. पूजा के नियम
सुखी और समृद्धिशाली जीवन के लिए देवी-देवताओं के पूजन की परंपरा काफी पुराने समय से चली आ रही है। आज भी बड़ी संख्या में लोग इस परंपरा को निभाते हैं। पूजन से हमारी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, लेकिन पूजा करते समय कुछ खास नियमों का पालन भी किया जाना चाहिए। अन्यथा पूजन का शुभ फल पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं हो पाता है। यहां कुछ ऐसे नियम बताए जा रहे हैं जो सामान्य पूजन में भी ध्यान रखना चाहिए। इन बातों का ध्यान रखने पर बहुत ही जल्द शुभ प्राप्त हो सकते हैं।
ये नियम इस प्रकार हैं
01. सूर्य, गणेश, दुर्गा, शिव और विष्णु, ये पंचदेव कहलाते हैं, इनकी पूजा सभी कार्यों में अनिवार्य रूप से की जानी चाहिए। प्रतिदिन पूजन करते समय इन पंचदेव का ध्यान करना चाहिए। इससे लक्ष्मी कृपा और समृद्धि प्राप्त होती है।
02. शिवजी, गणेशजी और भैरवजी को तुलसी नहीं चढ़ानी चाहिए।
03. मां दुर्गा को दूर्वा (एक प्रकार की घास) नहीं चढ़ानी चाहिए। यह गणेशजी को विशेष रूप से अर्पित की जाती है।
04. सूर्य देव को शंख के जल से अर्घ्य नहीं देना चाहिए।
05. तुलसी का पत्ता बिना स्नान किए नहीं तोडऩा चाहिए। शास्त्रों के अनुसार यदि कोई व्यक्ति बिना नहाए ही तुलसी के पत्तों को तोड़ता है तो पूजन में ऐसे पत्ते भगवान द्वारा स्वीकार नहीं किए जाते हैं।
06. शास्त्रों के अनुसार देवी-देवताओं का पूजन दिन में पांच बार करना चाहिए। सुबह 5 से 6 बजे तक ब्रह्म मुहूर्त में पूजन और आरती होनी चाहिए। इसके बाद प्रात: 9 से 10 बजे तक दूसरी बार का पूजन। दोपहर में तीसरी बार पूजन करना चाहिए। इस पूजन के बाद भगवान को शयन करवाना चाहिए। शाम के समय चार-पांच बजे पुन: पूजन और आरती। रात को 8-9 बजे शयन आरती करनी चाहिए। जिन घरों में नियमित रूप से पांच बार पूजन किया जाता है, वहां सभी देवी-देवताओं का वास होता है और ऐसे घरों में धन-धान्य की कोई कमी नहीं होती है।
07. प्लास्टिक की बोतल में या किसी अपवित्र धातु के बर्तन में गंगाजल नहीं रखना चाहिए। अपवित्र धातु जैसे एल्युमिनियम और लोहे से बने बर्तन। गंगाजल तांबे के बर्तन में रखना शुभ रहता है।
08. स्त्रियों को और अपवित्र अवस्था में पुरुषों को शंख नहीं बजाना चाहिए। यहाँ इस नियम का पालन नहीं किया जाता है तो जहां शंख बजाया जाता है, वहाँ से देवी लक्ष्मी चली जाती हैं।
09. मन्दिर और देवी-देवताओं की मूर्ति के सामने कभी भी पीठ दिखाकर नहीं बैठना चाहिए।
10. केतकी का फूल शिवलिंग पर अर्पित नहीं करना चाहिए।
11. किसी भी पूजा में मनोकामना की सफलता के लिए दक्षिणा अवश्य चढ़ानी चाहिए। दक्षिणा अर्पित करते समय अपने दोषों को छोडऩे का संकल्प लेना चाहिए। दोषों को जल्दी से जल्दी छोडऩे पर मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होंगी।
12. दूर्वा (एक प्रकार की घास) रविवार को नहीं तोडऩी चाहिए।
13. मां लक्ष्मी को विशेष रूप से कमल का फूल अर्पित किया जाता है। इस फूल को पांच दिनों तक जल छिड़क कर पुन: चढ़ा सकते हैं।
14. शास्त्रों के अनुसार शिवजी को प्रिय बिल्व पत्र छह माह तक बासी नहीं माने जाते हैं। अत: इन्हें जल छिड़क कर पुन: शिवलिंग पर अर्पित किया जा सकता है।
15. तुलसी के पत्तों को 11 दिनों तक बासी नहीं माना जाता है। इसकी पत्तियों पर हर रोज जल छिड़कर पुन: भगवान को अर्पित किया जा सकता है।
16. आमतौर पर फूलों को हाथों में रखकर हाथों से भगवान को अर्पित किया जाता है। ऐसा नहीं करना चाहिए। फूल चढ़ाने के लिए फूलों को किसी पवित्र पात्र में रखना चाहिए और इसी पात्र में से लेकर देवी-देवताओं को अर्पित करना चाहिए।
17. तांबे के बर्तन में चंदन, घिसा हुआ चंदन या चंदन का पानी नहीं रखना चाहिए।
