*स्विट्जरलैंड स्थित विश्व की सबसे बड़ी भौतिकी विज्ञान प्रयोगशाला (CERN) के बाहर नटराज की प्रतिमा क्यों लगी है ??* By वनिता कासनियां पंजाब *हिन्दुओं के सबसे शक्तिशाली देवता हैं भगवान शिव। शिव की अभिव्यक्ति ‘नटराज’ के रूप में भी हुई है। नटराज जिसे ‘प्राण शक्ति’ का प्रतीक भी माना जाता है।*इन्हीं नटराज की विशाल प्रतिमा को स्विट्जरलैंड के जेनेवा स्थित दुनिया के सबसे बड़े भौतिकी प्रयोगशाला CERN के बाहर लगाया गया है।European Organization For Nuclear Research (CERN) वही प्रयोगशाला है, जहां कुछ साल पहले ‘गॉड पार्टिकल’ जिसे हिग्स~बोसोन का नाम दिया गया है, का अनुसंधान हुआ।यहां अनुसंधान हुए हिग्स~बोसोन को ‘ब्रह्मकण’ के नाम से भी जाना जाता है। CERN के बाहर स्थापित नटराज प्रतिमा के ठीक बगल में लगी पट्टिका पर महान भौतिक वैज्ञानिक फ्रित्जोफ कैपरा ने उद्धरण के साथ यहां लिखा है....,”हजारों वर्ष पूर्व भारतीय कलाकारों ने तांबे की श्रृंखला से भगवान शिव के नृत्य में लीन स्वरूप को बनाया। आज हमारे समय में तमाम भौतिक वैज्ञानिक फिर से उन्नत तकनीकों को इस्तेमाल करते हुए ‘कॉस्मिक डांस’ का प्रारूप तैयार कर रहे हैं।वर्तमान में वैज्ञानिकों की ‘कॉस्मिक डांस’ की थ्योरी, दरअसल प्राचीन मिथकों, धर्म, कला और भौतिकी की बुनियाद पर ही खड़ी है आनंद तांडव करते शिव प्रतीक हैं सभी व्यक्त~अव्यक्त के आधार का।आधुनिक भौतिक विज्ञान हमें बताता है कि निर्माण और प्रलय की प्रक्रिया सिर्फ ब्रह्मांड में जीवन के आरंभ और अंत से ही नहीं जुड़ी हुई है, बल्कि ये पूरी सृष्टि के कण~कण से जुड़ी हुई है।”कैपरा लिखते हैं, ”Quantum field theory के अनुसार ‘ Dance of creation & destruction’ ही सभी तत्वों के होने का आधार है।आधुनिक भौतिकशास्त्र हमें बताता है कि हर उप~परमाणविक कण ना केवल एक ‘ऊर्जा~नृत्य’ करता है, बल्कि यह खुद भी एक ‘ऊर्जा~नृत्य’ ही है। सृजन और विनाश की एक सतत प्रक्रिया।”वैज्ञानिक फ्रित्जोफ कैपरा लिखते हैं...., ”खुद हम भौतिकी के वैज्ञानिकों के लिए शिव का ‘आनंद~तांडव’, उप~परमाणविक कणों का ‘ऊर्जा~नृत्य’ ही है, जो आधार है हर अस्तित्व और सभी प्राकृतिक घटनाओं का।”नटराज प्रतिमा के बारे में पट्टिका पर सर्न के शोधार्थी एडन रैन्डल कोंड लिखते हैं......, ”दिन की रोशनी में जब सर्न हलचलों से भरा होता है, शिव तब भी नृत्य मुद्रा में ही होते हैं। जो हमें ये याद दिलाता है कि ब्रह्मांड लगातार गतिमान है, खुद को परिवर्तित कर रहा है और स्थिर तो ये कभी नहीं रहा।”रैन्डल कोंड लिखते हैं, ‘शिव, अपनी इस मुद्रा से हमें हर पल याद दिलाते हैं कि हमें अभी भी इस ब्रह्मांड का सबसे बड़ा रहस्य नहीं पता है।”मशहूर भौतिक वैज्ञानिक कार्ल सेगन के अनुसार, ”हिन्दू धर्म विश्व के उन महान धर्मों में से एक है जिसके अनुसार इस ब्रह्माण्ड की उत्तपत्ति और विध्वंस की प्रक्रिया निरंतर जारी है।”सेगन कहते हैं, ”हिन्दू धर्म अकेला ऐसा धर्म है जो हमें यह बताता है कि हमारे दिन और रात की तरह ही स्वयं ब्रह्मा के भी दिन और रात होते हैं।हमारे 24 घंटे के दिन और रात की जगह ब्रह्मा के दिन और रात की अवधि तकरीबन 8.64 बिलियन वर्ष की होती है। हिन्दू धर्म एक अनवरत प्रक्रिया की बात करता है।”