे भयभीत हो गए। तब देवताओं की रक्षा के लिए श्रीगणेश ने "महोदर" अवतार लिया। उस रूप में उनका उदर अर्थात पेट इतना बड़ा था कि उसने आकाश को आच्छादित कर दिया। जब वे मोहासुर के समक्ष पहुंचे तो उनका वो अद्भुत रूप देख कर मोहासुर ने बिना युद्ध के ही आत्मसमर्पण कर दिया। उसके बाद उसने देव महोदर को ही अपना इष्ट बना लिया।
  4. विकट: जालंधर और वृंदा की कथा तो हम सभी जानते हैं। जब श्रीहरि ने जालंधर के विनाश हेतु उसकी पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग किया तो महादेव ने जालंधर का वध कर दिया। तत्पश्चात वृंदा ने आत्मदाह कर लिया और उन्ही के क्रोध से कामासुर का एक महापराक्रमी दैत्य उत्पन्न हुआ। उसने महादेव से कई अवतार प्राप्त कर त्रिलोक पर अधिकार जमा लिया। त्रिलोक को त्रस्त जान कर श्रीगणेश ने "विकट" रूप में अवतार लिया और अपने उस अवतार में उन्होंने अपने बड़े भाई कार्तिकेय के मयूर को अपना वाहन बनाया। उसके बाद उन्होंने कामासुर को घोर युद्ध कर उसे पराजित किया और देवताओं को निष्कंटक किया। बाद में कामासुर श्रीगणेश का भक्त बन गया। 
  5. गजानन: एक बार धनपति कुबेर को अपने धन पर अहंकार और लोभ हो गया। उनके लोभ से लोभासुर नाम के असुर का जन्म हुआ। मार्गदर्शन के लिए वो शुक्राचार्य की शरण में गया। शुक्राचार्य ने उसे महादेव की तपस्या करने का आदेश दिया। उसने भोलेनाथ की घोर तपस्या की जिसके बाद महादेव ने उसे त्रिलोक विजय का वरदान दे दिया। उस वरदान के मद में लोभासुर स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल का अधिपति हो गया। सारे देवता स्वर्ग से हाथ धोकर अपने गुरु बृहस्पति के पास गए। देवगुरु ने उन्हें श्रीगणेश की तपस्या करने को कहा। देवराज इंद्र के साथ सभी देवों ने श्रीगणेश की तपस्या की जिससे श्रीगणेश प्रसन्न हुए और उन्होंने देवताओं को आश्वासन दिया कि वे अवश्य उनका उद्धार करेंगे। गणेशजी "गजानन" रूप में पृथ्वी पर आये और अपने मूषक द्वारा लोभासुर को युद्ध का सन्देश भेजा। जब शुक्राचार्य ने जाना कि गजानन स्वयं आये हैं तो लोभासुर की पराजय निश्चित जान कर उन्होंने उसे श्रीगणेश की शरण में जाने का उपदेश दिया। अपनी गुरु की बात सुनकर लोभासुर ने बिना युद्ध किए ही अपनी पराजय स्वीकार कर ली और उनका भक्त बन गया।
  6. लंबोदर: क्रोधासुर नाम नाम का एक दैत्य था जो अजेय बनना चाहता था। उसने इसी इच्छा से भगवान सूर्यनारायण की तपस्या की और उनसे ब्रह्माण्ड विजय का वरदान प्राप्त कर लिया। वरदान प्राप्त करने के बाद क्रोधासुर विश्वविजय के अभियान पर निकला। उसे स्वर्ग की ओर आते देख इंद्र और सभी देवता भयभीत हो गए। उन्होंने श्रीगणेश से प्रार्थना की कि वो किसी भी प्रकार क्रोधासुर को स्वर्ग पहुँचने से रोकें। तब वे "लम्बोदर" का रूप लेकर क्रोधासुर के पास आये और उसे समझाया कि वो कभी भी अजेय नहीं बन सकता। इस पर क्रोधासुर उनकी बात ना मान कर स्वर्ग की ओर बढ़ने लगा। ये देख कर श्रीगणेश ने अपने उदर (पेट) द्वारा उस मार्ग को बंद कर दिया। ये देख कर क्रोधासुर दूसरे मार्ग की ओर मुड़ा। तब लम्बोदर रुपी श्रीगणेश ने अपने उदर को विस्तृत कर वो मार्ग भी रुद्ध कर दिया। क्रोधासुर जिस भी मार्ग पर जाता, श्रीगणेश अपने उदर से उस मार्ग को बंद कर देते। ये देख कर क्रोधासुर का अभिमान समाप्त हुआ और वो श्रीगणेश का भक्त बन गया। उनके आदेश पर उसने अपना युद्ध अभियान बंद कर दिया और पाताल में जाकर बस गया।
