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राष्ट्र हिंदू धर्म में क्या अहिल्या वास्तव में निर्दोष थी? By वनिता कासनियां पंजाब आपमें से कई लोग सोच रहे होंगे कि आज मैं ये कौन सा विषय लेकर आ गया। हम सभी ने हमेशा यही पढ़ा है कि पंचकन्याओं में से एक अहिल्या सर्वथा निर्दोष थी और महर्षि गौतम ने उन्हें बिना सत्य जाने श्राप दे दिया था। बाद में श्रीराम ने उनका उद्धार किया था। बरसों से हम यही सुनते और देखते आ रहे हैं। किन्तु आज हम इस घटना के सत्य को जानने का प्रयत्न करेंगे।ऐसी शंकाएं लोगों के मन में केवल इसलिए आती हैं क्यूंकि उन्होंने कभी मूल ग्रन्थ पढ़ा ही नहीं होता। और जब मैं बोल रहा हूँ मूल ग्रन्थ, तो मैं वाल्मीकि रामायण की बात कर रहा हूँ, ना कि रामचरितमानस की। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज के समाज में रामचरितमानस वाल्मीकि रामायण से बहुत अधिक प्रचलित है किन्तु मूल ग्रन्थ तो वाल्मीकि रामायण ही है।अब चूँकि रामचरितमानस इतनी अधिक प्रचलित है, लोग उसी को पढ़ते हैं। यहाँ तक कि १९८७ में बनी रामानंद सागर का प्रसिद्ध सीरियल रामायण भी मुख्यतः रामचरितमानस पर ही आधारित था। अब जब लोग वही पढ़ते और देखते हैं जो हमारे सामने है, वे उस सत्य को नहीं जान पाते जो कि मूल ग्रन्थ में लिखा गया है। तो यदि आपको इस प्रश्न का वास्तविक उत्तर चाहिए तो आपको वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड का ४८ वां सर्ग पढ़ना चाहिए।अब जो मैं बताने जा रहा हूँ उसे बड़े ध्यान से सुनिए और एक बात का विशेष ध्यान रखिये कि मैं ये बातें मूल वाल्मीकि रामायण से बता रहा हूँ। इसीलिए यदि आपने रामचरितमानस या रामायण का कोई और संस्करण पढ़ा है या कोई टीवी सीरियल देखा हो तो उसे एक पल के लिए भूल जाइये। वैसे तो वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के ४८ वें सर्ग में कुल ३३ श्लोक हैं किन्तु मैं केवल दो श्लोकों का वर्णन करूँगा जिससे आपको बात समझ में आ जाएगी।लोगों की ये आम धारणा है कि इंद्र गौतम ऋषि का वेश बना कर आये इसी कारण अहिल्या उन्हें पहचान नहीं पायी, जो कि बिलकुल गलत है। अहिल्या का जन्म स्वयं ब्रह्मदेव से हुआ था और उन्हें छला नहीं जा सकता था। वाल्मीकि रामायण में ये साफ लिखा है कि जब इंद्र गौतम ऋषि के वेश में आये और अहिल्या से प्रणय याचना की तब अहिल्या ने ये जान लिया था कि ये उनके पति नहीं हैं। किन्तु ये जान कर कि स्वयं देवराज इंद्र उनसे प्रणय याचना कर रहे हैं, अहिल्या ने सब कुछ जानते बुझते कौतुहल में उनकी बात मान ली। यह बात महर्षि विश्वामित्र श्रीराम और लक्ष्मण को बताते हैं।मुनिवेषं सहस्राक्षं विज्ञाय रघुनन्दन।मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतूहलात्॥ बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक १९अर्थात: ‘रघुनन्दन ! महर्षि गौतम का वेष धारण करके आये हुए इन्द्र को पहचानकर भी उस दुर्बुद्धि नारी ने ‘अहो! देवराज इन्द्र मुझे चाहते हैं’ इस कौतूहल वश उनके साथ समागम का निश्चय करके वह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।यहाँ तक कि इंद्र से समागम के पश्चात अहिल्या इंद्र को धन्यवाद देते हुए कहती हैं कि अब आप शीघ्रता से यहाँ से चले जाइये और महर्षि गौतम के क्रोध से मेरी और स्वयं अपनी रक्षा कीजिये।अथाब्रवीत् सुरश्रेष्ठं कृतार्थेनान्तरात्मना।कृतार्थास्मि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमितः प्रभो॥आत्मानं मां च देवेश सर्वथा रक्ष गौतमात्। बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक २०अर्थात: ‘रति के पश्चात् उसने देवराज इन्द्र से संतुष्टचित्त होकर कहा–’सुरश्रेष्ठ! मैं आपके समागम से कृतार्थ हो गयी। प्रभो! अब आप शीघ्र यहाँ से चले जाइये। देवेश्वर! महर्षि गौतम के कोप से आप अपनी और मेरी भी सब प्रकार से रक्षा कीजिये’।इसके बाद की कथा हम जानते हैं कि जब इंद्र वापस जाने के लिए बाहर निकले तो महर्षि गौतम ने उन्हें देख लिया। ये देख कर महर्षि गौतम ने प्रथम दंड इंद्र को ही दिया। महर्षि गौतम ने इंद्र को नपुंसक हो जाने का श्राप दे दिया।मम रूपं समास्थाय कृतवानसि दुर्मते।अकर्तव्यमिदं यस्माद विफलस्त्वं भविष्यसि॥ बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक २७अर्थात: “दुर्मते! तूने मेरा रूप धारण करके यह न करने योग्य पापकर्म किया है, इसलिये तू विफल (अण्डकोषों से रहित) हो जायगा’।गौतमेनैवमुक्तस्य सुरोषेण महात्मना।पेततुर्वृषणी भूमौ सहस्राक्षस्य तत्क्षणात्॥ बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक २८अर्थात: ‘रोष में भरे हुए महात्मा गौतम के ऐसा कहते ही सहस्राक्ष इन्द्र के दोनों अण्डकोष उसी क्षण पृथ्वीपर गिर पड़े।अब आते हैं अहिल्या के दंड पर। लोगों को ऐसा लगता है कि महर्षि गौतम ने उन्हें पत्थर बन जाने का श्राप दिया, पर ये भी गलत है। वास्तव में गौतम ऋषि ने अहिल्या को कई हजार वर्षों तक अदृश्य रूप में उसी आश्रम में प्रायश्चित करने का श्राप दिया।तथा शप्त्वा च वै शक्रं भार्यामपि च शप्तवान्।इह वर्षसहस्राणि बहूनि निवसिष्यसि ॥ बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक २९वातभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी।अदृश्या सर्वभूतानामाश्रमेऽस्मिन् वसिष्यसि॥ बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक ३०अर्थात: इन्द्र को इस प्रकार शाप देकर गौतम ने अपनी पत्नी को भी शाप दिया - 'दुराचारिणी! तू भी यहाँ कई हजार वर्षों तक केवल हवा पीकर या उपवास करके कष्ट उठाती हुई राख में पड़ी रहेगी। समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर इस आश्रम में निवास करेगी।'यदा त्वेतद् वनं घोरं रामो दशरथात्मजः।आगमिष्यति दुर्धर्षस्तदा पूता भविष्यसि॥ बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक ३१तस्यातिथ्येन दुर्वृत्ते लोभमोहविवर्जिता।।मत्सकाशं मुदा युक्ता स्वं वपुर्धारयिष्यसि॥ बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक ३२अर्थात: जब दुर्धर्ष दशरथ-कुमार राम इस घोर वन में पदार्पण करेंगे, उस समय तू पवित्र होगी। उनका आतिथ्य-सत्कार करने से तेरे लोभ-मोह आदि दोष दूर हो जायँगे और तू प्रसन्नतापूर्वक मेरे पास पहुँचकर अपना पूर्व शरीर धारण कर लेगी।’लोग ऐसा भी सोचते हैं कि श्रीराम ने शिलरूपी अहिल्या के मस्तक पर अपने चरण रख कर उसका उद्धार किया था, जो बिलकुल गलत है। वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के ४९ वें सर्ग में महर्षि विश्वामित्र श्रीराम से कहते हैं कि 'हे राम! ये तपस्विनी सहस्त्रों वर्षों से तप करते हुए तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है इसलिए तुम दोनों भाई जाकर इसके चरण छुओ।' तब श्रीराम और लक्ष्मण अहिल्या के चरण छूते हैं जिससे अहिल्या श्रापमुक्त होती है और तब महर्षि गौतम पुनः उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं।राघवौ तु तदा तस्याः पादौ जगृहतुर्मुदा।स्मरन्ती गौतमवचः प्रतिजग्राह सा हि तौ॥बालकाण्ड, सर्ग ४९, श्लोक १७अर्थात: उस समय श्रीराम और लक्ष्मण ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अहल्या के दोनों चरणोंका स्पर्श किया। महर्षिगौतम के वचनों का स्मरण करके अहल्या ने बड़ी सावधानी के साथ उन दोनों भाइयों को आदरणीय अतिथि के रूपमें अपनाया।अंत में मैं ये कहना चाहूंगा कि किसी को रामचरितमानस के प्रति कोई शंका नहीं होनी चाहिए। वह निःसंदेह हिन्दू धर्म के सबसे महानतम ग्रंथों में से एक है। वास्तव में तुलसीदास जी ने जिस काल में रामायण की रचना की उस समय पूरा देश और समाज मुस्लिम आक्रांताओं के अत्याचारों से दुखी था। इसी कारण उन्होंने रामचरितमानस को पूर्ण भक्ति रस में उस प्रकार लिखा ताकि समाज में श्रीराम के प्रति आस्था कम ना हो पाए। तो रामचरितमानस अपने युग में पूर्ण प्रासंगिक थी किन्तु हाँ, यदि सत्य जानना हो तो हमें वाल्मीकि रामायण पढ़ना ही चाहिए। आज की पीढ़ी के लिए ये बहुत आवश्यक है कि वो हमारे मूल धर्मग्रंथों का अध्ययन करे अन्यथा इसी प्रकार भ्रमित होते रहेंगे। जय श्रीराम।

