राम दसरथ संवाद :
By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब
अगली सुबह तो राजा दसरथ को कुछ होश ही भी रहा , वो बस जमीन पे पड़े पड़े राम राम की रट लगाए हुए थे। सुमंत्र उनके पास में ही खड़े थे , लेकिन राजा ने कुछ भेद उन्हें नहीं बताया । सुमंत्र से भगवान राम को बुलावा भेजा । श्री रामचन्द्रजी ने सुमंत्र को आते देखा तो पिता के समान समझकर उनका आदर किया।
श्री रामचन्द्रजी के मुख को देखकर और राजा की आज्ञा सुनाकर वे रघुकुल के दीपक श्री रामचन्द्रजी को (अपने साथ) लिवा चले।
रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी ने जाकर देखा कि राजा अत्यन्त ही बुरी हालत में पड़े हैं, मानो सिंहनी को देखकर कोई बूढ़ा गजराज सहमकर गिर पड़ा हो।
रामचन्द्रजी का स्वभाव कोमल और करुणामय है।
उन्होंने (अपने जीवन में) पहली बार यह दुःख देखा, इससे पहले कभी उन्होंने दुःख सुना भी न था।
तो भी समय का विचार करके हृदय में धीरज धरकर उन्होंने मीठे वचनों से माता कैकेयी से पूछा-
मोहि कहु मातु तात दुख कारन।
करिअ जतन जेहिं होइ निवारन॥
सुनहु राम सबु कारनु एहू।
राजहि तुम्ह पर बहुत सनेहू॥
भावार्थ : हे माता! मुझे पिताजी के दुःख का कारण कहो, ताकि उसका निवारण हो (दुःख दूर हो) वह यत्न किया जाए।
(कैकेयी ने कहा-) हे राम! सुनो, सारा कारण यही है कि राजा का तुम पर बहुत स्नेह है
इन्होंने मुझे दो वरदान देने को कहा था।
मुझे जो कुछ अच्छा लगा, वही मैंने माँगा।
सुत सनेहु इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।
सकहु त आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु॥
भावार्थ : इधर तो पुत्र का स्नेह है और उधर वचन (प्रतिज्ञा), राजा इसी धर्मसंकट में पड़ गए हैं।
यदि तुम कर सकते हो, तो राजा की आज्ञा शिरोधार्य करो और इनके कठिन क्लेश को मिटाओ॥
इस पर राम ने कहा कि ये तो मेरा सौभाग्य है कि मुझे वन जाने का अवसर प्राप्त हुआ वह मुझे अनेक ऋषि मुनियों से मिलाप होगा ।और तो और भरत को राजगद्दी मिले इससे बड़ा सुख मेरे लिए क्या हो सकता है। मै तो किस्मत वाला हूं जो मुझे पिता के अज्ञा पालन करने का अवसर प्राप्त हुआ।
जय श्री राम
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