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Glory of ram name Sampoorna Ramayana‘Jai Shri Ram Ram 4'Ram' is not just a name. Ram is not just two letters. Ram is the cultural heritage of India. Rama is our unity and integrity. Ram is our faith and


राम नाम कि महिमा
सम्पूर्ण रामायण

जय श्री राम राम


Ram-Nam

राम‘ सिर्फ एक नाम नहीं। राम मात्र दो अक्षर नहीं। राम हिन्दुस्तान की सांस्कृतिक विरासत है। राम हमारी की एकता और अखंडता हैं। राम हमारी आस्था और अस्मिता के सर्वोत्तम प्रतीक हैं। राम सनातन धर्म की पहचान है। राम तो प्रत्येक प्राणी में रमा हुआ हैराम चेतना और सजीवता का प्रमाण है। अगर राम नहीं तो जीवन मरा है। इस नाम में वो ताकत है कि मरा-मरा करने वाला राम-राम करने लगता है। इस नाम में वो शक्ति है जो हजारों-लाखों मंत्रों के जाप में भी नहीं है। राम का अर्थ है प्रकाश। किरण एवं आभा (कांति) जैसे शब्दों के मूल में राम है। रा’ का अर्थ है आभा (कांति) और ’ का अर्थ है मैंमेरा और मैं स्वयं। अर्थात मेरे भीतर प्रकाशमेरे ह्रदय में प्रकाश।आइए इस राम नाम की शक्ति को जानिए-


बलशालियों में बलशाली हैं राम, लेकिन राम से भी बढ़कर राम का नाम…

‘राम’ यह शब्द दिखने में जितना सुंदर है उससे कहीं महत्वपूर्ण इसका उच्चारण है। राम मात्र कहने से शरीर और मन में अलग ही तरह की प्रतिक्रिया होती है जो हमें आत्मिक शांति देती है। हजारों संतों-महात्माओं ने राम नाम जपते-जपते मोक्ष को पा लिया।

रमंति इति रामः जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है। वही राम है। राम जीवन का मूल मंत्र है।

राम मृत्यु का मंत्र नहीं, राम गति का नाम है। राम थमने-ठहरने का नाम नहीं, राम सृष्टि की निरंतरता का नाम है।

राम महादेव के आराध्य हैं। महादेव काशी में मृत्यु शय्या पर पड़े व्यक्ति (मृत व्यक्ति नहीं) को राम नाम सुनाकर भवसागर से तार देते हैं। भगवान शिव के हृदय में सदा विराजित राम भारतीय लोक जीवन के कण-कण में रमे हैं।

राम ‘महामंत्र’ है… राम नाम ही परमब्रह्म है…

अनेकानेक संतों ने निर्गुण राम को अपने आराध्य रूप में प्रतिष्ठित किया है। कबीरदासजी ने कहा है- आत्मा और राम एक है- आतम राम अवर नहिं दूजा।

राम नाम कबीर का बीज मंत्र है। रामनाम को उन्होंने “अजपा जप” (जिसका उच्चारण नही किया जाता,अपितु जो स्वास और प्रतिस्वास के गमन और आगमन से सम्पादित किया जाता है।) कहा है। यह एक चिकित्सा विज्ञान आधारित सत्य है कि हम 24 घंटों में लगभग 21,600 श्वास भीतर लेते हैं और 21,600 उच्छावास बाहर फेंकते हैं। इसका संकेत कबीरदाजी ने इस उक्ति में किया है- 

सहस्र इक्कीस छह सै धागा, निहचल नाकै पोवै।

अर्थात- मनुष्य 21,600 धागे नाक के सूक्ष्म द्वार में पिरोता रहता है। अर्थात प्रत्येक श्वास-प्रश्वास में वह राम का स्मरण करता रहता है।

भगवान राम: आदर्श व्यक्तित्व

राम सिर्फ एक नाम नहीं हैं। राम हिन्दुस्तान की सांस्कृतिक विरासत हैं राम हिन्दुओं की एकता और अखंडता का प्रतीक हैं। राम सनातन धर्म की पहचान है। लेकिन आज हिन्दु धर्म के ही कुछ लोगों ने राम को राजनीति का साधन बना दिया है। अपनी ही सांस्कृतिक विरासत पर सवाल उठाते हैं। राम के अस्तित्व का प्रमाण मांगते हैं। राम सिर्फ दो अक्षर का नाम नहीं, राम तो प्रत्येक प्राणी में रमा हुआ है, राम चेतना और सजीवता का प्रमाण है। अगर राम नहीं तो जीवन मरा है। इस नाम में वो ताकत है कि मरा-मरा करने वाला राम-राम करने लगता है। इस ना में वो शक्ति है जो हजारों-लाखों मंत्रों के जाप में भी नहीं है। आइए इस राम नाम की शक्ति को जानिए-

हिन्दू धर्म भगवान विष्णु के दशावतार (दस अवतारों) का उल्लेख है। राम भगवान विष्णु के सातवें अवतार माने जाते हैं। मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि।

राम का जीवनकाल एवं पराक्रम महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में लिखा गया है| बाद में तुलसीदास ने भी भक्ति काव्य श्री रामचरितमानस की रचनाकर राम को आदर्श पुरुष बताया। राम का जन्म त्रेतायुग में हुआ था।

भगवान राम आदर्श व्यक्तित्व के प्रतीक हैं। परिदृश्य अतीत का हो या वर्तमान का, जनमानस ने राम के आदर्शों को खूब समझा-परखा है राम का पूरा जीवन आदर्शों, संघर्षों से भरा पड़ा है। राम सिर्फ एक आदर्श पुत्र ही नहीं, आदर्श पति और भाई भी थे। भारतीय समाज में मर्यादा, आदर्श, विनय, विवेक, लोकतांत्रिक मूल्यों और संयम का नाम राम है। जो व्यक्ति संयमित, मर्यादित और संस्कारित जीवन जीता है, निःस्वार्थ भाव से उसी में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्शों की झलक परिलक्षित हो सकती है। राम के आदर्श लक्ष्मण रेखा की उस मर्यादा के समान है जो लांघी तो अनर्थ ही अनर्थ और सीमा की मर्यादा में रहे तो खुशहाल और सुरक्षित जीवन।

राम जाति वर्ग से परे हैं। नर हों या वानर, मानव हों या दानव सभी से उनका करीबी रिश्ता है। अगड़े पिछड़े सब उनके करीब हैं। निषादराज हों या सुग्रीव, शबरी हों या जटायु सभी को साथ ले चलने वाले वे देव हैं। भरत के लिए आदर्श भाई। हनुमान के लिए स्वामी। प्रजा के लिए नीतिकुशल न्यायप्रिय राजा हैं। परिवार नाम की संस्था में उन्होंने नए संस्कार जोड़े। पति पत्नी के प्रेम की नई परिभाषा दी। ऐसे वक्त जब खुद उनके पिता ने तीन विवाह किए थे। लेकिन राम ने अपनी दृष्टि सिर्फ एक महिला तक सीमित रखी। उस निगाह से किसी दूसरी महिला को कभी देखा नहीं।

वर्तमान संदर्भों में भी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के आदर्शों का जनमानस पर गहरा प्रभाव है। त्रेतायुग में भगवान श्रीराम से श्रेष्ठ कोई देवता नहीं, उनसे उत्तम कोई व्रत नहीं, कोई श्रेष्ठ योग नहीं, कोई उत्कृष्ट अनुष्ठान नहीं। उनके महान चरित्र की उच्च वृत्तियाँ जनमानस को शांति और आनंद उपलब्ध कराती हैं। संपूर्ण भारतीय समाज के जरिए एक समान आदर्श के रूप में भगवान श्रीराम को उत्तर से लेकर दक्षिण तक संपूर्ण जनमानस ने स्वीकार किया है। उनका तेजस्वी एवं पराक्रमी स्वरूप भारत की एकता का प्रत्यक्ष चित्र उपस्थित करता है।

असीम ताकत अहंकार को जन्म देती है। लेकिन अपार शक्ति के बावजूद राम संयमित हैं। वे सामाजिक हैं, लोकतांत्रिक हैं। वे मानवीय करुणा जानते हैं। वे मानते हैं- परहित सरिस धर्म नहीं भाई। स्वतंत्रता सेनानी, प्रखर समाजवादी और सम्मानित राजनीतिज्ञ डॉ. राममनोहर लोहिया कहते हैं- जब भी महात्मा गांधी ने किसी का नाम लिया तो राम का ही क्यों? कृष्ण और शिव क्यों नहीं। दरअसल राम देश की एकता के प्रतीक हैं। महात्मा गांधी ने राम के जरिए  हिन्दुस्तान के सामने एक मर्यादित तस्वीर रखी। गांधी उस राम राज्य के हिमायती थे। जहां लोकहित सर्वोपरि हो। इसीलिए लोहिया भारत मां से मांगते हैं- हे भारत माता हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो, राम का कर्म और वचन दो। 

राम का जीवन आम आदमी का जीवन है। आम आदमी की मुश्किल उनकी मुश्किल है। वे हर उस समस्या का  शिकार हुए जिन समस्याओं से आज का इंसान जूझ रहा है। बाकि देवता हर क्षण चमत्कार करते हैं। लेकिन जब राम की पत्नी का अपहरण हुआ तो उसे वापस पाने के लिए उन्होंने कोई चमत्कार नहीं किया अपितु रणनीति बनाई। लंका जाने के लिए उनकी सेना ने कोई चमत्कार नहीं किया बल्कि एक-एक पत्थर जोड़कर पुल बनाया। यह उनकी कुशल प्रबन्धक क्षमता को दिखाती है। जब राम अयोध्या से चले तो साथ में सीता और लक्ष्मण थे। जब लौटे तो पूरी सेना के साथ। एक साम्राज्य को नष्ट कर और एक साम्राज्य का निर्माण करके। 

राम अगम हैं संसार के कण-कण में विराजते हैं। सगुण भी हैं निर्गुण भी। तभी कबीर कहते हैं “निर्गुण राम जपहुं रे भाई।”

आदिकवि ने उनके संबंध में लिखा है कि वे गाम्भीर्य में उदधि (सागर) के समान और धैर्य में हिमालय के समान हैं। राम के चरित्र में पग-पग पर मर्यादा, त्याग, प्रेम और लोकव्यवहार के दर्शन होते हैं। राम ने साक्षात परमात्मा होकर भी मानव जाति को मानवता का संदेश दिया। उनका पवित्र चरित्र लोकतंत्र का प्रहरी, उत्प्रेरक और निर्माता भी है। इसीलिए तो भगवान राम के आदर्शों का जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव है और युगों-युगों तक रहेगा।

भगवान राम के आदर्श चरित्र को जानें… क्लिक करें- http://vnita22.blogspot.com/2021/05/mahabharata-by-socialist-vanita-kasaniy.html

पुराणों में राम नाम का उल्लेखr3a.jpg

स्कंद पुराण में वेद व्यास महाराज जी कहते हैं कि जो लोग राम-राम मंत्र का उच्चारण करते हैं। खाते-पीते, सोते, चलते और बैठते समय, सुख में या दुख में राम मंत्र का जाप करते हैं, उन्हें दुख, दुर्भाग्य व व्याधि का भी भय नहीं रहता। प्रभु श्रीराम सभी प्रकार के सुखों देने वाले स्वामी हैं। दीन-दुखी पर दया करने वाले कृपालु हैं।

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स्कन्दपुराण में शंकर जी पार्वती से कहते हैं कि ‘राम’ यह दो अक्षरों का मंत्र जपने पर समस्त पापों को नाश करता है-राम’ यह दो अक्षरों का मम शतकोटि मंत्रों से भी अधिक महत्वशाली है।

पद्मपुराण में राम का अर्थ होता है

रमते योगितो यास्मिन स रामः

अर्थात्- योगीजन जिसमें रमण करते हैं वही राम हैं।

पद्मपुराण में रामकथा-

पद्मपुराण की गणना संस्कृत के सर्वोत्कृष्ट चरित्रप्रधान महाकाव्यों में की जाती है। चरित्र प्रधान महाकाव्य होने के कारण यह पुराण काव्य की अनुपम धरोहर है। काव्य लालित्य इस पुराण का प्राण है जिसमें कवित्व बीज प्रस्फुटित होकर प्रयोजन की सिद्धि में सहायक है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम की मान्यता श्रेष्ठ शलाका पुरुषों में है। राम का एक नाम पद्म भी था। चरित्र काव्यों एवं जैन पुराणों में यही नाम प्रचलित रहा। इस पद्म पुराण में भगवान् श्रीरामचन्द्र के पावन चरित्र का वर्णन है।

विशिष्टचित्तयायातं यच्च श्रेयः क्षणान्महत् ।

तेनैव रक्षिता याता चारुतां मम भारती।।

रामकथा का प्रयोजन प्रयोजन के सम्बन्ध में पद्मपुराण की मान्यता है कि जिस पुरुष की वाणी में अकार आदि अक्षर तो व्यक्त हैं पर जो सत्पुरुषों की कथा को प्राप्त नहीं करायी गयी हैउसकी वह वाणी निष्फल है। अतः रामकथा का वाचन वाणी का मुख्य प्रयोजन है और उसका श्रवणश्रवण का मुख्य प्रयोजन है। जिस वाणी से रामकथा का वाचन नहीं होतावह निष्फल है। महापुरुषों का संकीर्तन पद्म पुराण में रामकथा का प्रयोजन है। महापुरुषों का कीर्तन करने से विज्ञान बुद्धि की प्राप्ति होता है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है – 

राम शब्दो विश्ववचनों, मश्वापीश्वर वाचकः 

र्थात् ‘रा’ शब्द परिपूर्णता का बोधक है और ‘म’ परमेश्वर वाचक है। चाहे निर्गुण ब्रह्म हो या दाशरथि राम हो, विशिष्ट तथ्य यह है कि राम शब्द एक महामंत्र है।

श्रीआदि पुराण में श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन से कहा था 

राम नाम सदा प्रेम्णा संस्मरामि जगद्गुरूम् |

क्षणं न विस्मृतिं याति सत्यं सत्यं वचो मम् ||

मैं (श्रीकृष्ण) हमेशा श्री राम का नाम प्रेम से लेता हूँ, राम नाम संपूर्ण संसार का गुरु/स्वामी है। मैं एक क्षण के लिए भी श्री राम का पवित्र नाम कभी नहीं भूल सकता! मैं सत्य बोलता हूँ, मैं सत्य बोलता हूँ!

‘नारद पुराण’ में विष्णु की पूजा के साथ-साथ राम की पूजा का भी विधान प्राप्त होता है- 

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जैन साहित्य में राम का ‘पद्म’ नाम से उल्लेख है-r3.jpg

मार्कण्डेयपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, विष्णुपुराण, वायुपुराण और मत्स्यपुराण में राम-r4.jpg

अग्निपुराण में राम-r5.jpg

लिङ्गपुराण (लिंग पुराण) में राम-r6.jpg

ब्रह्म पुुराण में राम-r7.jpg

गरुड़ पुराण में राम-r8.jpg

राम नाम का महामंत्र आपको जीवन की सभी परेशानियों से बचता है…

श्री राम जय राम जय जय राम” मंत्र आपने कई बार सुना होगा और भजन आदि के समय इसका जाप भी किया होगा लेकिन आपको इसकी शक्ति का शायद पता ना हो। इस मंत्र में इतनी शक्ति है कि आपको कितनी भी बड़ी दुविधा से निकाल सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसके उच्चारण या कहें जाप करने के लिए किसी नियम का पालन करने की आवश्यकता नहीं है। इस मंत्र को आप दिन के किसी भी समय, कहीं भी हों, जाप कर सकते हैं।

मंत्र की महिमा- इसमें ‘श्री’, ‘राम’ और ‘जय’ तीन शब्दों का एक खास क्रम में दुहराव हो रहा है। ‘श्री’ का यहां अर्थ लक्ष्मी स्वरूपा ‘सीता’ या शक्ति से है, वहीं राम शब्द में ‘रा’ का तात्पर्य ‘अग्नि’ से है… ‘अग्नि’ जो ‘दाह’ करने वाला है तथा संपूर्ण दुष्कर्मों का नाश करती है। ‘म’ यहां ‘जल तत्व’ का प्रतीक है। जल को जीवन माना जाता है, इसलिए इस मंत्र में ‘म’ से तात्पर्य जीवत्मा से है।

इसलिए इस मंत्र का संपूर्ण अर्थ यह जाता है कि वह शक्ति जो संपूर्ण दूषित कर्मों का नाश करते हुए जीवन का वरण करती हो या आत्मा पर विजय प्राप्त करती हो। इसलिए जो कोई भी इस मंत्र का नियमित रूप से जाप करता है वह जहां अचानक आने वाली परेशानियों से बचा रहता है, जीवन की कोई भी मुश्किल उसकी उन्नति में बाधा नहीं बनती.

राम नाम सत्य है…

राम नाम निर्विवाद रूप से सत्य है और यह भी निर्विवाद रूप से सत्य है कि राम नाम के निरंतर जाप से सद्गति प्राप्त होती है। राम नाम की इस अद्भुत महिमा को श्रीरामचरितमानस के माध्यम से तुलसीदासजी ने अनेक कथा प्रसंगों में प्रकट किया है…

भिन्न-भिन्न प्रसंगों पर अनेक राक्षस राम के हाथों मृत्यु को प्राप्त होते हैं और राम उन्हें उदारतापूर्वक निजधाम का पुरस्कार दे देते हैं सुग्रीव का भाई बाली राम द्वारा अभयदान देने की बात पर कहता है- मुनिगण जन्म-जन्म में अनेक प्रकार के साधन करते रहते हैं फिर भी अंतकाल में उनके मुख से राम नाम नहीं निकलता है। समूची राक्षसी सेना को रामजी ने निजधाम दिया है।

आदिकवि महर्षि बाल्मीकि ने लिखा है- मृत्यु के समय ज्ञानी रावण राम से व्यंग्यपूर्वक कहता है- तुम तो मेरे जीते-जी लंका में पैर नहीं रख पाए। मैं तुम्हारे जीते-जी तुम्हारे सामने तुम्हारे धाम जा रहा हूं।

राम भगवान विष्णु के सातवें अवतार…

हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु के दशावतार (दस अवतारों) का उल्लेख है। राम भगवान विष्णु के सातवें अवतार माने जाते हैं। मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि।

राम का जीवनकाल एवं पराक्रम महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य ‘रामायण’ के रूप में लिखा गया है| बाद में तुलसीदास ने भी भक्ति काव्य ‘श्री रामचरितमानस’ में राम को आदर्श पुरुष बताया। राम का जन्म त्रेतायुग में हुआ था।

भगवान राम आदर्श व्यक्तित्व के प्रतीक हैं। अतीत हो या वर्तमान, जनमानस ने राम के आदर्शों को खूब समझा-परखा है राम का पूरा जीवन आदर्शों और संघर्षों से भरा पड़ा है। राम सिर्फ एक आदर्श पुत्र ही नहीं, आदर्श पति, आदर्श भाई और आदर्श सम्राट भी थे। जो व्यक्ति संयमित, मर्यादित और संस्कारित जीवन जीता है, निःस्वार्थ भाव से उसी में ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ राम के आदर्शों की झलक परिलक्षित हो सकती है। राम के आदर्श लक्ष्मण रेखा की उस मर्यादा के समान है जो लांघी तो अनर्थ ही अनर्थ और सीमा की मर्यादा में रहे तो खुशहाल और सुरक्षित।

वर्तमान संदर्भों में देखा जाए तो भगवान श्रीराम के आदर्शों का जनमानस पर गहरा प्रभाव है। त्रेतायुग में भगवान श्रीराम से श्रेष्ठ कोई देवता नहीं, उनसे उत्तम कोई व्रत नहीं, कोई श्रेष्ठ योग नहीं, कोई उत्कृष्ट अनुष्ठान नहीं। उनके महान चरित्र की उच्च वृत्तियाँ जनमानस को शांति और आनंद उपलब्ध कराती हैं। संपूर्ण भारतीय समाज के जरिए एक समान आदर्श के रूप में भगवान श्रीराम को उत्तर से लेकर दक्षिण तक संपूर्ण जनमानस ने स्वीकार किया है। उनका तेजस्वी एवं पराक्रमी स्वरूप भारत की एकता का प्रत्यक्ष चित्र उपस्थित करता है।

आदिकवि ने उनके संबंध में लिखा है कि “वे गाम्भीर्य में उदधि के समान और धैर्य में हिमालय के समान हैं” राम के चरित्र में पग-पग पर मर्यादा, त्याग, प्रेम और लोकव्यवहार के दर्शन होते हैं। राम ने साक्षात परमात्मा होकर भी मानव जाति को मानवता का संदेश दिया। उनका सम्पूर्ण चरित्र लोकतंत्र का प्रहरी, उत्प्रेरक और निर्माता हैं। इसीलिए तो भगवान राम के आदर्शों का जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव है और यह प्रभाव युगों-युगों तक रहेगा।

राम के जन्म का रहस्य

श्रीराम की असली जन्मतिथि को लेकर विद्वानों में मतभेद…

सदियों से भगवान राम की कथा भारतीय संस्कृति में रची बसी है, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का जीवन चरित्र लोगों को सही राह पर चलने की शिक्षा देता आ रहा है, लेकिन क्या भगवान राम से जुड़ी कहानी सिर्फ कथा है, क्या भगवान राम कल्पना हैं, आखिर हमारे पास भगवान राम के सच होने का क्या प्रमाण है?

कहा जाता है कि पांचवी से चौथी शताब्दी ईसा पूर्व जिस काल को ऋग्दवेद का काल कहा जाता है, तभी महर्षि वाल्मिकी ने रामायण की रचना की। लेकिन अब तक इस बात इतिहासकारों की राय बंटी हुई थी, लेकिन अब इस बात के सच होने का वैज्ञानिक प्रमाण मिल गया है।

दिल्ली में स्थित एक संस्था इंस्टीट्यूट ऑफ साइंटिफिक रिसर्च ऑन वेदा यानी आई सर्व ने लंबे वैज्ञानिक शोध के बाद चौंकाने वाला दावा किया है। आई सर्व ने आधुनिक विज्ञान से जुड़ी 9 विधाओं, अंतरिक्ष विज्ञान, जेनेटिक्स, जियोलॉजी, एर्कियोलॉजी और स्पेस इमेजरी पर आधारित रिसर्च के आधार पर दावा किया है।

भारत में पिछले 10 हजार साल से सभ्यता लगातार विकसित हो रही है। वेद और रामायण में विभिन्न आकाशीय और खगोलीय स्थीतियों का जिक्र मिलता है, जिसे आधुनिक विज्ञान की मदद से 9 हजार साल ईसा पूर्व से लेकर 7 हजार साल ईसा पूर्व तक प्रमाणिक तरीके से क्रमानुसार सिद्ध किया जा सकता है।

पहली मान्यता- First Theory… वाल्मीकि रामायण में भगवान राम के जन्म का क्या वर्णन है कि —

ततो य्रूो समाप्ते तु ऋतुना षट् समत्युय: ।
ततश्च द्वादशे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ॥
नक्षत्रेsदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पंचसु ।
ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह॥
प्रोद्यमाने जनन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतम् ।
कौसल्याजयद् रामं दिव्यलक्षसंयुतम् ॥

भावार्थ- चैत्र मास के शुक्लपक्ष की नवमी तिथी को पुनर्वसु नक्षत्र और कर्क लग्न में कौशल्यादेवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त सर्वलोकवन्दित श्री राम को जन्म दिया। यानी जिस दिन भगवान राम का जन्म हुआ उस दिन अयोध्या के ऊपर तारों की सारी स्थिति का साफ-साफ जिक्र है… अब अगर रामायण में जिक्र नक्षत्रों की इस स्थिति को नासा द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले सॉफ्टवेयर प्लैनेटेरियम गोल्ड में उस वक्त की सितारों की स्थिती से मिलान और तुलना करें तो आईए जानते हैं कि क्या नतीजा मिलता है?