जून-2014 में जब शिव की नटराज प्रतिमा यहां लगाई गई तो वैज्ञानिकों को आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा।शिव के नृत्य स्वरूप को लेकर रूढ़िवादी ईसाई तबतक आपत्तियां उठाते रहे, जबतक वैज्ञानिकों ने हिग्स~बोसोन पार्टिकल की खोज नहीं कर ली। इसके बाद वैज्ञानिकों ने आलोचकों को स्पष्ट किया कि आखिर क्यों सृष्टि के ‘संहारक’ की प्रतिमा यहां लगाई गई है।अमूमन हम भारतीय भी नटराज की प्रतिमा के रहस्य नहीं जानते हैं। दरअसल, नटराज प्रतीक है शिव के तांडव स्वरूप का। हम में से ज्यादातर लोग तांडव नृत्य को शिव के उग्र रूप से जोड़कर देखते हैं, जबकि ऐसा नहीं है। शिव तांडव के भी दो प्रकार हैं। पहला है ‘तांडव’, शिव का ये रूप ‘रुद्र’ कहलाता है। जबकि दूसरा है ‘आनंद-तांडव’, शिव का ये रूप ‘नटराज’ कहलाता है। रुद्र रूप में शिव समूचे ब्रह्माण्ड के संहारक बन जाते हैं वहीं सर्न के बाहर लगी नटराज प्रतिमा ‘सृष्टि निर्माण’ का प्रतीक है।आनंद तांडव के भी पांच रूप हैं ~~1. सृष्टि : निर्माण, रचना creation, evolution2. स्थिति : संरक्षण, समर्थन preservation, support3. संहार : विनाश Destruction4. तिरोभाव : मोह-माया Illusion5. अनुग्रह : मुक्ति release, graceनटराज, दो शब्दों ‘नट’ यानी कला और राज से मिलकर बना है। इस स्वरूप में शिव कलाओं के आधार हैं।नटराज शिव की प्रसिद्ध प्राचीन मूर्ति की चार भुजाएं हैं। उनके चारो ओर अग्नि का घेरा है। अपने एक पांव से शिव ने एक बौने को दबा रखा है। दूसरा पांव नृत्य मुद्रा में ऊपर की ओर उठा हुआ है। शिव अपने दाहिने हाथ में डमरू पकड़े हुए हैं। डमरू की ध्वनि यहां सृजन का प्रतीक है। ऊपर की ओर उठे उनके दूसरे हाथ में अग्नि है। यहां अग्नि विनाश का प्रतीक है। इसका अर्थ यह है कि शिव ही एक हाथ से सृजन और दूसरे से विनाश करते हैं।शिव का तीसरा दाहिना हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है। उनका चौथा बांया हाथ उनके उठे हुए पांव की ओर इशारा करता है, इसका अर्थ यह भी है कि शिव के चरणों में ही मोक्ष है। शिव के पैरे के नीचे दबा बौना दानव अज्ञान का प्रतीक है, जो कि शिव द्वारा नष्ट किया जाता है। चारो ओर उठ रही लपटें इस ब्रह्माण्ड का प्रतीक है। शिव की संपूर्ण आकृति ओंकार स्वरूप दिखाई पड़ती है। विद्वानों के अनुसार यह इस बात की ओर इशारा करती है कि ‘ॐ’ दरअसल शिव में ही निहित है।सनातन धर्म की जय होअधर्म का नाश होप्राणियों में सद्भावना होविश्व का कल्याण हो(सच के साथ भारत)
*स्विट्जरलैंड स्थित विश्व की सबसे बड़ी भौतिकी विज्ञान प्रयोगशाला (CERN) के बाहर नटराज की प्रतिमा क्यों लगी है ??*
*हिन्दुओं के सबसे शक्तिशाली देवता हैं भगवान शिव। शिव की अभिव्यक्ति ‘नटराज’ के रूप में भी हुई है। नटराज जिसे ‘प्राण शक्ति’ का प्रतीक भी माना जाता है।*
इन्हीं नटराज की विशाल प्रतिमा को स्विट्जरलैंड के जेनेवा स्थित दुनिया के सबसे बड़े भौतिकी प्रयोगशाला CERN के बाहर लगाया गया है।
European Organization For Nuclear Research (CERN) वही प्रयोगशाला है, जहां कुछ साल पहले ‘गॉड पार्टिकल’ जिसे हिग्स~बोसोन का नाम दिया गया है, का अनुसंधान हुआ।
