II Kahat Sunat Harshahin Pulkahani IIPost Number - 5/5 (Final) Lakshmana-Murthchaka is a compassionate affair - Meghnadki Veeraghatinishktha in the battleground is hurt by the attack, he is lying unconscious. 'The night has passed
II कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं II
पोस्ट संख्या – ५/५ (अन्तिम)
लक्ष्मण-मूर्छाका करुण प्रसंग है – युद्धभूमिमें मेघनादकी वीरघातिनीशक्तिके प्रहारसे आहात हो वे मूर्छित अवस्थामें पड़े हैं । ‘अभी रात बीत चुकी है, हनुमानजी नहीं आये’ – यह कहकर श्रीरामने छोटे भाई लक्ष्मणको उठाकर हृदयसे लगा लिया और बोले – हे भ्राता ! तुम मुझे कभी दुःखी नहीं देख सकते थे, तुम्हारा स्वभाव सदासे ही कोमल था । मेरे हितके लिये तुमने माता-पिताको छोड़ दिया और वनमें जाड़ा, गरमी और हवा सब सहन किया । हे भाई ! वह प्रेम अब कहाँ है ? मेरे व्याकुलतापूर्ण वचन सुनकर भी उठते क्यों नहीं ? यदि मैं ऐसा जानता कि मुझे वनमें बन्धु-बिछोह सहना पड़ेगा तो मैं पिताकी आज्ञाका पालन नहीं करता –
मम हित लागि तजेहु पितु माता I सहेहु बिपिन हिम आतप बाता II
सो अनुराग कहाँ अब भाई I उठहु न सुनि मम बच बिकलाई II
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू I पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू II
(मानस ६/६१/४-६)
गीतावली (६ । ७)में भी तुलसीदासजीने श्रीरामके व्यथा कुछ इस प्रकार व्यक्त की है – ‘मेरा सब पुरुषार्थ व्यर्थ गया, वनमें मेरे दुःखको बँटानेवाला एक मेरा भाई था, वह भी मुझे छोड़कर जा रहा है । मुझे अब किसका सहारा है –
मेरो सब पुरुषारथ थाको I
बिपति बँटावन बंधु-बाहु बिनु करौं भरोसो काको II
यह कहते हुए प्रभुके कमलकी पँखड़ीसदृश नेत्रोंसे जल बह रहा है ।
शिवजी प्रभुकी इस नरलीलाको पार्वतीको सुनाते हुए कहते हैं – हे उमा ! श्रीरघुनाथजी एक (अद्वितीय) और अखण्ड (वियोगरहित) हैं, भक्तोंपर कृपा करनेके लिये उन्होंने यह नर-लीला दिखायी है । इधर प्रभुके इस प्रलापको सुनकर वानरसमूह व्याकुल हो जाता है । इतनेमें ही श्रीहनुमानजी पर्वतसहित आ जाते हैं और सुषेणके उपचारसे लक्ष्मणजी उठकर बैठ जाते हैं , सम्पूर्ण रामदलमें हर्षकी लहर दौड़ जाती है ।
इस प्रकार रामकथाके विविध प्रसंग विविध रसोंकी अनुभूति कराते हैं, सम्पूर्णरूपसे यह रघुनाथकथा आनन्दमयी और कलिमलनाशिनी है ।
वस्तुतः प्रभु श्रीराम अनन्त हैं, उनकी लीला-कथाएँ अनन्त हैं । भक्तजन अनेक प्रकारसे उनके गुणानुवादोंको कहते-सुनते हैं । इस अनन्तकथा-सागरमें जो लोग अवगाहन करते हैं, वे ही पुण्यात्मा हैं –
कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं I ते सुकृती मन मुदित नहाहीं II
(मानस १/४१/६)
(‘कल्याण’ पत्रिका; वर्ष – ७९, संख्या – ४ : गीताप्रेस, गोरखपुर)
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