  1. सूर्य मेष राशि (उच्च स्थान) में।
  2. शुक्र मीन राशि (उच्च स्थान) में।
  3. मंगल मकर राशि (उच्च स्थान) में।
  4. शनि तुला राशि (उच्च स्थान) में।
  5. बृहस्पति कर्क राशि (उच्च स्थान) में।
  6. लगन कर्क के रूप में।
  7. पुनर्वसु के पास चन्द्रमा मिथुन से कर्क राशि की ओर बढता हुआ।

शोध संस्था आई सर्व के मुताबिक वाल्मीकि रामायण में जिक्र श्री राम के जन्म के वक्त ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति का सॉफ्टवेयर से मिलान करने पर जो दिन मिला, वो दिन है 10 जनवरी 5114 ईसा पूर्व। उस दिन दोपहर 12 बजे अयोध्या के आकाश पर सितारों की स्थिति वाल्मीकि रामायण और सॉफ्टवेयर दोनों में एक जैसी है। लिहाजा, रिसर्चर इस नतीजे पर पहुंचे कि रामलाला का जन्म 10 जनवरी 5114 ईसा पूर्व को हुआ।

  • आई सर्व के रिसर्चरों ने जब धार्मिक तिथियों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले चंद्र कैलेंडर की इस तिथि कोआधुनिक कैलेंडर की तारीख में बदला तो वो ये जान कर हैरान रह गए कि सदियों से भारतवर्ष में रामलला का बर्थ डे बिल्कुल सही तिथि पर मनाया जाता आया है।

आई-सर्व की दिल्ली शाखा की निदेशक सरोज बाला के मुताबिक… जो जन्मतिथि आती है वो है 10 जनवरी 5114 बीसी अब इसे लूनर कैलेंडर में कन्वर्ट कार वो चैत्र मास का शुक्ल पक्ष का नवमी निकला। अब हम सब जानते हैं कि चैत्र शुक्ल की नवमी को राम नवमी मनाते हैं, तो वही दोपहर को 12 से 2 बजे के बीच समान तिथि निकली है। सॉफ्टवेयर की मदद से रिसर्चरों ने भी ये भी पता लगाया की रामलला के भाईयों का बर्थडे कब पड़ता है। इस मॉडल के मुताबिक भरत का जन्म पुष्प नक्षत्र तथा मीन लग्न में 11 जनवरी 5114 ईसा पूर्व को सुबह चार बजे लक्ष्मण और शत्रुध्न का जन्म अश्लेषा नक्षत्र एंव कर्क लग्न में 11 जनवरी 5114 ईसा पूर्व को 11 बज कर 30 मिनट पर हुआ।

दूसरी मान्यता- Second Theory… 

हालांकि कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि भगवान राम का जन्म 7323 ईसा पूर्व हुआ था। चैत्र मास की नवमी को रामनवमी के रूप में मनाया जाता है। लेकिन असल में वैज्ञानिक शोधकर्ताओं अनुसार राम की जन्म दिनांक वाल्मीकि द्वारा बताए गए ग्रह-नक्षत्रों के आधार पर प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर अनुसार 4 दिसंबर 7323 ईसा पूर्व अर्थात आज से 9334 वर्ष पूर्व हुआ था।

वाल्मीकि के अनुसार श्रीराम का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी तिथि एवं पुनर्वसु नक्षत्र में जब पांच ग्रह अपने उच्च स्थान में थे तब हुआ था। इस प्रकार सूर्य मेष में 10 डिग्री, मंगल मकर में 28 डिग्री, ब्रहस्पति कर्क में 5 डिग्री पर, शुक्र मीन में 27 डिग्री पर एवं शनि तुला राशि में 20 डिग्री पर था। (बाल कांड 18/श्लोक 8, 9)।

शोधकर्ता डॉ. वर्तक पीवी वर्तक के अनुसार ऐसी स्थिति 7323 ईसा पूर्व दिसंबर में ही निर्मित हुई थी, लेकिन प्रोफेसर तोबयस के अनुसार जन्म के ग्रहों के विन्यास के आधार पर श्रीराम का जन्म 7129 वर्ष पूर्व अर्थात 10 जनवरी 5114 ईसा पूर्व हुआ था। उनके अनुसार ऐसी आका‍शीय स्थिति तब भी बनी थी। तब 12 बजकर 25 मिनट पर आकाश में ऐसा ही दृष्य था जो कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित है।

राम के नाम का रहस्य

राम या मार : राम का उल्टा होता है म, अ, र अर्थात मार। मार बौद्ध धर्म का शब्द है। मार का अर्थ है- इंद्रियों के सुख में ही रत रहने वाला और दूसरा आंधी या तूफान। राम को छोड़कर जो व्यक्ति अन्य विषयों में मन को रमाता है, मार उसे वैसे ही गिरा देती है, जैसे सूखे वृक्षों को आंधियां।

तारणहार राम का नाम : श्रीराम-श्रीराम जपते हुए असंख्य साधु-संत मुक्ति को प्राप्त हो गए हैं। प्रभु श्रीराम नाम के उच्चारण से जीवन में सकारात्क ऊर्जा का संचार होता है। जो लोग ध्वनि विज्ञान से परिचित हैं वे जानते हैं कि ‘राम’ शब्द की महिमा अपरम्पार है।

जब हम ‘राम’ कहते हैं तो हवा या रेत पर एक विशेष आकृति का निर्माण होता है। उसी तरह चित्त में भी विशेष लय आने लगती है। जब व्यक्ति लगातार ‘राम’ जप करता रहता है तो रोम-रोम में प्रभु श्रीराम बस जाते हैं। उसके आसपास सुरक्षा का एक मंडल बनना तय समझो। प्रभु श्रीराम के नाम का असर जबरदस्त होता है। आपके सारे दुःख हरने वाला सिर्फ एकमात्र नाम है- ‘हे राम।’

व्यर्थ की चिंता छोड़ो :
होइहै वही जो राम रचि राखा।
को करे तरफ बढ़ाए साखा।।

‘राम’ सिर्फ एक नाम नहीं हैं और न ही सिर्फ एक मानव। राम परम शक्ति हैं। प्रभु श्रीराम के द्रोहियों को शायद ही यह मालूम है कि वे अपने आसपास नर्क का निर्माण कर रहे हैं। इसीलिए यह चिंता छोड़ दो कि कौन प्रभु श्रीराम का अपमान करता है और कौन सुनता है।

नीति-कुशल व न्यायप्रिय नरेश

भगवान राम विषम परिस्थितियों में भी नीति सम्मत रहे। उन्होंने वेदों और मर्यादा का पालन करते हुए सुखी राज्य की स्थापना की। स्वयं की भावना व सुखों से समझौता कर न्याय और सत्य का साथ दिया। फिर चाहे राज्य त्यागने, बाली का वध करने, रावण का संहार करने या सीता को वन भेजने की बात ही क्यों न हो।

सहनशील व धैर्यवान

सहनशीलता व धैर्य भगवान राम का एक और गुण है।

राम का संयमी होना माता कैकेयी की उस शर्त का अनुपालन था जिसमें उन्होंने राजा दशरत से मांग की थी-

तापस बेष बिसेषि उदासी।
चौदह बरिस रामु बनवासी।।
सीता हरण के बाद संयम से काम लेना
समुद्र पर सेतु बनाने के लिए तपस्या करना,

सीता को त्यागने के बाद राजा होते हुए भी संन्यासी की भांति जीवन बिताना उनकी सहनशीलता की पराकाष्ठा है।

संयमित- यानि समय-यमय पर उठने वाली मानसिक उत्तेजनाओं जैसे- कामवासना, क्रोध, लोभ, अहंकार तथा मोह आदि पर नियंत्रण रखना। राम-सीता ने अपना संपूर्ण दाम्पत्य बहुत ही संयम और प्रेम से जीया। वे कहीं भी मानसिक या शारीरिक रूप से अनियंत्रित नहीं हुए।

दयालु व बेहतर स्वामीImage

भगवान राम ने दया कर सभी को अपनी छत्रछाया में लिया। उनकी सेना में पशु, मानव व दानव सभी थे और उन्होंने सभी को आगे बढ़ने का मौका दिया। सुग्रीव को राज्य, हनुमान, जाम्बवंत व नल-नील को भी उन्होंने समय-समय पर नेतृत्व करने का अधिकार दिया।

मित्र
केवट हो या सुग्रीव, निषादराज या विभीषण। हर जाति, हर वर्ग के मित्रों के साथ भगवान राम ने दिल से करीबी रिश्ता निभाया। दोस्तों के लिए भी उन्होंने स्वयं कई संकट झेले।

बेहतर प्रबंधक

भगवान राम न केवल कुशल प्रबंधक थे, बल्कि सभी को साथ लेकर चलने वाले थे। वे सभी को विकास का अवसर देते थे व उपलब्ध संसाधनों का बेहतर उपयोग करते थे। उनके इसी गुण की वजह से लंका जाने के लिए उन्होंने व उनकी सेना ने पत्थरों का सेतु बना लिया था।

भाई
भगवान राम के तीन भाई लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न सौतेली माँ के पुत्र थे, लेकिन उन्होंने सभी भाइयों के प्रति सगे भाई से बढ़कर त्याग और समर्पण का भाव रखा और स्नेह दिया। यही वजह थी कि भगवान राम के वनवास के समय लक्ष्मण उनके साथ वन गए और राम की अनुपस्थिति में राजपाट मिलने के बावजूद भरत ने भगवान राम के मूल्यों को ध्यान में रखकर सिंहासन पर रामजी की चरण पादुका रख जनता को न्याय दिलाया।

संतान

दाम्पत्य जीवन में संतान का भी बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है। पति-पत्नी के  बीच के संबंधों को मधुर और मजबूत बनाने में बच्चों की अहम् भूमिका  रहती है। राम और सीता के बीच वनवास को खत्म करने और सीता को पवित्र साबित करने में उनके बच्चों लव और कुश ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

भरत के लिए आदर्श भाईहनुमान के लिए स्वामीप्रजा के लिए नीति-कुशल व न्यायप्रिय राजासुग्रीव व केवट के परम मित्र और सेना को साथ लेकर चलने वाले व्यक्तित्व के रूप में भगवान राम को पहचाना जाता है। उनके इन्हीं गुणों के कारण उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम से पूजा जाता है। सही भी हैकिसी के गुण व कर्म ही उसकी पहचान बनाते हैं।

नाम की महिमा: सेतुबंध बनाया जा रहा था तब सभी को संशय था कि क्या पत्थर भी तैर सकते हैं। क्या तैरते हुए पत्थरों का बाँध बन सकता है तो इस संशय को मिटाने के लिए प्रत्येक पत्थर पर राम का नाम लिखा गया। हनुमान जी भी सोच में पड़ गए कि बिना सेतु के मैं लंका कैसे पहुँच सकता हूँ….लेकिन राम का नाम लेकर वे एक ही फलांग में पार कर गए समुद्र।

भगवान राम के जन्म के पूर्व इस नाम का उपयोग ईश्वर के लिए होता था अर्थात ब्रह्म, परमेश्वर, ईश्वर आदि की जगह पहले ‘राम’ शब्द का उपयोग होता था, इसीलिए इस शब्द की महिमा और बढ़ जाती है तभी तो कहते हैं कि राम से भी बढ़कर श्रीराम का नाम है। राम’ शब्द की ध्वनि हमारे जीवन के सभी दुखों को मिटाने की ताकत रखती है। यह हम नहीं ध्वनि विज्ञान पर शोध करने वाले वैज्ञानिक बताते हैं कि राम नाम के उच्चारण से मन शांत हो जाता।

कलयुग में यही सहारा: कहते हैं कि कलयुग में सब कुछ महँगा है, लेकिन राम का नाम ही सस्ता है। सस्ता ही नहीं सभी रोग और शोक की एक ही दवा है राम। वर्तमान में ध्यान, तप, साधना और अटूट भक्ति करने से भी श्रेष्ठ राम का नाम जपना है। भागमभाग जिंदगी, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, धोखे पर धोखे, माया और मोह आदि सभी के बीच मानवता जब हताश और निराश होकर आत्महत्या करने लगती है तब सिर्फ राम नाम का सहारा ही उसे बचा सकता है।

राम रहस्य: प्रसिद्ध संत शिवानंद निरंतर राम का नाम जपते रहते थे। एक दिन वे जहाज पर यात्रा के दौरान रात में गहरी नींद में सो रहे थे। आधी रात को कुछ लोग उठने लगे और आपस में बात करने लगे कि ये राम नाम कौन जप रहा है। लोगों ने उस विराट, लेकिन शांतिमय आवाज की खोज की और खोजते-खोजते वे शिवानंद के पास पहुँच गए।सभी को यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ की शिवानंद तो गहरी नींद में सो रहे है, लेकिन उनके भीतर से यह आवाज कैसे निकल रही है। उन्होंने शिवानंद को झकझोर कर उठाया तभी अचानक आवाज बंद हो गई। लोगों ने शिवानंद को कहा आपके भीतर से राम नाम की आवाज निकल रही थी इसका राज क्या है। उन्होंने कहा मैं भी उस आवाज को सुनता रहता हूँ। पहले तो जपना पड़ता था राम का नाम अब नहीं। बोलो श्रीराम।

कहते हैं जो जपता है राम का नाम राम जपते हैं उसका नाम।–शतायु

तुलसीदास के राम

इसके बाद गोस्वामी तुलसीदास, जिनका जन्म सन् 1554 ई. हुआ था, ने रामचरित मानस की रचना की। सत्य है कि रामायण से अधिक रामचरित मानस को लोकप्रियता मिली है लेकिन यह ग्रंथ भी रामायण के तथ्यों पर ही आधारित है।

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भगवान राम नीले और कृष्ण काले क्यों?

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अक्सर मन में यह सवाल गूंजता है कि कृष्ण का काला रंग तो फिर भी समझ में आता है लेकिन भगवान राम को नील वर्ण भी कहा जाता है। क्या वाकई भगवान राम नीले रंग के थे, किसी इंसान का नीला रंग कैसे हो सकता है? वहीं काले रंग के कृष्ण इतने आकर्षक कैसे थे? इन भगवानों के रंग-रूप के पीछे क्या रहस्य है। राम के नीले वर्ण और कृष्ण के काले रंग के पीछे एक दार्शनिक रहस्य है। भगवानों का यह रंग उनके व्यक्तित्व को दर्शाते हैं। दरअसल इसके पीछे भाव है कि भगवान का व्यक्तित्व अनंत है। उसकी कोई सीमा नहीं है, वे अनंत है। ये अनंतता का भाव हमें आकाश से मिलता है। आकाश की कोई सीमा नहीं है। वह अंतहीन है। राम और कृष्ण के रंग इसी आकाश की अनंतता के प्रतीक हैं। राम का जन्म दिन में हुआ था। दिन के समय का आकाश का रंग नीला होता है। इसी तरह कृष्ण का जन्म आधी रात के समय हुआ था और रात के समय आकाश का रंग काला प्रतीत होता है। दोनों ही परिस्थितियों में भगवान को हमारे ऋषि-मुनियों और विद्वानों ने आकाश के रंग से प्रतीकात्मक तरीके से दर्शाने के लिए है काले और नीले रंग का बताया है।

भगवान राम आदर्श व्यक्तित्व के प्रतीक हैं। परिदृश्य अतीत का हो या वर्तमान का, जनमानस ने रामजी के आदर्शों को खूब समझा-परखा है रामजी का पूरा जीवन आदर्शों, संघर्षों से भरा पड़ा है। राम सिर्फ एक आदर्श पुत्र ही नहीं, आदर्श पति और भाई भी थे। जो व्यक्ति संयमित, मर्यादित और संस्कारित जीवन जीता है, निःस्वार्थ भाव से उसी में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्शों की झलक परिलक्षित हो सकती है। राम के आदर्श 

लक्ष्मण रेखा की उस मर्यादा के समान है जो लाँघी तो अनर्थ ही अनर्थ और सीमा की मर्यादा में रहे तो खुशहाल और सुरक्षित जीवन।

वर्तमान संदर्भों में भी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के आदर्शों का जनमानस पर गहरा प्रभाव है। त्रेतायुग में भगवान श्रीराम से श्रेष्ठ कोई देवता नहीं, उनसे उत्तम कोई व्रत नहीं, कोई श्रेष्ठ योग नहीं, कोई उत्कृष्ट अनुष्ठान नहीं। उनके महान चरित्र की उच्च वृत्तियाँ जनमानस को शांति और आनंद उपलब्ध कराती हैं। संपूर्ण भारतीय समाज के जरिए एक समान आदर्श के रूप में भगवान श्रीराम को उत्तर से लेकर दक्षिण तक संपूर्ण जनमानस ने स्वीकार किया है। उनका तेजस्वी एवं पराक्रमी स्वरूप भारत की एकता का प्रत्यक्ष चित्र उपस्थित करता है।

आदिकवि ने उनके संबंध में लिखा है कि वे गाम्भीर्य में उदधि के समान और धैर्य में हिमालय के समान हैं। राम के चरित्र में पग-पग पर मर्यादा, त्याग, प्रेम और लोकव्यवहार के दर्शन होते हैं। राम ने साक्षात परमात्मा होकर भी मानव जाति को मानवता का संदेश दिया। उनका पवित्र चरित्र लोकतंत्र का प्रहरी, उत्प्रेरक और निर्माता भी है। इसीलिए तो भगवान राम के आदर्शों का जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव है और युगों-युगों तक रहेगा।

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम समसामयिक है। भारतीय जनमानस के रोम-रोम में बसे श्रीराम की महिमा अपरंपार है।

एक राम राजा दशरथ का बेटा,
एक राम घर-घर में बैठा,
एक राम का सकल पसारा,
एक राम सारे जग से न्यारा।

भगवान श्री विष्णुजी के बाद श्री नारायणजी के इस अवतार की आनंद अनुभूति के लिए देवाधिदेव स्वयंभू श्री महादेव ग्यारहवें रुद्र बनकर श्री मारुति नंदन के रूप में निकल पड़े।

यहाँ तक कि भोलेनाथ स्वयं माता उमाजी को सुनाते हैं कि मैं तो राम नाम में ही वरण करता हूँ। जिस नाम के महान प्रभाव ने पत्थरों को तारा है।

हमारी अंतिम यात्रा के समय भी इसी ‘राम नाम सत्य है’ के घोष ने हमारी जीवनयात्रा पूर्ण की है और कौन नहीं जानता आखिर बापू ने अंत समय में ‘हे राम’ किनके लिए पुकारा था।

आदिकवि ने उनके संबंध में लिखा है कि वे गाम्भीर्य में उदधि के समान और धैर्य में हिमालय के समान हैं। राम के चरित्र में पग-पग पर मर्यादा, त्याग, प्रेम और लोकव्यवहार के दर्शन होते हैं। राम ने साक्षात परमात्मा होकर भी मानव जाति को मानवता का संदेश दिया। उनका पवित्र चरित्र लोकतंत्र का प्रहरी, उत्प्रेरक और निर्माता भी है। इसीलिए तो भगवान राम के आदर्शों का जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव है और युगों-युगों तक रहेगा।

राम नाम उर मैं गहिओ जा कै सम नहीं कोई।।
जिह सिमरत संकट मिटै दरसु तुम्हारे होई।।

जिनके सुंदर नाम को ह्रदय में बसा लेने मात्र से सारे काम पूर्ण हो जाते हैं। जिनके समान कोई दूजा नाम नहीं है। जिनके स्मरण मात्र से सारे संकट मिट जाते हैं। ऐसे प्रभु श्रीराम को मैं कोटि-कोटि प्रणाम करता हूं।

कलयुग में न तो योग, न यज्ञ और न ज्ञान का महत्व है। एक मात्र राम का गुणगान ही जीवों का उद्धार है। संतों का कहना है कि प्रभु श्रीराम की भक्ति में कपट, दिखावा नहीं आंतरिक भक्ति ही आवश्यक है। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं – ज्ञान और वैराग्य प्रभु को पाने का मार्ग नहीं है बल्कि प्रेम भक्ति से सारे मैल धूल जाते हैं। प्रेम भक्ति से ही श्रीराम मिल जाते हैं।

छूटहि मलहि मलहि के धोएं।
धृत कि पाव कोई बारि बिलोएं।
प्रेम भक्ति जल बिनु रघुराई।
अभि अंतर मैल कबहुं न जाई।।

अर्थात् मैल को धोने से क्या मैल छूट सकता है। जल को मथने से क्या किसी को ‍घी मिल सकता है। कभी नहीं। इसी प्रकार प्रेम-भक्ति रूपी निर्मल जल के बिना अंदर का मैल कभी नहीं छूट सकता। प्रभु की भक्ति के बिना जीवन नीरस है अर्थात् रसहीन है। प्रभु भक्ति का स्वाद ऐसा स्वाद है जिसने इस स्वाद को चख लिया, उसको दुनिया के सारे स्वाद फीके लगेंगे।

भक्ति जीवन में उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितना स्वादिष्ट भोजन में नमक।

भगति हीन गुण सब सुख ऐसे।
लवन बिना बहु व्यंजन जैसे।।

अर्थात – जिस तरह नमक के बिना उत्तम से उत्तम व्यंजन स्वादहीन है, उसी तरह प्रभु के चरणों की ‍भक्ति के बिना जीवन का सुख, समृद्धि सभी फीके है।

श्रीराम ने तोड़ा था भगवान भोलेनाथ का पिनाक

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भगवान भोलेनाथ के पास एक ऐसा धनुष था जिसकी टंकार ( धनुष की रस्सी को खींचने के बाद अचानक छोड़ देने वाली आवाज) से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। इसी धनुष के एक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को भगवान शंकर ने ध्वस्त कर दिया गया था। इस धनुष का नाम पिनाक था।

शिव पुराण में भगवान शंकर के इस धनुष का विस्तृत उल्लेख मिलता है। जब राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं देने के कारण भगवान शंकर बहुत क्रोधित हो गए तो उन्होंने सभी देवताओं को अपने धनुष (पिनाक) से नष्ट करने की ठानी। एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया। बड़ी मुश्किल से उनका क्रोध शांत किया गया, तब उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया।

देवताओं ने राजा जनक के पूर्वज देवरात को यह धनुष दिया था। राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवरात थे। शिव-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। इस धनुष को भगवान शंकर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की क्षमता नहीं रखता था। लेकिन भगवान राम ने इसे उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और इसे एक झटके में तोड़ दिया।

14 वर्ष के वनवास में राम कहां-कहां रहे

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प्रभु श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास हुआ। इस वनवास काल में श्रीराम ने कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, तपस्या की और भारत के आदिवासी, वनवासी और तमाम तरह के भारतीय समाज को संगठित कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलाया। संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछ ऐसा भी घटा जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया।

रामायण में उल्लेखित और अनेक अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार जब भगवान राम को वनवास हुआ तब उन्होंने अपनी यात्रा अयोध्या से प्रारंभ करते हुए रामेश्वरम और उसके बाद श्रीलंका में समाप्त की। इस दौरान उनके साथ जहां भी जो घटा उनमें से 200 से अधिक घटना स्थलों की पहचान की गई है।

जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की। जानते हैं कुछ प्रमुख स्थानों के बारे में…

1.केवट प्रसंग : राम को जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है। इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज (इलाहाबाद) से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था।

‘सिंगरौर’ : इलाहाबाद से 22 मील (लगभग 35.2 किमी) उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित ‘सिंगरौर’ नामक स्थान ही प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से परिज्ञात था। रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। यह नगर गंगा घाटी के तट पर स्थित था। महाभारत में इसे ‘तीर्थस्थल’ कहा गया है।

‘कुरई’ : इलाहाबाद जिले में ही कुरई नामक एक स्थान है, जो सिंगरौर के निकट गंगा नदी के तट पर स्थित है। गंगा के उस पार सिंगरौर तो इस पार कुरई। सिंगरौर में गंगा पार करने के पश्चात श्रीराम इसी स्थान पर उतरे थे।

इस ग्राम में एक छोटा-सा मंदिर है, जो स्थानीय लोकश्रुति के अनुसार उसी स्थान पर है, जहां गंगा को पार करने के पश्चात राम, लक्ष्मण और सीताजी ने कुछ देर विश्राम किया था।

2.चित्रकूट के घाट पर : कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे। प्रयाग को वर्तमान में इलाहाबाद कहा जाता है। यहां गंगा-जमुना का संगम स्थल है। हिन्दुओं का यह सबसे बड़ा तीर्थस्थान है। प्रभु श्रीराम ने संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। यहां स्थित स्मारकों में शामिल हैं, वाल्मीकि आश्रम, मांडव्य आश्रम, भरतकूप इत्यादि।

चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। तब जब दशरथ का देहांत हो जाता है। भारत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।

3.अत्रि ऋषि का आश्रम : चित्रकूट के पास ही सतना (मध्यप्रदेश) स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। वहां श्रीराम ने कुछ वक्त बिताया। अत्रि ऋषि ऋग्वेद के पंचम मंडल के द्रष्टा हैं। अत्रि ऋषि की पत्नी का नाम है अनुसूइया, जो दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थी।

अत्रि पत्नी अनुसूइया के तपोबल से ही भगीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूट में प्रविष्ट हुई और ‘मंदाकिनी’ नाम से प्रसिद्ध हुई। ब्रह्मा, विष्णु व महेश ने अनसूइया के सतीत्व की परीक्षा ली थी, लेकिन तीनों को उन्होंने अपने तपोबल से बालक बना दिया था। तब तीनों देवियों की प्रार्थना के बाद ही तीनों देवता बाल रूप से मुक्त हो पाए थे। फिर तीनों देवताओं के वरदान से उन्हें एक पुत्र मिला, जो थे महायोगी ‘दत्तात्रेय’। अत्रि ऋषि के दूसरे पुत्र का नाम था ‘दुर्वासा’। दुर्वासा ऋषि को कौन नहीं जानता?