18. हमेशा इस बात का ध्यान रखें कि कभी भी दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति दीपक से दीपक जलते हैं, वे रोगी होते हैं।
19. बुधवार और रविवार को पीपल के वृक्ष में जल अर्पित नहीं करना चाहिए।
20. पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख रखकर करनी चाहिए। यदि संभव हो सके तो सुबह 6 से 8 बजे के बीच में पूजा अवश्य करें।
21. पूजा करते समय आसन के लिए ध्यान रखें कि बैठने का आसन ऊनी होगा तो श्रेष्ठ रहेगा।
22. घर के मन्दिर में सुबह एवं शाम को दीपक अवश्य जलाएं। एक दीपक घी का और एक दीपक तेल का जलाना चाहिए।
23. पूजन-कर्म और आरती पूर्ण होने के बाद उसी स्थान पर खड़े होकर 3 परिक्रमाएं अवश्य करनी चाहिए।
24. रविवार, एकादशी, द्वादशी, संक्रांति तथा संध्या काल में तुलसी के पत्ते नहीं तोडऩा चाहिए।
25. भगवान की आरती करते समय ध्यान रखें ये बातें- भगवान के चरणों की चार बार आरती करें, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार आरती करें। इस प्रकार भगवान के समस्त अंगों की कम से कम सात बार आरती करनी चाहिए।
26. पूजाघर में मूर्तियाँ 1, 3, 5, 7, 9, 11 इंच तक की होनी चाहिए, इससे बड़ी नहीं तथा खड़े हुए गणेश जी, सरस्वतीजी, लक्ष्मीजी, की मूर्तियाँ घर में नहीं होनी चाहिए।
27. गणेश या देवी की प्रतिमाए तीन तीन, शिवलिंग दो, शालिग्राम दो, सूर्य प्रतिमा दो,गोमती चक्र दो की संख्या में कदापि न रखें। घर मे बीच बीच में हवन अवश्य कराएं इससे वातावरण शुदध होता है ।
28. अपने मन्दिर में सिर्फ प्रतिष्ठित मूर्ति ही रखें उपहार, काँच, लकड़ी एवं फायबर की मूर्तियां न रखें एवं खण्डित, जलीकटी फोटो और टूटा काँच तुरंत हटा दें। शास्त्रों के अनुसार खंडित मूर्तियों की पूजा वर्जित की गई है। जो भी मूर्ति खंडित हो जाती है, उसे पूजा के स्थल से हटा देना चाहिए और किसी पवित्र बहती नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए। खंडित मूर्तियों की पूजा अशुभ मानी गई है। इस संबंध में यह बात ध्यान रखने योग्य है कि सिर्फ शिवलिंग कभी भी, किसी भी अवस्था में खंडित नहीं माना जाता है।
29. मन्दिर के ऊपर भगवान के वस्त्र, पुस्तकें एवं आभूषण आदि भी न रखें मन्दिर में पर्दा अति आवश्यक है अपने पूज्य माता --पिता तथा पित्रों का फोटो मन्दिर में कदापि न रखें,उन्हें घर के नैऋत्य कोण में स्थापित करें।
30. विष्णु की चार, गणेश की तीन, सूर्य की सात, दुर्गा की एक एवं शिव की आधी परिक्रमा कर सकते हैं।
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"जय जय श्री राधे"
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. "मीरा चरित" (पोस्ट-030)
पद के गान का विश्राम हुआ तो मीरा दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर फफक-फफक कर रोने लगी। भोजराज समझ नहीं पाये कि क्या करें, कैसे धीरज बँधाये, क्या कहें ? इससे पहले वह कुछ सोच पाते, वह पछाड़ खाकर धरती पर गिर पड़ी। भोजराज घबराकर उन्हें उठाने के लिए बढ़े, नीचे झुके परन्तु अपना वचन और मर्यादा का सोच ठिठक गये। तुरन्त कक्ष से बाहर जाकर उन्होंने मिथुला को पुकारा। उसने आकर अपनी स्वामिनी को संभाला।
ऐसे ही मीरा पर कभी अनायास ही ठाकुर से विरह का भाव प्रबल हो उठता। एक ग्रीष्म की रात्रि में, छत पर बैठे हुये भोजराज की अध्यात्मिक जिज्ञासा का समाधान मीरा कर रही थी। कुछ ही देर में भोजराज का अनुभव हुआ कि उनकी बात का उत्तर देने के बदले मीरा दीर्घ श्वास ले रही है। "क्या हुआ ? आप स्वस्थ तो हैं ?" भोजराज ने पूछा। तभी कहीं से पपीहे की ध्वनि आई तो ऐसा लगा जैसे बारूद में चिन्गारी पड़ गई हो। वह उठकर छत की ओट के पास चली गई। रूँधे हुये गले से कहने लगी.............