  7. विघ्नराज: एक बार माता पार्वती कैलाश पर अपनी सखियों के साथ बातचीत कर रही थी। उसी दौरान वे जोर से हंस पड़ीं। उनकी हंसी से एक विशाल पुरुष की उत्पत्ति हुई। चूँकि उसका जन्म माता पार्वती के ममता भाव से हुआ था इसीलिए उन्होंने उसका नाम मम रखा। बाद में मम देवी पार्वती की आज्ञा से वन में तपस्या करने चला गया। वही वो असुरराज शंबरासुर से मिला। उसे योग्य जान कर शम्बरासुर ने उसे कई प्रकार की आसुरी शक्तियां सिखा दीं। बाद में शम्बरासुर ने मम को श्री गणेश की उपासना करने को कहा। मम ने गणपति को प्रसन्न कर अपार शक्ति का स्वामी बन गया। तप पूर्ण होने के बाद शम्बरासुर ने उसका विवाह अपनी पुत्री मोहिनी के साथ कर दिया। जब दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने मम के तप के बारे में सुना तो उन्होंने उसे दैत्यराज के पद पर विभूषित कर दिया। अपने बल के मद में आकर ममासुर ने देवताओं पर आक्रमण किया और उन्हें परास्त कर कारागार में डाल दिया। तब उसी कारावास में देवताओं ने गणेश की उपासना की जिससे प्रसन्न हो श्रीगणेश "विघ्नराज" (विघ्नेश्वर) के रूप में अवतरित हुए। उन्होंने ममासुर को युद्ध के लिए ललकारा और उसे परास्त कर उसका मान मर्दन किया। अंततः ममासुर उनकी शरण में आ गया। तत्पश्चात उन्होंने देवताओं को मुक्त कर उनके विघ्न का नाश किया। 
  8. धूम्रवर्ण: एक बार भगवान सूर्यनारायण को छींक आ गई और उनकी छींक से एक दैत्य की उत्पत्ति हुई। उस दैत्य का नाम उन्होंने अहम रखा। उसने दैत्यगुरु शुक्राचार्य से शिक्षा ली और अहंतासुर नाम से प्रसिद्ध हुआ। बाद में उसने अपना स्वयं का राज्य बसाया और तप कर श्रीगणेश को प्रसन्न किया। उनसे उसे अनेकानेक वरदान प्राप्त हुए। वरदान प्राप्त कर वो निरंकुश हो गया और बहुत अत्याचार और अनाचार फैलाया। तब उसे रोकने के लिए श्री गणेश ने धुंए के रंग वाले रूप में अवतार लिया और उसी कारण उनका नाम "धूम्रवर्ण" पड़ा। उनके हाथ में एक दुर्जय पाश था जिससे सदैव ज्वालाएं निकलती रहती थीं। धूम्रवर्ण के रुप में गणेश जी ने अहंतासुर को उस पाश से जकड लिया। अहम् ने उस पाश से छूटने का बड़ा प्रयास किया किन्तु सफल नहीं हुआ। अंत में उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली और देव धूम्रवर्ण की शरण में आ गया। तब उन्होंने अहंतासुर को अपनी अनंत भक्ति प्रदान की।