राष्ट्र हिंदू धर्म में क्या अहिल्या वास्तव में निर्दोष थी?

आपमें से कई लोग सोच रहे होंगे कि आज मैं ये कौन सा विषय लेकर आ गया। हम सभी ने हमेशा यही पढ़ा है कि पंचकन्याओं में से एक अहिल्या सर्वथा निर्दोष थी और महर्षि गौतम ने उन्हें बिना सत्य जाने श्राप दे दिया था। बाद में श्रीराम ने उनका उद्धार किया था। बरसों से हम यही सुनते और देखते आ रहे हैं। किन्तु आज हम इस घटना के सत्य को जानने का प्रयत्न करेंगे।

ऐसी शंकाएं लोगों के मन में केवल इसलिए आती हैं क्यूंकि उन्होंने कभी मूल ग्रन्थ पढ़ा ही नहीं होता। और जब मैं बोल रहा हूँ मूल ग्रन्थ, तो मैं वाल्मीकि रामायण की बात कर रहा हूँ, ना कि रामचरितमानस की। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज के समाज में रामचरितमानस वाल्मीकि रामायण से बहुत अधिक प्रचलित है किन्तु मूल ग्रन्थ तो वाल्मीकि रामायण ही है।

अब चूँकि रामचरितमानस इतनी अधिक प्रचलित है, लोग उसी को पढ़ते हैं। यहाँ तक कि १९८७ में बनी रामानंद सागर का प्रसिद्ध सीरियल रामायण भी मुख्यतः रामचरितमानस पर ही आधारित था। अब जब लोग वही पढ़ते और देखते हैं जो हमारे सामने है, वे उस सत्य को नहीं जान पाते जो कि मूल ग्रन्थ में लिखा गया है। तो यदि आपको इस प्रश्न का वास्तविक उत्तर चाहिए तो आपको वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड का ४८ वां सर्ग पढ़ना चाहिए।

अब जो मैं बताने जा रहा हूँ उसे बड़े ध्यान से सुनिए और एक बात का विशेष ध्यान रखिये कि मैं ये बातें मूल वाल्मीकि रामायण से बता रहा हूँ। इसीलिए यदि आपने रामचरितमानस या रामायण का कोई और संस्करण पढ़ा है या कोई टीवी सीरियल देखा हो तो उसे एक पल के लिए भूल जाइये। वैसे तो वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के ४८ वें सर्ग में कुल ३३ श्लोक हैं किन्तु मैं केवल दो श्लोकों का वर्णन करूँगा जिससे आपको बात समझ में आ जाएगी।

लोगों की ये आम धारणा है कि इंद्र गौतम ऋषि का वेश बना कर आये इसी कारण अहिल्या उन्हें पहचान नहीं पायी, जो कि बिलकुल गलत है। अहिल्या का जन्म स्वयं ब्रह्मदेव से हुआ था और उन्हें छला नहीं जा सकता था। वाल्मीकि रामायण में ये साफ लिखा है कि जब इंद्र गौतम ऋषि के वेश में आये और अहिल्या से प्रणय याचना की तब अहिल्या ने ये जान लिया था कि ये उनके पति नहीं हैं। किन्तु ये जान कर कि स्वयं देवराज इंद्र उनसे प्रणय याचना कर रहे हैं, अहिल्या ने सब कुछ जानते बुझते कौतुहल में उनकी बात मान ली। यह बात महर्षि विश्वामित्र श्रीराम और लक्ष्मण को बताते हैं।

मुनिवेषं सहस्राक्षं विज्ञाय रघुनन्दन।
मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतूहलात्॥ 
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक १९