अत्रि के आश्रम के आस-पास राक्षसों का समूह रहता था। अत्रि, उनके भक्तगण व माता अनुसूइया उन राक्षसों से भयभीत रहते थे। भगवान श्रीराम ने उन राक्षसों का वध किया। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में इसका वर्णन मिलता है।

प्रातःकाल जब राम आश्रम से विदा होने लगे तो अत्रि ऋषि उन्हें विदा करते हुए बोले, ‘हे राघव! इन वनों में भयंकर राक्षस तथा सर्प निवास करते हैं, जो मनुष्यों को नाना प्रकार के कष्ट देते हैं। इनके कारण अनेक तपस्वियों को असमय ही काल का ग्रास बनना पड़ा है। मैं चाहता हूं, तुम इनका विनाश करके तपस्वियों की रक्षा करो।’

राम ने महर्षि की आज्ञा को शिरोधार्य कर उपद्रवी राक्षसों तथा मनुष्य का प्राणांत करने वाले भयानक सर्पों को नष्ट करने का वचन देखर सीता तथा लक्ष्मण के साथ आगे के लिए प्रस्थान किया।

चित्रकूट की मंदाकिनी, गुप्त गोदावरी, छोटी पहाड़ियां, कंदराओं आदि से निकलकर भगवान राम पहुंच गए घने जंगलों में…

4. दंडकारण्य : अत्रि ऋषि के आश्रम में कुछ दिन रुकने के बाद श्रीराम ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के घने जंगलों को अपना आश्रय स्थल बनाया। यह जंगल क्षेत्र था दंडकारण्य। ‘अत्रि-आश्रम’ से ‘दंडकारण्य’ आरंभ हो जाता है। छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर राम के नाना और कुछ पर बाणासुर का राज्य था। यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार है। यहीं पर राम ने अपना वनवास काटा था। यहां वे लगभग 10 वर्षों से भी अधिक समय तक रहे थे।

‘अत्रि-आश्रम’ से भगवान राम मध्यप्रदेश के सतना पहुंचे, जहां ‘रामवन’ हैं। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में नर्मदा व महानदी नदियों के किनारे 10 वर्षों तक उन्होंने कई ऋषि आश्रमों का भ्रमण किया। दंडकारण्य क्षेत्र तथा सतना के आगे वे विराध सरभंग एवं सुतीक्ष्ण मुनि आश्रमों में गए। बाद में सतीक्ष्ण आश्रम वापस आए। पन्ना, रायपुर, बस्तर और जगदलपुर में कई स्मारक विद्यमान हैं। उदाहरणत: मांडव्य आश्रम, श्रृंगी आश्रम, राम-लक्ष्मण मंदिर आदि।

राम वहां से आधुनिक जबलपुर, शहडोल (अमरकंटक) गए होंगे। शहडोल से पूर्वोत्तर की ओर सरगुजा क्षेत्र है। यहां एक पर्वत का नाम ‘रामगढ़’ है। 30 फीट की ऊंचाई से एक झरना जिस कुंड में गिरता है, उसे ‘सीता कुंड’ कहा जाता है। यहां वशिष्ठ गुफा है। दो गुफाओं के नाम ‘लक्ष्मण बोंगरा’ और ‘सीता बोंगरा’ हैं। शहडोल से दक्षिण-पूर्व की ओर बिलासपुर के आसपास छत्तीसगढ़ है।

वर्तमान में करीब 92,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियां तथा पूर्व में इसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब 320 किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग 480 किलोमीटर है।

दंडक राक्षस के कारण इसका नाम दंडकारण्य पड़ा। यहां रामायण काल में रावण के सहयोगी बाणासुर का राज्य था। उसका इन्द्रावती, महानदी और पूर्व समुद्र तट, गोइंदारी (गोदावरी) तट तक तथा अलीपुर, पारंदुली, किरंदुली, राजमहेन्द्री, कोयापुर, कोयानार, छिन्दक कोया तक राज्य था। वर्तमान बस्तर की ‘बारसूर’ नामक समृद्ध नगर की नींव बाणासुर ने डाली, जो इन्द्रावती नदी के तट पर था। यहीं पर उसने ग्राम देवी कोयतर मां की बेटी माता माय (खेरमाय) की स्थापना की। बाणासुर द्वारा स्थापित देवी दांत तोना (दंतेवाड़िन) है। यह क्षेत्र आजकल दंतेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। यहां वर्तमान में गोंड जाति निवास करती है तथा समूचा दंडकारण्य अब नक्सलवाद की चपेट में है।

इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे।

स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

दंडकारण्य क्षे‍त्र की चर्चा पुराणों में विस्तार से मिलती है। इस क्षेत्र की उत्पत्ति कथा महर्षि अगस्त्य मुनि से जुड़ी हुई है। यहीं पर उनका महाराष्ट्र के नासिक के अलावा एक आश्रम था।

-डॉ. रमानाथ त्रिपाठी ने अपने बहुचर्चित उपन्यास ‘रामगाथा’ में रामायणकालीन दंडकारण्य का विस्तृत उल्लेख किया है।

5. पंचवटी में राम : दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक में अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीरामजी ने वनवास का कुछ समय यहां बिताया।

उस काल में पंचवटी जनस्थान या दंडक वन के अंतर्गत आता था। पंचवटी या नासिक से गोदावरी का उद्गम स्थान त्र्यंम्बकेश्वर लगभग 20 मील (लगभग 32 किमी) दूर है। वर्तमान में पंचवटी भारत के महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी के किनारे स्थित विख्यात धार्मिक तीर्थस्थान है।

अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को अग्निशाला में बनाए गए शस्त्र भेंट किए। नासिक में श्रीराम पंचवटी में रहे और गोदावरी के तट पर स्नान-ध्यान किया। नासिक में गोदावरी के तट पर पांच वृक्षों का स्थान पंचवटी कहा जाता है। ये पांच वृक्ष थे- पीपल, बरगद, आंवला, बेल तथा अशोक वट। यहीं पर सीता माता की गुफा के पास पांच प्राचीन वृक्ष हैं जिन्हें पंचवट के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि इन वृक्षों को राम-सीमा और लक्ष्मण ने अपने हाथों से लगाया था।

यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। यहां पर मारीच वध स्थल का स्मारक भी अस्तित्व में है। नासिक क्षेत्र स्मारकों से भरा पड़ा है, जैसे कि सीता सरोवर, राम कुंड, त्र्यम्बकेश्वर आदि। यहां श्रीराम का बनाया हुआ एक मंदिर खंडहर रूप में विद्यमान है।

मरीच का वध पंचवटी के निकट ही मृगव्याधेश्वर में हुआ था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।

6.सीताहरण का स्थान ‘सर्वतीर्थ’ : नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में ‘सर्वतीर्थ’ नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है।

जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी ने यहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्ध-तर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी।

पर्णशाला : पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग 1 घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को ‘पनशाला’ या ‘पनसाला’ भी कहते हैं। हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से यह एक है। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां से सीताजी का हरण हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान उतारा था।

इस स्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था यानी सीताजी ने धरती यहां छोड़ी थी। इसी से वास्तविक हरण का स्थल यह माना जाता है। यहां पर राम-सीता का प्राचीन मंदिर है।

7.सीता की खोज : सर्वतीर्थ जहां जटायु का वध हुआ था, वह स्थान सीता की खोज का प्रथम स्थान था। उसके बाद श्रीराम-लक्ष्मण तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।

8.शबरी का आश्रम : तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्‍मण चले सीता की खोज में। जटायु और कबंध से मिलने के पश्‍चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है।

शबरी जाति से भीलनी थीं और उनका नाम था श्रमणा।

पम्पा नदी भारत के केरल राज्य की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। इसे ‘पम्बा’ नाम से भी जाना जाता है। ‘पम्पा’ तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है। श्रावणकौर रजवाड़े की सबसे लंबी नदी है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। यह स्थान बेर के वृक्षों के लिए आज भी प्रसिद्ध है। पौराणिक ग्रंथ ‘रामायण’ में भी हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है।

केरल का प्रसिद्ध ‘सबरिमलय मंदिर’ तीर्थ इसी नदी के तट पर स्थित है।

9.हनुमान से भेंट : मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया।

ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। इसी पर्वत पर श्रीराम की हनुमान से भेंट हुई थी। बाद में हनुमान ने राम और सुग्रीव की भेंट करवाई, जो एक अटूट मित्रता बन गई। जब महाबली बाली अपने भाई सुग्रीव को मारकर किष्किंधा से भागा तो वह ऋष्यमूक पर्वत पर ही आकर छिपकर रहने लगा था।

ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है। विरुपाक्ष मंदिर के पास से ऋष्यमूक पर्वत तक के लिए मार्ग जाता है। यहां तुंगभद्रा नदी (पम्पा) धनुष के आकार में बहती है। तुंगभद्रा नदी में पौराणिक चक्रतीर्थ माना गया है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराम मंदिर है। पास की पहाड़ी को ‘मतंग पर्वत’ माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था।

10.कोडीकरई : हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक नदियों, झरनों तथा वन-वाटिकाओं को पार करके राम और उनकी सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। श्रीराम ने पहले अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया।

तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग 1,000 किमी तक विस्‍तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्‍क स्‍ट्रेट से घिरा हुआ है।

लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया।

11.रामेश्‍वरम : रामेश्‍वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है। रामेश्‍वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है। महाकाव्‍य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है।

12.धनुषकोडी : वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया।

छेदुकराई तथा रामेश्वरम के इर्द-गिर्द इस घटना से संबंधित अनेक स्मृतिचिह्न अभी भी मौजूद हैं। नाविक रामेश्वरम में धनुषकोडी नामक स्थान से यात्रियों को रामसेतु के अवशेषों को दिखाने ले जाते हैं।

धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्‍नार से करीब 18 मील पश्‍चिम में है।

इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और नील ने जो पुल (रामसेतु) बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है। इन पूरे इलाकों को मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्‍थलीय सीमा है, जहां समुद्र नदी की गहराई जितना है जिसमें कहीं-कहीं भूमि नजर आती है।

दरअसल, यहां एक पुल डूबा पड़ा है। 1860 में इसकी स्पष्ट पहचान हुई और इसे हटाने के कई प्रयास किए गए। अंग्रेज इसे एडम ब्रिज कहने लगे तो स्थानीय लोगों में भी यह नाम प्रचलित हो गया। अंग्रेजों ने कभी इस पुल को क्षतिग्रस्त नहीं किया लेकिन आजाद भारत में पहले रेल ट्रैक निर्माण के चक्कर में बाद में बंदरगाह बनाने के चलते इस पुल को क्षतिग्रस्त किया गया।

30 मील लंबा और सवा मील चौड़ा यह रामसेतु 5 से 30 फुट तक पानी में डूबा है। श्रीलंका सरकार इस डूबे हुए पुल (पम्बन से मन्नार) के ऊपर भू-मार्ग का निर्माण कराना चाहती है जबकि भारत सरकार नौवहन हेतु उसे तोड़ना चाहती है। इस कार्य को भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट का नाम दिया है। श्रीलंका के ऊर्जा मंत्री श्रीजयसूर्या ने इस डूबे हुए रामसेतु पर भारत और श्रीलंका के बीच भू-मार्ग का निर्माण कराने का प्रस्ताव रखा था।

13.’नुवारा एलिया’ पर्वत श्रृंखला : वाल्मीकिय-रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। ‘नुवारा एलिया’ पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।

श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है। आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएं, जीव, वनस्पति तथा स्मारक आदि बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायण में वर्णित किए गए हैं।

श्रीवाल्मीकि ने रामायण की संरचना श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद वर्ष 5075 ईपू के आसपास की होगी (1/4/1 -2)। श्रुति स्मृति की प्रथा के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिचलित रहने के बाद वर्ष 1000 ईपू के आसपास इसको लिखित रूप दिया गया होगा। इस निष्कर्ष के बहुत से प्रमाण मिलते हैं। रामायण की कहानी के संदर्भ निम्नलिखित रूप में उपलब्ध हैं-

* कौटिल्य का अर्थशास्त्र (चौथी शताब्दी ईपू)
* बौ‍द्ध साहित्य में दशरथ जातक (तीसरी शताब्दी ईपू)
* कौशाम्बी में खुदाई में मिलीं टेराकोटा (पक्की मिट्‍टी) की मूर्तियां (दूसरी शताब्दी ईपू)
* नागार्जुनकोंडा (आंध्रप्रदेश) में खुदाई में मिले स्टोन पैनल (तीसरी शताब्दी)
* नचार खेड़ा (हरियाणा) में मिले टेराकोटा पैनल (चौथी शताब्दी)
* श्रीलंका के प्रसिद्ध कवि कुमार दास की काव्य रचना ‘जानकी हरण’ (सातवीं शताब्दी)

वनवास के 14 वर्षो में नही सोये थे लक्ष्मण

रामायण के अभी इतने रहस्य अनजाने है की हम लोग आश्चर्य चकित हो जाते है, जब राम लक्ष्मण भारत शत्रुधन का GZwEc.jpgजन्म हुआ तो चारो भाइयो में से शुरू में रोने के बाद सब चुप हो गए थे, परन्तु लक्ष्मण रोते ही रहे जब तक की उन्हें राम के पास नही सुलाया गया था. तब से लक्ष्मण राम की परछाई बन ही रहे चाहे वो कोई भी काम हो वाल्मीकि के साथ यज्ञ की रखा हो या सीता स्वयंवर लक्ष्मण साथ ही रहे.

जब वनवास का समय आया तो लक्ष्मण राम के साथ जाने को तैयार हो गए, इस पर पत्नी उर्मिला भी उनके साथ जाने तैयार हो गई. लेकिन लक्ष्मण ने अपनी पत्नी से भीख मांगी की मैं रामसीता की सेवा करना चाहता हूँ तुम साथ होगी तो उसमे विध्न पड़ेगा तब जाके उर्मिला मानी.

जब वनवास में पहली रात को राम सीता कुटिया में रोये तो लक्ष्मण के पास निंद्रा देवी आई तब लक्ष्मण ने उन्हें चौदह साल दूर रहने का वरदान माँगा पर उस नींद को किसी को वहां करना था. ऐसे में लक्ष्मण ने नींद को अपनी पत्नी उर्मिला के पास भेज दिया और अपना सन्देश भी भेज दिया, तब लक्ष्मण के हिस्से की नींद उर्मिला को मिली.

उर्मिला लगातार चौदह वर्षो तक सोती रही और लक्ष्मण जागते रहे थे, ये बात उन्हें युद्ध में भी सहायक हुई क्योंकि इंद्रजीत को वही मार सकता था जो पिछले चौदह सालो से सोया न हो. तब लक्ष्मण इंद्रजीत की काली शक्तियों से लड़ उसे मारने में सफल हुआ, जब अयोध्या में राम का राजतिलक हो रहा था तो लक्ष्मण जोर जोर से हंसने लगे. जब सबने उससे कारण पूछा तो लक्ष्मण ने कहा की उर्मिला सो रही है जब में उबासी लूंगा तब ही वो जागेगी इस पर सब हंस पड़े और उर्मिला उठ के समारोह में आई.

14 वर्ष वनवास और… राम के बिना ‘अयोध्या’

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अयोध्या स्वयं श्रीराम के बिना अधूरा थी, राज्य के लोग, पशु-पक्षी, हर एक वस्तु श्रीराम के बिना अधूरे थे। श्रीराम, सीता और लक्ष्मण के जाने के बाद मानो अयोध्या पर दुःख का बांध टूट पड़ा था।

  • अयोध्या में क्या हुआ- श्रीराम, सीता और लक्ष्मण के जाने के बाद अयोध्या में क्या-क्या हुआ इस बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं। जो सबसे अधिक सुनी गई हैं वह है पिता दशरथ की कहानी, जो अपने पुत्र के दुख में एक पल भी सांस ना ले सके। माता उर्मिला श्रीराम के जाने के बाद 14 वर्षों के लिए नींद में चली गईं, यह कुछ ऐसी कहानियां हैं जो सभी ने सुनी हैं।
  • कुछ ऐसी अनसुनी कहानियां- लेकिन इसके अलावा भी कुछ ऐसी अनसुनी बातें हैं जो श्रीराम के अयोध्या छोड़ने के बाद घटित हुईं। यहां हम एक-एक करके आपको उन कहानियों से परिचित कराएंगे जो तब घटीं जब श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण अयोध्या में उपस्थित नहीं थे।
  • भाई भरत- यह सब जानते हैं कि श्रीराम के जाने की खबर जैसे ही अनुज भरत को मिली, वह अपना ननिहाल छोड़कर अयोध्या दौड़े चले आए। वापस आते ही जब उन्हें यह मालूम हुआ कि स्वयं उनकी माता कैकेयी ने ही भाई राम को अयोध्या छोड़ने के लिए विवश किया तो भरत ने अपनी मां को अपनाने से मना कर दिया।
  • कैकेयी और भरत- उन्होंने अपनी मां को खरी-खोटी सुनाई, ऐसे में जैसे ही मंथरा ने आगे बढ़कर भरत को मां कैकेयी की ममता की व्याख्या देना चाहा और यह समझाना चाहा कि कैकेयी ने यह सब कुछ केवल ममता की खातिर किया है, अपने पुत्र के लिए किया है, तो तभी भरत ने गुस्से में मंथरा को ध्क्का मार दूर फेंक दिया।
  • भरत का क्रोध- मौके पर भाई शत्रुघ्न ने आकर भरत को रोका और एक स्त्री पर हाथ उठाकर किए जाने वाले पाप से रोका। उन्होंने भरत को समझाया कि हमारे संस्कार एक नारी पर अत्याचार करना नहीं सिखाते, फिर चाहे उसने कितने ही बुरे कर्म क्यों ना किए हों।
  • भरत ने ठुकराया अपनी मां को- लेकिन भरत की उन भावनाओं को समझने वाला कोई नहीं था, पिता समान भाई की जुदाई भरत सहन ना कर सके और अंत में उन्होंने अपने खुद की मां कैकेयी को ठुकराकर माता कौशल्या और सुमित्रा की सेवा करने का निर्णय लिया।
  • राजा दशरथ की मृत्यु- लेकिन भरत के अलावा कोई और भी था जो राम की जुदाई बर्दाश्त नहीं कर पाया, वे थे राजा दशरथ जिन्होंने पत्नी के कहने पर पुत्र को खुद से दूर तो कर लिया लेकिन जीवन के उस पड़ाव को जी ना सके और अंतत: मृत्यु को प्राप्त हुए। यह कहानी हम सभी जानते हैं कि राजा दशरथ की मृत्यु की खबर श्रीराम को दी गई थी, लेकिन ये बहुत कम लोग जानते हैं कि चार भाइयों ने मिलकर अपने पिता का अंतिम संस्कार किया था। पिता को अंतिम विदाई देने के पश्चात भरत ने बहुत कोशिश की कि श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण को लेकर वापस अयोध्या लौट आएं लेकिन उनकी यह कोशिश कामयाब ना हुई। श्रीराम ने अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहने का फैसला किया और भरत को राज्य का कार्यभार संभालने का आदेश दिया।
  • भरत ने राज्य संभाला- भरत ने भाई की आज्ञा का पालन तो किया, लेकिन अपने अंदाज़ में। उन्होंने श्रीराम की ‘पादुका’ को राजगद्दी पर स्थापित किया और खुद एक सेवक बनकर अयोध्या की सेवा की। भरत की पत्नी माण्डवी ने भी अपने पति के इस फैसले को सम्मानित किया और राज्य की शानो-शौकत छोड़कर सादगी से जीवन व्यतीत करने को अपना धर्म समझा। कहते हैं जमीन की जिस सतह पर श्रीराम का पलंग लगा था, भरत ने उस जमीन पर 1 फीट का गढ्डा खोदकर वहां अपना पलंग लगाया था। इसके बाद माण्डवी ने भरत के पलंग से भी 2 फीट नीचे अपना पलंग लगाया।
  • अयोध्या छोड़ने का फैसला- इतिहासकारों की मानें तो भरत एवं माण्डवी दोनों ने ही अयोध्या के महल में रहने से इनकार कर दिया था। अयोध्या और कौशल, दोनों राज्यों के कार्य को संभालने की जिम्मेदारी होने के कारण भरत एवं माण्डवी ने नंदीग्राम में रहने का फैसला किया जो अयोध्या एवं कौशल के बीचो-बीच एक जगह थी।
  • शत्रुघ्न एवं उनकी पत्नी- अंत में अयोध्या के महल में यदि कोई राजकुमार था तो वह थे शत्रुघ्न एवं उनकी पत्नी श्रुतकीर्ति, जिन्होंने महल में रुक कर श्रीराम की अनुपस्थिति में माता कैकेयी, माता कौशल्या और माता सुमित्रा की सेवा की।

नारद के श्राप की वजह से हुआ राम अवतार

एक दिन आकाश मार्ग से गमन करते हुये नारद मुनि को हिमालय में एक सुंदर गुफा दिखाई दी। नारद जी को वहाँ श्री विष्णु की भक्ति करने का मन हुआ और वे वहाँ बैठकर श्रीविष्णु की तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या को जब इंद्र ने देखा तो narada_and_shrimati.jpgउनको लगा की कहीं नारद मुनि उनके स्वर्ग को न हड़प लें अतः उन्होने कामदेव को आज्ञा की उनका ताप भंग करने के लिए। कामदेव, अप्सरा आदि ने खूब प्रयत्न किया परंतु वे नारद मुनि की तपस्या भंग नहीं कर सके। कामदेव ने श्राप के भय से नारद मुनि से क्षमा मांगी, नारद मुनि ने भी उन्हें क्षमा कर दिया। अब यहाँ नारद मुनि को अहंकार हो गया की उन्होने भी श्री विष्णु और महादेव की तरह कामदेव को जीत लिया है।

उन्होने जाकर यह बात महादेव को बताई और श्री विष्णु के पास जाकर भी अपनी प्रशंसा खुद करने लगे। श्री हरी विष्णु को यह बात बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी की उनका परम भक्त अहंकारी हो। अपने भक्त को इस अहंकार से मुक्त करने के लिए उन्होने लीला रची। अपनी माया से उन्होने एक नगर रच दिया। उस नगर में एक राजा और उसकी मोहिनी जैसी सुंदर कन्या थी। एक दिन नारद मुनि उस नगर से होकर निकले। सुंदर नगर को देख वे उस नगर के अतिथि बने। नगर के राजा ने उनका खूब आतिथ्य सत्कार किया। राजा ने अपनी पुत्री को नारद मुनि का आशीर्वाद लेने के लिए बुलाया, नारद उसे देख कर सबकुछ भूल गए और उस पर मोहित गए।

अब नारद के मन में उस सुंदर कन्या से विवाह का मन हुआ, और उस समय उस नगर का राजा अपनी पुत्री के स्वयंबर का आयोजन भी कर रहा था। नारद मुनि तुरंत भगवान विष्णु के पास गए और बोले- हे प्रभु एक नगर की सुंदर राजकुमारी मेरे मन को भा गयी है उस से विवाह करने की मेरी इच्छा है अतः आप मुझे अपना रूप प्रदान करने की कृपा करें ताकि वह कन्या स्वयंबर में मुझे अपना पति स्वीकार कर ले।

भगवान विष्णु ने सुंदर रूप की जगह नारद मुनि को एक वानर का रूप दे दिया और स्वयं भी उस स्वयंबर में जा पहुंचे। स्वयंबर में नारद मुनि को पूरा विश्वाश था की वह कन्या उनके ही गले में वरमाला डालेगी किन्तु ऐसा नहीं हुआ, उस कन्या ने नारद मुनि की तरफ देखा और आगे बढ़ गयी और श्री विष्णु के गले वरमाला डाल दी।