यहां अनुसंधान हुए हिग्स~बोसोन को ‘ब्रह्मकण’ के नाम से भी जाना जाता है।
CERN के बाहर स्थापित नटराज प्रतिमा के ठीक बगल में लगी पट्टिका पर महान भौतिक वैज्ञानिक फ्रित्जोफ कैपरा ने उद्धरण के साथ यहां लिखा है....,
”हजारों वर्ष पूर्व भारतीय कलाकारों ने तांबे की श्रृंखला से भगवान शिव के नृत्य में लीन स्वरूप को बनाया। आज हमारे समय में तमाम भौतिक वैज्ञानिक फिर से उन्नत तकनीकों को इस्तेमाल करते हुए ‘कॉस्मिक डांस’ का प्रारूप तैयार कर रहे हैं।
वर्तमान में वैज्ञानिकों की ‘कॉस्मिक डांस’ की थ्योरी, दरअसल प्राचीन मिथकों, धर्म, कला और भौतिकी की बुनियाद पर ही खड़ी है आनंद तांडव करते शिव प्रतीक हैं सभी व्यक्त~अव्यक्त के आधार का।
आधुनिक भौतिक विज्ञान हमें बताता है कि निर्माण और प्रलय की प्रक्रिया सिर्फ ब्रह्मांड में जीवन के आरंभ और अंत से ही नहीं जुड़ी हुई है, बल्कि ये पूरी सृष्टि के कण~कण से जुड़ी हुई है।”
कैपरा लिखते हैं, ”Quantum field theory के अनुसार ‘ Dance of creation & destruction’ ही सभी तत्वों के होने का आधार है।
आधुनिक भौतिकशास्त्र हमें बताता है कि हर उप~परमाणविक कण ना केवल एक ‘ऊर्जा~नृत्य’ करता है, बल्कि यह खुद भी एक ‘ऊर्जा~नृत्य’ ही है। सृजन और विनाश की एक सतत प्रक्रिया।”
वैज्ञानिक फ्रित्जोफ कैपरा लिखते हैं...., ”खुद हम भौतिकी के वैज्ञानिकों के लिए शिव का ‘आनंद~तांडव’, उप~परमाणविक कणों का ‘ऊर्जा~नृत्य’ ही है, जो आधार है हर अस्तित्व और सभी प्राकृतिक घटनाओं का।”
नटराज प्रतिमा के बारे में पट्टिका पर सर्न के शोधार्थी एडन रैन्डल कोंड लिखते हैं......, ”दिन की रोशनी में जब सर्न हलचलों से भरा होता है, शिव तब भी नृत्य मुद्रा में ही होते हैं। जो हमें ये याद दिलाता है कि ब्रह्मांड लगातार गतिमान है, खुद को परिवर्तित कर रहा है और स्थिर तो ये कभी नहीं रहा।”
रैन्डल कोंड लिखते हैं, ‘शिव, अपनी इस मुद्रा से हमें हर पल याद दिलाते हैं कि हमें अभी भी इस ब्रह्मांड का सबसे बड़ा रहस्य नहीं पता है।”
मशहूर भौतिक वैज्ञानिक कार्ल सेगन के अनुसार, ”हिन्दू धर्म विश्व के उन महान धर्मों में से एक है जिसके अनुसार इस ब्रह्माण्ड की उत्तपत्ति और विध्वंस की प्रक्रिया निरंतर जारी है।”
सेगन कहते हैं, ”हिन्दू धर्म अकेला ऐसा धर्म है जो हमें यह बताता है कि हमारे दिन और रात की तरह ही स्वयं ब्रह्मा के भी दिन और रात होते हैं।
हमारे 24 घंटे के दिन और रात की जगह ब्रह्मा के दिन और रात की अवधि तकरीबन 8.64 बिलियन वर्ष की होती है। हिन्दू धर्म एक अनवरत प्रक्रिया की बात करता है।”
जून-2014 में जब शिव की नटराज प्रतिमा यहां लगाई गई तो वैज्ञानिकों को आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा।
शिव के नृत्य स्वरूप को लेकर रूढ़िवादी ईसाई तबतक आपत्तियां उठाते रहे, जबतक वैज्ञानिकों ने हिग्स~बोसोन पार्टिकल की खोज नहीं कर ली। इसके बाद वैज्ञानिकों ने आलोचकों को स्पष्ट किया कि आखिर क्यों सृष्टि के ‘संहारक’ की प्रतिमा यहां लगाई गई है।