अर्थात: ‘रघुनन्दन ! महर्षि गौतम का वेष धारण करके आये हुए इन्द्र को पहचानकर भी उस दुर्बुद्धि नारी ने ‘अहो! देवराज इन्द्र मुझे चाहते हैं’ इस कौतूहल वश उनके साथ समागम का निश्चय करके वह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

यहाँ तक कि इंद्र से समागम के पश्चात अहिल्या इंद्र को धन्यवाद देते हुए कहती हैं कि अब आप शीघ्रता से यहाँ से चले जाइये और महर्षि गौतम के क्रोध से मेरी और स्वयं अपनी रक्षा कीजिये।
अथाब्रवीत् सुरश्रेष्ठं कृतार्थेनान्तरात्मना।
कृतार्थास्मि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमितः प्रभो॥
आत्मानं मां च देवेश सर्वथा रक्ष गौतमात्। 
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक २०

अर्थात: ‘रति के पश्चात् उसने देवराज इन्द्र से संतुष्टचित्त होकर कहा–’सुरश्रेष्ठ! मैं आपके समागम से कृतार्थ हो गयी। प्रभो! अब आप शीघ्र यहाँ से चले जाइये। देवेश्वर! महर्षि गौतम के कोप से आप अपनी और मेरी भी सब प्रकार से रक्षा कीजिये’।

इसके बाद की कथा हम जानते हैं कि जब इंद्र वापस जाने के लिए बाहर निकले तो महर्षि गौतम ने उन्हें देख लिया। ये देख कर महर्षि गौतम ने प्रथम दंड इंद्र को ही दिया। महर्षि गौतम ने इंद्र को नपुंसक हो जाने का श्राप दे दिया।

मम रूपं समास्थाय कृतवानसि दुर्मते।
अकर्तव्यमिदं यस्माद विफलस्त्वं भविष्यसि॥ 
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक २७

अर्थात: “दुर्मते! तूने मेरा रूप धारण करके यह न करने योग्य पापकर्म किया है, इसलिये तू विफल (अण्डकोषों से रहित) हो जायगा’।

गौतमेनैवमुक्तस्य सुरोषेण महात्मना।
पेततुर्वृषणी भूमौ सहस्राक्षस्य तत्क्षणात्॥ 
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक २८

अर्थात: ‘रोष में भरे हुए महात्मा गौतम के ऐसा कहते ही सहस्राक्ष इन्द्र के दोनों अण्डकोष उसी क्षण पृथ्वीपर गिर पड़े।

अब आते हैं अहिल्या के दंड पर। लोगों को ऐसा लगता है कि महर्षि गौतम ने उन्हें पत्थर बन जाने का श्राप दिया, पर ये भी गलत है। वास्तव में गौतम ऋषि ने अहिल्या को कई हजार वर्षों तक अदृश्य रूप में उसी आश्रम में प्रायश्चित करने का श्राप दिया।

तथा शप्त्वा च वै शक्रं भार्यामपि च शप्तवान्।
इह वर्षसहस्राणि बहूनि निवसिष्यसि ॥ 
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक २९

वातभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी।
अदृश्या सर्वभूतानामाश्रमेऽस्मिन् वसिष्यसि॥ 
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक ३०

अर्थात: इन्द्र को इस प्रकार शाप देकर गौतम ने अपनी पत्नी को भी शाप दिया - 'दुराचारिणी! तू भी यहाँ कई हजार वर्षों तक केवल हवा पीकर या उपवास करके कष्ट उठाती हुई राख में पड़ी रहेगी। समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर इस आश्रम में निवास करेगी।'

यदा त्वेतद् वनं घोरं रामो दशरथात्मजः।
आगमिष्यति दुर्धर्षस्तदा पूता भविष्यसि॥ 
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक ३१

तस्यातिथ्येन दुर्वृत्ते लोभमोहविवर्जिता।।
मत्सकाशं मुदा युक्ता स्वं वपुर्धारयिष्यसि॥ 
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक ३२

अर्थात: जब दुर्धर्ष दशरथ-कुमार राम इस घोर वन में पदार्पण करेंगे, उस समय तू पवित्र होगी। उनका आतिथ्य-सत्कार करने से तेरे लोभ-मोह आदि दोष दूर हो जायँगे और तू प्रसन्नतापूर्वक मेरे पास पहुँचकर अपना पूर्व शरीर धारण कर लेगी।’

लोग ऐसा भी सोचते हैं कि श्रीराम ने शिलरूपी अहिल्या के मस्तक पर अपने चरण रख कर उसका उद्धार किया था, जो बिलकुल गलत है। वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के ४९ वें सर्ग में महर्षि विश्वामित्र श्रीराम से कहते हैं कि 'हे राम! ये तपस्विनी सहस्त्रों वर्षों से तप करते हुए तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है इसलिए तुम दोनों भाई जाकर इसके चरण छुओ।' तब श्रीराम और लक्ष्मण अहिल्या के चरण छूते हैं जिससे अहिल्या श्रापमुक्त होती है और तब महर्षि गौतम पुनः उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं।