यह सब देख नारद मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ, इधर सारे राजा महाराजा नारद मुनि पर हस रहे थे। क्रोधित होकर नारद मुनि ने सबको श्राप देने की चेतावनी दी। तब सबने नारद मुनि से अपना मुख देखने को कहा। नारद मुनि ने पानी में अपना मुख देखा तो उन्हें अपना मुख वानर जैसा दिखाई दिया। अब नारद मुनि का क्रोध और बढ़ गया और जा पहुंचे वैकुंठ धाम।

वैकुंठ धाम आकर उन्होने श्रीविष्णु को श्राप दिया की आपने अपने भक्त के साथ ऐसा किया, आपने मुझे एक स्त्री से दूर किया है जाइए आपको भी किसी स्त्री का वियोग सहना पड़ेगा। ये वानर मुख जो आपने मुझे दिया है, यही वानर आपकी उस समय सहायता करेगा। इस श्राप को श्री विष्णु ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इसीलिए श्रीविष्णु को राम अवतार में सीता का वियोग सहना पड़ा और श्राप के अनुसार हनुमान जी ने उनकी सहायता की थी।

श्रीराम और हनुमान मिलन का रहस्य… जानिए कैसे हुई हनुमान जी और प्रभु श्री राम की प्रथम भेंट

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एक बार हनुमान जी ऋष्यमूक पर्वत की एक बहुत ऊंची चोटी पर बैठे हुए थे। उसी समय भगवान श्रीराम चंद्र जी सीता जी की खोज करते हुए लक्ष्मण जी के साथ ऋष्यमूक पर्वत के पास पहुंचे। ऊंची चोटी पर से वानरों के राजा सुग्रीव ने उन लोगों को देखा। उसने सोचा कि ये बाली के भेजे हुए दो योद्धा हैं, जो मुझे मारने के लिए हाथ में धनुष-बाण लिए चले आ रहे हैं।

दूर से देखने पर ये दोनों बहुत बलवान जान पड़ते हैं। डर से घबरा कर उसने हनुमान जी से कहा, ‘‘हनुमान! वह देखो, दो बहुत ही बलवान मनुष्य हाथ में धनुष-बाण लिए इधर ही बढ़े चले आ रहे हैं। लगता है, इन्हें बाली ने मुझे मारने के लिए भेजा है। ये मुझे ही चारों ओर खोज रहे हैं। तुम तुरंत तपस्वी ब्राह्मण का रूप बना लो और इन दोनों योद्धाओं के पास जाओ तथा यह पता लगाओ कि ये कौन हैं और यहां किसलिए घूम रहे हैं। अगर कोई भय की बात जान पड़े तो मुझे वहीं से संकेत कर देना। मैं तुरंत इस पर्वत को छोड़कर कहीं और भाग जाऊंगा।’’

सुग्रीव को अत्यंत डरा हुआ और घबराया देखकर हनुमान जी तुरंत तपस्वी ब्राह्मण का रूप बनाकर भगवान श्रीरामचंद्र और लक्ष्मण जी के पास जा पहुंचे। उन्होंने दोनों भाइयों को माथा झुकाकर प्रणाम करते हुए कहा, ‘‘प्रभो! आप लोग कौन हैं? कहां से आए हैं? यहां की धरती बड़ी ही कठोर है। आप लोगों के पैर बहुत ही कोमल हैं। किस कारण से आप यहां घूम रहे हैं? आप लोगों की सुंदरता देखकर तो ऐसा लगता है-जैसे आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से कोई हों या नर और नारायण नाम के प्रसिद्ध ऋषि हों। आप अपना परिचय देकर हमारा उपकार कीजिए।’’

हनुमान जी की मन को अच्छी लगने वाली बातें सुनकर भगवान श्री रामचंद्र जी ने अपना और लक्ष्मण का परिचय देते हुए कहा कि, ‘‘राक्षसों ने सीता जी का हरण कर लिया है। हम उन्हें खोजते हुए चारों ओर घूम रहे हैं। हे ब्राह्मण देव! मेरा नाम राम तथा मेरे भाई का नाम लक्ष्मण है। हम अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के पुत्र हैं। अब आप अपना परिचय दीजिए।’’ भगवान श्रीरामचंद्र जी की बातें सुनकर हनुमान जी ने जान लिया कि ये स्वयं भगवान ही हैं। बस वह तुरंत ही उनके चरणों पर गिर पड़े। श्री राम ने उठाकर उन्हें गले से लगा लिया।

हनुमान जी ने कहा, ‘‘प्रभो! आप तो सारे संसार के स्वामी हैं। मुझसे मेरा परिचय क्या पूछते हैं? आपके चरणों की सेवा करने के लिए ही मेरा जन्म हुआ है। अब मुझे अपने परम पवित्र चरणों में जगह दीजिए।’’

भगवान श्री राम ने प्रसन्न होकर उनके मस्तक पर अपना हाथ रख दिया। हनुमान जी ने उत्साह और प्रसन्नता से भरकर दोनों भाइयों को उठाकर कंधे पर बैठा लिया। सुग्रीव ने उनसे कहा था कि भय की कोई बात होगी तो मुझे वहीं-से संकेत करना। हनुमान जी ने राम लक्ष्मण को कंधे पर बिठाया-यही सुग्रीव के लिए संकेत था कि इनसे कोई भय नहीं है। उन्हें कंधे पर बिठाए हुए ही वह सुग्रीव के पास आए और उनसे सुग्रीव का परिचय कराया। भगवान श्री राम ने सुग्रीव के दुख और कष्ट की सारी बातें जानीं। उसे अपना मित्र बनाया और दुष्ट बाली को मार कर उसे किष्किंधा का राजा बना दिया। इस प्रकार हनुमान जी की सहायता से सुग्रीव का सारा दुख दूर हो गया।

रामसेतू का रहस्य… राम नाम से कैसे पानी में तैरा पत्थर

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कभी आपके साथ ऐसा हुआ है कि आपने कोई पत्थर पानी में फेंका और वह डूबा नहीं, बल्कि पानी की सतह पर तैरता चला गया हो? शायद नहीं, क्योंकि पत्थर का एक पर्याप्त वजन पानी को चीरते हुए खुद को उसमें डुबो ही लेता है। फिर आश्चर्य की बात है कि सदियों पहले श्रीराम की वानर सेना द्वारा बनाए गए रामसेतु पुल के पत्थर पानी में डालते ही डूबे क्यों नहीं?

एडेम्स ब्रिज- जी हां, वही रामसेतु जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘एडेम्स ब्रिज’ के नाम से जाना जाता है। हिन्दू धार्मिक ग्रंथ रामायण के अनुसार यह एक ऐसा पुल है, जिसे भगवान विष्णु के सातवें एवं हिन्दू धर्म में विष्णु के सबसे ज्यादा प्रसिद्ध रहे अवतार श्रीराम की वानर सेना द्वारा भारत के दक्षिणी भाग रामेश्वरम पर बनाया गया था, जिसका दूसरा किनारा वास्तव में श्रीलंका के मन्नार तक जाकर जुड़ता है।

  • भारत के दक्षिण में धनुषकोटि तथा श्रीलंका के उत्तर पश्चिम में पम्बन तक चट्टानों की जिस चेन को रामसेतु कहा जाता है दुनिया में एडम्स ब्रिज (आदम का पुल) नाम से जाना जाता है।
  • इस पुल की लंबाई 30 मील यानि 48 किलोमीटर है। यह ढांचा मन्नार की खाड़ी और पाक जलडमरू मध्य को एक दूसरे से अलग करता है।
  • अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (नासा) ने जब 1993 में दुनिया भर में जारी किया तो भारत में इसे लेकर राजनीतिक विवाद पैदा हो गया था.
  • इस इलाके में समुद्र काफी उथला है। समुद्र में इन चट्टानों की गहराई सिर्फ 3 फुट से लेकर 30 फुट के बीच है। अनेक जगहों पर यह सूखी और कई जगहों पर उथली है जिसके चलते जहाजों की आवाजाही मुमकिन नहीं है।
  • इसके बारे में कहा जाता है कि 15वीं शताब्दी में इस ढांचे पर चलकर रामेश्वर से मन्नार द्वीप तक जाया जा सकता था। लेकिन, तूफानों ने समुद्र को कुछ और गहरा किया और 1480 ईस्वी में यह चक्रवात के चलते टूट गया।

पत्थर पानी में नहीं डूबे- ऐसी मान्यता है कि इस पुल को बनाने के लिए जिन पत्थरों का इस्तेमाल किया गया था वह पत्थर पानी में फेंकने के बाद समुद्र में नहीं डूबे। बल्कि पानी की सतह पर ही तैरते रहे। ऐसा क्या कारण था कि यह पत्थर पानी में नहीं डूबे? कुछ लोग इसे धार्मिक महत्व देते हुए ईश्वर का चमत्कार मानते हैं लेकिन साइंस इसके पीछे क्या तर्क देता है यह बिल्कुल विपरीत है। धार्मिक मान्यता अनुसार जब असुर सम्राट रावण माता सीता का हरण कर उन्हें अपने साथ लंका ले गया था, तब श्रीराम ने वानरों की सहायता से समुद्र के बीचो-बीच एक पुल का निर्माण किया था। यही आगे चलकर रामसेतु कहलाया था। कहते हैं ram_navmi_01_1460527.jpgकि यह विशाल पुल वानर सेना द्वारा केवल 5 दिनों में ही तैयार कर लिया गया था। कहते हैं कि निर्माण पूर्ण होने के बाद इस पुल की लम्बाई 30 किलोमीटर और चौड़ाई 3 किलोमीटर थी।

कैसे पार करें समुद्र? तब श्रीराम ने फैसला किया कि वे स्वयं अपनी सेना के साथ लंका जाकर ही सबको रावण की कैद से छुड़ाएंगे। लेकिन यह सब कैसे होगा, यह एक बड़ा सवाल था। क्योंकि निश्चय तो था लेकिन रास्ते में था एक विशाल समुद्र जिसे पार करने का कोई जरिया हासिल नहीं हो रहा था।

समुद्र देवता की पूजा – एक पौराणिक कथा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि अपनी मुश्किल का हल निकालने के लिए श्रीराम द्वारा समुद्र देवता की पूजा आरंभ की गई। लेकिन जब कई दिनों के बाद भी समुद्र देवता प्रकट नहीं हुए तब क्रोध में आकर श्रीराम ने समुद्र को सुखा देने के उद्देश्य से अपना धनुष-बाण उठा लिया।

समुद्र देवता प्रकट हुए- उनके इस कदम से समुद्र के प्राण सूखने लगे। तभी भयभीत होकर समुद्र देवता प्रकट हुए और बोले, “श्रीराम! आप अपनी वानर सेना की मदद से मेरे ऊपर पत्थरों का एक पुल बनाएं। मैं इन सभी पत्थरों का वजन सम्भाल लूंगा। आपकी सेना में नल एवं नील नामक दो वानर हैं, जो सर्वश्रेष्ठ हैं।“

नल-नील का उपयोग- “नल, जो कि भगवान विश्वकर्मा के पुत्र हैं उन्हें अपने पिता द्वारा वरदान हासिल है। उनकी सहायता से आप एक कठोर पुल का निर्माण कराएं। यह पुल आपकी सारी सेना का भार संभाल लेगा और आपको लंका ले जाने में सफल होगा”, ऐसा कहते हुए समुद्र देव ने श्रीराम से पुल बनाने का विनम्र अनुरोध किया। अंत में नल तथा नील की देखरेख तथा पूर्ण वैज्ञानिक योजनाओं के आधार पर एक विशाल पुल तैयार किया गया। वैज्ञानिकों का मानना है कि नल तथा नील शायद जानते थे कि कौन सा पत्थर किस प्रकार से रखने से पानी में डूबेगा नहीं तथा दूसरे पत्थरों का सहारा भी बनेगा।

रामसेतु सिर्फ आस्था ही नहीं विज्ञान का विषय भी… दिसंबर 2017 में साइंस चैनल ने व्हाट ‘ऑन अर्थ एनसिएंट लैंड एंड ब्रिज’ नाम से एक डॉक्यूमेंट्री बनाई… जिसमें भू-वैज्ञानिकों की तरफ से यह विश्लेषण इस ढांचे के बारे में किया गया… वैज्ञानिकों के विश्लेषण के बाद पत्थर के बारे में रहस्य और गहरा गया है कि आखिर ये पत्थर यहां पर कैसे पहुंचा और कौन लेकर आया…

क्या है उनका दावा-

  • भू-वैज्ञानिकों ने नासा की तरफ से ली गई तस्वीर को प्राकृतिक बताया है।
  • वैज्ञानिकों ने अपने विश्लेषण में यह पाया कि 30 मील लंबी यह श्रृंखला चेन मानव निर्मित है।
  • अपने विश्लेषण में भू-वैज्ञानिकों को यह पता चला कि जिस सैंड पर यह पत्थर रखा हुआ है ये कहीं दूर जगह से यहां पर लाया गया है।
  • उनके मुताबिक, यहां पर लाया गए पत्थर करीब 7 हजार साल पुराना है।
  • जबकि, जिस सैंड के ऊपर यह पत्थर रखा गया है वह मजह सिर्फ चार हजार साल पुराना है।

रामसेतु पर राजनीति, क्यों मचा विवाद

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  • 19 मई 2005 में भारत सरकार (UPA-1) ने सेतुसमुद्रम परियोजना का ऐलान किया था। इसके तहत रामसेतु (Adam’s Bridge) के कुछ इलाकों को गहरा कर समुद्री जहाजों के लायक बनाए जाने की योजना थी। इसके लिए सेतु की चट्टानों को तोड़ना जरुरी था।
  • माना जा रहा था कि सेतु समुद्रम परियोजना पूरी होने के बाद सारे अंतरराष्ट्रीय जहाज कोलंबो बंदरगाह का लंबा मार्ग छोड़कर इसी नहर से गुजरेंगें।
  • अनुमान था कि 2000 या इससे अधिक जलपोत प्रतिवर्ष इस नहर का उपयोग करेंगे।
  • मार्ग छोटा होने से सफर का समय और लंबाई तो छोटी होगी हीसंभावना है कि जलपोतों का 22 हजार करोड़ रुपये का तेल बचेगा।
  • बनने के बाद परियोजना 5000 करोड़ से अधिक का व्यवसाय करने लगेगी जबकि इसके निर्माण में 2500 करोड़ की राशि खर्च होने का अनुमान है।
  • इस परियोजना से रामेश्वरम देश का सबसे बड़ा शिपिंग हार्बर बन जाएगा, तूतिकोरन हार्बर एक नोडल पोर्ट में तब्दील हो जाएगा।

कैसे पहुंचा सुप्रीम कोर्ट में मामला 

सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर जून2007 में मद्रास हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए इस बाबत जवाब मांगा था। लेकिन सरकार ने जवाब नहीं दिया। इस बीच उनकी याचिका सुप्रीम कोर्ट स्थानांतरित हो गई- सुप्रीम कोर्ट ने भी जुलाई  2007 में सरकार को हाईकोर्ट के आदेश पर अमल करने को कहा लेकिन फिर भी केंद्र सरकार ने जवाबी हलफनामा दाखिल नहीं किया।

12 सितंबर 2007- कोर्ट में केंद्र में UPA-1 सरकार ने दिया हलफनामा, छिड़ा विवाद- UPA-1 सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर राम के अस्तित्व पर ही सवाल उठा दिए थे… No historical proof of Ram, Centre tells SC

राम आस्था के केंद्रपर ऐतिहासिक नहीं‘- केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि ऐसा कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैजिससे भगवान राम या रामायण के अन्य चरित्रों के अस्तित्व की पुष्टि होती हो।
  • अदालत में हलफनामा दायर कर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने उस दावे को खारिज किया जिसमेंरामसेतु पुल‘ के होने की बात कही गई है। रामायण का जिक्र करते हुए हलफनामे में कहा गया है कि इस बात का कोई ऐतिहासिक रेकॉर्ड नहीं हैजिससे रामायण के किसी चरित्र या घटनाओं के अस्तित्व को साबित किया जा सके।
  • एएसआई के हलफनामे में उसके निदेशक (स्मारक) सी. दोरजी ने कहा है- राहत की मांग कर रहे याचिकाकर्ता मूलरूप से वाल्मीकि रामायणतुलसीदास की राम चरित्र मानस और पौराणिक ग्रंथों पर विश्वास कर रहे हैंजो प्राचीन भारतीय साहित्य का महत्वपूर्ण अंग हैंलेकिन इन्हें ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं कहा जा सकता और उनमें वर्णित चरित्रों तथा घटनाओं को भी प्रामाणिक सिद्ध नहीं किया जा सकता।
  • हलफनामे में कहा गया है कि एएसआई इन ग्रंथों पर दुनिया भर के हिंदुओं के अगाध धार्मिक विश्वास से अच्छी तरह परिचित है और उसका सम्मान भी करता हैलेकिन इस मामले में वैज्ञानिक तरीके से मानव इतिहास का अध्ययन किया जाना चाहिएजो एएसआई का प्राथमिक उद्देश्य भी है। यह स्टडी टेक्नॉलजी की मदद से होनी चाहिए और इसके नतीजे भी प्रामाणिक होने चाहिए।

14 सितंबर 2007- ‘रामसेतु‘ का हलफनामा वापस- विपक्ष के उग्र तवरों के बाद केंद्र सरकार नेराम-सेतु‘ पर सुप्रीम कोर्ट में दायर किए गए हलफ़नामा को वापस ले लिया है. सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाले दो सदस्यीय पीठ के सामने केंद्र सरकार के वकील गोपाल सुब्रमण्यम ने एएसआई की याचिका वापस लेने का अनुरोध किया. उन्होंने कहा, “हम किसी समुदाय की भावनाएँ आहत नहीं करना चाहते और न ही किसी धर्मावलंबी की आस्था पर चोट करना चाहते हैं।

29 फरवरी 2008- नया हलफनामा दायर किया- सुप्रीम कोर्ट से दो बार हलफनामा दायर करने के लिए समय बढ़वाने के बाद आखिरकार 29 फरवरी को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में 60 पेज का नया हलफनामा दायर किया जिसमें कहा कि रामसेतु के मानव निर्मित अथवा प्राकृतिक बनावट सुनिश्चित करने के लिए कोई वैज्ञानिक विधि मौजूद नहीं है।
 
23 जुलाई 2008- एक और हलफनामा– रामसेतु तो खुद राम ने ही तोड़ दिया था- रामसेतु मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में केन्द्र सरकार ने हलफनामा देकर कहा है कि रामसेतु जैसी कोई चीज कभी थी ही नहीं। यहां तक कि तमिल रामायण का हवाला देकर ये भी कहा गया है कि रामसेतु खुद राम ने ही लंका से लौटते हुए तोड़ दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि रामसेतु आस्था से जुड़ी चीज है इसलिए प्रोजेक्ट शुरू करने से पहले आस्था से जुड़ी बातों का ध्यान रखना जरूरी है।
 
29 जुलाई 2008- फ़ाली एस नरीमनकेंद्र सरकार के वकील ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी- जहाँ तक केंद्र सरकार का सवाल है तो सरकार का स्पष्ट मत है कि राम सेतु राष्ट्रीय स्मारक या धरोहर में शामिल होने के मानकों को पूरा नहीं करता… सुप्रीम कोर्ट उन याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी जिसमें माँग की गई थी कि राम सेतु को राष्ट्रीय स्माकर घोषित कर देना चाहिए।
 
29 जुलाई 2008- सरकार ने आर.के.पचौरी की अध्यक्षता में सदस्यीय कमेटी गठित की- सुप्रीम कोर्ट ने 23 जुलाई, 2008 को सेतुसमुद्रम शिप चैनल प्रोजेक्ट के वैकल्पिक मार्ग की संभावना तलाशने के लिए जाने-माने वैज्ञानिक आर.के.पचौरी की अध्यक्षता में एक समिति के गठन का आदेश दिया था। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर केंद्र सरकार ने 29 जुलाई, 2008 को समिति गठित की थी।
 
14 अक्टूबर 2008- केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में written arguments फाइल कर बोला किKamba Ramayana जो Tamil saint Kambar द्वारा लिखी गई थी उसमें कहा गया है कि राम ने खुद रामसेतु को तोड़ा था।
 
जुलाई 2012- पचौरी ने सौंपी रिपोर्ट- आरके पचौरी समिति ने साफतौर पर कहा है कि सेतुसमुद्रम परियोजना पर वैकल्पिक रास्ता पर्यावरण के मुताबिक और आर्थिक रूप से व्यावहारिक नहीं है… पचौरी समिति ने कहा है कि यह परियोजना गले की फांस होगीहमेशा जहाजों के फंसने की जड़ बनेगीपानी के जहाजों का आवागमन संभव नहीं हो सकता है। तेल और गैसों के रिसाव का खतरा हमेशा बना रहेगासमुद्री जीवों के अस्तित्व पर भी खतरा बन जाएगा। समुद्र में पारिस्थितिकी संकट उत्पन्न हो जाएगा। समुद्री पारिस्थितिकी असंतुलन को आमंत्रण देना भी आत्मघाती कदम होगा। 
 
जुलाई 2012- केंद्र की UPA-2 सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि एक उच्चस्तरीय समिति की रिपोर्ट से संकेत मिले हैं कि सेतुसमुद्रम परियोजना पर वैकल्पिक रास्ता पर्यावरण के मुताबिक और आर्थिक रूप से व्यावहारिक नहीं है. सुप्रीम कोर्ट में पेश हुए सॉलिसिटर जनरल रोहिनटन नरिमन ने कहा कि सरकार ने अभी पर्यावरणविद आरके पचौरी के नेतृत्व में बनी समिति की रिपोर्ट पर गौर नहीं किया है और न ही कोई फैसला लिया है।
 
22 फरवरी 2013- रामसेतु तोड़ने पर अडिग है केंद्र सरकार- केंद्र सरकार भगवान राम के बनाए सेतु को तोड़कर सेतुसमुद्रम परियोजना का निर्माण करने पर अडिग है। सरकार ने सर्वोच्च अदालत से कहा है कि 829 करोड़ खर्च करने के बाद इस परियोजना को बंद नहीं किया जा सकता। अपनी परियोजना को आर्थिक और पर्यावरण के लिहाज से सही ठहराते हुए केंद्र ने वैकल्पिक मार्ग के लिए गठित पर्यावरणविद् आरके पचौरी समिति की सिफारिशों को नकार दिया। सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में जहाजरानी मंत्रालय के उपसचिव अनंत किशोर सरन ने सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे यह भी कहा है कि केंद्र सरकार ने 2007 में विशिष्ठ व्यक्तियों की एक समिति का गठन किया था। उसकी ओर से इस परियोजना को मंजूरी प्रदान की गई थी। परियोजना समुद्र मार्ग निर्देशनसुरक्षा व रणनीतिक लिहाज से और आर्थिक लाभ के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।  सरकार 30 जून, 2012 तक परियोजना पर829 करोड़ 32 लाख रुपये खर्च कर चुकी है।
14 अगस्त 2014- मोदी सरकार ने किया ऐलाननहीं टूटेगा रामसेतु- सेतुसमुद्रम परियोजना के लिए रामसेतु को तोड़ने की किसी भी संभावना से सरकार ने साफ इनकार कर दिया है। इस परियोजना के तहत तमिलनाडु से श्रीलंका के बीच एक ऐसा जलमार्ग तैयार करना हैजिससे उस रास्ते से जहाज गुजर सकें।  लोकसभा में जवाब देते हुए जहाजरानी मंत्री नितिन गडकरी ने साफ कहा कि इस परियोजना के लिए रास्ते में आने वाले रामसेतु को किसी भी हालत में नहीं तोड़ा जाएगा। गडकरी ने कहा कि इस मामले में ऐसा हल निकाला जाएगाजो सभी पक्षों को मान्य होगा।
 
26 नवम्बर, 2015 केंद्र ने सेतु समुद्रम पर सुप्रीम कोर्ट से चार हफ्ते की मोहलत मांगी- केंद्र सरकार ने विवादित सेतुसमुद्रम परियोजना पर अपना रुख स्पष्ट करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से चार सप्ताह की मोहलत मांगी। इस परियोजना को भारत के पूर्वी और पश्चिमी तटों के बीच नौपरिवहन की सुविधा का सूत्रपात करने के लिए शुरू किया गया थालेकिन विगत दिनों केंद्र सरकार ने संसद में एक बयान में इस परियोजना को रोकने की बात कही थी।
 
13 नवंबर 2017- सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार को दिया 6 हफ्तों का समय- सुप्रीम कोर्ट ने राम सेतु मामले में कहा है कि केंद्र सरकार को अपना रुख साफ करना होगा कि क्या रामसेतु की पहचान पुरातात्विक स्थल के रूप में हो या नहीं. बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने 13 नवंबर 2017 को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को राम सेतु पर हलफनामा दर्ज करने के लिए हफ्तों का समय दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि केंद्र को यह स्पष्ट करना होगा कि क्या वे राम सेतु पुल को हटाना चाहती है या इसकी रक्षा करना चाहती है।

 

72 दिनों तक चला था राम-रावण युद्ध

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  • स्कंद पुराण के अनुसार- रावण वध के सम्बन्ध में स्कंद पुराण के धर्मारण्य महात्म्य में दी गई कथा के अनुसार राम-रावण युद्ध माघ शुक्ल द्वितीया से लेकर चैत्र कृष्ण चतुर्दशी तक 87 दिन तक चला। लक्ष्मण मूर्छा के कारण बीच में केवल 15 दिन संग्राम बंद रहा और शेष 72 दिन तक दोनों पक्षों में युद्ध हुआ था। इस पौराणिक कथा के अनुसार माघ शुक्ल प्रतिपदा को अंगद जी दूत बनकर रावण के दरबार में गए। इसके बाद द्वितीया को सीताजी को माया से उनके पति के कटे हुए मस्तक का दर्शन कराया गया और उस दिन से अष्टमी तक राक्षसों और वानरों के बीच घमासान युद्ध हुआ।
  • माघ कृष्ण नवमी से चार दिन तक कुंभकर्ण ने घोर युद्ध किया और बहुत से वानरों को मार डाला। अंत में श्री रामजी के हाथों कुंभकर्ण मारा गया। बाद में फाल्गुन शुक्ल द्वादशी से चैत्र चतुदर्शी तक 18 दिनों तक युद्ध करके श्रीराम ने रावण को मार डाला और अमावस्या के दिन रावण आदि राक्षसों के दाह संस्कार किए गए। जाने-माने रामायणविद आचार्य हंसादत्त त्रिपाठी भी रावण वध का वास्तविक समय चैत्र मास में ही बताते हैं।

10 करोड़ थी रावण की सेना फिर भी 72 दिन ही चला था रामायण का युद्ध!
अश्विन शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को शुरू हुआ था रामायण का युद्ध, दशहरे के दिन यानि दशमी को रावण वध के साथ ही समाप्त हो गया था. पढ़ने वालो को लगता है की ये तो रातो रात ही हो गया लेकिन वो रात कितनी लम्बी थी इसका अंदाजा आप और मैं नही सिर्फ देवता ही लगा सकते है.

