चलिए, तो अंततः शम्बूक के विषय मे प्रश्न भी आ ही गया। जिसने पूछा है उसका हार्दिक धन्यवाद क्योंकि ऐसे प्रश्नों की वास्तविकता जानना जनमानस के लिए अत्यधिक आवश्यक है। किन्तु मेरी एक प्रार्थना है कि इस उत्तर को पढ़ते समय अपने पूर्वाग्रह को अलग रख दें क्योंकि पूर्वाग्रह के साथ तथ्यों को सही ढंग से नही समझा जा सकता। आइये अब इसे समझने का प्रयास करते हैं।
वैसे तो आपके प्रश्न का उत्तर केवल एक वाक्य में दिया जा सकता है कि वास्तव में शम्बूक नामक कोई चरित्र मूल वाल्मीकि रामायण में है ही नही।
यहाँ ध्यान दें कि मैंने "वाल्मीकि रामायण" की बात की है। आज वर्तमान में रामायण के दो संस्करण उपलब्ध है - एक महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित और एक कलयुगी वाल्मीकियों द्वारा रचित। दुख की बात ये है कि कलियुगी वाल्मीकि रामायण ही आज अधिक प्रचलन में है। पहले महर्षि वाल्मीकि की रामायण समझते हैं, फिर आज की कलियुगी रामायण का इतिहास अच्छे से समझ आ जाएगा।
एक बात को अच्छे से समझ लें कि मूल एवं वास्तविक वाल्मीकि रामायण में केवल 6 खंड ही थे - बाल कांड, अयोध्या कांड, अरण्य कांड, किष्किंधा कांड, सुंदर कांड एवं लंका (युद्ध) कांड। युद्ध कांड में श्रीराम के राज्याभिषेक के साथ ही महर्षि वाल्मीकि ने रामायण का समापन कर दिया। यही कारण है कि जब तुलसीदास जी ने रामचरितमानस लिखी तो उन्होंने भी उसमें केवल इन्ही छः कांडों का समावेश किया। अन्यथा ऐसा कोई कारण नही था कि अगर वाल्मीकि रामायण में 7 खंड होते तो तुलसीदास रामचरितमानस में केवल एक खंड को छोड़ देते।
इन 6 कांडों की विशेषता ये है कि महर्षि वाल्मीकि ने इसे श्रीराम के जन्म लेने के पहले ही लिख दिया था। इसके अतिरिक्त यही राम कथा महादेव ने माता पार्वती को अमरनाथ की गुफा में पहले ही सुना दी थी। ब्रह्मा जी की कृपा से महर्षि वाल्मीकि त्रिकालदर्शी बनें और उन्हें भविष्य में होने वाली घटना का पूर्ण ज्ञान हो गया। यही कारण है कि इन 6 कांडों में महर्षि वाल्मीकि की स्वयं की उपस्थिति नही है।
लंका युद्ध के समय जब गरुड़ ने श्रीराम और लक्ष्मण को नागपाश से मुक्त कराया तो उन्हें श्रीराम के विष्णु अवतार होने पर संदेह हो गया। तब भगवान शंकर की आज्ञा पर काकभुशुण्डि ने उनका संदेह दूर किया जो 11 बार रामायण और 16 बार महाभारत होता देख चुके थे। गरुड़ और काकभुशुण्डि के बीच का जो अत्यंत सुंदर संवाद हुआ, चूंकि वो श्रीराम और वाल्मीकि रामायण से ही संबंधित था, इसीलिए वो "उत्तर रामायण" के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
यहाँ ध्यान दें कि मैंने "उत्तर रामायण" कहा है, "उत्तर कांड" नही। इन दोनों में बहुत अंतर है। उत्तर रामायण में गरुड़ और काकभुशुण्डि का संवाद है इसीलिए ये महर्षि वाल्मीकि की मूल रचना नही मानी जाती। इसीलिए जब आप महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित मूल रामायण के पहले 6 कांड पढ़ेंगे तो पाएंगे कि उन 6 कांड और उत्तर रामायण की लेखनी में जमीन आसमान का अंतर है। इसके अतिरिक्त रामायण के पहले 6 कांड महाकाव्य (पद्य) के रूप में है किंतु उत्तर रामायण गद्य के रूप में। अगर महर्षि वाल्मीकि ने इसे लिखा होता तो वो भी पद्य के रूप में ही होता।
