रामायण में शबरी के गुरु कौन थे? By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब“भिलनी परम तपस्विनी, शबरी जाको नाम। गुरु ‘मतंग’ कहकर गये, तोहि मिलेंगे राम।।”१- माता शबरी जयंती फाल्गुन माह कृष्ण पक्ष की दूज के दिन मनाई जाती हैं। इस वर्ष शबरी जयंती २५ फरवरी २०१९, दिन सोमवार को मनाई जाएगी।२- माता शबरी बचपन से ही भगवान राम की भक्त थीं।३- पशुओं की जान बचाने के लिए शबरी ने विवाह नहीं किया।४- माता शबरी के गुरू मतंग ऋषि थे।५- माता शबरी ने भगवान राम को जूठे बेर खिलाये थे। इसका प्रसंग रामायण, भागवत पुराण, रामचरितमानस, सूरसागर, साकेत जैसे ग्रंथों में मिलता है।माता शबरी का उल्लेख रामायण में भगवान श्रीराम के वन-गमन के समय मिलता है। शबरी को श्री राम के प्रमुख भक्तों में गिना जाता है। अपनी वृद्धावस्था में शबरी हमेशा श्री राम के आने की प्रतीक्षा करती रहती थी। राम उसकी कुटिया में आयेंगे, इसी बात को ध्यान में रखते हुए वह अपनी कुटिया को सदैव साफ-सुथरा रखा करती थी। गुरू मतंग का वचन कि 'श्रीराम आयेंगे', ये वाणी सदा ही उसके कानों में गूँजा करती थी। सीताजी की खोज करते हुए जब राम और लक्ष्मण शबरी की कुटिया में आये, तब शबरी ने बेर खिलाकर उनका आदर-सत्कार किया। यह सोचकर कि बेर खट्टे और कड़वे तो नहीं हैं, इसीलिए पहले वह स्वयं बेर चखकर देखती और फिर राम और लक्ष्मण को खाने को देती। माता शबरी इतनी भाव-विभोर हो गयी कि उन्हें यह भी ध्यान न रहा कि वो श्रीराम को जूठे बेर खिला रही हैं और श्रीराम उस बेर के स्वाद बखान बखानकर खाये जा रहे थे। लक्ष्मणजी ने टोका तो श्रीराम ने कहा कि प्रेमासिक्त सुस्वाद फल तुम भी खाओ अनुज यह तो ऐसा अनुभव करा रहे जैसे माँ कौसल्या स्वयं उन्हें भोजन करा रही हों। ऐसे ही भाव विभोर होकर महात्मा विदुर की पत्नी ने श्रीकृष्ण को केला का छिलका खिलायी थीं। विदुरजी ने देखा तो बोले अरे भाग्यवान् क्या कर रही हो? तब श्रीकृष्ण ने कहा कि जो मिठास केले के छिलके में था वह इस केले में कहा? इसीलिए लोग गाते हैं -बाल वनिता महिला आश्रम“ सबसे उँचो प्रेम सगाई, प्रेम के बल पारथ रथ हाँक्यो ;भूल गये है ठकुराई, सबसे उँचो प्रेम सगायी।दुर्योधन घर सेवा त्यागो, साग विदुर घर खायी;शबरी कै जूठन खायो, बहु बिधि स्वाद बतायी;सबसे उँचो…।”शबरी की इस सच्ची भक्ति, निष्ठा और सहृदयता से राम ने उसे अपनी अविरल भक्ति का वरदान दिया। स्वयं को योगाग्नि में भस्म करके शबरी सदा के लिये श्री राम के चरणों में लीन हो गयी।परिचयशबरी का वास्तविक नाम 'श्रमणा' था और वह भील समुदाय की 'शबरी' जाति से संबंध रखती थी। शबरी के पिता भीलों के राजा थे। शबरी जब विवाह के योग्य हुई तो उसके पिता ने एक दूसरे भील कुमार से उसका विवाह पक्का किया। विवाह के दिन निकट आये। सैकडों बकरे-भैंसे बलिदान के लिये इकट्ठे किये गये। इस पर शबरी ने अपने पिता से पूछा- 'ये सब जानवर क्यों इकट्ठे किये गये हैं?' पिता ने कहा- 'तुम्हारे विवाह के उपलक्ष में इन सब की बलि दी जायेगी।' यह सुनकर बालिका शबरी का मन करुणा से भर गया चकराने और सोचने लगी कि यह किस प्रकार का विवाह है, जिसमें इतने प्राणियों का वध होगा। इससे तो विवाह न करना ही अच्छा है। ऐसा सोचकर वह रात्रि में उठकर जंगल में भाग गई।