राघवौ तु तदा तस्याः पादौ जगृहतुर्मुदा।
स्मरन्ती गौतमवचः प्रतिजग्राह सा हि तौ॥
बालकाण्ड, सर्ग ४९, श्लोक १७

अर्थात: उस समय श्रीराम और लक्ष्मण ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अहल्या के दोनों चरणोंका स्पर्श किया। महर्षिगौतम के वचनों का स्मरण करके अहल्या ने बड़ी सावधानी के साथ उन दोनों भाइयों को आदरणीय अतिथि के रूपमें अपनाया।

अंत में मैं ये कहना चाहूंगा कि किसी को रामचरितमानस के प्रति कोई शंका नहीं होनी चाहिए। वह निःसंदेह हिन्दू धर्म के सबसे महानतम ग्रंथों में से एक है। वास्तव में तुलसीदास जी ने जिस काल में रामायण की रचना की उस समय पूरा देश और समाज मुस्लिम आक्रांताओं के अत्याचारों से दुखी था। इसी कारण उन्होंने रामचरितमानस को पूर्ण भक्ति रस में उस प्रकार लिखा ताकि समाज में श्रीराम के प्रति आस्था कम ना हो पाए। 

तो रामचरितमानस अपने युग में पूर्ण प्रासंगिक थी किन्तु हाँ, यदि सत्य जानना हो तो हमें वाल्मीकि रामायण पढ़ना ही चाहिए। आज की पीढ़ी के लिए ये बहुत आवश्यक है कि वो हमारे मूल धर्मग्रंथों का अध्ययन करे अन्यथा इसी प्रकार भ्रमित होते रहेंगे। जय श्रीराम।