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ईश्वर के अनन्त प्रेम के स्त्रोत से अटूट जुड़ाव का लगातार प्रयास व अहसास करना ताकि उपरोक्त लक्षण हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बन सके।श्रीकृष्ण के सतत-स्मरण से अर्जित प्रबोध-सुधाकर (दिव्य आलोक के परम सत्य) में निरन्तर शान्तचित्त रहनाकोई भगवत्सम्बन्धी गीत व भजन के गान अथवा बाँसुरी (वाद्ययन्त्र द्वारा राग) बजाने या सुनने पर हृदय में एक ही समय में एक साथ आनन्द का आविर्भाव और सात्त्विक भावों का प्रौढ़ उद्रेक हो जाना।जीवात्मा मन के पूर्वाग्रही अज्ञान (संस्कारों के आवरणों) से मलीन है। जीवात्मा का स्वयं के दिव्य स्वरूप (आत्मा पर) प्रेमपूर्वक सतत ध्यान करने पर प्राप्त होने वाले दिव्य ज्ञान से वह पुनः निर्मल होती है आत्मज्ञान के ज्ञानाभ्यास से अपने आप अज्ञान का नाश हो जाता है जैसे सोते समय स्वप्न सच्चा सा मालूम होता है और जागने के बाद झूठा लगता है, वैसे ही अज्ञान व मलिन दशा में संसार सच्चा व ज्ञान होने तथा जानने पर झूठा लगने लगता है।श्री आदि शंकराचार्य जी आत्मबोध के श्लोक 32 से 34 में कहते हैं:जन्म, बुढ़ापा, दुबला-मोटा होना, रोग, मृत्यु आदि सिर्फ़ देह में है, आत्मा में नहीं है। आत्मा उनसे अन्य (सूक्ष्म दिव्य शरीर) है और बिना इन्द्रियवाला है। इससे शब्द, स्पर्श, स्वाद आदि विषयों का संग भी नहीं है। और बिना मन वाला होने से राग, द्वेष, दुःख, भय आदि भी आत्मा में नहीं है ॥32॥इस आत्मा से प्राण, मन व सब इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, अग्नि, जल और संसार को धारण करनेवाली पृथ्वी उत्पन्न होती है ॥33॥आत्मा सत्, रज, तम गुणों से रहित, सदैव रहनेवाला, जाना-आना आदि क्रिया से रहित, संकल्प विकल्प से रहित, माया के दोषों से रहित; तथा सभी षट् विकारों: जन्म, शरीर-वृद्धि, बाल्यावस्था, प्रौढ़ता, वार्द्धक्य, व मृत्यु; तथा काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अरू (ज़ख़्म, रोग), व मत्सर (ईर्ष्या-द्वेष) से रहित, निराकार, सदा मुक्तस्वरूप निर्मल है ॥34॥श्री आदि शंकराचार्य जी के अनुसार:अन्तःकरण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी के चरणकमलों की भक्ति के बिना कभी शुद्ध नहीं हो सकता। जैसे वस्त्र को खारयुक्त जल से शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार चित्त को भक्ति से निर्मल किया जा सकता है ।बाइबल में सेंट थियोडोरोस कहते हैं: "इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता जिसकी पिता स्वरूप प्रभु ने इतनी अच्छी तरह से पुष्टि की है, कि मनुष्य को मन में लगातार केवल इस विचार को बनाये रखने के अलावा कहीं और आराम नहीं मिलता है कि उसके हृदय के भीतर बसे (आराध्य) परमात्मा और वह (उपासक आत्मा) अकेले मौजूद हैं; और इसलिए वह अपनी बुद्धि को संसार की किसी भी अन्य चीज के लिए बिल्कुल भी भटकने नहीं देता है; बल्कि वह पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए तरसता है, सिर्फ़ उसके लिए। केवल ऐसे व्यक्ति को ही सच्चा सुख व आराम मिलेगा और अनगिनत कामनाओं के निर्मम जुनून से मुक्ति मिलेगी।” (द फिलोकलिया v.II. p. 34, 91)हमारे मन व बुद्धि जब दिव्य संतों के वचनों से प्रभावित होते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि जब कोई मनुष्य पूर्ण परमात्मा (सर्वज्ञाता, सर्वोपरि व सर्वव्यापक) को जानता है तो ऐसा कुछ भी शेष नहीं रह जाता है जो उसे वास्तव में जानने की आवश्यकता हो। क्योंकि पूर्ण परमात्मा को जानने का अर्थ है सब कुछ जान लेना।