अमूमन हम भारतीय भी नटराज की प्रतिमा के रहस्य नहीं जानते हैं। दरअसल, नटराज प्रतीक है शिव के तांडव स्वरूप का। हम में से ज्यादातर लोग तांडव नृत्य को शिव के उग्र रूप से जोड़कर देखते हैं, जबकि ऐसा नहीं है।
शिव तांडव के भी दो प्रकार हैं। पहला है ‘तांडव’, शिव का ये रूप ‘रुद्र’ कहलाता है। जबकि दूसरा है ‘आनंद-तांडव’, शिव का ये रूप ‘नटराज’ कहलाता है। रुद्र रूप में शिव समूचे ब्रह्माण्ड के संहारक बन जाते हैं वहीं सर्न के बाहर लगी नटराज प्रतिमा ‘सृष्टि निर्माण’ का प्रतीक है।
आनंद तांडव के भी पांच रूप हैं ~~
1. सृष्टि : निर्माण, रचना creation, evolution
2. स्थिति : संरक्षण, समर्थन preservation, support
3. संहार : विनाश Destruction
4. तिरोभाव : मोह-माया Illusion
5. अनुग्रह : मुक्ति release, grace
नटराज, दो शब्दों ‘नट’ यानी कला और राज से मिलकर बना है। इस स्वरूप में शिव कलाओं के आधार हैं।
नटराज शिव की प्रसिद्ध प्राचीन मूर्ति की चार भुजाएं हैं। उनके चारो ओर अग्नि का घेरा है। अपने एक पांव से शिव ने एक बौने को दबा रखा है। दूसरा पांव नृत्य मुद्रा में ऊपर की ओर उठा हुआ है। शिव अपने दाहिने हाथ में डमरू पकड़े हुए हैं। डमरू की ध्वनि यहां सृजन का प्रतीक है। ऊपर की ओर उठे उनके दूसरे हाथ में अग्नि है। यहां अग्नि विनाश का प्रतीक है। इसका अर्थ यह है कि शिव ही एक हाथ से सृजन और दूसरे से विनाश करते हैं।
शिव का तीसरा दाहिना हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है। उनका चौथा बांया हाथ उनके उठे हुए पांव की ओर इशारा करता है, इसका अर्थ यह भी है कि शिव के चरणों में ही मोक्ष है। शिव के पैरे के नीचे दबा बौना दानव अज्ञान का प्रतीक है, जो कि शिव द्वारा नष्ट किया जाता है। चारो ओर उठ रही लपटें इस ब्रह्माण्ड का प्रतीक है। शिव की संपूर्ण आकृति ओंकार स्वरूप दिखाई पड़ती है। विद्वानों के अनुसार यह इस बात की ओर इशारा करती है कि ‘ॐ’ दरअसल शिव में ही निहित है।
सनातन धर्म की जय हो
अधर्म का नाश हो
प्राणियों में सद्भावना हो
विश्व का कल्याण हो
(सच के साथ भारत)
हनुमानबाहुक
By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब🙏
श्री गणेशाय नमः🚩
श्री जानकीवल्लभो विजयते🚩
मदगोस्वामितुलसीदासकृत🚩
हनुमानबाहुक🚩
छप्पय
सिंधु-तरन, सिय सोच हरन, रबि-बालबरन-तनु।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहुको काल जनु॥
गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव।
जातुधान-बलवान-मान-मद-दवन पवनसुव॥
कह तुलसीदास सेवत सुलभ, सेवक हित संतत निकट।
गुनगनत, नमत, सुमिरत, जपत समन सकल-संकट-बिकट॥1॥
भावार्थ - जिनके शरीर का रंग उदयकाल के सूर्य के समान है, जो समुद्र लाँघकर श्री जानकीजी के शोक को हरने वाले, आजानुबाहु, डरावनी सूरतवाले और मानो काल के भी काल हैं। लंका-रूपी गंम्भीर वन को, जो जलाने योग्य नहीं था, उसे जिन्होंने निःशंक जलाया और जो टेढ़ी भौंहोंवाले तथा बलवान राक्षसों के मान और गर्व का नाश करने वाले हैं, तुलसीदासजी कहते हैं - वे श्रीपवनकुमार सेवा करने पर बड़ी सुगमता से प्राप्त होने वाले, अपने सेवकों की भलाई करने के लिए सदा समीप रहने वाले तथा गुण गाने, प्रणाम करने एवं स्मरण और नाम जपने से सब भयानक संकटों को नाश करने वाले हैं॥1॥