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ज्ञान क्या है? 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ईश्वर के अनन्त प्रेम के स्त्रोत से अटूट जुड़ाव का लगातार प्रयास व अहसास करना ताकि उपरोक्त लक्षण हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बन सके।श्रीकृष्ण के सतत-स्मरण से अर्जित प्रबोध-सुधाकर (दिव्य आलोक के परम सत्य) में निरन्तर शान्तचित्त रहनाकोई भगवत्सम्बन्धी गीत व भजन के गान अथवा बाँसुरी (वाद्ययन्त्र द्वारा राग) बजाने या सुनने पर हृदय में एक ही समय में एक साथ आनन्द का आविर्भाव और सात्त्विक भावों का प्रौढ़ उद्रेक हो जाना।जीवात्मा मन के पूर्वाग्रही अज्ञान (संस्कारों के आवरणों) से मलीन है। जीवात्मा का स्वयं के दिव्य स्वरूप (आत्मा पर) प्रेमपूर्वक सतत ध्यान करने पर प्राप्त होने वाले दिव्य ज्ञान से वह पुनः निर्मल होती है आत्मज्ञान के ज्ञानाभ्यास से अपने आप अज्ञान का नाश हो जाता है जैसे सोते समय स्वप्न सच्चा सा मालूम होता है और जागने के बाद झूठा लगता है, वैसे ही अज्ञान व मलिन दशा में संसार सच्चा व ज्ञान होने तथा जानने पर झूठा लगने लगता है।श्री आदि शंकराचार्य जी आत्मबोध के श्लोक 32 से 34 में कहते हैं:जन्म, बुढ़ापा, दुबला-मोटा होना, रोग, मृत्यु आदि सिर्फ़ देह में है, आत्मा में नहीं है। आत्मा उनसे अन्य (सूक्ष्म दिव्य शरीर) है और बिना इन्द्रियवाला है। इससे शब्द, स्पर्श, स्वाद आदि विषयों का संग भी नहीं है। और बिना मन वाला होने से राग, द्वेष, दुःख, भय आदि भी आत्मा में नहीं है ॥32॥इस आत्मा से प्राण, मन व सब इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, अग्नि, जल और संसार को धारण करनेवाली पृथ्वी उत्पन्न होती है ॥33॥आत्मा सत्, रज, तम गुणों से रहित, सदैव रहनेवाला, जाना-आना आदि क्रिया से रहित, संकल्प विकल्प से रहित, माया के दोषों से रहित; तथा सभी षट् विकारों: जन्म, शरीर-वृद्धि, बाल्यावस्था, प्रौढ़ता, वार्द्धक्य, व मृत्यु; तथा काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अरू (ज़ख़्म, रोग), व मत्सर (ईर्ष्या-द्वेष) से रहित, निराकार, सदा मुक्तस्वरूप निर्मल है ॥34॥श्री आदि शंकराचार्य जी के अनुसार:अन्तःकरण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी के चरणकमलों की भक्ति के बिना कभी शुद्ध नहीं हो सकता। जैसे वस्त्र को खारयुक्त जल से शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार चित्त को भक्ति से निर्मल किया जा सकता है ।बाइबल में सेंट थियोडोरोस कहते हैं: "इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता जिसकी पिता स्वरूप प्रभु ने इतनी अच्छी तरह से पुष्टि की है, कि मनुष्य को मन में लगातार केवल इस विचार को बनाये रखने के अलावा कहीं और आराम नहीं मिलता है कि उसके हृदय के भीतर बसे (आराध्य) परमात्मा और वह (उपासक आत्मा) अकेले मौजूद हैं; और इसलिए वह अपनी बुद्धि को संसार की किसी भी अन्य चीज के लिए बिल्कुल भी भटकने नहीं देता है; बल्कि वह पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए तरसता है, सिर्फ़ उसके लिए। केवल ऐसे व्यक्ति को ही सच्चा सुख व आराम मिलेगा और अनगिनत कामनाओं के निर्मम जुनून से मुक्ति मिलेगी।” (द फिलोकलिया v.II. p. 34, 91)हमारे मन व बुद्धि जब दिव्य संतों के वचनों से प्रभावित होते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि जब कोई मनुष्य पूर्ण परमात्मा (सर्वज्ञाता, सर्वोपरि व सर्वव्यापक) को जानता है तो ऐसा कुछ भी शेष नहीं रह जाता है जो उसे वास्तव में जानने की आवश्यकता हो। क्योंकि पूर्ण परमात्मा को जानने का अर्थ है सब कुछ जान लेना।इसलिए, सच्चा ज्ञान खुद को (हृदय की नितांत गहराइयों में स्वयं को खो देने के पश्चात) प्रेम व भक्तिसागर की रहस्यमय असीम शांति में डूबाने पर ही प्राप्त होता है।