इसलिए, सच्चा ज्ञान खुद को (हृदय की नितांत गहराइयों में स्वयं को खो देने के पश्चात) प्रेम व भक्तिसागर की रहस्यमय असीम शांति में डूबाने पर ही प्राप्त होता है।इस प्रकार, जब मनुष्य को अपने भीतर ईश्वर का पूर्ण ज्ञान होता है, तो उसकी बुद्धि को ज्ञान की तलाश में नहीं भागना पढ़ता।और जब किसी व्यक्ति के पास ऐसा विवेक (अंतर्ज्ञान) हो अर्थात् विश्लेणात्मक तर्क के बिना सीधे अनन्त दिव्य ज्ञान के स्तोत्र से जानने की क्षमता हो; जब कोई इस तरह के अतुलनीय दिव्य ज्ञान का अधिकारी हो जाता तो कुछ भी ओर जानना बेमानी हो जाता है।जब तक किसी व्यक्ति का मन चंचल है; उसके मन में विचार दौड़ते रहते है, तो वह इस बात का प्रतीक है कि उसने अभी तक अपरिहार्य रूप से अपने उत्कृष्ट आत्मिक पहलुओं या स्वयं के उच्च (दिव्य) स्वभाव में बसना यानि अपनी आत्मा में आराम करना नहीं सीखा है।सेंट मैक्सिमोस इस तर्क को स्पष्ट करते हुए कहते हैं: “एक व्यक्ति का मन व बुद्धि जब अपने शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करके स्वयं को मुक्त कर लेती है तो उसे खुशी और दर्द का अनुभव नहीं होता है, पर मनुष्य ऐसा तब कर पाता है जब वह अपने मन व बुद्धि को परमात्मा से बांधता है या एकजुट कर लेता है; उस पूर्ण परमात्मा को चाहता है जो प्यार, लगाव व इच्छा का वास्तविक लक्ष्य व सर्वश्रेष्ठ सुपात्र है।“ (द फिलोकलिया (The Philokalia) v.II, p.175, 54)निस्वार्थ प्रेम में ईश्वर की याद में मन व बुद्धि का भक्ति मे डूबे रह कर खो जाने में ईश्वरीय शांति मिली है; प्रभु श्रीकृष्ण ने भगवत गीता के अध्याय 2:58 के चिंतनशील मणि रूपी श्लोक में इस स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है:जिस प्रकार कछुवा अपने बचाव हेतु बार-बार अपने अंगो को संकुचित करके अपने खोल के भीतर कर लेता है, उसी तरह योगी, भक्त या आत्मसिद्ध व्यक्ति अपने मन व इन्द्रियों (ध्यान) को भक्तिभाव द्वारा इन्द्रियविषयों से खीँच कर पूर्ण ब्रह्मा की पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर कर लेता है |तात्पर्यः अधिकांश व्यक्ति अपनी इन्द्रियों व मन के दास बने रहते हैं और इन्द्रियों के ही कहने पर चलते हैं। इन्द्रियों की तुलना विषैले सर्पों से की गई है; मानव का मन व इन्द्रियाँ सदैव अत्यन्त स्वतंत्रतापूर्वक तथा बिना किसी नियन्त्रण के कर्म करना चाहती हैं। योगी या भक्त का इन सर्पों को वश में करने के लिए, ईश्वर भक्ति की धुन में अत्यन्त प्रबल होना अति आवश्यक है। वह उन्हें कभी भी कार्य करने की छूट नहीं देता।