पपइया रे ! कद को बैर चितार्यो।
मैं सूती छी भवन आपने पिय पिय करत पुकार्यो॥
दाझया ऊपर लूण लगायो हिवड़े करवत सार्यो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर हरि चरणा चित धार्यो॥
"म्हें थारो कई बिगाड़यो रे पंछीड़ा ! क्या तूने मेरे सिये घाव उधेड़े ? क्यों मेरी सोती पीर जगाई ? अरे हत्यारे ! अगर तुम विरहणी के समक्ष आकर "पिया-पिया" बोलोगे तो वह तुम्हारी चौंच न तोड़ डालेगी क्या ?"
फिर अगले ही क्षण आशान्वित हो कहने लगी, "देख पपीहरे ! अगर तुम मेरे गिरधर के आगमन का सुहावना संदेश लेकर आये हो तो मैं तेरी चौंच को चाँदी से मढ़वा दूँगी।" फिर निराशा और विरह का भाव प्रबल हो उठा - "पर तुम मुझ विरहणी का क्यूँ सोचोगे ? मेरे पिय दूर हैं। वे द्वारिका पधार गये, इसी से तुझे ऐसा कठोर विनोद सूझा ? श्यामसुन्दर ! मेरे प्राण ! देखते हैं न आप इस पंछी की हिम्मत ? आपसे रहित जानकर ये सभी जैसे मुझसे पूर्व जन्म का कोई बैर चुकाने को उतावले हो उठे हैं। पधारो-पधारो मेरे नाथ ! यह शीतल पवन मुझे सुखा देगी, यह चन्द्रमा मुझे जला देगा। अब और......... नहीं .......सहा........जाता .....नहीं.......स......हा.....जा.......ता।"
भोजराज मीरा का प्रभु विरहभाव दर्शन कर अवाक हो गये। तुरन्त चम्पा को बुला कर, मीरा को जल पिलाया, उन्हे पंखा करने को कहा। भोजराज मन में सोचने लगे - "मुझ अधम पर कब कृपा होगी प्रभु ! कहते हैं भक्त के स्पर्श से ही भक्ति प्रकट हो जाती है, पर भाग्यहीन भोज इससे भी वंचित है।"
भोजराज ने मंगला और चम्पा को आज्ञा दी कि अब से वे अपनी स्वामिनी के पास ही सोया करें। और स्वयं वह दूसरी ओर चले गये। मीरा की दासियाँ उसका विरहावेश समझती थीं...... और उसे स्थिति अनुसार संभालती भी थीं। पर मीरा के नेत्रों में नींद कहाँ थी। वह फिर हाथ सामने बढ़ा गाने लगी........