इस प्रकार, जब मनुष्य को अपने भीतर ईश्वर का पूर्ण ज्ञान होता है, तो उसकी बुद्धि को ज्ञान की तलाश में नहीं भागना पढ़ता।और जब किसी व्यक्ति के पास ऐसा विवेक (अंतर्ज्ञान) हो अर्थात् विश्लेणात्मक तर्क के बिना सीधे अनन्त दिव्य ज्ञान के स्तोत्र से जानने की क्षमता हो; जब कोई इस तरह के अतुलनीय दिव्य ज्ञान का अधिकारी हो जाता तो कुछ भी ओर जानना बेमानी हो जाता है।जब तक किसी व्यक्ति का मन चंचल है; उसके मन में विचार दौड़ते रहते है, तो वह इस बात का प्रतीक है कि उसने अभी तक अपरिहार्य रूप से अपने उत्कृष्ट आत्मिक पहलुओं या स्वयं के उच्च (दिव्य) स्वभाव में बसना यानि अपनी आत्मा में आराम करना नहीं सीखा है।सेंट मैक्सिमोस इस तर्क को स्पष्ट करते हुए कहते हैं: “एक व्यक्ति का मन व बुद्धि जब अपने शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करके स्वयं को मुक्त कर लेती है तो उसे खुशी और दर्द का अनुभव नहीं होता है, पर मनुष्य ऐसा तब कर पाता है जब वह अपने मन व बुद्धि को परमात्मा से बांधता है या एकजुट कर लेता है; उस पूर्ण परमात्मा को चाहता है जो प्यार, लगाव व इच्छा का वास्तविक लक्ष्य व सर्वश्रेष्ठ सुपात्र है।“ (द फिलोकलिया (The Philokalia) v.II, p.175, 54)निस्वार्थ प्रेम में ईश्वर की याद में मन व बुद्धि का भक्ति मे डूबे रह कर खो जाने में ईश्वरीय शांति मिली है; प्रभु श्रीकृष्ण ने भगवत गीता के अध्याय 2:58 के चिंतनशील मणि रूपी श्लोक में इस स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है:जिस प्रकार कछुवा अपने बचाव हेतु बार-बार अपने अंगो को संकुचित करके अपने खोल के भीतर कर लेता है, उसी तरह योगी, भक्त या आत्मसिद्ध व्यक्ति अपने मन व इन्द्रियों (ध्यान) को भक्तिभाव द्वारा इन्द्रियविषयों से खीँच कर पूर्ण ब्रह्मा की पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर कर लेता है |तात्पर्यः अधिकांश व्यक्ति अपनी इन्द्रियों व मन के दास बने रहते हैं और इन्द्रियों के ही कहने पर चलते हैं। इन्द्रियों की तुलना विषैले सर्पों से की गई है; मानव का मन व इन्द्रियाँ सदैव अत्यन्त स्वतंत्रतापूर्वक तथा बिना किसी नियन्त्रण के कर्म करना चाहती हैं। योगी या भक्त का इन सर्पों को वश में करने के लिए, ईश्वर भक्ति की धुन में अत्यन्त प्रबल होना अति आवश्यक है। वह उन्हें कभी भी कार्य करने की छूट नहीं देता।जैसे कछुआ किसी भी समय अपने अंग समेट लेता है उसी तरह भक्त (ज्ञानी) परमात्मा के स्मरण में अपने मन व सभी इंद्रियों को इंद्रियों के आनंद के आकर्षण से तुरंत वापस खींच लेता है। और पुनः वह विशिष्ट उद्देश्यों से आवश्यकतानुसार उन्हें प्रकट कर लेता है तभी वह सदा कृष्णभावनामृत में स्थिर रह पाता है। (BG-Ch-2, V-58)http://vnita40.blogspot.com/2022/08/19-yoga-for-knee-pain-how-yogasana.htmlगलातियनस (Galatians) 5:24 के अनुसार: "वे सभी जो ईसा मसीह (ईश्वर/God) के हैं, उनसे सच्चा प्रेम करते हैं उन्होंने अपने निम्न स्वयं के साथ, अपने सभी जुनूनों और इच्छाओं को क्रूस पर चढ़ाया है।"गलातियनस 3:28 कहता है: "कोई यहूदी या ग्रीक नहीं है; कोई गुलाम या स्वतंत्र नहीं है; न ही कोई पुरुष या महिला है - क्योंकि सभी यीशु मसीह में एक है; वे सभी एक परमात्मा का (समानुरूप से) अभिन्न अंश हैं।”बाइबल के 11:24 में सेंट ल्यूक ने बड़ी ख़ूबसूरती से कहा है: "जब कोई (संस्कारों के आवरणों से ढकी) अशुद्ध प्यासी आत्मा मन के ज़रिए शान्ति व सुकून की तलाश में बाहर झांकती है तो उसे भौतिक जगत में कहीं भी दिव्यता का पवित्र जल नहीं मिलता, उसे जलरहित देशों से गुजरना पढ़ता है; वह चिरस्थायी आराम करने के लिए जगह तलाशती रहती है, और जब उसे कहीं भी शान्ति, सूकून व आराम नहीं मिलता है तो आखिरकार वह निर्णय लेती है कि मैं अपने घर वापस जाउगी जहां से मैं आयी हूँ।”