जैसे कछुआ किसी भी समय अपने अंग समेट लेता है उसी तरह भक्त (ज्ञानी) परमात्मा के स्मरण में अपने मन व सभी इंद्रियों को इंद्रियों के आनंद के आकर्षण से तुरंत वापस खींच लेता है। और पुनः वह विशिष्ट उद्देश्यों से आवश्यकतानुसार उन्हें प्रकट कर लेता है तभी वह सदा कृष्णभावनामृत में स्थिर रह पाता है। (BG-Ch-2, V-58)http://vnita40.blogspot.com/2022/08/19-yoga-for-knee-pain-how-yogasana.htmlगलातियनस (Galatians) 5:24 के अनुसार: "वे सभी जो ईसा मसीह (ईश्वर/God) के हैं, उनसे सच्चा प्रेम करते हैं उन्होंने अपने निम्न स्वयं के साथ, अपने सभी जुनूनों और इच्छाओं को क्रूस पर चढ़ाया है।"गलातियनस 3:28 कहता है: "कोई यहूदी या ग्रीक नहीं है; कोई गुलाम या स्वतंत्र नहीं है; न ही कोई पुरुष या महिला है - क्योंकि सभी यीशु मसीह में एक है; वे सभी एक परमात्मा का (समानुरूप से) अभिन्न अंश हैं।”बाइबल के 11:24 में सेंट ल्यूक ने बड़ी ख़ूबसूरती से कहा है: "जब कोई (संस्कारों के आवरणों से ढकी) अशुद्ध प्यासी आत्मा मन के ज़रिए शान्ति व सुकून की तलाश में बाहर झांकती है तो उसे भौतिक जगत में कहीं भी दिव्यता का पवित्र जल नहीं मिलता, उसे जलरहित देशों से गुजरना पढ़ता है; वह चिरस्थायी आराम करने के लिए जगह तलाशती रहती है, और जब उसे कहीं भी शान्ति, सूकून व आराम नहीं मिलता है तो आखिरकार वह निर्णय लेती है कि मैं अपने घर वापस जाउगी जहां से मैं आयी हूँ।”इफिसियों (Ephesians) 4: 22-24 में कहा गया है कि: “हमें अपने पुराने स्व को (अर्थात अपनी पुरानी सोच व पूर्वाग्रहों को, पुरानी आदतों, पसन्द-नापसंदों आदि को) सदा अलग रखना चाहिये, क्योंकि वह हमारे पुराने (पिछले जन्मों के) तरीकों से संबंधित है और वह पुरानी भ्रामक इच्छाओं व धारणाओं का पालन करके भ्रष्ट हो चुकी है। तथा वह केवल हमारे मन का आत्मा पर ध्यान व लगाव करने से नवीनीकृत होती हैं; केवल तभी मनुष्य अपने (निम्न) स्वयं को परिवर्तित कर पुनः (उच्च) दिव्य मानव में ढाल सकता है। — मानव की वह उच्चतम दिव्य अवस्था जो परमेश्वर के दिव्य सनातनी सिद्धांतों पर, सत्य की पवित्रता व सार्वभौमिक न्याय पर अवधारित होती है।”श्री आदि शंकराचार्य जी ने आत्मबोध में बताया है कि ऐसी प्रतिदिन की अभ्यासवाली यह वासना कि मैं ब्रह्म ही हूँ अज्ञान के विक्षेपों को दूर करती है जैसे रसायन रोगों को ॥37॥ एकान्त स्थान में आसन पर बैठ वैराग्यवान् व जितेन्द्रिय हो एकाग्रचित्त कर उस अनन्त अद्वितीय परमात्मा का ध्यान करे ॥38॥वे आगे लिखते हैं कि: सुन्दर बुद्धिवाला ज्ञानी पुरुष अंतर्दृष्टि वाली बुद्धि से सब देखते हुए संसार को आत्मा में ही लीन करके सदा निर्मल आकाश की तरह एक परमात्मा का ही ध्यान करता है ॥39॥ आत्मज्ञानी पुरुष सब नामवर्ण (self-identity) आदि छोड़के पूरे चैतन्यानन्द रूप से रहता है ॥40॥श्री आदि शंकराचार्य जी कहते हैं कि: ज्ञानी व्यक्ति बाहर के झूठे सुखों का लगाव छोड़ आत्मसुख से युक्त अपने अंतस में ही घड़े में रक्खे दीपक की तरह साफ प्रकाशता है ॥51॥ सब कुछ जानता हुआ भी योगी पुरूष अज्ञानी की तरह रहता है और बिना लगाव के वायु की तरह आचरण करता है ॥52॥