बहुत आगे चलकर, अगर मैं गलत नही हूँ तो केवल 200 वर्ष पूर्व इसी उत्तर रामायण को "उत्तर कांड" का नाम देकर रामायण और रामचरितमानस में ही जोड़ दिया गया। यहाँ तक भी ठीक था क्योंकि उत्तर रामायण में ऐसा कुछ भी नही जो आपत्तिजनक हो। किन्तु उसी समय उस कलियुगी रामायण की नींव पड़ी जिसमें जान बूझ कर श्रीराम का चरित्र हनन किया गया। आइये अब उसके बारे मे समझते हैं किंतु एक बात सदैव स्मरण रखें कि -
उत्तर कांड ना महर्षि वाल्मीकि की रचना है और ना ही ये कभी मूल रामायण का भाग था।
भारत पर मुस्लिमों ने आक्रमण किया, बार बार किया। उनका एकमात्र उद्देश्य भारत की संपदा को लूटना था। वे बर्बर तो थे किंतु दिमाग से पैदल थे। फिर अंग्रेज आये, उनकी सामरिक शक्ति इतनी अधिक नही थी कि वे 30 करोड़ (उस समय की आबादी) के देश पर जबरन अधिक दिनों तक शासन कर पाते। किन्तु वे घाघ और चतुर थे। उन्होंने दो ऐसे कार्य किये जिससे भारत अंदर से टूट गया और उन्हें राज करने में आसानी हुई।
- उन्होंने भारत की सदियों पुरानी गुरु-शिष्य परंपरा को समाप्त किया। मैकाले के इसी कार्य के लिए लगाया गया जिसने भारत की पूरी शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद कर दिया। आजादी के बाद पाकिस्तान समर्थक मौलाना अबुल कलाम आजाद को पहला शिक्षा मंत्री बन दिया गया जिसने रही सही कसर पूरी कर दी।
- हिन्दू धर्म की अतिप्राचीन वर्ण व्यवस्था को जातिप्रथा के रूप में प्रचारित किया गया ताकि हिन्दू धर्म मे आपसी फूट पड़ जाए। अंग्रेजों का ये षडयंत्र इतना कारगर रहा कि पेरियार और अम्बेडकर जैसे व्यक्ति भी इसमें फस गए। इसके विषय मे एक विस्तृत उत्तर मैंने अलग से लिखा है, आप उसे पढ़ सकते हैं ताकि वर्ण और जाति[1] का अंतर आपको समझ आ जाये
रामायण तो ऐसी है जिसने सहस्त्रों वर्षों से हिन्दू समाज को जोड़े रखा। हिन्दू तो हिन्दू, स्वयं "राष्ट्रवादी मुस्लिम" समुदाय भी उसका अध्ययन करता था। अंग्रेजों ने जब ये देख तो उन्होंने हिन्दू धर्म मे आपसी फूट पड़वाने के लिए जान बूझ कर ऐसे प्रसंग रामायण में डलवाये जिससे दलित समाज उसे अपने विरुद्ध समझने लगे। यही वो काल था जब उत्तर रामायण को उत्तर कांड के रूप में वाल्मीकि रामायण में जोड़ा गया जिससे कांडों की कुल संख्या 7 हो गयी और वो आज तक चली आ रही है।
लेकिन कहते हैं ना कि नकल के लिए अकल की आवश्यकता होती है, वो उनमें नही थी। उन्होंने सभी बकवास और मनगढंत चीजें उत्तर कांड में जोड़ दी। शम्बूक वध, देवी सीता की अग्नि परीक्षा, धोबी के लांछन पर देवी सीता का त्याग, लव-कुश को अपना पुत्र मानने पर शंशय सब इसी में भरा पड़ा है। और यहाँ पर जी नही भरा तो माता सीता द्वारा धरती में समाहित होने से पहले श्रीराम को उनके द्वारा ही खरी-खोटी तक सुनवा दी। इन सब का ध्येय केवल श्रीराम को स्त्री और दलित विरोधी दिखाना है। किन्तु अगर आप ध्यान से देखें तो रामायण के अन्य 6 कांड और उत्तर कांड की भाषा और लेखन शैली में स्पष्ट अंतर दिख जाएगा। ऐसा इसीलिए क्योंकि इसे महर्षि वाल्मीकि ने लिखा ही नही है।
