*श्रीराम क्या हैं?*श्रीराम क्या हैं? साहब !इसका तो बड़ा सीधा और सरल उत्तर है---By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब*भाव वस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।* *जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन्ह तैसी।।*प्रश्न तो यह है कि हमारे लक्ष्मणजी की दृष्टि में *राम* क्या नहीं हैं? अरे लक्ष्मणजी के लिए तो *राम* ही सर्वस्व है? राम ही आत्माधार, प्राणाधार और जीवनाधार हैं, और राम से वियोग का अर्थ है उनके लिए स्व-प्राणों का वियोग है और स्व-प्राणों का वियोग भला कौन सहन कर सकता है? वन-गमन के समय दुखित, चिंतित और क्रोधित होकर कितने गर्व से कहते हैं----गुर पितु मातु न जानउ काहू।कहउ सुभाउ नाथ पतिआहू।।मोरे सबहिं एक तुम्ह स्वामी।और क्या कहें साहब !राम ने लक्ष्मणजी को बहुत ज्ञान दिया, सो उनसे भी स्पष्ट वचनों में कह ही दिया---*धरम नीति उपदेसिअ ताही कीरति भूति सुगति प्रिय जाही*---धर्म, नीति का उपदेश तो उनको देना चाहिए जो कीर्ति,एश्वर्य और सद्गति के क्षुधातुर रहते हैं, मुझे तो आपके चरणों की सेवा को छोड़कर कुछ और चाहिए ही नहीं है।लक्ष्मणजी के लिए तो *राम* ही राष्ट्र और राष्ट्र-प्रेम हैं। *सबतें सेवक धरम कठोरा*---जी हाँ यही सत्य है, किन्तु लक्ष्मण जैसे भक्तों के लिए नहीं। राष्ट्र-प्रेम और स्वाभिमान के लिए वे अपना सर्वस्व त्याग सकते हैं, संसार के सारे रिश्तों को ठोकर मार सकते हैं। किन्तु राष्ट्र का अपमान सहन करने की तो बात ही क्या है, सुन भी नहीं सकते हैं, लाटसाहब को तत्क्षण क्रोध आ जाता है और क्रोध भी ऐसा-वैसा नहीं---*डगमगाहिं दिग्गज महि डोले*---धरा कम्पित होने लगती है, 14 भुवन भी काँपने लगते हैं।जनकजी के मुखारविंद से---*वीर विहीन मही मैं जानी*---जैसे वचन निकलते ही लक्ष्मणजी के नेत्र लाल होकर अंगारे बरसाने लगे, सभा में भूचाल आ गया, उन्होंने जनक को सावधान करते हुए कह दिया---*रघुवंसिंह महुं जहँ कोउ होई तेहि समाज अस कहइ न कोई*--- जो राजे-महाराजे बड़ी-बड़ी डींगे हाँक रहे थे, सीताजी को बल पूर्वक छीन लेने की बातें कर रहे थे, उनका भी कंठ अवरुद्ध हो गया, लज्जा से शीश झुक गया।क्रोध की साक्षात मूर्ति भगवान परशुरामजी के वचन---कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा।बेगि देखाउ मूड न त आजू।उलटउ महि जहँ लहि तव राजू।।---श्रवण करते ही लक्ष्मणजी के हृदय का क्रोध का ज्वालामुखी फूट पड़ा, यद्यपि उन्होंने अपने क्रोध का प्रदर्शन तो नहीं किया किन्तु परशुरामजी का व्यंगात्मक वचनों से उपहास उड़ाते हुए, उनको उनकी समस्त निधियों से कंगाल तो कर ही दिया।भरतजी को अपनी विशाल सेना के साथ चित्रकूट आते हुए क्या देखा, लक्ष्मणजी ने समझा कि वे उनके राम पर आक्रमण करने आ रहे हैं सो ऐसा क्रोध आया कि विशाल वाहिनी के साथ भरतजी को परलोक भेजने के लिए तत्पर हो गये।विभीषण ने समुद्रोलंघन करने के किये राम को समुद्र से याचना करने का परामर्श क्या दिया, सौमित्र को क्रोध आ गया, क्यों? सेवक के होते हुए स्वामी को याचना करना पड़े तो धिक्कार है ऐसे सेवक को, और उन्होंने तत्क्षण कह दिया---*देव देव आलसी पुकारा।* सत्य भी यही है कि जीवन में जहाँ स्व-धर्म और राष्ट्र प्रेम है, वहाँ तो लक्ष्मण जैसे सेवक को क्रोध आयेगा ही और यदि नहीं आता है, उसका रक्त नहीं खौलता है तो फिर वह भक्त ही कैसा? दुर्भाग्य से आज का लक्ष्मण तो सोया हुआ है, जिसका परिणाम भी देश के सामने है।बाल वनिता महिला आश्रम🙏जय जय सिया राम🙏