ईश्वरीय मनन में रहने वाला ज्ञानी व योगी उपाधियों से अलगाव बनाये रख कर भगवान् में पूरी रीति से लीन होता है जैसे जल में जल प्रकाश में प्रकाश और अग्नि में अग्नि ॥53॥ जिस आत्म लाभ से अधिक दूसरा लाभ नहीं जिस सुख से अधिक दूसरा सुख नहीं जिस ज्ञान से अधिक दूसरा ज्ञान नहीं वही ब्रह्मा है ऐसा विचार अपने मन व हृदय में बनाये रखता है ॥54॥अंत में श्री आदि शंकराचार्य जी कहते हैं कि: आत्मा ज्ञानरूपी सूर्य है। आकाशरूपी हृदय में उदय हो अन्धकाररूपी अज्ञान को दूर कर सबमें व्याप्त होकर सबको धारण करते व सबको प्रकाशित करते सुशोभित होता है ॥67॥जो विचार त्यागी पुरूष स्थान समय आदि को बिना देखे शीत उष्ण आदि के दूर करनेवाले सबमें रहने वाले माया रहित नित्य आनन्दरूप अपने आत्मतीर्थ को सेवन करता है वह सबकुछ जाननेवाला, सबमें रहता हुआ मुक्त होता है ॥68॥निष्कर्ष रूप में ज्ञान को शाब्दिक रूप में व्यक्त करना कठिन है चूँकि ज्ञान अनुभव से प्राप्त होता है अतः उसका व्यवहारिक रूप से ही प्रकटीकरण हो सकता है।अतः ज्ञान का अर्थ हुआ: मन, इन्द्रियों और शरीर द्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित होना।तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दन परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दन वासुदेव (पूर्ण परमात्मा) के सिवाय हृदय व मन में अन्य किसी के भी होनेपन का भाव न रहना।तथा श्रद्धा व भक्तिपूर्वक मन, वाणी और शरीर सब प्रकार से ईश्वर के शरण होकर; गृहस्थाश्रम में ही रहते हुए, निम्नलिखित तरीक़े से प्रेमपूर्वक निरन्तर पूर्ण परमात्मा का “सतत स्मरण” करना तथा उनके दिव्य गुणों और दिव्य स्वरूप को प्रभावसहित अपने आचरण में उतारना। ⤵️http://vnitak.blogspot.com/2022/08/check-this-post-from.htmlईश्वर करे आपका जीवन दिव्य प्रेम, ज्ञान, शान्ति व परमानन्द से भर जाये! आमीन! आमीन! आमीन!

ज्ञान क्या है? By वनिता कासनियां पंजाब वेद, उपनिषद, गीता, श्री आदि शंकराचार्य जी, प्रभु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, गुरू नानक देव जी, संत कबीरदास जी, प्रभु जीसस क्राइस्, प्रभु   गौतमबुद्ध जी व सम्पूर्ण विश्व के  धर्मों का सार  यही कहता हैं कि  ज्ञानी  व्यक्ति या  स्थितप्रज्ञा  की अवस्था वाले व्यक्ति में यह सभी  सूक्ष्म लक्षण  होते हैं: ⤵️ कर्तव्य निभाने   से सम्बंधित लक्षण: प्रतिदिन जितना सम्भव हो सके परमात्मा के प्रति ध्यान-उपासना का निरन्तर एकान्त में भक्ति व प्रेमपूर्वक अभ्यास गृहस्थ जीवन व जीविका अर्जित के सभी कार्यों को सदैव पूर्ण ब्रह्मा की प्रेमभरी सतत याद में डूबे रह कर (जितना सम्भव हो सके) एकान्त में, सेवा भाव में तत्पर रहते हुए निभाना सदा सत्य बोलने का साहस होना समस्त प्राणियों में पूर्ण परमात्मा श्रीकृष्ण को वर्तमान जानना और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति अद्रोह का भाव रखना। [ईशवर की भक्ति व प्रेम से हृदय (आत्मा) पर लगातार ध्यान साधना से समस्त प्राणियों के प्रति स्वतः ही मन में संवेदना, दया व करूणा उत्पन्न हो जाती है।] स...