इफिसियों (Ephesians) 4: 22-24 में कहा गया है कि: “हमें अपने पुराने स्व को (अर्थात अपनी पुरानी सोच व पूर्वाग्रहों को, पुरानी आदतों, पसन्द-नापसंदों आदि को) सदा अलग रखना चाहिये, क्योंकि वह हमारे पुराने (पिछले जन्मों के) तरीकों से संबंधित है और वह पुरानी भ्रामक इच्छाओं व धारणाओं का पालन करके भ्रष्ट हो चुकी है। तथा वह केवल हमारे मन का आत्मा पर ध्यान व लगाव करने से नवीनीकृत होती हैं; केवल तभी मनुष्य अपने (निम्न) स्वयं को परिवर्तित कर पुनः (उच्च) दिव्य मानव में ढाल सकता है। — मानव की वह उच्चतम दिव्य अवस्था जो परमेश्वर के दिव्य सनातनी सिद्धांतों पर, सत्य की पवित्रता व सार्वभौमिक न्याय पर अवधारित होती है।”श्री आदि शंकराचार्य जी ने आत्मबोध में बताया है कि ऐसी प्रतिदिन की अभ्यासवाली यह वासना कि मैं ब्रह्म ही हूँ अज्ञान के विक्षेपों को दूर करती है जैसे रसायन रोगों को ॥37॥ एकान्त स्थान में आसन पर बैठ वैराग्यवान् व जितेन्द्रिय हो एकाग्रचित्त कर उस अनन्त अद्वितीय परमात्मा का ध्यान करे ॥38॥वे आगे लिखते हैं कि: सुन्दर बुद्धिवाला ज्ञानी पुरुष अंतर्दृष्टि वाली बुद्धि से सब देखते हुए संसार को आत्मा में ही लीन करके सदा निर्मल आकाश की तरह एक परमात्मा का ही ध्यान करता है ॥39॥ आत्मज्ञानी पुरुष सब नामवर्ण (self-identity) आदि छोड़के पूरे चैतन्यानन्द रूप से रहता है ॥40॥श्री आदि शंकराचार्य जी कहते हैं कि: ज्ञानी व्यक्ति बाहर के झूठे सुखों का लगाव छोड़ आत्मसुख से युक्त अपने अंतस में ही घड़े में रक्खे दीपक की तरह साफ प्रकाशता है ॥51॥ सब कुछ जानता हुआ भी योगी पुरूष अज्ञानी की तरह रहता है और बिना लगाव के वायु की तरह आचरण करता है ॥52॥ईश्वरीय मनन में रहने वाला ज्ञानी व योगी उपाधियों से अलगाव बनाये रख कर भगवान् में पूरी रीति से लीन होता है जैसे जल में जल प्रकाश में प्रकाश और अग्नि में अग्नि ॥53॥ जिस आत्म लाभ से अधिक दूसरा लाभ नहीं जिस सुख से अधिक दूसरा सुख नहीं जिस ज्ञान से अधिक दूसरा ज्ञान नहीं वही ब्रह्मा है ऐसा विचार अपने मन व हृदय में बनाये रखता है ॥54॥अंत में श्री आदि शंकराचार्य जी कहते हैं कि: आत्मा ज्ञानरूपी सूर्य है। आकाशरूपी हृदय में उदय हो अन्धकाररूपी अज्ञान को दूर कर सबमें व्याप्त होकर सबको धारण करते व सबको प्रकाशित करते सुशोभित होता है ॥67॥जो विचार त्यागी पुरूष स्थान समय आदि को बिना देखे शीत उष्ण आदि के दूर करनेवाले सबमें रहने वाले माया रहित नित्य आनन्दरूप अपने आत्मतीर्थ को सेवन करता है वह सबकुछ जाननेवाला, सबमें रहता हुआ मुक्त होता है ॥68॥निष्कर्ष रूप में ज्ञान को शाब्दिक रूप में व्यक्त करना कठिन है चूँकि ज्ञान अनुभव से प्राप्त होता है अतः उसका व्यवहारिक रूप से ही प्रकटीकरण हो सकता है।अतः ज्ञान का अर्थ हुआ: मन, इन्द्रियों और शरीर द्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित होना।तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दन परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दन वासुदेव (पूर्ण परमात्मा) के सिवाय हृदय व मन में अन्य किसी के भी होनेपन का भाव न रहना।तथा श्रद्धा व भक्तिपूर्वक मन, वाणी और शरीर सब प्रकार से ईश्वर के शरण होकर; गृहस्थाश्रम में ही रहते हुए, निम्नलिखित तरीक़े से प्रेमपूर्वक निरन्तर पूर्ण परमात्मा का “सतत स्मरण” करना तथा उनके दिव्य गुणों और दिव्य स्वरूप को प्रभावसहित अपने आचरण में उतारना। ⤵️http://vnitak.blogspot.com/2022/08/check-this-post-from.htmlईश्वर करे आपका जीवन दिव्य प्रेम, ज्ञान, शान्ति व परमानन्द से भर जाये! आमीन! आमीन! आमीन!