इस बात का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है की रावण की सेना की संख्या 10, 00,00,000 थी, इसके बावजूद भी सिर्फ वानरों की सेना के सहारे ही भगवान राम ने सिर्फ आठ दिन में ही युद्ध समाप्त कर रावण का वध किया.

युद्ध में एक बार श्री राम और दो बार लक्ष्मण हार गए थे, लेकिन फिर भी रावण ने मर्यादा रखी और मूर्छित और युद्ध से अपहृत ही राम सेना पर आक्रमण नही किया था.

रावण की सेना में उसके सात पुत्र और कई भाई सेना नायक थे इतना ही नहीं रावण के कहने पर उसके भाई अहिरावण और महिरावण ने भी श्री राम और लक्ष्मण का छल से अपहरण कर खात्मे की कोशिश की थी. रावण स्वयं दशग्रीव था और उसके नाभि में अमृत होने के कारन लगभग अमर था.

रावण का पुत्र मेघनाद ( जन्म के समय रोने की नहीं बल्कि मुख से बदलो की गरज की आवाज आई थी) को स्वयं ब्रह्मा ने इंद्र को प्राण दान देने पर इंद्रजीत का नाम दिया था. ब्रह्मा ने उसे वरदान भी मांगने बोला तब उसने अमृत्व माँगा पर वो न देके ब्रह्मा ने उसे युद्ध के समय अपनी कुलदेवी का अनुष्ठान करने की सलाह दी, जिसके जारी रहते उसकी मृत्यु असंभव थी.

रावण का पुत्र अतिक्या जो की अदृश्य होने युद्ध करता था, अगर उसकी मौत का रहस्य देवराज इंद्र लक्ष्मण को न बताते तो उसकी भी मृत्यु होनी असंभव थी. रावण का भाई कुम्भकरण जिसे स्वयं नारद मुनि ने दर्शन शाश्त्र की शिक्षा दी थी, उससे इंद्र भी ईर्ष्या करता था ये जान कर की वो अधर्म के पक्ष में है भाई के मान के लिए अपनी आहुति दी थी.

अदृश्य इंद्रजीत के बाण से लक्ष्मण का जीवित रहना असंभव था, ये सोच कर ही श्रीराम का दिल बैठ रहा था की वो अयोध्या में अपनी माँ से कैसे नज़ारे मिलाएंगे, उनका कलेजा बैठ गया था. लक्ष्मण अगले दिन का सूर्य न देखते अगर हहमान संजीवनी बूटी वाला पर्वत न उठा लाते ( एक भाई के लिए वो रात कितनी लम्बी रही होगी).

इंद्रजीत के नागपाश के कारन श्री राम और लक्ष्मण का अगले दिन की सुबह देखना नामुमकिन था तब हनुमान वैकुण्ठ से विष्णु के वाहन गरुड़ को लेके आये और उनके प्राण बचे. समस्त वानर सेना जो राम के भरोसे लंका पर चढ़ाई कर चली थी उनके लिए ये रात कितनी लम्बी थी.

अहिरावण और महिरावण शिविर में सोये रामलखन को मूर्छित कर अपहृत कर ले गए और दोनों भाइयो की बलि देने लगे, तब हनुमान ने अहिरावण और महिरावण की ही बलि दे दी. वो रात भी वानर शिविर के लिए किसी युग से कम न थी, ऐसे बहुत से विस्मयकारण है जो रामायण के युद्ध को महान बनाते है।

प्रभु श्रीराम से जुड़े कुछ अन्य रहस्य…

कौन थीं भगवान राम की बहन

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दुनियाभर में 300 से ज्यादा रामायण प्रचलित हैं। उनमें वाल्मीकि रामायण, कंबन रामायण और रामचरित मानस, अद्भुत रामायण, अध्यात्म रामायण और आनंद रामायण की चर्चा ज्यादा होती है। उक्त रामायण का अध्ययन करने पर हमें रामकथा से जुड़े कई नए तथ्‍यों की जानकारी मिलती है। इसी तरह अगर दक्षिण की रामायण की मानें तो भगवान राम की एक बहन भी थीं, जो उनसे बड़ी थी।

अब तक आप सिर्फ यही जानते आए हैं कि राम के तीन भाई लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न थे, लेकिन राम की बहन के बारे में कम लोग ही जानते हैं। बहुत दुखभरी कथा है राम की बहन की, लोग उनकी सच्चाई जानेंगे तो राम को कठोर दिल वाला मानेंगे और दशरथ को स्वार्थी। आओ जानते हैं कि राम की यह बहन कौन थीं। इसका नाम क्या था और यह कहां रहती थी।

श्रीराम की दो बहनें भी थी एक शांता और दूसरी कुकबी। हम यहां आपको शांता के बारे में बताएंगे। दक्षिण भारत की रामायण के अनुसार राम की बहन का नाम शांता था, जो चारों भाइयों से बड़ी थीं। शांता राजा दशरथ और कौशल्या की पुत्री थीं, लेकिन पैदा होने के कुछ वर्षों बाद कुछ कारणों से राजा दशरथ ने शांता को अंगदेश के राजा रोमपद को दे दिया था।

भगवान राम की बड़ी बहन का पालन-पोषण राजा रोमपद और उनकी पत्नी वर्षिणी ने किया, जो महारानी कौशल्या की बहन अर्थात राम की मौसी थीं।

इस संबंध में तीन कथाएं हैं:

  • पहली कथा : वर्षिणी नि:संतान थीं तथा एक बार अयोध्या में उन्होंने हंसी-हंसी में ही बच्चे की मांग की। दशरथ भी मान गए। रघुकुल का दिया गया वचन निभाने के लिए शांता अंगदेश की राजकुमारी बन गईं। शांता वेद, कला तथा शिल्प में पारंगत थीं और वे अत्यधिक सुंदर भी थीं।
  • दूसरी कथा : लोककथा अनुसार शांता जब पैदा हुई, तब अयोध्‍या में अकाल पड़ा और 12 वर्षों तक धरती धूल-धूल हो गई। चिंतित राजा को सलाह दी गई कि उनकी पुत्री शां‍ता ही अकाल का कारण है। राजा दशरथ ने अकाल दूर करने के लिए अपनी पुत्री शांता को वर्षिणी को दान कर दिया। उसके बाद शां‍ता कभी अयोध्‍या नहीं आई। कहते हैं कि दशरथ उसे अयोध्या बुलाने से डरते थे इसलिए कि कहीं फिर से अकाल नहीं पड़ जाए।
  • तीसरी कथा : कुछ लोग मानते थे कि राजा दशरथ ने शां‍ता को सिर्फ इसलिए गोद दे दिया था, क्‍योंकि वह लड़की होने की वजह से उनकी उत्‍तराधिकारी नहीं बन सकती थीं।

राजा दशरथ और इनकी तीनों रानियां इस बात को लेकर चिंतित रहती थीं कि पुत्र नहीं होने पर उत्तराधिकारी कौन होगा। इनकी चिंता दूर करने के लिए ऋषि वशिष्ठ सलाह देते हैं कि आप अपने दामाद ऋंग ऋषि से पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाएं। इससे पुत्र की प्राप्ति होगी।

दशरथ ने उनके मंत्री सुमंत की सलाह पर पुत्रकामेष्ठि यज्ञ में महान ऋषियों को बुलाया। इस यज्ञ में दशरथ ने ऋंग ऋषि को भी बुलाया। ऋंग ऋषि एक पुण्य आत्मा थे तथा जहां वे पांव रखते थे वहां यश होता था। सुमंत ने ऋंग को मुख्य ऋत्विक बनने के लिए कहा। दशरथ ने आयोजन करने का आदेश दिया। पहले तो ऋंग ऋषि ने यज्ञ करने से इंकार किया लेकिन बाद में शांता के कहने पर ही ऋंग ऋषि राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ करने के लिए तैयार हुए थे। लेकिन दशरथ ने केवल ऋंग ऋषि (उनके दामाद) को ही आमंत्रित किया लेकिन ऋंग ऋषि ने कहा कि मैं अकेला नहीं आ सकता। मेरी पत्नी शांता को भी आना पड़ेगा। ऋंग ऋषि की यह बात जानकर राजा दशरथ विचार में पड़ गए, क्योंकि उनके मन में अभी तक दहशत थी कि कहीं शांता के अयोध्या में आने से फिर से अकाल नहीं पड़ जाए।

लेकिन जब पुत्र की कामना से पुत्र कामेष्ठि यज्ञ के दौरान उन्‍होंने अपने दामाद ऋंग ऋषि को बुलाया, तो दामाद ने शां‍ता के बिना आने से इंकार कर दिया।

तब पुत्र कामना में आतुर दशरथ ने संदेश भिजवाया कि शांता भी आ जाए। शांता तथा ऋंग ऋषि अयोध्या पहुंचे। शांता के पहुंचते ही अयोध्या में वर्षा होने लगी और फूल बरसने लगे। शांता ने दशरथ के चरण स्पर्श किए। दशरथ ने आश्चर्यचकित होकर पूछा कि ‘हे देवी, आप कौन हैं? आपके पांव रखते ही चारों ओर वसंत छा गया है।’ जब माता-पिता (दशरथ और कौशल्या) विस्मित थे कि वो कौन है? तब शांता ने बताया कि ‘वो उनकी पुत्री शांता है।’ दशरथ और कौशल्या यह जानकर अधिक प्रसन्न हुए। वर्षों बाद दोनों ने अपनी बेटी को देखा था।

दशरथ ने दोनों को ससम्मान आसन दिया और उन दोनों की पूजा-आरती की। तब ऋंग ऋषि ने पुत्रकामेष्ठि यज्ञ किया तथा इसी से भगवान राम तथा शांता के अन्य भाइयों का जन्म हुआ। -सत्यसाई बाबा।

कहते हैं कि पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने वाले का जीवनभर का पुण्य इस यज्ञ की आहुति में नष्ट हो जाता है। इस पुण्य के बदले ही राजा दशरथ को पुत्रों की प्राप्ति हुई। राजा दशरथ ने ऋंग ऋषि को यज्ञ करवाने के बदले बहुत-सा धन दिया जिससे ऋंग ऋषि के पुत्र और कन्या का भरण-पोषण हुआ और यज्ञ से प्राप्त खीर से राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। ऋंग ऋषि फिर से पुण्य अर्जित करने के लिए वन में जाकर तपस्या करने लगे।

जनता के समक्ष शान्ता ने कभी भी किसी को नहीं पता चलने दिया कि वो राजा दशरथ और कौशल्‍या की पुत्री हैं। यही कारण है कि रामायण या रामचरित मानस में उनका खास उल्लेख नहीं मिलता है।

कहते हैं कि जीवनभर शांता राह देखती रही अपने भाइयों की कि वे कभी तो उससे मिलने आएंगे, पर कोई नहीं गया उसका हाल-चाल जानने। मर्यादा पुरुषोत्तम भी नहीं, शायद वे भी रामराज्‍य में अकाल पड़ने से डरते थे।

कहते हैं कि वन जाते समय भगवान राम अपनी बहन के आश्रम के पास से भी गुजरे थे। तनिक रुक जाते और बहन को दर्शन ही दे देते। बिन बुलाए आने को राजी नहीं थी शांता। सती माता की कथा सुन चुकी थी बचपन में, दशरथ से। ऐसा माना जाता है कि ऋंग ऋषि और शांता का वंश ही आगे चलकर सेंगर राजपूत बना। सेंगर राजपूत को ऋंगवंशी राजपूत कहा जाता है।

नहीं किया था प्रभु राम ने सीता का परित्याग
सीता 2 वर्ष तक रावण की अशोक वाटिका में बंधक बनकर रहीं लेकिन इस दौरान रावण ने सीता को छुआ तक नहीं। इसका कारण था कि रावण को स्वर्ग की अप्सरा ने यह शाप दिया था कि जब भी तुम किसी ऐसी स्त्री से प्रणय करोगे, जो तुम्हें नहीं चाहती है तो तुम तत्काल ही मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे अत: रावण किसी भी स्त्री की इच्छा के बगैर उससे प्रणय नहीं कर सकता था। सीता को मु‍क्त करने के बाद समाज में यह प्रचारित है कि अग्निपरीक्षा के बाद राम ने प्रसन्न भाव से सीता को ग्रहण किया और उपस्थित समुदाय से कहा कि उन्होंने लोक निंदा के भय से सीता को ग्रहण नहीं किया था। किंतु अब अग्निपरीक्षा से गुजरने के बाद यह सिद्ध होता है कि सीता पवित्र है, तो अब किसी को इसमें संशय नहीं होना चाहिए। लेकिन इस अग्निपरीक्षा के बाद भी जनसमुदाय में तरह-तरह की बातें बनाई जाने लगीं, तब राम ने सीता को छोड़ने का मन बनाया। यह बात उत्तरकांड में लिखी है। यह मूल रामायण में नहीं है।

राजा राम या भगवान
हिन्दू धर्म के आलोचक खासकर ‘राम’ की जरूर आलोचना करते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि ‘राम’ हिन्दू धर्म का सबसे मजबूत आधार स्तंभ है। इस स्तंभ को गिरा दिया गया तो हिन्दुओं को धर्मांतरित करना और आसान हो जाएगा। इसी नी‍ति के चलते तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ मिलकर ‘राम’ को एक सामान्य पुरुष घोषित करने की साजिश की जाती रही है। वे कहते हैं कि राम कोई भगवान नहीं थे, वे तो महज एक राजा थे। उन्होंने समाज और धर्म के लिए क्या किया? वे तो अपनी स्त्री के लिए रावण से लड़े और उसे उसके चंगुल से मुक्त कराकर लाए। इससे वे भगवान कैसे हो गए? भगवान राम को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहा गया है अर्थात पुरुषों में सबसे श्रेष्ठ उत्तम पुरुष। अपने वनवास के दौरान उन्होंने देश के सभी आदिवासी और दलितों को संगठित करने का कार्य किया और उनको जीवन जीने की शिक्षा दी। इस दौरान उन्होंने सादगीभरा जीवन जिया। उन्होंने देश के सभी संतों के आश्रमों को बर्बर लोगों के आतंक से बचाया। इसका उदाहरण सिर्फ रामायण में ही नहीं, देशभर में बिखरे पड़े साक्ष्यों में आसानी से मिल जाएगा।

दुनिया में भगवान राम पर लिखे गए सबसे ज्यादा ग्रंथ
रामायण को वा‍ल्मीकि ने भगवान राम के काल में ही लिखा था इसीलिए इस ग्रंथ को सबसे प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। यह मूल संस्कृत में लिखा गया ग्रंथ है। रामचरित मानस को गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा जिनका जन्म संवत्‌ 1554 को हुआ था। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना अवधी भाषा में की। कितनी रामायण? एक लिस्ट तमिल भाषा में कम्बन रामायण, असम में असमी रामायण, उड़िया में विलंका रामायण, कन्नड़ में पंप रामायण, कश्मीर में कश्मीरी रामायण, बंगाली में रामायण पांचाली, मराठी में भावार्थ रामायण। कंपूचिया की रामकेर्ति या रिआमकेर रामायण, लाओस फ्रलक-फ्रलाम (रामजातक), मलेशिया की हिकायत सेरीराम, थाईलैंड की रामकियेन और नेपाल में भानुभक्त कृत रामायण आदि प्रचलित हैं। इसके अलावा भी अन्य कई देशों में वहां की भाषा में रामायण लिखी गई है।

भगवान राम के काल के महत्वपूर्ण लोग
गुरु वशिष्ठ और ब्रह्माजी की अनुशंसा पर ही प्रभु श्रीराम को विष्णु का अवतार घोषित किया गया था। राम के काल में उस वक्त विश्‍वामित्र से वशिष्ठ की अड़ी चलती रहती थी। उनके काल में ही भगवान परशुराम भी थे। उनके काल के ही एक महान ऋषि वाल्मीकि ने उन पर रामायण लिखी। भगवान राम की वंश परंपरा राम ने सीता को रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए संपाति, जटायु, हनुमान, सुग्रीव, विभीषण, मैन्द, द्विविद, जाम्बवंत, नल, नील, तार, अंगद, धूम्र, सुषेण, केसरी, गज, पनस, विनत, रम्भ, शरभ, महाबली कंपन (गवाक्ष), दधिमुख, गवय और गन्धमादन आदि की सहायता ली। राम के काल में पाताल लोक का राजा था अहिरावण। अहिरावण राम और लक्ष्मण का अपहरण करके ले गया था। राम के काल में राजा जनक थे, जो उनके श्‍वसुर थे। जनक के गुरु थे ऋषि अष्टावक्र। जनक-अष्टावक्र संवाद को ‘महागीता’ के नाम से जाना जाता है। राम परिवार : दशरथ की 3 पत्नियां थीं- कौशल्या, सुमित्रा और कैकयी। राम के 3 भाई थे- लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। राम कौशल्या के पुत्र थे। सुमित्रा के लक्ष्मण और शत्रुघ्न दो पुत्र थे। कैकयी के पुत्र का नाम भरत था।

भगवान राम के काल के महत्वपूर्ण लोग
लक्ष्मण की पत्नी का नाम उर्मिला, शत्रुघ्न की पत्नी का नाम श्रुतकीर्ति और भरत की पत्नी का नाम मांडवी था। सीता और उर्मिला राजा जनक की पुत्रियां थीं और मांडवी और श्रुत‍कीर्ति कुशध्वज की पुत्रियां थीं। लक्ष्मण के अंगद तथा चंद्रकेतु नामक 2 पुत्र थे तो राम के लव और कुश। महत्वपूर्ण घटनाक्रम : गुरु वशिष्ठ से शिक्षा-दीक्षा लेना, विश्वामित्र के साथ वन में ऋषियों के यज्ञ की रक्षा करना और राक्षसों का वध, राम स्वयंवर, शिव का धनुष तोड़ना, वनवास, केवट से मिलन, लक्ष्मण द्वारा सूर्पणखा (वज्रमणि) की नाक काटना, खर और दूषण का वध, लक्ष्मण द्वारा लक्ष्मण रेखा खींचना, स्वर्ण हिरण-मारीच का वध, सीताहरण, जटायु से मिलन। इसके अलावा कबन्ध का वध, शबरी से मिलन, हनुमानजी से मिलन, सुग्रीव से मिलन, दुंदुभि और बाली का वध, संपाति द्वारा सीता का पता बताना, अशोक वाटिका में हनुमान द्वारा सीता को राम की अंगूठी देना, हनुमान द्वारा लंकादहन, सेतु का निर्माण, लंका में रावण से युद्ध, लक्ष्मण का मूर्छित होना, हनुमान द्वारा संजीवनी लाना और रावण का वध, पुष्पक विमान से अयोध्या आगमन।

वनवास के दौरान प्रभु राम कहां-कहां रहे?
रामायण में उल्लेखित और अनेक अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार जब भगवान राम को वनवास हुआ, तब उन्होंने अपनी यात्रा अयोध्या से प्रारंभ करते हुए रामेश्वरम और उसके बाद श्रीलंका में समाप्त की। इस दौरान उनके साथ जहां भी जो घटा, उनमें से 200 से अधिक घटनास्थलों की पहचान की गई है। जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की।

लव और कुश
भरत के दो पुत्र थे- तार्क्ष और पुष्कर। लक्ष्मण के पुत्र- चित्रांगद और चन्द्रकेतु और शत्रुघ्न के पुत्र सुबाहु और शूरसेन थे। मथुरा का नाम पहले शूरसेन था। लव और कुश राम तथा सीता के जुड़वां बेटे थे। जब राम ने वानप्रस्थ लेने का निश्चय कर भरत का राज्याभिषेक करना चाहा तो भरत नहीं माने। अत: दक्षिण कोसल प्रदेश (छत्तीसगढ़) में कुश और उत्तर कोसल में लव का अभिषेक किया गया। राम के काल में भी कोशल राज्य उत्तर कोशल और दक्षिण कोशल में विभाजित था। कालिदास के रघुवंश अनुसार राम ने अपने पुत्र लव को शरावती का और कुश को कुशावती का राज्य दिया था। शरावती को श्रावस्ती मानें तो निश्चय ही लव का राज्य उत्तर भारत में था और कुश का राज्य दक्षिण कोसल में। कुश की राजधानी कुशावती आज के बिलासपुर जिले में थी। कोसला को राम की माता कौशल्या की जन्मभूमि माना जाता है। रघुवंश के अनुसार कुश को अयोध्या जाने के लिए विंध्याचल को पार करना पड़ता था इससे भी सिद्ध होता है कि उनका राज्य दक्षिण कोसल में ही था। राजा लव से राघव राजपूतों का जन्म हुआ जिनमें बर्गुजर, जयास और सिकरवारों का वंश चला।