मतंग का आश्रयदंडकारण्य में हज़ारों ऋषि-मुनि तपस्या किया करते थे। शबरी हीन जाति की अशिक्षित बालिका थी। उसमें संसार की दृष्टि में भजन करने योग्य कोई गुण नहीं था, किन्तु उसके हृदय में प्रभु के लिये सच्ची चाह थी, जिसके होने से सभी गुण स्वत: ही आ जाते हैं। वह रात्रि में जल्दी उठकर, जिधर से ऋषि निकलते, उस रास्ते को नदी तक साफ़ करती। कँकरीली ज़मीन में बालू बिछा आती। जंगल में जाकर लकड़ी काटकर डाल आती। इन सब कामों को वह इतनी तत्परता से छिपकर करती कि कोई ऋषि देख न ले। एक दिन मतंग ऋषि ने उसे यह करते हुए देख लिया और उसे शिष्या के रूप में स्वीकार किया। महर्षि वृद्ध थे और उनका अंत निकट था। महर्षि ने उसे निकट बुलाकर समझाया- 'बेटी! धैर्य से कष्ट सहन करती हुई साधना में लगी रहना। प्रभु श्रीराम एक दिन तेरी कुटिया में अवश्य आयेंगे। प्रभु की दृष्टि में कोई दीन-हीन और अस्पृश्य नहीं है। वे तो भाव के भूखे हैं और अन्तर की प्रीति पर रीझते हैं।'मतंग ऋषि के देहावसान हो जाने के बाद माता शबरी गुरू के वचन “तोहि मिलेंगे राम” पर श्रद्धा रखकर श्रीराम की प्रतीक्षा करती रहीं और यह इंतज़ार इतना लम्बा था कि “रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी” ।प्रतीक्षा करते-करते जीवन की साँझ बेला आ गयी । 'प्रभु आयेंगे' गुरुदेव की यह वाणी उसके कानों में गूँजती रहती थी और इसी विश्वास पर वह वह नित्य भगवान के दर्शन की लालसा से अपनी कुटिया को साफ़ करती, उनके भोग के लिये फल लाकर रखती। आख़िर शबरी की प्रतीक्षा पूरी हुई।रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है। श्री राम को देखते ही वह निहाल हो गयी और उनके चरणों में लोट गयी। देह की सुध भूलकर वह श्री राम के चरणों को अपने अश्रुजल से धोने लगी। किसी तरह भगवान श्री राम ने उसे उठाया। अब वह आगे-आगे उन्हें मार्ग दिखाती अपनी कुटिया की ओर चलने लगी। कुटिया में पहुँचकर उसने भगवान का चरण धोकर उन्हें आसन पर बिठाया। फलों के दोने उनके सामने रखकर वह स्नेहसिक्त वाणी में बोली- ‘ प्रभु! मैं आपको अपने हाथों से फल खिलाऊँगी। खाओगे न भीलनी के हाथ के फल? वैसे तो नारी जाति ही अधम है और मैं तो अन्त्यज, मूढ और गँवार हूँ।' कहते-कहते शबरी की वाणी रूक गयी और उसके नेत्रों से अश्रुजल छलक पड़े।’ श्रीराम ने कहा- “ बूढ़ी माँ! ‘मानहुँ एक भगति कर नाता’ । जाति-पाति, कुल, धर्म सब मेरे सामने गौण हैं। मुझे भूख लग रही है, जल्दी से मुझे फल खिलाकर तृप्त कर दो।” शबरी भगवान को फल खिलाती जाती थी और वे बार-बार माँगकर खाते जाते थे। महर्षि मतंग की वाणी आज सत्य हो गयी और पूर्ण हो गयी शबरी की साधना। उसने भगवान को सीताजी की खोज के लिये सुग्रीव से मित्रता करने की सलाह दी और स्वयं को योगाग्नि में भस्म करके सदा के लिये श्री राम के चरणों में लीन हो गई और मोक्ष को प्राप्त किया।गाँव में गाया जाने वाला एक भजन जिसे बाद में रामानन्द सागर ने ‘रामायण’ में सुन्दर ढंग से फ़िल्माया है-“भिलनी परम तपस्विनी, शबरी जाको नाम।गुरु ‘मतंग’ कहकर गये, तोहि मिलेंगे राम।।कब दर्शन देंगे राम परम हितकारी,कब दर्शन देंगे राम दीन हितकारी;रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी,रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी।कहीं कोई काँटा प्रभु को नहीं चुभ जाए,पलकन मग झारे चुन-चुन पुष्प बिछाये;मीठे फल चखकर नित्य सजाये थारी,मीठे फल चखकर नित्य सजाये थारी;रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी,रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी।श्रीराम चरण में प्राण बसे शबरी के,प्रभु दर्शन देदो भाग जगे शबरी के;रघुनाथ प्राणनिधि पर जीवन बलिहारी,रघुनाथ प्राणनिधि पर जीवन बलिहारी;रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी,रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी।कब दर्शन देंगे, कब दर्शन देंगे,कब दर्शन देंगे राम परम हितकारी;रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी।।”