स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रबि-तरून-तेज-घन।
उर बिसाल, भुजदंड चंड नख बज्र बज्रतन॥
पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन।
कपिस केस, करकस लँगूर, खल-दल-बल-भानन॥
कह तुलसीदास बस जासु उर मारूतसुत मूरति बिकट।
संताप पाप तेहि पुरूष पहिं सपनेहुँ नहिं आवत निकट॥2॥
भावार्थ - वे सुवर्णपर्वत (सुमेरू) के समान शरीरवाले, करोड़ों मध्यान्ह के सूर्य के सदृश अनन्त तेजोराशि, विशालहृदय, अत्यन्त बलवान भुजाओं वाले तथा वज्र के तुल्य नख और शरीर वाले हैं। उनके नेत्र पीले हैं, भौंह, जीभ, दाँत और मुख विकराल हैं, बाल भूरे रंग के तथा पूँछ कठोर और दुष्टों के दल के बल का नाश करने वाली है। तुलसीदासजी कहते हैं- श्री पवनकुमार की डरावनी मूर्ति जिसके हृदय में निवास करती है, उस पुरूष के समीप दुःख और पाप स्वप्न में भी नही आते॥2॥
झुलना
पंचमुख-छमुख-भृगुमुख्य भट-असुर-सुर,
सर्व-सरि-समर समरत्थ सूरो।
बाँकुरो बीर बिरूदैत बिरूदावली,
बेद बंदी बदत पैजपूरो॥
जासु गुनगाथ रघुनाथ कह, जासु बल
बिपुल-जल-भरित जग-जलधि झूरो।
दुवन-दल-दमनको कौन तुलसीस है,
पवनको पूत रजपुत रूरो॥3॥
भावार्थ - शिव, स्वामिकार्तिक, परशुराम, दैत्य और देवतावृन्द सबके युद्धरूपी नदी से पार जाने में योग्य योद्धा हैं। वेदरूपी वन्दीजन कहते हैं-आप पूरी प्रतिज्ञावाले चतुर योद्धा, बड़े कीर्तिमान और यशस्वी हैं। जिनके गुणों की कथा को रघुनाथजी ने श्रीमुख से कहा तथा जिनके अतिशय पराक्रम से अपार जल से भरा हुआ संसार-समुद्र सूख गया। तुलसी के स्वामी सुन्दर राजपूत (पवनकुमार) के बिना राक्षसों के दल का नाश करने वाला दूसरा कौन है ? (कोई नहीं) ॥3॥
घनाक्षरी
भानुसों पढ़न हनुमान गये भानु मन-
अनुमानि सिसुकेलि कियो फेरफार सो।
पाछिले पगनि गम गगन मगन-मन,
क्रमको न भ्रम, कपि बालक-बिहार सो॥
कौतुक बिलोकि लोकपाल हरि हर बिधि,
लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खभार सो।
बल कैधौं बीररस, धीरज कै, साहस कै,
तुलसी सरीर धरे सबनिको सार सो॥4॥
भावार्थ - सूर्यभगवान के समीप में हनुमानजी विद्या पढ़ने के लिये गये, सूर्यदेव ने मन में बालकों का खेल समझकर बहाना किया (कि मैं स्थिर नहीं रह सकता और बिना आमने-सामने के पढ़ना-पढ़ाना असम्भव है)। हनुमानजी ने भास्कर की ओर मुख करके पीठ की तरफ से पैरों से प्रसन्नमन आकाशमार्ग में बालकों के खेल के समान गमन किया और उससे पाठ्यक्रम में किसी प्रकार का भ्रम नहीं हुआ। इस अचरज के खेल को देखकर इन्द्रादि लोकपाल, विष्णु, रूद्र और ब्रह्मा की आँखें चौंधिया गयीं तथा चित्त में खलबली-सी उत्पन्न हो गयी। तुलसीदास जी कहते हैं-सब सोचने लगे कि यह न जाने बल, न जाने वीररस, न जाने धैर्य, न जाने हिम्मत अथवा न जाने इन सबका सार ही शरीर धारण किये हैं ? ॥4॥
भारतमें पारथके रथकेतु कपिराज,
गाज्यो सुनि कुरूराज दल हलबल भो।
कहृो द्रोन भीषम समीरसुत महाबीर,
बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो॥
बानर सुभाय बालकेलि भूमि भानु लागि,
फलँग फलाँगहूतें घाटि नभतल भो।
नाइ-नाइ माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जोहैं,