  • इसकी दूसरी शाखा थी सिसोदिया राजपूत वंश की जिनमें बैछला (बैसला) और गैहलोत (गुहिल) वंश के राजा हुए। कुश से कुशवाह (कछवाह) राजपूतों का वंश चला। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार लव ने लवपुरी नगर की स्थापना की थी, जो वर्तमान में पाकिस्तान स्थित शहर लाहौर है। यहां के एक किले में लव का एक मंदिर भी बना हुआ है। लवपुरी को बाद में लौहपुरी कहा जाने लगा। दक्षिण-पूर्व एशियाई देश लाओस, थाई नगर लोबपुरी, दोनों ही उनके नाम पर रखे गए स्थान हैं। राम के दोनों पुत्रों में कुश का वंश आगे बढ़ा तो कुश से अतिथि और अतिथि से, निषधन से, नभ से, पुण्डरीक से, क्षेमन्धवा से, देवानीक से, अहीनक से, रुरु से, पारियात्र से, दल से, छल से, उक्थ से, वज्रनाभ से, गण से, व्युषिताश्व से, विश्वसह से, हिरण्यनाभ से, पुष्य से, ध्रुवसंधि से, सुदर्शन से, अग्रिवर्ण से, पद्मवर्ण से, शीघ्र से, मरु से, प्रयुश्रुत से, उदावसु से, नंदिवर्धन से, सकेतु से, देवरात से, बृहदुक्थ से, महावीर्य से, सुधृति से, धृष्टकेतु से, हर्यव से, मरु से, प्रतीन्धक से, कुतिरथ से, देवमीढ़ से, विबुध से, महाधृति से, कीर्तिरात से, महारोमा से, स्वर्णरोमा से
  • और ह्रस्वरोमा से सीरध्वज का जन्म हुआ। कुश वंश के राजा सीरध्वज को सीता नाम की एक पुत्री हुई। सूर्यवंश इसके आगे भी बढ़ा जिसमें कृति नामक राजा का पुत्र जनक हुआ जिसने योग मार्ग का रास्ता अपनाया था। कुश वंश से ही कुशवाह, मौर्य, सैनी, शाक्य संप्रदाय की स्थापना मानी जाती है। एक शोधानुसार लव और कुश की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए, ‍जो महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे। यह इसकी गणना की जाए तो लव और कुश महाभारतकाल के 2500 वर्ष पूर्व से 3000 वर्ष पूर्व हुए थे अर्थात आज से 6,500 से 7,000 वर्ष पूर्व। इसके अलावा शल्य के बाद बहत्क्षय, ऊरुक्षय, बत्सद्रोह, प्रतिव्योम, दिवाकर, सहदेव, ध्रुवाश्च, भानुरथ, प्रतीताश्व, सुप्रतीप, मरुदेव, सुनक्षत्र, किन्नराश्रव, अन्तरिक्ष, सुषेण, सुमित्र, बृहद्रज, धर्म, कृतज्जय, व्रात, रणज्जय, संजय, शाक्य, शुद्धोधन, सिद्धार्थ, राहुल, प्रसेनजित, क्षुद्रक, कुलक, सुरथ, सुमित्र हुए।

काल का आगमन और श्रीराम का स्वधामगमन

राम का पृथ्वी से वैकुंठ धाम की ओर प्रस्थान करने का वर्णन रामायण के अलावा अन्य रामायण और पुराणों में अलग-अलग मिलता है-

पहली कथा- एक कथा अनुसार, सीता की सती प्रामाणिकता सिद्ध होने के पश्चात सीता अपने दोनों पुत्रों कुश और main-qimg-1c4845f98d8645ccce95cd2575ec1530लव को राम की गोद में सौंपकर धरती माता के साथ भूगर्भ में चली गई। सीता के चले जाने से व्यथित राम ने यमराज की सहमति से सरयू नदी के तट पर गुप्तार घाट में जल समाधि ले ली।इस तरह मानव देह का त्याग कर राम ने दिव्य रूप धारण कर लिया तथा आकाश मार्ग से ब्रह्मलोक की ओर बढ़ने लगे।

गुप्तार घाट: वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान श्री विष्णु के गुप्त रूप में यहाँ रहने के कारण यह स्थान “गुप्त हरि’ तथा तपस्या काल में सुदर्शन चक्र त्यागने के कारण”चक्रहरि घाट” के नाम से विख्यात है। मान्यता है कि त्रेतायुग के श्रीराम अपने भाईयोंएवं उनकी भार्याओं के साथ सरयू के पवित्र जल में गुप्त (समाधिस्थ) हुये थे। इस कारणसे इसे वर्तमान काल में गुप्तार घाट के नाम से जाना जाता है।

दूसरी कथा- पद्म पुराण की कथा अनुसार- एक दिन एक वृद्ध संत भगवान राम के दरबार में पहुंचे और उनसे अकेले में चर्चा करने के लिए निवेदन किया। उस संत की पुकार सुनते हुए प्रभु राम उन्हें एक कक्ष में ले गए और द्वार पर अपने छोटे भाई लक्ष्मण को खड़ा किया और कहा कि यदि उनके और उस संत की चर्चा को किसी ने भंग करने की कोशिश की तो उसे मृत्युदंड प्राप्त होगा।

  • लक्ष्मण ने अपने ज्येष्ठ भ्राता की आज्ञा का पालन करते हुए दोनों को उस कमरे में एकांत में छोड़ दिया और खुद बाहर पहरा देने लगे। वह वृद्ध संत कोई और नहीं बल्कि विष्णु लोक से भेजे गए काल देव थे जिन्हें प्रभु राम को यह बताने भेजा गया था कि उनका धरती पर जीवन पूरा हो चुका है और अब उन्हें अपने लोक वापस लौटना होगा।
  • अभी उस संत और श्रीराम के बीच चर्चा चल ही रही थी कि अचानक द्वार पर ऋषि दुर्वासा आ गए। उन्होंने लक्ष्मण से भगवान राम से बात करने के लिए कक्ष के भीतर जाने के लिए निवेदन किया लेकिन श्रीराम की आज्ञा का पालन करते हुए लक्ष्मण ने उन्हें ऐसा करने से मना किया। ऋषि दुर्वासा हमेशा से ही अपने अत्यंत क्रोध के लिए जाने जाते हैं, जिसका खामियाजा हर किसी को भुगतना पड़ता है, यहां तक कि स्वयं श्रीराम को भी।
  • लक्ष्मण के बार-बार मना करने पर भी ऋषि दुर्वासा अपनी बात से पीछे ना हटे और अंत में लक्ष्मण को श्री राम को श्राप देने की चेतावनी दे दी। अब लक्ष्मण की चिंता और भी बढ़ गई। वे समझ नहीं पा रहे थे कि आखिरकार अपने भाई की आज्ञा का पालन करें या फिर उन्हें श्राप मिलने से बचाएं। लक्ष्मण हमेशा से अपने ज्येष्ठ भाई श्री राम की आज्ञा का पालन करते आए थे। पूरे रामायण काल में वे एक क्षण भी श्रीराम से दूर नहीं रहे। ऋषि दुर्वासा द्वारा भगवान राम को श्राप देने जैसी चेतावनी सुनकर लक्ष्मण काफी भयभीत हो गए और फिर उन्होंने एक कठोर फैसला लिया।

लक्ष्मण द्वारा मानव देह का त्याग-

  • लक्ष्मण कभी नहीं चाहते थे कि उनके कारण उनके भाई को कोई किसी भी प्रकार की हानि पहुंचा सके। इसलिए उन्होंने अपनी बलि देने का फैसला किया। उन्होंने सोचा यदि वे ऋषि दुर्वासा को भीतर नहीं जाने देंगे तो उनके भाई को श्राप का सामना करना पड़ेगा, लेकिन यदि वे श्रीराम की आज्ञा के विरुद्ध जाएंगे तो उन्हें मृत्यु दंड भुगतना होगा, यही लक्ष्मण ने सही समझा।
  • वे आगे बढ़े और कमरे के भीतर चले गए। लक्ष्मण को चर्चा में बाधा डालते देख श्रीराम ही धर्म संकट में पड़ गए। अब एक तरफ अपने फैसले से मजबूर थे और दूसरी तरफ भाई के प्यार से निस्सहाय थे। उस समय श्रीराम ने अपने भाई को मृत्यु दंड देने के स्थान पर राज्य एवं देश से बाहर निकल जाने को कहा। उस युग में देश निकाला मिलना मृत्यु दंड के बराबर ही माना जाता था।
  • लक्ष्मण जो कभी अपने भाई राम के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते थे उन्होंने इस दुनिया को ही छोड़ने का निर्णय लिया। वे सरयू नदी के पास गए और संसार से मुक्ति पाने की इच्छा रखते हुए वे नदी के भीतर चले गए। इस तरह लक्ष्मण के जीवन का अंत हो गया और वे पृथ्वी लोक से दूसरे लोक में चले गए। लक्ष्मण के सरयू नदी के अंदर जाते ही वह अनंत शेष के अवतार में बदल गए और विष्णु लोक चले गए।

राम का पृथ्वी से प्रस्थान

  • भाई लक्ष्मण के चले जाने से श्री राम काफी उदास हो गए। जिस तरह राम के बिना लक्ष्मण नहीं, ठीक उसी तरह लक्ष्मण के बिना राम का जीना भी प्रभु राम को उचित ना लगा। उन्होंने भी इस लोक से चले जाने का विचार बनाया। तब प्रभु राम ने अपना राज-पाट और पद अपने पुत्रों के साथ अपने भाई के पुत्रों को सौंप दिया और सरयू नदी की ओर चल दिए।
  • वहां पहुंचकर श्रीराम सरयू नदी के बिलकुल आंतरिक भूभाग तक चले गए और अचानक गायब हो गए। फिर कुछ देर बाद नदी के भीतर से भगवान विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने अपने भक्तों को दर्शन दिए। इस प्रकार से श्री राम ने भी अपना मानवीय रूप त्याग कर अपने वास्तविक स्वरूप विष्णु का रूप धारण किया और वैकुंठ धाम की ओर प्रस्थान किया।

हनुमान जी को श्रीराम के प्रस्थान की नहीं लगी थी भनक

  • भगवान राम का पृथ्वी लोक से विष्णु लोक में जाना कठिन हो जाता यदि भगवान हनुमान को इस बात की आशंका हो जाती। भगवान हनुमान जो हर समय श्री राम की सेवा और रक्षा की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाते थे, यदि उन्हें इस बात का अंदाजा होता कि विष्णु लोक से श्री राम को लेने काल देव आने वाले हैं तो वे उन्हें अयोध्या में कदम भी ना रखने देते, लेकिन उसके पीछे भी एक कहानी छिपी है।
  • जिस दिन काल देव को अयोध्या में आना था उस दिन श्री राम ने भगवान हनुमान को मुख्य द्वार से दूर रखने का एक तरीका निकाला। उन्होंने अपनी अंगूठी महल के फर्श में आई एक दरार में डाल दी और हनुमान को उसे बाहर निकालने का आदेश दिया। उस अंगूठी को निकालने के लिए भगवान हनुमान ने स्वयं भी उस दरार जितना आकार ले लिया और उसे खोजने में लग गए।
  • जब हनुमान उस दरार के भीतर गए तो उन्हें समझ में आया कि यह कोई दरार नहीं बल्कि सुरंग है जो नाग-लोक की ओर जाती है। वहां जाकर वे नागों के राजा वासुकि से मिले। वासुकि हनुमान को नाग-लोक के मध्य में ले गए और अंगूठियों से भरा एक विशाल पहाड़ दिखाते हुए कहा कि यहां आपको आपकी अंगूठी मिल जाएगी। उस पर्वत को देख हनुमान कुछ परेशान हो गए और सोचने लगे कि इस विशाल ढेर में से श्री राम की अंगूठी खोजना तो कूड़े के ढेर से सूई निकालने के समान है।
  • लेकिन जैसे ही उन्होंने पहली अंगूठी उठाई तो वह श्री राम की ही थी। लेकिन अचंभा तब हुआ जब दूसरी अंगूठी उठाई, क्योंकि वह भी भगवान राम की ही थी। यह देख भगवान हनुमान को एक पल के लिए समझ ना आया कि उनके साथ क्या हो रहा है। इसे देख वासुकि मुस्कुराए और उन्हें कुछ समझाने लगे।
  • वे बोले कि पृथ्वी लोक एक ऐसा लोक है जहां जो भी आता है उसे एक दिन वापस लौटना ही होता है। उसके वापस जाने का साधन कुछ भी हो सकता है। ठीक इसी तरह श्रीराम भी पृथ्वी लोक को छोड़ एक दिन विष्णु लोक वापस आवश्य जाएंगे। वासुकि की यह बात सुनकर भगवान हनुमान को सारी बातें समझ में आने लगीं। उनका अंगूठी ढूंढ़ने के लिए आना और फिर नाग-लोक पहुंचना, यह सब श्री राम का ही फैसला था।
  • वासुकि की बताई बात के अनुसार उन्हें यह समझ आया कि उनका नाग-लोक में आना केवल श्री राम द्वारा उन्हें उनके कर्तव्य से भटकाना था ताकि काल देव अयोध्या में प्रवेश कर सकें और श्री राम को उनके जीवनकाल के समाप्त होने की सूचना दे सकें। अब जब वे अयोध्या वापस लौटेंगे तो श्रीराम नहीं होंगे।

भगवान राम का वंश 

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  • जल प्रलय के बाद वैवस्वत और कुछ ऋषियों के कुल का ही धरती पर विस्तार हुआ।
  • मनु के दस पुत्र थे- इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध।
  • राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ था। जैन धर्म के तीर्थंकर निमि भी इसी कुल के थे।
  • मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए।
  • इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुँची।
  • इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी।

रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है:-

  1. ब्रह्माजी से मरीचि का जन्म हुआ
  2. मरीचि के पुत्र कश्यप हुए
  3. कश्यप के विवस्वान और
  4. विवस्वान के वैवस्वतमनु हुए
  5. वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था
  6. इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की
  7. इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए
  8. कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था
  9. विकुक्षि के पुत्र बाण और
  10. बाण के पुत्र अनरण्य हुए
  11. अनरण्य से पृथु और
  12. पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ
  13. त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए
  14. धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था
  15. युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए और
  16. मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ
  17. सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित
  18. ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए
  19. भरत के पुत्र असित हुए और
  20. असित के पुत्र सगर हुए। सगर अयोध्या के बहुत प्रतापी राजा थे
  21. सगर के पुत्र का नाम असमंज था
  22. असमंज के पुत्र अंशुमान तथा
  23. अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए।
  24. दिलीप के पुत्र भगीरथ हुएभगीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतार था
  25. भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ और
  26. ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए। रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया। तब राम के कुल को रघुकुल भी कहा जाता है।
  27. रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए।
  28. प्रवृद्ध के पुत्र शंखण और
  29. शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए
  30. सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था
  31. अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग और
  32. शीघ्रग के पुत्र मरु हुए।
  33. मरु के पुत्र प्रशुश्रुक और
  34. प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए
  35. अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था
  36. नहुष के पुत्र ययाति और
  37. ययाति के पुत्र नाभाग हुए
  38. नाभाग के पुत्र का नाम अज था
  39. अज के पुत्र दशरथ हुए और दशरथ के ये चार पुत्र रामभरतलक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हैं। वा‍ल्मीकि रामायण- ॥1-59 से 72।।

लव और कुश  भरत के दो पुत्र थे- तार्क्ष और पुष्कर। लक्ष्मण के पुत्र- चित्रांगद और चन्द्रकेतु और शत्रुघ्न के पुत्र सुबाहु और शूरसेन थे। मथुरा का नाम पहले शूरसेन था।

  • लव और कुश राम तथा सीता के जुड़वां बेटे थे। जब राम ने वानप्रस्थ लेने का निश्चय कर भरत का राज्याभिषेक करना चाहा तो भरत नहीं माने। अत: दक्षिण कोसल प्रदेश (छत्तीसगढ़) में कुश और उत्तर कोसल में लव का अभिषेक किया गया।
  • राम के काल में भी कोशल राज्य उत्तर कोशल और दक्षिण कोशल में विभाजित था।
  • कालिदास के रघुवंश अनुसार राम ने अपने पुत्र लव को शरावती का और कुश को कुशावती का राज्य दिया था।
  • शरावती को श्रावस्ती मानें तो निश्चय ही लव का राज्य उत्तर भारत में था और कुश का राज्य दक्षिण कोसल में।
  • कुश की राजधानी कुशावती आज के बिलासपुर जिले में थी।
  • कोसला को राम की माता कौशल्या की जन्मभूमि माना जाता है।
  • रघुवंश के अनुसार कुश को अयोध्या जाने के लिए विंध्याचल को पार करना पड़ता था इससे भी सिद्ध होता है कि उनका राज्य दक्षिण कोसल में ही था।
  • राजा लव से राघव राजपूतों का जन्म हुआ जिनमें बर्गुजरजयास और सिकरवारों का वंश चला। इसकी दूसरी शाखा थी सिसोदिया राजपूत वंश की जिनमें बैछला (बैसला) और गैहलोत (गुहिल) वंश के राजा हुए। कुश से कुशवाह (कछवाह) राजपूतों का वंश चला।
  • ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार लव ने लवपुरी नगर की स्थापना की थीजो वर्तमान में पाकिस्तान स्थित शहर लाहौर है।
  • यहां के एक किले में लव का एक मंदिर भी बना हुआ है।
  • लवपुरी को बाद में लौहपुरी कहा जाने लगा। दक्षिण-पूर्व एशियाई देश लाओसथाई नगर लोबपुरीदोनों ही उनके नाम पर रखे गए स्थान हैं। 
  • राम के दोनों पुत्रों में कुश का वंश आगे बढ़ा तो कुश से अतिथि और अतिथि सेनिषधन सेनभ सेपुण्डरीक सेक्षेमन्धवा सेदेवानीक सेअहीनक सेरुरु सेपारियात्र सेदल सेछल सेउक्थ सेवज्रनाभ सेगण सेव्युषिताश्व सेविश्वसह सेहिरण्यनाभ सेपुष्य सेध्रुवसंधि सेसुदर्शन सेअग्रिवर्ण सेपद्मवर्ण सेशीघ्र सेमरु सेप्रयुश्रुत सेउदावसु सेनंदिवर्धन सेसकेतु सेदेवरात सेबृहदुक्थ सेमहावीर्य सेसुधृति सेधृष्टकेतु सेहर्यव सेमरु सेप्रतीन्धक सेकुतिरथ सेदेवमीढ़ सेविबुध सेमहाधृति सेकीर्तिरात सेमहारोमा सेस्वर्णरोमा से और ह्रस्वरोमा से सीरध्वज का जन्म हुआ।
  • कुश वंश के राजा सीरध्वज को सीता नाम की एक पुत्री हुई।
  • सूर्यवंश इसके आगे भी बढ़ा जिसमें कृति नामक राजा का पुत्र जनक हुआ जिसने योग मार्ग का रास्ता अपनाया था।
  • कुश वंश से ही कुशवाहमौर्यसैनीशाक्य संप्रदाय की स्थापना मानी जाती है।
  • एक शोधानुसार लव और कुश की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए‍जो महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे। यह इसकी गणना की जाए तो लव और कुश महाभारतकाल के 2500 वर्ष पूर्व से 3000 वर्ष पूर्व हुए थे अर्थात आज से 6,500 से 7,000 वर्ष पूर्व।
  • इसके अलावा शल्य के बादबहत्क्षय, ऊरुक्षय, बत्सद्रोह, प्रतिव्योम, दिवाकर, सहदेव, ध्रुवाश्च, भानुरथ, प्रतीताश्व, सुप्रतीप, मरुदेव, सुनक्षत्र, किन्नराश्रव, अन्तरिक्ष, सुषेण, सुमित्र, बृहद्रज, धर्म, कृतज्जय, व्रात, रणज्जय, संजय, शाक्य, शुद्धोधन, सिद्धार्थ, राहुल, प्रसेनजित, क्षुद्रक, कुलक, सुरथ, सुमित्र हुए। माना जाता है कि जो लोग खुद को शाक्यवंशी कहते हैं वे भी श्री राम के वंशज हैं।
  • तो यह सिद्ध हुआ कि वर्तमान में जो सिसोदियाकुशवाह (कछवाह)मौर्यशाक्यबैछला (बैसला) और गैहलोत (गुहिल) आदि जो राजपूत वंश हैं वे सभी भगवान प्रभु श्रीराम के वंशज है।
  • जयपूर राजघराने की महारानी पद्मिनी और उनके परिवार के लोग की राम के पुत्र कुश के वंशज है।
  • महारानी पद्मिनी ने एक अंग्रेजी चैनल को दिए में कहा था कि उनके पति भवानी सिंह कुश के 309वें वंशज थे।
    इस घराने के इतिहास की बात करें तो 21 अगस्त 1921 को जन्में महाराज मानसिंह ने तीन शादियां की थी। मानसिंह की पहली पत्नी मरुधर कंवरदूसरी पत्नी का नाम किशोर कंवर था और माननसिंह ने तीसरी शादी गायत्री देवी से की थी।
  • महाराजा मानसिंह और उनकी पहली पत्नी से जन्में पुत्र का नाम भवानी सिंह था। भवानी सिंह का विवाह राजकुमारी पद्मिनी से हुआ।
  • लेकिन दोनों का कोई बेटा नहीं है एक बेटी है जिसका नाम दीया है और जिसका विवाह नरेंद्र सिंह के साथ हुआ है। दीया के बड़े बेटे का नाम पद्मनाभ सिंह और छोटे बेटे का नाम लक्ष्यराज सिंह है।

मुसलमान भी राम के वंशज हैं?

  • हालांकि ऐसे कई राजा और महाराजा हैं जिनके पूर्वज श्रीराम थे। राजस्थान में कुछ मुस्लिम समूह कुशवाह वंश से ताल्लुक रखते हैं। मुगल काल में इन सभी को धर्म परिवर्तन करना पड़ा लेकिन ये सभी आज भी खुद को प्रभु श्रीराम का वंशज ही मानते हैं।
  • इसी तरह मेवात में दहंगल गोत्र के लोग भगवान राम के वंशज हैं और छिरकलोत गोत्र के मुस्लिम यदुवंशी माने जाते हैं।
  • राजस्थानबिहारउत्तर प्रदेशदिल्ली आदि जगहों पर ऐसे कई मुस्लिम गांव या समूह हैं जो राम के वंश से संबंध रखते हैं।

मर्यादा पुरुषोत्तम थे राम… लेकिन चमत्कारों से दूर

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भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे। वे मर्यादा का पालन हमेशा करते थे। उनका जीवन बिल्कुल मानवीय ढंग से बीता बिना किसी चमत्कार के। आम आदमी की तरह वे मुश्किल में पड़ते हैं। उस समस्या से दो चार होते हैं, झलते हैं लेकिन चमत्कार नहीं करते। कृष्ण हर क्षण चमत्कार करते हैं। लेकिन राम उसी तरह जुझते हैं जैसे आज का आम आदमी। पत्नी का अपहरण हुआ तो उसे वापस पाने के लिए रणनीति बनाई। लंका पर चड़ाई की तो सेना ने एक-एक पत्थर जोड़कर पुल बनाया। रावण को किसी चमत्कारिक शक्ति से नहीं बल्कि समझदारी के साथ परास्त किया। राम कायदे कानूनों से बंधे हैं। जब धोबी ने सीता पर टिप्पणी की तो वे उन आरोप का निवारण चले आ रही कानूनी नियमों से करते हैं। जो आम जनता पर लागू होता था। वे चाहते तो नियम बदल सकते थे। पर उन्होंने नियम कानून का पालन किया। सीता का परित्याग किया।

प्रसिद्ध उद्धरण

श्रीराम नाम के दो अक्षरों में ‘रा’ तथा ‘म’ ताली की आवाज की तरह हैं, जो संदेह के पंछियों को हमसे दूर ले जाती हैं। ये हमें देवत्व शक्ति के प्रति विश्वास से ओत-प्रोत करते हैं। इस प्रकार वेदांत वैद्य जिस अनंत सच्चिदानंद तत्व में योगिवृंद रमण करते हैं उसी को परम ब्रह्म श्रीराम कहते हैं- गोस्वामी तुलसीदास

राम मर्यादा पुरूषोत्तम हैं। करूणानिधि हैं। मनुष्य के आदर्श और सुंदरतम अभिव्यक्ति हैं। वे मनुष्य ही नहीं, प्राणीमात्र के मित्र हैं, अभिरक्षक हैं और विश्वसनीय हैं। वे दूसरों के दुख से द्रवित होनेवाले दयानिधि हैं। उनके स्वयं के जीवन में भी इतने दुख-दर्द हैं, फिर भी वे सत्य और आदर्श की प्रतिमूर्ति बने रहते हैं।

आदि कवि वाल्मीकि ने उनके संबंध में कहा है कि वे गाम्भीर्य में समुद्र के समान हैं।

समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्यण हिमवानिव।

राम के महान चरित्र-विषयक अनुभूति भी बराबर बदलती रही है। भवभूमि के राम ठीक वे नहीं हैं जो वाल्मीकि के राम हैं और तुलसी के राम वाल्मीकि तथा भवभूति, दोनों के रामों से भिन्न हैं -रामधारी सिंह दिनकर

राम आधारहीन सत्ता के ऐसे प्रत्युत्तर हैं कि उनकी याद इस जमाने में कुछ और सार्थक हो जाती है- प्रख्यात विद्वान पं. विद्यानिवास मिश्र

राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘यशोधरा’ में राम के आदर्शमय महान जीवन के विषय में कितना सहज व सरस लिखा है- राम। तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है। कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है॥

राम का उल्टा होता है म, अ, र अर्थात मार। मार बौद्ध धर्म का शब्द है। मार का अर्थ है- इंद्रियों के सुख में ही रत रहने वाला और दूसरा आंधी या तूफान। राम को छोड़कर जो व्यक्ति अन्य विषयों में मन को रमाता है, मार उसे वैसे ही गिरा देती है, जैसे सूखे वृक्षों को आंधियां।

कालिदास के महाकाव्य रघुवंश

  • रघुवंश में चाहे दिलीप हों अथवा रघु, गुरु के आज्ञापालक एवं धर्मपरायण है। महाराज दिलीप सर्वगुणसम्पन्न आदर्श राजा हैं।
  • रामचन्द्र का चित्रण कवि ने बड़ी सावधानी से किया है। उनके अन्दर दिलीप, रघु और अज के गुणों का समंवय है। रघुवंश के चतुर्दश सर्ग श्लोक में चित्रित, राजाराम के द्वारा परित्यक्ता जानकी का चित्र तथा उनका राम को भेजा गया सन्देश अत्यंत भावपूर्ण, गम्भीर तथा मर्मस्पर्शी है। राम के लिए ‘राजा’ शब्द का प्रयोग विशुद्ध तथा पवित्र चरित्र धर्मपत्नी के परित्याग के अनौचित्य का मार्मिक अभिव्यञ्जक है।
  • महाकवि ने राम को हरि या विष्णु का ही पर्यायवाची माना है। राम प्रजारक्षक राजा हैं। लोकाराधन के लिए तथा अपने कुल को निष्कलंक रखने के लिए उनके द्वारा अपनी प्राणोपमा धर्मपत्नी सीता का निर्वासन आदर्श पात्र-सृष्टि का सुन्दर दृष्टांत है।

कविवर रहीम कहते है कि भगवान राम को हृदय में धारण करने की बजाय लोग भोग और विलास में डूबे रहते है। पहले तो अपनी जीभ के स्वाद के लिए जानवरों की टांग खाते हैं और फिर उनको दवा भी लेनी पड़ती है।– “रहिमन राम न उर धरै, रहत विषय लपटाय पसु खर खात सवाद सों, गुर बुलियाए खाय”

‘मैनेजमेंट गुरु हैं भगवान श्रीराम’  कवि और लेखक डॉ. सुनील जोगी

‘राम प्रतीक हैं- साधारण जन; मानवीय स्वतंत्रता-स्वायत्तता; लोक-तांत्रिक मूल्यवत्ता एंव सामूहिकता को समर्पित व्यक्तित्व के’ कवि नरेश मेहता

‘कहते हैं जो जपता है राम का नाम राम जपते हैं उसका नाम’–शतायु

‘राम देश की एकता के प्रतीक हैं’- डॉ राममनोहर लोहिया

‘भगवान राम एक आदर्श सुपुत्र, आदर्श भाई, आदर्श सखा, आदर्श पति और आदर्श राष्ट्रभक्त हैं’-आचार्य गोविन्द बल्लभ जोशी

राम तो अगम हैं और संसार के कण-कण में विराजते हैं। राम को शास्त्र-प्रतिपादित अवतारी, सगुण, वर्चस्वशील वर्णाश्रम व्यवस्था के संरक्षक राम से अलग करने के लिए ही ‘निर्गुण राम’ शब्द का प्रयोग किया–‘निर्गुण राम जपहु रे भाई- कबीर 

जनतंत्र में सत्ता के प्रति उच्च स्तर की निरासक्ति आवश्यक है। भगवान राम की तरह, जनतंत्र में राजनीतिज्ञ को, आह्वान मिलने पर सत्ता स्वीकार करने और क्षति की चिंता किए बिना उसका परित्याग कर देने के लिए भी सदा तैयार रहना चाहिए- पं. दीनदयाल उपाध्याय

भगवान राम  मानवमात्र बल आदर्श हैं, रामायण लोकतंत्र का आदि शाम है- सावरकर

डॉ. लोहिया कहते हैं “जब कभी महात्मा गांधी ने किसी का नाम लिया तो राम का ही क्यों लिया? कृष्ण और शिव का भी ले सकते थे। दरअसल राम देश की एकता के प्रतीक हैं। गांधी राम के जरिए  हिन्दुस्तान के सामने एक मर्यादित तस्वीर रखते थे।” वे उस राम राज्य के हिमायती थे। जहां लोकहित सर्वोपरि था।

महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण‘ से पहले लिखी जा चुकी हैं  ‘रामायण’

1- अध्यात्म रामायण- मान्यता के अनुसार सर्वप्रथम श्रीराम की कथा भगवान शंकर ने देवी पार्वती को सुनाई थी। उस कथा को एक कौवे ने भी सुन लिया। उसी कौवे का पुनर्जन्म कागभुशुण्डि के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि को पूर्व जन्म में भगवान शंकर के मुख से सुनी वह रामकथा पूरी की पूरी याद थी। उन्होंने यह कथा अपने शिष्यों को सुनाई। इस प्रकार रामकथा का प्रचार-प्रसार हुआ। भगवान शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा ‘अध्यात्म रामायण’ के नाम से विख्यात है। अध्यात्म रामायण’ को ही विश्व का प्रथम रामायण माना जाता है।

2- हनुमन्नाटक- हालांकि रामायण के बारे में एक मत और प्रचलित है और वो यह है कि सबसे पहले रामायण हनुमानजी ने लिखी थी, फिर महर्षि वाल्मीकि संस्कृत महाकाव्य ‘रामायण’ की रचना की। ‘हनुमन्नाटक’ को हनुमानजी ने इसे एक शिला पर लिखा था। यह रामकथा वाल्मीकि की रामायण से भी पहले लिखी गई थी और ‘हनुमन्नाटक’ के नाम से प्रसिद्ध है। मान्यता है कि जब वाल्मीकिजी ने अपनी रामायण तैयार कर ली तो उन्हें लगा कि हनुमानजी के हनुमन्नाटक के सामने यह टिक नहीं पाएगी और इसे कोई नहीं पढ़ेगा। हनुमानजी को जब महर्षि की इस व्यथा का पता चला तो उन्होंने उन्हें बहुत सांत्वना दी और अपनी रामकथा वाली शिला उठाकर समुद्र में फेंक दी, जिससे लोग केवल वाल्मीकिजी की रामायण ही पढ़ें और उसी की प्रशंसा करें। समुद्र में फेंकी गई हनुमानजी की रामकथा वाली शिला राजा भोज के समय में निकाली गयी।

नोट- कुछ लोगों का अनुमान है कि प्राचीन नाटक कवि हृदयराम का हनुमन्नाटक (1680 ई.) संस्कृत भाषा में रचित हनुमन्नाटक का ही अनुवाद है।

3- महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण‘- साहित्यिक शोध के क्षेत्र में भगवान राम के बारे में आधिकारिक रूप से जानने का मूल स्रोत महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण है। रामायण संस्कृत साहित्य का एक आरम्भिक महाकाव्य है जो संस्कृत भाषा में अनुष्टुप छन्दों में रचित है। इसमें श्रीराम के चरित्र का उत्तम एवं वृहद् विवरण काव्य रूप में उपस्थापित हुआ है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित होने के कारण इसे ‘वाल्मीकीय रामायण’ कहा जाता है। ‘वाल्मीकीय रामायण’ के प्रणेता महर्षि वाल्मीकि को ‘आदिकवि’ माना जाता है और इसीलिए यह महाकाव्य ‘आदिकाव्य’ माना गया है। इस पवित्र ग्रंथ में 24 हजार श्लोक, 500 उपखंड, तथा 7 काण्ड है।

4- गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरित मानस’- रामचरितमानस 7 काण्डों में विभक्त किया है। इन सात काण्डों के नाम हैं – बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड,किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड और उत्तरकाण्ड। छन्दों की संख्या के अनुसार बालकाण्ड और किष्किन्धाकाण्ड क्रमशः सबसे बड़े और छोटे काण्ड हैं। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में हिन्दी के अलंकारों का बहुत सुन्दर प्रयोग किया है विशेषकर अनुप्रास अलंकार का। रामचरितमानस पर प्रत्येक हिंदू की अनन्य आस्था है और इसे हिन्दुओं का पवित्र ग्रन्थ माना जाता है।

अन्य महाकाव्य 

रघुवंश- कालिदास द्वारा रचित संस्कृत का महाकाव्य है। इस महाकाव्य में 19 सर्गों में रघु के कुल में उत्पन्न बीस राजाओं का इक्कीस प्रकार के छन्दों का प्रयोग करते हुए वर्णन किया गया है। इसमें दिलीप, रघु, दशरथ, राम, कुश और अतिथि का विशेष वर्णन किया गया है। वे सभी समाज में आदर्श स्थापित करने में सफल हुए। राम का इसमें विषद वर्णन किया गया है। 19 में से छः सर्ग उनसे ही संबन्धित हैं।

कंब रामायण- तमिल साहित्य की सर्वोत्कृष्ट कृति एवं एक बृहत् ग्रंथ है। इसके रचयिता कवि कम्बन “कविचक्रवर्ती” की उपाधि से प्रसिद्ध हैं।उपलब्ध ग्रंथ में 10,050 पद्य हैं और बालकांड से युद्धकांड तक छह कांडों का विस्तार इसमें मिलता है।

विदेशों में राम के प्रमाण

  • संस्कृत के अलावा तमिल भाषा में कम्बन रामायण, असम में असमी रामायण, उड़िया में विलंका रामायण, कन्नड़ में पंप रामायण, कश्मीर में कश्मीरी रामायण, बंगाली में रामायण पांचाली, मराठी में भावार्थ रामायण आदि को प्राचीनकाल में ही लिख दिया गया था।
  • भारत के अलावा विदेशी भाषा में भी रामायण की रचना हुई जिनमें कंपूचिया की रामकेर्ति या रिआमकेर रामायण, लाओस फ्रलक-फ्रलाम, मलेशिया की हिकायत सेरीराम, थाईलैंड की रामकियेन और नेपाल में भानुभक्त कृत रामायण आदि प्रमुख हैं।

भारत के बाहर रामायण

  • थाईलैंड- रामकियेन
  • इंडोनेशिया- रामायण काकावीन
  • कंबोडिया- रामकेर
  • बर्मा (म्यांमार)- रामवत्थु
  • लाओस- फ्रलक-फ्रलाम (रामजातक)
  • फिलिपींस- मसलादिया लाबन
  • मलयेशिया- हिकायत सेरीराम
  • श्रीलंका- जानकी हरण
  • नेपाल- भानुभक्त कृत रामायण
  • जापान- होबुत्सुशू
  • चीन- चीनी साहित्य में राम कथा पर आधारित कोई मौलिक रचना नहीं हैं। बौद्ध धर्म ग्रंथ त्रिपिटक के चीनी संस्करण में रामायण से संबद्ध दो रचनाएँ मिलती हैं। ‘अनामकं जातकम्’ और ‘दशरथ कथानम्’।

श्रीलंका- संस्कृत और पालि साहित्य का प्राचीनकाल से ही श्रीलंका से गहरा संबंध रहा है। रामायण समेत अन्य कई भारतीय महाकाव्यों के आधार पर रचित जानकी हरण के श्रीलंकाई रचनाकार और वहां के राजा, कुमार दास को कालिदास के घनिष्ठ मित्र की संज्ञा दी जाती है। इतना ही नहीं सिंघली भाषा में लिखी गई मलेराज की कथा भी राम के जीवन से ही जुड़ी हुई है।

बर्मा (म्यंमार)- शुरुआती दौर में बर्मा को ब्रह्मादेश के नाम से जाना जाता था। बर्मा की प्राचीनतम रचना रामवत्थु श्री राम के जीवन से ही प्रभावित है। इसके अलावा लाओस में भी रामकथा के आधार पर कई रचनाओं का विकास हुआ, जिनमें फ्रलक-फ्रलाम (रामजातक), ख्वाय थोरफी, पोम्मचक (ब्रह्म चक्र) और लंका नाई आदि प्रमुख हैं।

इंडोनेशिया और मलेशिया- प्रारंभिक काल में इंडोनेशिया और मलेशिया में पहले हिन्दू धर्म के लोग ही रहा करते थे लेकिन फिलिपींस के इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बाद वहां धार्मिक हिंसा ने जन्म लिया, जिसकी वजह से समस्त देश के लोगों ने इस्लाम को अपना लिया। इसलिए जिस तरह फिलिपींस में रामायण का एक अलग ही स्वरूप विद्यमान है कुछ उसी तरह इंडोनेशिया और जावा की रामायण भी उसी से मिलती-जुलती है।

जापान- जापान के एक लोकप्रिय कथा संग्रह ‘होबुत्सुशू’ में संक्षिप्त राम कथा संकलित है। इसकी रचना तैरानो यसुयोरी ने बारहवीं शताब्दी में की थी। यह कथा वस्तुत: चीनी भाषा के ‘अनामकंजातकम्’ पर आधारित है, किंतु इन दोनों में अनेक अंतर भी हैं। अनाम नरेश कथा के अनुसार तथागत शाक्य मुनि एक विख्यात साम्राज्य के स्वामी थे। तथागत को जब आक्रमण की योजना की जानकारी मिली, तब उन्होंने युद्ध में अनगिनत लोगों के मारे जाने की संभावना को देखते हुए अपने मंत्रियों को युद्ध करने से मना कर दिया और स्वयं अपनी रानी के साथ तपस्या करने पहाड़ पर चले गये।  राजा पहाड़ पर कंदमूल खाकर तपस्या करने लगे। राजा एक दिन पहाड़ पर फल लाने गये. उनकी अनुपस्थिति में ब्राह्मण ने रानी का अपहरण कर लिया। लौटने पर रानी को नहीं देखकर राजा विचलित हो गये। वे रानी की खोज में निकल पड़े। उसी क्रम में उनको एक विशाल मरणासन्न पक्षी से भेंट हुई। उसके दोनों पंख टूटे हुए थे। उसने उन्हें बतलाया का ब्राह्मण सेवक ने रानी का अपहरण किया है। प्रतिरोध कने पर उसने नागराज का रुप धारण कर लिया और उसकी यह दशा कर दी। राजा दक्षिण की ओर चल पड़े। उन्होंने रास्ते में हज़ारों बंदरों को गर्जना करते देखा।  राजा ने बंदरों को अपनी पत्नी के अपहरण की बात बतायी। वानर दल उनकी सहायता करने के लिए तैयार हो गये। राजा वानर दल के साथ समुद्र तट पर पहुंचे। वानरी सेना राजभवन में प्रवेश कर गयी। नाग भवन से रानी की मुक्ति के साथ सात रत्नों की प्राप्ति हुई। राजा रानी के साथ देश लौट गये। उसी समय ‘किउसी’ के राजा की मृत्यु हो गयी। वहाँ की प्रजा ने भी उन्हें अपना राजा मान लिया। इस प्रकार वे अपने देश के साथ ‘किउसी’ के भी सम्राट बन गये।

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  1. आज कि मुरली
  2. BJP
  3. Baluwana
  4. लक्ष्मी मां
  5. Good morning
  6. रामदेव जी
  7. दुर्गा माता
  8. बाल वनिता महिला आश्रम
  9. जापान की राम कथा
  10. खेती
  11. किसान