२- माता शबरी बचपन से ही भगवान राम की भक्त थीं।
३- पशुओं की जान बचाने के लिए शबरी ने विवाह नहीं किया।
४- माता शबरी के गुरू मतंग ऋषि थे।
५- माता शबरी ने भगवान राम को जूठे बेर खिलाये थे। इसका प्रसंग रामायण, भागवत पुराण, रामचरितमानस, सूरसागर, साकेत जैसे ग्रंथों में मिलता है।
माता शबरी का उल्लेख रामायण में भगवान श्रीराम के वन-गमन के समय मिलता है। शबरी को श्री राम के प्रमुख भक्तों में गिना जाता है। अपनी वृद्धावस्था में शबरी हमेशा श्री राम के आने की प्रतीक्षा करती रहती थी। राम उसकी कुटिया में आयेंगे, इसी बात को ध्यान में रखते हुए वह अपनी कुटिया को सदैव साफ-सुथरा रखा करती थी। गुरू मतंग का वचन कि 'श्रीराम आयेंगे', ये वाणी सदा ही उसके कानों में गूँजा करती थी। सीताजी की खोज करते हुए जब राम और लक्ष्मण शबरी की कुटिया में आये, तब शबरी ने बेर खिलाकर उनका आदर-सत्कार किया। यह सोचकर कि बेर खट्टे और कड़वे तो नहीं हैं, इसीलिए पहले वह स्वयं बेर चखकर देखती और फिर राम और लक्ष्मण को खाने को देती। माता शबरी इतनी भाव-विभोर हो गयी कि उन्हें यह भी ध्यान न रहा कि वो श्रीराम को जूठे बेर खिला रही हैं और श्रीराम उस बेर के स्वाद बखान बखानकर खाये जा रहे थे। लक्ष्मणजी ने टोका तो श्रीराम ने कहा कि प्रेमासिक्त सुस्वाद फल तुम भी खाओ अनुज यह तो ऐसा अनुभव करा रहे जैसे माँ कौसल्या स्वयं उन्हें भोजन करा रही हों। ऐसे ही भाव विभोर होकर महात्मा विदुर की पत्नी ने श्रीकृष्ण को केला का छिलका खिलायी थीं। विदुरजी ने देखा तो बोले अरे भाग्यवान् क्या कर रही हो? तब श्रीकृष्ण ने कहा कि जो मिठास केले के छिलके में था वह इस केले में कहा? इसीलिए लोग गाते हैं -
बाल वनिता महिला आश्रम“ सबसे उँचो प्रेम सगाई, प्रेम के बल पारथ रथ हाँक्यो ;
भूल गये है ठकुराई, सबसे उँचो प्रेम सगायी।
दुर्योधन घर सेवा त्यागो, साग विदुर घर खायी;
शबरी कै जूठन खायो, बहु बिधि स्वाद बतायी;
सबसे उँचो…।”
शबरी की इस सच्ची भक्ति, निष्ठा और सहृदयता से राम ने उसे अपनी अविरल भक्ति का वरदान दिया। स्वयं को योगाग्नि में भस्म करके शबरी सदा के लिये श्री राम के चरणों में लीन हो गयी।
परिचय
शबरी का वास्तविक नाम 'श्रमणा' था और वह भील समुदाय की 'शबरी' जाति से संबंध रखती थी। शबरी के पिता भीलों के राजा थे। शबरी जब विवाह के योग्य हुई तो उसके पिता ने एक दूसरे भील कुमार से उसका विवाह पक्का किया। विवाह के दिन निकट आये। सैकडों बकरे-भैंसे बलिदान के लिये इकट्ठे किये गये। इस पर शबरी ने अपने पिता से पूछा- 'ये सब जानवर क्यों इकट्ठे किये गये हैं?' पिता ने कहा- 'तुम्हारे विवाह के उपलक्ष में इन सब की बलि दी जायेगी।' यह सुनकर बालिका शबरी का मन करुणा से भर गया चकराने और सोचने लगी कि यह किस प्रकार का विवाह है, जिसमें इतने प्राणियों का वध होगा। इससे तो विवाह न करना ही अच्छा है। ऐसा सोचकर वह रात्रि में उठकर जंगल में भाग गई।
मतंग का आश्रय