अगर आपको किसी भी पुस्तक में कुछ अनर्गल बातें थोपनी हो तो कहाँ लिखेंगे? आरम्भ में तो लिख नही सकते हैं क्योंकि वो कथा पहले ही जनमानस में प्रचलित है। अंत मे ही लिखेंगे ना? शम्बूक वध के साथ भी कुछ ऐसा ही है। ये कथा (कलयुगी) उत्तरकांड के सबसे अंत मे 76वें सर्ग में लिखी गयी है। साथ ही ये भी निश्चित है कि जिसने भी इसे जोड़ा है उसे रामायण का पूरा ज्ञान नही था। कैसे? आइये देखते हैं।
- इसमें शम्बूक को शुद्र जाति का बताया है जबकि उस समय जाति नही वर्ण था। वर्ण प्राचीन है जबकि जाति अभी कुछ शताब्दियों पूर्व ही घुसेड़ी गयी है। महर्षि वाल्मीकि स्वयं शुद्र वर्ण के थे और उन्होंने रामायण में इस बात का वर्णन किया है कि जन्म से कोई ब्राह्मण या शूद्र नही होता बल्कि कर्म से होता है। इसके लिए आप मेरा वर्ण व्यवस्था वाला उत्तर पढ़ सकते हैं।
- इसके अतिरिक्त शम्बूक के विषय मे लिख दिया गया है कि "श्रीराम पुष्पक विमान पर चढ़ कर बहुत काल तक उसे खोजते रहे।" लिखने वाले को ये पता नही था कि वाल्मीकि रामायण के लंका कांड में ये साफ लिखा हुआ है कि श्रीराम के कहने पर विभीषण ने श्रीराम के राज्याभिषेक के पश्चात पुष्पक विमान उसके वास्तविक स्वामी कुबेर को लौटा दिया था।
- स्वामी दयानंद सरस्वती ने शम्बूक वध के झूठ की परते उधेड़ने वाला एक लेख 1876 में लिखा था जिसमें वाल्मीकि रामायण के प्रामाणिक श्लोकों द्वारा इस झूठ से पर्दा उठाया गया था। उसी लेख के आधार पर नरेंद्र कोहली जी ने भी शम्बूक वध नामक एक नाटक लिखा है।
आप स्वयं सोचिये:
- जो श्रीराम जन्म से शुद्र महर्षि वाल्मीकि के सामने सर नवाते हों, जो श्रीराम निषादराज गुह को अपने चरणों से उठा कर अपने हृदय से लगाते हों, जो श्रीराम वानरों और रीछों के समुदाय को अपने समकक्ष बिठाते हों, जो श्रीराम एक राक्षस विभीषण को भी शरण देते हों, जो श्रीराम एक भीलनी शबरी के जूठे बेर तक प्रेम पूर्वक खा लेते हों, क्या आपको लगता है कि वही श्रीराम एक शुद्र को केवल इसलिए मार देंगे क्योंकि वो वेदपाठी था? कितनी मूर्खतापूर्ण बात है। इस तर्क के आधार पर तो उन्हें महर्षि वाल्मीकि को भी मार देना चाहिए था।
- जो श्रीराम देवी सीता को प्राप्त करने के लिए महान उद्योग कर महादेव का पिनाक भंग करते हैं, अपनी पत्नी के बिछोह में "हा सीते…" कहते हुए वन वन भटकते हैं, जिन्होंने अपनी पत्नी के लिए 100 योजन समुद्र पर सेतु बांध दिया हो, जो श्रीराम अपनी पत्नी को वापस पाने के लिए वानर भालुओं की सेना इकट्ठा कर एक महाराक्षस से जा भिड़ते हैं, जो श्रीराम स्वयं अग्निदेव से अपनी प्रिय पत्नी को प्राप्त करते हैं, क्या आपको लगता है कि वही श्रीराम एक मूढ़ व्यक्ति के कहने पर अपनी पत्नी का त्याग कर देंगे?