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समय मर्यादित ढंग से पेश आना चाहिए। इसी से ब्रह्मचर्य कायम रहता है।ब्रह्मचर्य का लाभ. यौन ऊर्जा ही शरीर की शक्ति होती है। इस शक्ति का जितना संचय होता है व्यक्ति उतना शारीरिक और मानसिक रूप से शक्तिशाली और ऊर्जावान बना रहता है। जो व्यक्ति इस शक्ति को खो देता है वह मुरझाए हुए फूल के समान हो जाता है।5 क्षमा – यह जरूरी है कि हम दूसरों के प्रति धैर्य एवं करुणा से पेश आएं एवं उन्हें समझने की कोशिश करें। परिवार एवं बच्चों, पड़ोसी एवं सहकर्मियों के प्रति सहनशील रहें क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति परिस्थितिवश व्यवहार करता है।क्षमा का लाभ. परिवार, समाज और सहकर्मियों में आपके प्रति सम्मान बढ़ेगा। लोगों को आप समझने का समय देंगे तो लोग भी आपको समझने लगेंगे।6 धृति – स्थिरता, चरित्र की दृढ़ता एवं ताकत। जीवन में जो भी क्षेत्र हम चुनते हैं, उसमें उन्नति एवं विकास के लिए यह जरूरी है कि निरंतर कोशिश करते रहें एवं स्थिर रहें। जीवन में लक्ष्य होना जरूरी है तभी स्थिरता आती है। लक्ष्यहिन व्यक्ति जीवन खो देता है।धृति का लाभ. चरित्र की दृढ़ता से शरीर और मन में स्थिरता आती है। सभी तरह से दृढ़ व्यक्ति लक्ष्य को भेदने में सक्षम रहता है। इस स्थिरता से जीवन के सभी संकटों को दूर किया जा सकता है। यही सफलता का रहस्य है।7 दया – यह क्षमा का विस्त्रत रूप है। इसे करुणा भी कहा जाता है। जो लोग यह कहते हैं कि दया ही दुख का कारण है वे दया के अर्थ और महत्व को नहीं समझते। यह हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए एक बहुत आवश्यक गुण है।दया का लाभ. जिस व्यक्ति में सभी प्राणियों के प्रति दया भाव है वह स्वयं के प्रति भी दया से भरा हुआ है। इसी गुण से भगवान प्रसन्न होते हैं। यही गुण चरित्र से हमारे आस पास का माहौल अच्छा बनता है।8 आर्जव- दूसरों को नहीं छलना ही सरलता है। अपने प्रति एवं दूसरों के प्रति ईमानदारी से पेश आना।आजर्व का लाभ. छल और धोके से प्राप्त धन, पद या प्रतिष्ठा कुछ समय तक ही रहती है, लेकिन जब उस व्यक्ति का पतन होता है तब उसे बचाने वाला भी कोई नहीं रहता। स्वयं द्वारा अर्जित संपत्ति आदि से जीवन में संतोष और सुख की प्राप्ति होती है।9 मिताहार- भोजन का संयम ही मिताहार है। यह जरूरी है कि हम जीने के लिए खाएं न कि खाने के लिए जिएं। सभी तरह का व्यसन त्यागकर एक स्वच्छ भोजन का चयन कर नियत समय पर खाएं। स्वस्थ रहकर लंबी उम्र जीना चाहते हैं तो मिताहार को अपनाएं। होटलों एवं ऐसे स्थानों में जहां हम नहीं जानते कि खाना किसके द्वारा या कैसे बनाया गया है, वहां न खाएं।मिताहार का लाभ. आज के दौर में मिताहार की बहुत जरूरत है। अच्छा आहार हमारे शरीर को स्वस्थ बनाएं रखकर ऊर्जा और स्फूति भी बरकरार रखता है। अन्न ही अमृत है और यही जहर बन सकता है।10 शौच – आंतरिक एवं बाहरी पवित्रता और स्वच्छता। इसका अर्थ है कि हम अपने शरीर एवं उसके वातावरण को पूर्ण रूप से स्वच्छ रखें। हम मौखिक और मानसिक रूप से भी स्वच्छ रहें।शौच का लाभ. वातावरण, शरीर और मन की स्वच्छता एवं व्यवस्था का हमारे अंतर्मन पर सात्विक प्रभाव पड़ता है। स्वच्छता सकारात्मक और दिव्यता बढ़ती है। यह जीवन को सुंदर बनाने के लिए बहुत जरूरी है। सनातन हिन्दू धर्म के दस नियम।1 ह्री – पश्चात्ताप को ही ह्री कहते हैं। अपने बुरे कर्मों के प्रति पश्चाताप होना जरूरी है। यदि आपमें पश्चाताप की भावना नहीं है तो आप अपनी बुराइयों को बढ़ा रहे हैं। विनम्र रहना एवं अपने द्वारा की गई भूल एवं अनुपयुक्त व्यवहार के प्रति असहमति एवं शर्म जाहिर करना जरूरी है, इसका यह मतलब कतई नहीं की हम पश्चाताप के बोझ तले दबकर फ्रेस्ट्रेशन में चले जाएं।ह्री का लाभ पश्चाताप हमें अवसाद और तनाव से बचाता है तथा हममें फिर से नैतिक होने का बल पैदा करता है। मंदिर, माता-पिता या स्वयं के समक्ष खड़े होकर भूल को स्वीकारने से मन और शरीर हल्का हो जाता है।2 संतोष – प्रभु ने हमारे निमित्त जितना भी दिया है, उसमें संतोष रखना और कृतज्ञता से जीवन जीना ही संतोष है। जो आपके पास है उसका सदुपयोग करना और जो अपके पास नहीं है, उसका शोक नहीं करना ही संतोष है। अर्थात जो है उसी से संतुष्ट और सुखी रहकर उसका आनंद लेना।संतोष का लाभ. यदि आप दूसरों के पास जो है उसे देखर और उसके पाने की लालसा में रहेंगे तो सदा दुखी ही रहेगें बल्कि होना यह चाहिए कि हमारे पास जो है उसके होने का सुख कैसे मनाएं या उसका सदुपयोग कैसे करें यह सोचे इससे जीवन में सुख बढ़ेगा।3 दान – आपके पास जो भी है वह ईश्वर और इस कुदरत की देन है। यदि आप यह समझते हैं कि यह तो मेरे प्रयासों से हुआ है तो आपमें घमंड का संचार होगा। आपके पास जो भी है उसमें से कुछ हिस्सा सोच समझकर दान करें। ईश्वर की देन और परिश्रम के फल के हिस्से को व्यर्थ न जाने दें। इसे आप मंदिर, धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्थाओं में दान कर सकते हैं या किसी गरीब के लिए दान करें।दान का लाभ. दान किसे करें और दान का महत्व क्या है यह जरूर जानें। दान पुण्य करने से मन की ग्रंथियां खुलती है और मन में संतोष, सुख और संतुलन का संचार होता है। मृत्युकाल में शरीर आसानी से छुट जाता है।4 आस्तिकता – वेदों में आस्था रखने वाले को आस्तिक कहते हैं। माता-पिता, गुरु और ईश्वर में निष्ठा एवं विश्वास रखना भी आस्तिकता है।आस्तिकता का लाभ. आस्तिकता से मन और मस्तिष्क में जहां समारात्मकता बढ़ती हैं वहीं हमारी हर तरह की मांग की पूर्ति भी होती है। अस्तित्व या ईश्वर से जो भी मांगा जाता है वह तुरंत ही मिलता है। अस्तित्व के प्रति आस्था रखना जरूरी है।5 ईश्वर प्रार्थना – बहुत से लोग पूजा-पाठ करते हैं, लेकिन सनातन हिन्दू धर्म में ईश्वर या देवी-देवता के लिए संध्यावंदन करने का निर्देश है। संध्यावंदन में प्रार्थना, स्तुति या ध्यान किया जाता है वह भी प्रात: या शाम को सूर्यास्त के तुरंत बाद।ईश्वर की प्रार्थना का लाभ. पांच या सात मिनट आंख बंद कर ईश्वर या देवी देवता का ध्यान करने से व्यक्ति ईथर माध्यम से जुड़कर उक्त शक्ति से जुड़ जाता है। पांच या सात मिनट के बाद ही प्रार्थना का वक्त शुरू होता है। फिर यह आप पर निर्भर है कि कब तक आप उक्त शक्ति का ध्यान करते हैं। इस ध्यान या प्रार्थना से सांसार की सभी समस्याओं का हल मिल जाता है।6 सिद्धांत श्रवण- निरंतर वेद, उपनिषद या गीता का श्रवण करना। वेद का सार उपनिषद और उपनिषद का सार गीता है। मन एवं बुद्धि को पवित्र तथा समारात्मक बनाने के लिए साधु-संतों एवं ज्ञानीजनों की संगत में वेदों का अध्ययन एक शक्तिशाली माध्यम है।सिद्धांत श्रवणका लाभ. जिस तरह शरीर के लिए पौष्टिक आहार की जरूरत होती है उसी तरह दिमाग के लिए समारात्मक बात, किताब और दृष्य की आवश्यकता होती है। आध्यात्मिक वातावरण से हमें यह सब हासिल होता है। यदि आप इसका महत्व नहीं जानते हैं तो आपके जीवन में हमेशा नकारात्मक ही होता रहता है।7 मति – हमारे धर्मग्रंथ और धर्म गुरुओं द्वारा सिखाई गई नित्य साधना का पालन करना। एक प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन से पुरुषार्थ करके अपनी इच्छा शक्ति एवं बुद्धि को आध्यात्मिक बनाना।मति का लाभ संसार में रहें या संन्यास में निरंतर अच्छी बातों का अनुसरण करना जरूरी है तभी जीवन को सुंदर बनाकर शांति, सुख और समृद्धि से रहा जा सकता है। इसके सबसे पहले अपनी बुद्धि को पुरुषार्थ द्वारा आध्यात्मिक बनाना जरूरी है।8व्रत – अतिभोजन, मांस एवं नशीली पदार्थों का सेवन नहीं करना, अवैध यौन संबंध, जुए आदि से बचकर रहना- ये सामान्यत: व्रत के लिए जरूरी है।इसका गंभीरता से पालन चाहिए अन्यथा एक दिन सारी आध्यात्मिक या सांसारिक कमाई पानी में बह जाती है। यह बहुत जरूरी है कि हम विवाह, एक धार्मिक परंपरा के प्रति निष्ठा, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य जैसे व्रतों का सख्त पालन करें।बृत का लाभ व्रत से नैतिक बल मिलता है तो आत्मविश्वास तथा दृढ़ता बढ़ती है। जीवन में सफलता अर्जित करने के लिए व्रतवान बनना जरूरी है। व्रत से जहां शरीर स्वस्थ बना रहता है वही मन और बुद्धि भी शक्तिशाली बनते हैं।9जप – जब दिमाग या मन में असंख्य विचारों की भरमार होने लगती है तब जप से इस भरमार को भगाया जा सकता है। अपने किसी इष्ट का नाम या प्रभु स्मरण करना ही जप है। यही प्रार्थना भी है और यही ध्यान भी है।जप का लाभ हजारों विचार को भगाने के लिए मात्र एक मंत्र ही निरंतर जपने से सभी हजारों विचार धीरे-धीरे लुप्त हो जाते हैं। हम रोज स्नान करके अपने आपको स्वच्छ रखते हैं, उसी जप से मन की सफाई हो जाती है। इसे मन में झाडू लगना भी कहा जाता।10 तप – मन का संतुलन बनाए रखना ही तप है। व्रत जब कठीन बन जाता है तो तप का रूप धारण कर लेता है। निरंतर किसी कार्य के पीछे पड़े रहना भी तप है। निरंतर अभ्यास करना भी तप है। त्याग करना भी तप है। सभी इंद्रियों को कंट्रोल में रखकर अपने अनुसार चलापा भी तप है। उत्साह एवं प्रसन्नता से व्रत रखना, पूजा करना, पवित्र स्थलों की यात्रा करना। विलासप्रियता एवं फिजूलखर्ची न चाहकर सादगी से जीवन जीना। इंद्रियों के संतोष के लिए अपने आप को अंधाधुंध समर्पित न करना भी तप है।तप का लाभ जीवन में कैसी भी दुष्कर परिस्थिति आपके सामने प्रस्तुत हो, तब भी आप दिमागी संतुलन नहीं खो सकते, यदि आप तप के महत्व को समझते हैं तो। अनुशासन एवं परिपक्वता से सभी तरह की परिस्थिति पर विजय प्राप्त की जा सकती है।अंत: जो व्यक्ति यम और नियम का पालन करता है वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल होने की ताकत रखता है। यह प्रतिबंध और नियम सभी धर्मों का सार है।Code of Conduct of Sanatan Hinduism. By social worker Vanita Kasani Punjab There are strict rules of conduct in Hinduism which its followers should follow in daily life. This code of conduct mainly consists of ten restrictions and ten rules. This is a moral discipline of Sanatan Hinduism. The one who follows it always remains happy and powerful in life. 1. Ahimsa - Do not hurt or harm any living creature including yourself by mind, word or deed. Just as we love ourselves, we should also love and respect others. Benefits of Ahimsa By having a sense of non-violence towards anyone, where the basis for a positive feeling is prepared, each person also starts to have a good attitude towards such a non-violent person. If all people have good feelings towards you, it will be good in your life. 2. Truth - Remain honest with mind, speech and deeds, keep the words given, do not keep any secret from loved ones. Benefit of truth. By always speaking the truth, a person's reputation and credibility are maintained. By speaking the truth, one gets spiritual strength, which also increases confidence. 3. Asthe - Do not steal. It is unhealthy not to steal any idea and object. Stealing is the result of ignorance that causes us to believe that we lack something or that we are not worthy of it. Do not take advantage of yourself at any cost through betting and illegal methods. Benefits of Asthe. Your nature is just your nature. The more hardworking and mulik a person becomes, the more his personality improves. With this honesty, everyone can be satisfied by winning hearts. It is important that we know the beauty and splendor inside us. 4-Brahmacharya. Brahmacharya has two meanings - meditation of God and conservation of sexual energy. Being in Brahmacharya, one should put all his strength in studies and training before marriage. After this, sexual activity should be done within the framework of its nubile. He should also stay away from it on special nights. In observance of Brahmacharya many things are taken care of - like vaginal talk and jokes, ban on viewing pornographic images and movies. Women and men should behave decently while talking among themselves. This is how celibacy prevails. Benefits of Brahmacharya. Sexual energy is the power of the body. The amount of this power is stored, the person remains physically and mentally powerful and energetic. The person who loses this power becomes like a withered flower. 5 Forgiveness - It is important that we treat others with patience and compassion and try to understand them. Be tolerant of family and children, neighbors and colleagues as each person behaves in a circumstance. Benefit of forgiveness. Respect for you will increase in family, society and colleagues. If people give you time to understand, then people will also start understanding you. 6 Dhriti - Stability, firmness and strength of character. For the progress and development in whatever field we choose in life, it is necessary to keep trying and remain stable. It is important to have goals in life only when stability comes. A goalless person loses life. Benefits of Dhriti. Consistency of character brings stability to body and mind. In all ways, a strong person is able to hit the target. All the crises of life can be overcome by this stability. This is the secret of success. 7 Daya - This is an elaborate form of forgiveness. It is also called compassion. Those who say that mercy is the cause of sorrow do not understand the meaning and importance of mercy. It is a very essential quality for our spiritual development. Benefit of kindness. A person who has compassion for all beings is also full of kindness towards himself. God is pleased with this quality. This quality character makes the environment around us good. 8 Arjava - It is easy to not deceive others. Be honest towards yourself and others. Benefits of Aajarva. Money, position or prestige obtained by deceit and deception remains for some time, but when that person falls, there is no one to save him. One gets satisfaction and happiness in life by owning property etc. Dieting 9 - Dietary restraint is dietary. It is important that we eat to live and not to eat. Quit all kinds of addiction and choose a clean food and eat at the appointed time. If you want to live long by staying healthy then adopt dieting. Do not eat in hotels and places where we do not know by whom or how the food is made. Benefits of dieting. Dieting is very much needed today. Good diet keeps our body healthy and also maintains energy and cleanliness. Food is nectar and it can become poison. 10 Poop - Internal and external purity and cleanliness. This means that we should keep our body and its environment completely clean. We should be clean both verbally and mentally. Benefits of defecation. Cleanliness and order of environment, body and mind have a sattvic effect on our inner being. Cleanliness is positive and divinity increases. It is very important to make life beautiful. Ten rules of Sanatan Hinduism. 1 Hari - Repentance is called Hri. It is necessary to be repentant of your evil deeds. If you do not have a feeling of remorse, then you are increasing your evils. It is necessary to be humble and to express disagreement and shame about the mistake and inappropriate behavior we have done, it does not mean that we should go under the burden of repentance and go to freedom. Benefit of Hri Repentance saves us from depression and stress and instills in us the power to be moral again. Standing in front of the temple, parents or yourself, the mind and body lighten up by accepting the mistake. 2 Satisfaction - Whatever the Lord has given for our sake, satisfaction is the satisfaction and living life with gratitude. It is a satisfaction to use what you have and not to grieve what you do not have. That is to enjoy what you have, being satisfied and happy. Benefits of satisfaction. If you look after what others have and crave to get it, you will always remain unhappy rather it should be that how to celebrate the happiness of what we have or how to use it properly, it will increase happiness in life. 3 Donation - Whatever you have is the gift of God and this nature. If you understand that this has happened due to my efforts, then there will be pride in you. Thinkfully donate some part of what you have. Do not let the portion of the fruit of God's giving and labor go in vain. You can donate it to temples, religious and spiritual institutions or donate it to a poor person. Benefit of charity. Who should donate and know what is the importance of donation. Performing charity opens the glands of the mind and brings satisfaction, happiness and balance in the mind. The body is easily lost in death. 4 Theism - A believer in the Vedas is called a believer. It is also theism to have loyalty and faith in parents, gurus and God. Benefit of theism While theism increases the correctness in the mind and brain, our every kind of demand is also fulfilled. Whatever is sought from existence or God is immediately met. It is important to have faith in existence. 5 God Prayer - Many people offer prayers, but in Sanatan Hinduism, there is a directive to worship for God or Goddess. Prayers, praises or meditation are done in the evening, that too in the morning or in the evening immediately after sunset. Benefits of God Prayer. Five or seven minutes after closing the eyes and meditating on God or Goddess, the person connects with the said power by connecting through ether medium. The prayer time begins only after five or seven minutes. Then it is up to you how long you meditate on the said power. This meditation or prayer solves all the problems of the world. 6 Siddhanta Sravana- Continually listening to the Vedas, Upanishads or Gita. The essence of the Veda is the Upanishads and the essence of the Upanishads is the Gita. The study of the Vedas is a powerful medium in the company of sages and saints to make the mind and intellect pure and correct. Benefit of principle listening. Just as nutritious food is required for the body, similarly for the mind, a corrective thing, book and view is required. We get all this through spiritual environment. If you do not know its importance, then there is always a negative in your life. 7 Mati - To follow the regular practice taught by our scriptures and religious teachers. Spiritualize your will power and intellect by making effort under the guidance of an authentic guru. It is important to stay in the world or to follow the good things continuously in retirement, only then life can be made beautiful, peace, happiness and prosperity. First of all it is necessary to spiritualize your intellect through effort. 8 Fast - Over-eating, not consuming meat and drugs, avoiding illegal sex, gambling etc. - This is generally necessary for fasting. It should be followed seriously, otherwise one day all the spiritual or worldly earnings flow into the water. It is very important that we observe strict observances like marriage, allegiance to a religious tradition, vegetarianism and celibacy. If you get moral strength from fasting, then confidence and perseverance increases. To achieve success in life, it is important to become fast. By fasting, where the body remains healthy, the mind and intellect also become powerful. 9 Chanting - When the mind or mind starts to get filled with innumerable thoughts, then this chant can be overcome by chanting. Chanting is the name or remembrance of one of your favorite people. This is also prayer and this is also meditation. Benefits of chanting To chase away thousands of thoughts, by chanting only one mantra continuously, all the thousands of thoughts are gradually lost. We keep ourselves clean by bathing daily, with that chanting the mind gets cleansed. It is also called sweeping in the mind. 10 Tapa - Maintaining the balance of mind is tenacity. When the fast becomes difficult then it takes the form of penance. Continuously lagging behind a task is also austerity. Continuous practice is also austerity. Renunciation is also austerity. Keeping all the senses under control, chalpa according to yourself is also austerity. Fasting with enthusiasm and happiness, worshiping, traveling to holy places. Live a life of simplicity by not wanting luxury and extravagance. Not dedicating yourself indiscriminately to the satisfaction of the senses is also austerity. Benefits of austerity No matter what difficult situation in life is presented to you, even then you cannot lose your mind balance, if you understand the importance of austerity. All kinds of situations can be overcome with discipline and maturity. The person who follows Yama and Niyam has the strength to succeed in any area of ​​life. This restriction and rule is the essence of all religions.

सनातन हिन्दू धर्म की आचरण संहिता । By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब हिन्दू धर्म में आचरण के सख्त नियम हैं जिनका उसके अनुयायी को प्रतिदिन जीवन में पालन करना चाहिए। इस आचरण संहिता में मुख्यत: दस प्रतिबंध हैं और दस नियम हैं। यह सनातन हिन्दू धर्म का नैतिक अनुशासन है। इसका पालन करने वाला जीवन में हमेशा सुखी और शक्तिशाली बना रहता है। 1. अहिंसा – स्वयं सहित किसी भी जीवित प्राणी को मन, वचन या कर्म से दुख या हानि नहीं पहुंचाना। जैसे हम स्वयं से प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें दूसरों को भी प्रेम और आदर देना चाहिए। अहिंसा का लाभ. किसी के भी प्रति अहिंसा का भाव रखने से जहां सकारात्मक भाव के लिए आधार तैयार होता है वहीं प्रत्येक व्यक्ति ऐसे अहिंसकर व्यक्ति के प्रति भी अच्छा भाव रखने लगता है। सभी लोग आपके प्रति अच्छा भाव रखेंगे तो आपके जीवन में कअच्छा ही होगा। 2. सत्य – मन, वचन और कर्म से सत्यनिष्ठ रहना, दिए हुए वचनों को निभाना, प्रियजनों से कोई गुप्त बात नहीं रखना। सत्य का लाभ. सदा सत्य बोलने से व्यक्ति की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता कायम रहती है। सत्य बोलने से व्यक्ति को आत्मिक बल प्राप्त होता है जिसस...

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥ श्रीगणेशायनम: । अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य । बुधकौशिक ऋषि: । श्रीसीतारामचंद्रोदेवता । अनुष्टुप्‌ छन्द: । सीता शक्ति: । श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ । श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥ अर्थ : इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्रके रचयिता बुधकौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमानजी कीलक है तथा श्रीरामचंद्रजीकी प्रसन्नताके लिए राम रक्षा स्तोत्रके जपमें विनियोग किया जाता है । ॥ अथ ध्यानम्‌ ॥ ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं । पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥ वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं । नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥ अर्थ : ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्ध पद्मासनकी मुद्रामें विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दलके समान स्पर्धा करते हैं, जो बायें ओर स्थित सीताजीके मुख कमलसे मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारोंसे विभूषित तथा जटाधारी श्रीरामका ध्यान करें । ॥ इति ध्यानम्‌ ॥ चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्‌ । एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌ ॥१॥ अर्थ : श्री रघुनाथजीका चरित्र सौ कोटि विस्तारवाला हैं ।उसका एक-एक अक्षर महापातकोंको नष्ट करनेवाला है । ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्‌ । जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम्‌ ॥२॥ अर्थ : नीले कमलके श्याम वर्णवाले, कमलनेत्रवाले , जटाओंके मुकुटसे सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्रीरामका स्मरण कर, सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम्‌ । स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्‌ ॥३॥ अर्थ : जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथोंमें खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसोंके संहार तथा अपनी लीलाओंसे जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीरामका स्मरण कर, रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम्‌ । शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४॥ अर्थ : मैं सर्वकामप्रद और पापोंको नष्ट करनेवाले राम रक्षा स्तोत्रका पाठ करता हूं । राघव मेरे सिरकी और दशरथके पुत्र मेरे ललाटकी रक्षा करें । कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती । घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥ अर्थ : कौशल्या नंदन मेरे नेत्रोंकी, विश्वामित्रके प्रिय मेरे कानोंकी, यज्ञरक्षक मेरे घ्राणकी और सुमित्राके वत्सल मेरे मुखकी रक्षा करें । जिव्हां विद्यानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: । स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥ अर्थ : विद्यानिधि मेरी जिह्वाकी रक्षा करें, कंठकी भरत-वंदित, कंधोंकी दिव्यायुध और भुजाओंकी महादेवजीका धनुष तोडनेवाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें । करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित्‌ । मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥ अर्थ : मेरे हाथोंकी सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदयकी जमदग्नि ऋषिके पुत्रको (परशुराम) जीतनेवाले, मध्य भागकी खरके (नामक राक्षस) वधकर्ता और नाभिकी जांबवानके आश्रयदाता रक्षा करें । सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: । ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत्‌ ॥८॥ अर्थ : मेरे कमरकी सुग्रीवके स्वामी, हडियोंकी हनुमानके प्रभु और रानोंकी राक्षस कुलका विनाश करनेवाले रघुकुलश्रेष्ठ रक्षा करें । जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्‌घे दशमुखान्तक: । पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥ अर्थ : मेरे जानुओंकी सेतुकृत, जंघाओकी दशानन वधकर्ता, चरणोंकी विभीषणको ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले और सम्पूर्ण शरीरकी श्रीराम रक्षा करें । एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत्‌ । स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्‌ ॥१०॥ अर्थ : शुभ कार्य करनेवाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धाके साथ रामबलसे संयुक्त होकर इस स्तोत्रका पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं । पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्‌मचारिण: । न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥ अर्थ : जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाशमें विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेशमें घूमते रहते हैं , वे राम नामोंसे सुरक्षित मनुष्यको देख भी नहीं पाते । रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन्‌ । नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥ अर्थ : राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामोंका स्मरण करनेवाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता, इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनोंको प्राप्त करता है । जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्‌ । य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥ अर्थ : जो संसारपर विजय करनेवाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्‌ । अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम्‌ ॥१४॥ अर्थ : जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवचका स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञाका कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगलकी ही प्राप्ति होती हैं । आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: । तथा लिखितवान्‌ प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥ अर्थ : भगवान् शंकरने स्वप्नमें इस रामरक्षा स्तोत्रका आदेश बुध कौशिक ऋषिको दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागनेपर उसे वैसा ही लिख दिया | आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम्‌ । अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान्‌ स न: प्रभु: ॥१६॥ अर्थ : जो कल्प वृक्षोंके बागके समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियोंको दूर करनेवाले हैं और जो तीनो लोकों में सुंदर हैं, वही श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं । तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ । पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥ अर्थ : जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमलके (पुण्डरीक) समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियोंकी समान वस्त्र एवं काले मृगका चर्म धारण करते हैं । फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ । पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥ अर्थ : जो फल और कंदका आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथके पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें । शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्‌ । रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥ अर्थ : ऐसे महाबली – रघुश्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियोंके शरणदाता, सभी धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ और राक्षसोंके कुलोंका समूल नाश करनेमें समर्थ हमारा रक्षण करें । आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्‌ग सङि‌गनौ । रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रत: पथि सदैव गच्छताम्‌ ॥२०॥ अर्थ : संघान किए धनुष धारण किए, बाणका स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणोसे युक्त तुणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करनेके लिए मेरे आगे चलें । संनद्ध: कवची खड्‌गी चापबाणधरो युवा । गच्छन्‌मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥२१॥ अर्थ : हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथमें खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्थावाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर हमारी रक्षा करें । रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली । काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥२२॥ अर्थ : भगवानका कथन है कि श्रीराम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुतम वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: । जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥२३॥ अर्थ : वेदान्त्वेघ, यज्ञेश,पुराण पुरुषोतम , जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामोंका इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्त: श्रद्धयान्वित: । अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥२४॥ अर्थ : नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करनेवालेको निश्चित रूपसे अश्वमेध यज्ञसे भी अधिक फल प्राप्त होता हैं । रामं दूर्वादलश्यामं पद्‌माक्षं पीतवाससम्‌ । स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥२५॥ अर्थ : दूर्वादलके समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीरामकी उपरोक्त दिव्य नामोंसे स्तुति करनेवाला संसारचक्रमें नहीं पडता । रामं लक्ष्मणं पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम्‌ । काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्‌ राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम्‌ । वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्‌ ॥२६॥ अर्थ : लक्ष्मण जीके पूर्वज , सीताजीके पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणाके सागर , गुण-निधान , विप्र भक्त, परम धार्मिक, राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथके पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकोंमें सुन्दर, रघुकुल तिलक , राघव एवं रावणके शत्रु भगवान् रामकी मैं वंदना करता हूं। रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे । रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥२७॥ अर्थ : राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीताजीके स्वामीकी मैं वंदना करता हूं। श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम । श्रीराम राम भरताग्रज राम राम । श्रीराम राम रणकर्कश राम राम । श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥ अर्थ : हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरतके अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए । श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥ अर्थ : मैं एकाग्र मनसे श्रीरामचंद्रजीके चरणोंका स्मरण और वाणीसे गुणगान करता हूं, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धाके साथ भगवान् रामचन्द्रके चरणोंको प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणोंकी शरण लेता हूं | माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: । स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: । सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु । नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥ अर्थ : श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं ।इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं, उनके सिवामें किसी दुसरेको नहीं जानता । दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा । पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम्‌ ॥३१॥ अर्थ : जिनके दाईं और लक्ष्मणजी, बाईं और जानकीजी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथजीकी वंदना करता हूं । लोकाभिरामं रनरङ्‌गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्‌ । कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥ अर्थ : मैं सम्पूर्ण लोकोंमें सुन्दर तथा रणक्रीडामें धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणाकी मूर्ति और करुणाके भण्डार रुपी श्रीरामकी शरणमें हूं। मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌ । वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥ अर्थ : जिनकी गति मनके समान और वेग वायुके समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूतकी शरण लेता हूं । कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌ । आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥३४॥ अर्थ : मैं कवितामयी डालीपर बैठकर, मधुर अक्षरोंवाले ‘राम-राम’ के मधुर नामको कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयलकी वंदना करता हूं । आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्‌ । लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌ ॥३५॥ अर्थ : मैं इस संसारके प्रिय एवं सुन्दर , उन भगवान् रामको बार-बार नमन करता हूं, जो सभी आपदाओंको दूर करनेवाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करनेवाले हैं । भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम्‌ । तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्‌ ॥३६॥ अर्थ : ‘राम-राम’ का जप करनेसे मनुष्यके सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं । वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं । राम-रामकी गर्जनासे यमदूत सदा भयभीत रहते हैं । रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे । रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: । रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम्‌ । रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥ अर्थ : राजाओंमें श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजयको प्राप्त करते हैं । मैं लक्ष्मीपति भगवान् श्रीरामका भजन करता हूं। सम्पूर्ण राक्षस सेनाका नाश करनेवाले श्रीरामको मैं नमस्कार करता हूं । श्रीरामके समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं । मैं उन शरणागत वत्सलका दास हूं। मैं सद्सिव श्रीराममें ही लीन रहूं । हे श्रीराम! आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें । राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे । सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥ अर्थ : (शिव पार्वती से बोले –) हे सुमुखी ! राम- नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान हैं । मैं सदा रामका स्तवन करता हूं और राम-नाममें ही रमण करता हूं । इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब 🌹🙏🙏🌹, अर्थ : इस प्रकार बुधकौशिकद्वारा रचित श्रीराम रक्षा स्तोत्र सम्पूर्ण होता है । ॥ श्री सीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

  ॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥ श्रीगणेशायनम: । अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य । बुधकौशिक ऋषि: । श्रीसीतारामचंद्रोदेवता । अनुष्टुप्‌ छन्द: । सीता शक्ति: । श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ । श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥ अर्थ : इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्रके रचयिता बुधकौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमानजी कीलक है तथा श्रीरामचंद्रजीकी प्रसन्नताके लिए राम रक्षा स्तोत्रके जपमें विनियोग किया जाता है । ॥ अथ ध्यानम्‌ ॥ ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं । पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥ वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं । नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥ अर्थ : ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्ध पद्मासनकी मुद्रामें विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दलके समान स्पर्धा करते हैं, जो बायें ओर स्थित सीताजीके मुख कमलसे मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारोंसे विभूषित तथा जटाधारी श्रीरामका ध्यान करें । ॥ इति ध्यानम्‌ ॥ चरितं रघुनाथस्य श...

••••⊰᯽⊱••卐!!#श्री!!卐••⊰᯽⊱•••• •••••⊰᯽⊱!!#Զเधे_Զเधे!!⊰᯽⊱•••••🍃🍂शुभ_प्रभात_वंदनजी🍂🍃✍*❣#मेरे_साँवरे..........✍❣❣💕"तुझे" लिखते वक़्त, महसूस होता है अक्सर....💕💕"मुझे" खुद से बिछड़े, एक जमाना हो गया....💕 🙏🍁🍁 जय श्री राधे कृष्णा जी🍁🍁🙏 🌹┅•••••◈⊰❉!!श्री!!❉⊱◈•••••┅🌹🌹💠🌹•••••❀Զเधे Զเधे❀•••••🌹💠🌹