दंडकारण्य में हज़ारों ऋषि-मुनि तपस्या किया करते थे। शबरी हीन जाति की अशिक्षित बालिका थी। उसमें संसार की दृष्टि में भजन करने योग्य कोई गुण नहीं था, किन्तु उसके हृदय में प्रभु के लिये सच्ची चाह थी, जिसके होने से सभी गुण स्वत: ही आ जाते हैं। वह रात्रि में जल्दी उठकर, जिधर से ऋषि निकलते, उस रास्ते को नदी तक साफ़ करती। कँकरीली ज़मीन में बालू बिछा आती। जंगल में जाकर लकड़ी काटकर डाल आती। इन सब कामों को वह इतनी तत्परता से छिपकर करती कि कोई ऋषि देख न ले। एक दिन मतंग ऋषि ने उसे यह करते हुए देख लिया और उसे शिष्या के रूप में स्वीकार किया। महर्षि वृद्ध थे और उनका अंत निकट था। महर्षि ने उसे निकट बुलाकर समझाया- 'बेटी! धैर्य से कष्ट सहन करती हुई साधना में लगी रहना। प्रभु श्रीराम एक दिन तेरी कुटिया में अवश्य आयेंगे। प्रभु की दृष्टि में कोई दीन-हीन और अस्पृश्य नहीं है। वे तो भाव के भूखे हैं और अन्तर की प्रीति पर रीझते हैं।'
मतंग ऋषि के देहावसान हो जाने के बाद माता शबरी गुरू के वचन “तोहि मिलेंगे राम” पर श्रद्धा रखकर श्रीराम की प्रतीक्षा करती रहीं और यह इंतज़ार इतना लम्बा था कि “रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी” ।
प्रतीक्षा करते-करते जीवन की साँझ बेला आ गयी । 'प्रभु आयेंगे' गुरुदेव की यह वाणी उसके कानों में गूँजती रहती थी और इसी विश्वास पर वह वह नित्य भगवान के दर्शन की लालसा से अपनी कुटिया को साफ़ करती, उनके भोग के लिये फल लाकर रखती। आख़िर शबरी की प्रतीक्षा पूरी हुई।
रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है। श्री राम को देखते ही वह निहाल हो गयी और उनके चरणों में लोट गयी। देह की सुध भूलकर वह श्री राम के चरणों को अपने अश्रुजल से धोने लगी। किसी तरह भगवान श्री राम ने उसे उठाया। अब वह आगे-आगे उन्हें मार्ग दिखाती अपनी कुटिया की ओर चलने लगी। कुटिया में पहुँचकर उसने भगवान का चरण धोकर उन्हें आसन पर बिठाया। फलों के दोने उनके सामने रखकर वह स्नेहसिक्त वाणी में बोली- ‘ प्रभु! मैं आपको अपने हाथों से फल खिलाऊँगी। खाओगे न भीलनी के हाथ के फल? वैसे तो नारी जाति ही अधम है और मैं तो अन्त्यज, मूढ और गँवार हूँ।' कहते-कहते शबरी की वाणी रूक गयी और उसके नेत्रों से अश्रुजल छलक पड़े।’ श्रीराम ने कहा- “ बूढ़ी माँ! ‘मानहुँ एक भगति कर नाता’ । जाति-पाति, कुल, धर्म सब मेरे सामने गौण हैं। मुझे भूख लग रही है, जल्दी से मुझे फल खिलाकर तृप्त कर दो।” शबरी भगवान को फल खिलाती जाती थी और वे बार-बार माँगकर खाते जाते थे। महर्षि मतंग की वाणी आज सत्य हो गयी और पूर्ण हो गयी शबरी की साधना। उसने भगवान को सीताजी की खोज के लिये सुग्रीव से मित्रता करने की सलाह दी और स्वयं को योगाग्नि में भस्म करके सदा के लिये श्री राम के चरणों में लीन हो गई और मोक्ष को प्राप्त किया।
गाँव में गाया जाने वाला एक भजन जिसे बाद में रामानन्द सागर ने ‘रामायण’ में सुन्दर ढंग से फ़िल्माया है-
“भिलनी परम तपस्विनी, शबरी जाको नाम।
गुरु ‘मतंग’ कहकर गये, तोहि मिलेंगे राम।।
कब दर्शन देंगे राम परम हितकारी,
कब दर्शन देंगे राम दीन हितकारी;
रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी,
रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी।
कहीं कोई काँटा प्रभु को नहीं चुभ जाए,
पलकन मग झारे चुन-चुन पुष्प बिछाये;
मीठे फल चखकर नित्य सजाये थारी,
मीठे फल चखकर नित्य सजाये थारी;
रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी,
रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी।
श्रीराम चरण में प्राण बसे शबरी के,
प्रभु दर्शन देदो भाग जगे शबरी के;
रघुनाथ प्राणनिधि पर जीवन बलिहारी,
रघुनाथ प्राणनिधि पर जीवन बलिहारी;
रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी,
रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी।
कब दर्शन देंगे, कब दर्शन देंगे,
कब दर्शन देंगे राम परम हितकारी;
रस्ता देखत शबरी की उमर गयी सारी।।”
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