*श्रीराम क्या हैं?*
श्रीराम क्या हैं? साहब !इसका तो बड़ा सीधा और सरल उत्तर है---
*भाव वस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।*
*जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन्ह तैसी।।*
प्रश्न तो यह है कि हमारे लक्ष्मणजी की दृष्टि में *राम* क्या नहीं हैं? अरे लक्ष्मणजी के लिए तो *राम* ही सर्वस्व है? राम ही आत्माधार, प्राणाधार और जीवनाधार हैं, और राम से वियोग का अर्थ है उनके लिए स्व-प्राणों का वियोग है और स्व-प्राणों का वियोग भला कौन सहन कर सकता है? वन-गमन के समय दुखित, चिंतित और क्रोधित होकर कितने गर्व से कहते हैं----
गुर पितु मातु न जानउ काहू।
कहउ सुभाउ नाथ पतिआहू।।
मोरे सबहिं एक तुम्ह स्वामी।
और क्या कहें साहब !राम ने लक्ष्मणजी को बहुत ज्ञान दिया, सो उनसे भी स्पष्ट वचनों में कह ही दिया---*धरम नीति उपदेसिअ ताही कीरति भूति सुगति प्रिय जाही*---धर्म, नीति का उपदेश तो उनको देना चाहिए जो कीर्ति,एश्वर्य और सद्गति के क्षुधातुर रहते हैं, मुझे तो आपके चरणों की सेवा को छोड़कर कुछ और चाहिए ही नहीं है।
लक्ष्मणजी के लिए तो *राम* ही राष्ट्र और राष्ट्र-प्रेम हैं। *सबतें सेवक धरम कठोरा*---जी हाँ यही सत्य है, किन्तु लक्ष्मण जैसे भक्तों के लिए नहीं। राष्ट्र-प्रेम और स्वाभिमान के लिए वे अपना सर्वस्व त्याग सकते हैं, संसार के सारे रिश्तों को ठोकर मार सकते हैं। किन्तु राष्ट्र का अपमान सहन करने की तो बात ही क्या है, सुन भी नहीं सकते हैं, लाटसाहब को तत्क्षण क्रोध आ जाता है और क्रोध भी ऐसा-वैसा नहीं---*डगमगाहिं दिग्गज महि डोले*---धरा कम्पित होने लगती है, 14 भुवन भी काँपने लगते हैं।
जनकजी के मुखारविंद से---*वीर विहीन मही मैं जानी*---जैसे वचन निकलते ही लक्ष्मणजी के नेत्र लाल होकर अंगारे बरसाने लगे, सभा में भूचाल आ गया, उन्होंने जनक को सावधान करते हुए कह दिया---*रघुवंसिंह महुं जहँ कोउ होई तेहि समाज अस कहइ न कोई*--- जो राजे-महाराजे बड़ी-बड़ी डींगे हाँक रहे थे, सीताजी को बल पूर्वक छीन लेने की बातें कर रहे थे, उनका भी कंठ अवरुद्ध हो गया, लज्जा से शीश झुक गया।
क्रोध की साक्षात मूर्ति भगवान परशुरामजी के वचन---
कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा।
बेगि देखाउ मूड न त आजू।
उलटउ महि जहँ लहि तव राजू।।
---श्रवण करते ही लक्ष्मणजी के हृदय का क्रोध का ज्वालामुखी फूट पड़ा, यद्यपि उन्होंने अपने क्रोध का प्रदर्शन तो नहीं किया किन्तु परशुरामजी का व्यंगात्मक वचनों से उपहास उड़ाते हुए, उनको उनकी समस्त निधियों से कंगाल तो कर ही दिया।
भरतजी को अपनी विशाल सेना के साथ चित्रकूट आते हुए क्या देखा, लक्ष्मणजी ने समझा कि वे उनके राम पर आक्रमण करने आ रहे हैं सो ऐसा क्रोध आया कि विशाल वाहिनी के साथ भरतजी को परलोक भेजने के लिए तत्पर हो गये।
विभीषण ने समुद्रोलंघन करने के किये राम को समुद्र से याचना करने का परामर्श क्या दिया, सौमित्र को क्रोध आ गया, क्यों? सेवक के होते हुए स्वामी को याचना करना पड़े तो धिक्कार है ऐसे सेवक को, और उन्होंने तत्क्षण कह दिया---*देव देव आलसी पुकारा।*
सत्य भी यही है कि जीवन में जहाँ स्व-धर्म और राष्ट्र प्रेम है, वहाँ तो लक्ष्मण जैसे सेवक को क्रोध आयेगा ही और यदि नहीं आता है, उसका रक्त नहीं खौलता है तो फिर वह भक्त ही कैसा? दुर्भाग्य से आज का लक्ष्मण तो सोया हुआ है, जिसका परिणाम भी देश के सामने है।
🙏जय जय सिया राम🙏
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