हो रमैया बिन, नींद न आवै, विरह सतावे................।
मीरा की अवस्था कभी दो-दो दिन और कभी तीन-चार दिनों तक भी सामान्य नहीं रहती थी। वे कभी तो भगवान से मिलने के हर्ष और कभी विरह के आवेश में जगत और देह की सुध को भूली रहती थीं। कभी यूँ ही बैठे-बैठे खिलखिला कर हँसती, कभी मान करके बैठी रहती और कभी रोते-रोते आँखें सुजा लेतीं। यदि ऐसे दिनों में भोजराज को चित्तौड़ से बाहर जाने का आदेश मिलता तो - यूँ तो वह रण में प्रसन्नता से जाते, पर मीरा के आवेश की चिन्ता कर उनके प्राणों पर बन आती।
आगरा के समीप सीमा पर भोजराज घायल हो गये। सम्भवतः शत्रु ने विष बुझे शस्त्र का प्रहार किया था। राजवैद्य ने दवा भरकर पट्टियाँ बाँधी। औषधि पिलाई और लेप किये जाने से धीरे-धीरे घाव भी भरने लगा।
एक शीत की रात्रि। कुवँर अपने कक्ष में और मीरा भीतर अपने कक्ष में थी। रात्रि काफी बीत चुकी थी, पर घाव में चीस के कारण भोजराज की नींद रह-रह करके खुल जाती। वे मन ही मन श्रीकृष्ण, श्रीकृष्ण, श्रीकृष्ण नाम जप कर रहे थे। उन्हें मीरा के कक्ष से उसकी जैसे नींद में बड़बड़ाने की आवाज सुनाई दी। मीरा खिलखिला कर हँसती हुई बोली, "चोरजारपतये नम: आप तो सब चोरों के शिरोमणि हैं। पर आपका यह न्यारा रस-रूप ही मुझे भाता है। रसो वै स: आप तनिक भी मेरी आँखों से दूर हों - मुझसे सहा नहीं जाता।"
भोजराज ने अपने पलंग से ही बैठे-बैठे देखा, मीरा भी बैठकर बातें कर रही थी, पर जाग्रत अवस्था में हो ऐसा नहीं प्रतीत हो रहा था। उन्हें लगा मीरा प्रभु से वार्तालाप कर रही है। भोजराज को थोड़ी देर तक झपकी आ गई तो वह सो गये।
"श्यामसुन्दर ! मेरे नाथ ! मेरे प्राण ! आप कहाँ हैं ? इस दासी को छोड़ कर कहाँ चले गये ?"
भोजराज की नींद खुल गई। उन्होंने देखा कि मीरा श्यामसुन्दर को पुकारती हुई झरोखे की ओर दौड़ी। भोजराज ने सोचा कि कहीं झरोखे से टकराकर ये गिर जायेंगी - तो उन्होंने चोटकी आशंका से चौकी पर पड़ी गद्दी उठाकर आड़ी कर दी। पर मीरा तो अपनी भाव तरंग में उस झरोखे पर ही चढ़ गई। मीरा ने भावावेश में हाथ के एक ही झटके से झरोखे से पर्दा हटाया और बाँहें फैलाये हुये - "मेरे प्रभु ! मेरे सर्वस्व ! कहती हुई एक पाँव झरोखे के बाहर बढ़ा दिया। सोचने का समय भी नहीं था, बस पलक झपकते ही उछलकर भोजराज झरोखे में चढ़े और शीघ्रता से मीरा को भीतर कक्ष में खींच लिया। एक क्षण का भी विलम्ब हो जाता तो मीरा की देह नीचे चट्टानों पर गिरकर बिखर जाती। मीरा अचेतन हो गई थी। उसकी देह को उठाये हुये वे नीचे उतरे। भोजराज ने ममता भरे मन से उन्हें उनके पलंग पर रखा। मीरा के अश्रुसिक्त चन्द्रमुख पर आँसुओं की तो मानों रेखाएँ खिंच गई थी। तभी
"ओह म्हाँरा नाथ ! तुम्हारे बिना मैं कैसे जीवित रहूँ ?" मीरा के मुख से ये अस्फुट शब्द सुनकर भोजराज मानों चौंक उठे, जैसे नींद से वे जागे हों ......"यह .........यह क्या किया मैंने ?" क्या किया ? मैं अपने वचन का निर्वाह नहीं कर पाया। मेरा वचन टूट गया।" वचन टूटने के पछतावे से भोजराज का मन तड़प उठा।
प्रातःकाल सबने सुना कि महाराजकुमार को पुनः ज्वर चढ़ आया है। बाँह का सिया हुआ घाव भी उधड़ गया। फिर से दवा-लेप सब होने लगा, किन्तु रोग दिन-दिन बढ़ता ही गया। यों तो सभी उनकी सेवा में एक पैर पर खड़े रहते थे, किन्तु मीरा ने रात-दिन एक कर दिया। उनकी भक्ति ने मानों पंख समेट लिए हो। पूजा सिमट गई और आवेश भी दब गया।
भोजराज बार-बार कहते, "आप आरोग लें। अभी तक आप विश्राम करने नहीं गईं ? मैं अब ठीक हूँ ; अब आप विश्राम कर लीजिए। अभी पीड़ा नहीं है। आप चिन्ता न करें।" मीरा को नींद आ जाती तो भोजराज दाँतों से होंठ दबाकर अपनी कराहों को भीतर ढ़केल देते।
- पुस्तक- "मीरा चरित"
लेखिका:- समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब
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"जय जय श्री राधे"
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