- जो स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, जिन्होंने कठिन से कठिन समय में भी अपना धैर्य और धर्म नही छोड़ा, जिनके ज्ञान का कोई पार नही है और जिनके ज्ञान और जीवन से महर्षि वशिष्ठ, विश्वामित्र, परशुराम एवं वाल्मीकि जैसे विद्वान शिक्षा लेते हैं और जिसे मनुष्य तो मनुष्य, एक पशु के भी अधिकारों की चिंता हो, क्या आपको लगता है कि ऐसे श्रीराम अपनी गर्भवती पत्नी के अधिकारों की चिंता नही करेंगे?
- जो अपने पति के साथ वन जाने के लिए सारे जग से लड़ पड़ी हो, जिन्होंने राजकुमारी होकर भी 13 वर्ष वन में हंसते हुए निकाल दिए, अंतिम 1 वर्ष में जिन्होंने अकल्पनीय दुख भोगा हो, जो महावीर हनुमान के साथ केवल इसलिए लंका से नही गयी क्योंकि इससे उनके पति का यश कम होगा, इतने कष्टों के बाद भी जिनका मुख मलिन तक ना हुआ हो, क्या आपको लगता है कि वो माता सीता अंत समय मे अपने पति के विरुद्ध बोलेंगी?
- रामायण में एक प्रसंग आता है कि जब मंथरा ने सीता माँ को वल्कल वस्त्र दिए तो उन्हें उसे पहनना नही आया। तब श्रीराम स्वयं अपने हाथों से वो वल्कल वस्त्र अपनी पत्नी को पहनाते हैं। क्या आपको लगता है कि ऐसे श्रीराम को देवी सीता, जिनका स्थान सतियों में श्रेष्ठ है, के चरित्र पर कभी संदेह होगा?
सीता को पाने के लिए राम बनना पड़ता है और राम को पाने के लिए सीता।
इन दोनों में लेश मात्र भी अंतर नही है। हम और आप जैसे कलयुगी व्यक्ति तो खैर श्रीराम और माता सीता की महिमा को क्या समझ पाएंगे? इसीलिए पुराने समय से चले आ रहे इस असत्य, पाखंड और षडयंत्र को समझिये और इससे दूर रहिये। उत्तर रामायण अगर पढ़ना ही है तो उसमें समाहित गरुड़ और काकभुशुण्डि के वास्तविक वार्तालाप और घटनाओं को पढिये।
अंत मे चलते चलते यही कहूंगा कि अगर शम्बूक वध और इस जैसे मनगढंत प्रसंग सत्य होते तो ये केवल और केवल आज कल के मूर्ख वामपंथी इतिहासकारों के द्वारा ही क्यों बताया जाता? क्यों नही ये प्रसंग गीताप्रेस जैसे उत्कृष्ट प्रकाशन की पुस्तकों में कभी भी लिखा गया है? इसलिए, इन वामपंथी सर्पों से दूर रहें और जाति भेद को भुला कर अपने धर्म को मजबूती से पकड़े रहें।
जय श्रीराम। 🚩
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