ज्ञान क्या है? By वनिता कासनियां पंजाब वेद, उपनिषद, गीता, श्री आदि शंकराचार्य जी, प्रभु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, गुरू नानक देव जी, संत कबीरदास जी, प्रभु जीसस क्राइस्, प्रभु   गौतमबुद्ध जी व सम्पूर्ण विश्व के  धर्मों का सार  यही कहता हैं कि  ज्ञानी  व्यक्ति या  स्थितप्रज्ञा  की अवस्था वाले व्यक्ति में यह सभी  सूक्ष्म लक्षण  होते हैं: ⤵️ कर्तव्य निभाने   से सम्बंधित लक्षण: प्रतिदिन जितना सम्भव हो सके परमात्मा के प्रति ध्यान-उपासना का निरन्तर एकान्त में भक्ति व प्रेमपूर्वक अभ्यास गृहस्थ जीवन व जीविका अर्जित के सभी कार्यों को सदैव पूर्ण ब्रह्मा की प्रेमभरी सतत याद में डूबे रह कर (जितना सम्भव हो सके) एकान्त में, सेवा भाव में तत्पर रहते हुए निभाना सदा सत्य बोलने का साहस होना समस्त प्राणियों में पूर्ण परमात्मा श्रीकृष्ण को वर्तमान जानना और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति अद्रोह का भाव रखना। [ईशवर की भक्ति व प्रेम से हृदय (आत्मा) पर लगातार ध्यान साधना से समस्त प्राणियों के प्रति स्वतः ही मन में संवेदना, दया व करूणा उत्पन्न हो जाती है।] स...