हनुमान देखे जगजीवन को फल भो॥5॥
भावार्थ - महाभारत में अर्जुन के रथ की पताकापर कपिराज हनुमानजी ने गर्जन किया, जिसको सुनकर दुर्योधन की सेना में घबराहट उत्पन्न हो गयी। द्रोणाचार्य और भीष्म-पितामह ने कहा कि ये महाबली पवनकुमार हैं। जिनका बल वीररस रूपी समुद्र का जल हुआ है। इनके स्वाभाविक ही बालकों के खेल के समान धरती से सूर्य तक के कुदान ने आकाश मण्डलों एक पग से कम कर दिया था। सब योद्धागण मस्तक नवा-नवाकर और हाथ जोड़-जोड़कर देखते हैं। इस प्रकार हनुमानजी का दर्शन पाने से उन्हें संसार में जीने का फल मिल गया॥ 5॥
गोपद पयोधि करि, होलिका ज्यों लाई लंक,
निपट निसंक परपुर गलबल भो।
द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर,
कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो॥
संकटसमाज असमंजस भो रामराज,
काज जुग-पूगनिको करतल पल भो।
साहसी समत्थ तुलसीको नाह जाकी बाँह,
लोकपाल पालनको फिर थिर भो॥6॥
भावार्थ - समुद्र को गोखुर के समान करके निडर होकर लंका जैसी (सुरक्षित नगरी को) होलिका के सदृश जला डाला, जिससे पराये (शत्रु के) पुर में गड़बड़ी मच गयी। द्रोण जैसा भारी पर्वत खेल में ही उखाड़ गेंद की तरह उठा लिया, वह कपिराज के लिये बेल फल के समान क्रीड़ा की सामग्री बन गया। रामराज्य मे अपार संकट (लक्ष्मण शक्ति) से असमंजस उत्पनन्नस हुआ (उस समय जिस पराक्रम से) युगसमूह में होने वाला काम पलभर में मुट्ठी में आ गया। तुलसी के स्वामी बड़े साहसी और सामर्थ्यवान है, जिनकी भुजाएँ लोकपालों को पालन करने तथा उन्हें फिर से स्थिरतापूर्वक बसाने का स्थान हुई॥6॥
कमठकी पीठि जाके गोड़निकी गाड़ै मानो
नापके भाजन भरि जलनिधि-जल भो।
जातुधान-दावन परावनको दुर्ग भयो,
महामीनबास तिमि तोमनिको थल भो॥
कुंभकर्न-रावन-पयोदनाद-ईंधनको
तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो।
भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान-
सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो॥7॥
बाल वनिता महिला आश्रम
भावार्थ - कच्छप की पीठ में जिनके पाँव गड़हे समुद्र का जल भरने के लिये मानो नाप के पात्र (बर्तन) हुए। राक्षसों का नाश करते समय वह (समुद्र) ही उनके भागकर छिपने का गढ़ हुआ तथा वही बहुत-से बड़े-बड़े मत्स्यों के रहने का स्थान हुआ। तुलसीदास जी कहते हैं - रावण, कुंभकर्ण और मेघनादरूपी ईंधन को जलाने के निमित्त जिनका प्रताप प्रचण्ड अग्नि हुआ। भीष्म पितामह कहते हैं - मेरी समझ में हनुमान जी के समान अत्यन्त बलवान तीनों काल और तीनों लोकों में कोई नहीं हुआ॥ 7॥
*🚩जय श्री सीताराम जी की* 🚩
*आप सभी श्रीसीतारामजीके भक्तों को प्रणाम*
By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब
🌹🙏🙏🙏🙏🙏🌹
*श्री रामचरित मानस बाल काण्ड*
चौपाई :
*भूप भवनु तेहि अवसर सोहा।*
*रचना देखि मदन मनु मोहा॥*
*मंगल सगुन मनोहरताई।*
*रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई॥1॥*
भावार्थ:-उस समय राजमहल (अत्यन्त) शोभित हो रहा था। उसकी रचना देखकर कामदेव भी मन मोहित हो जाता था। मंगल शकुन, मनोहरता, ऋद्धि-सिद्धि, सुख, सुहावनी सम्पत्ति॥1॥
*जनु उछाह सब सहज सुहाए।*
*तनु धरि धरि दसरथ गृहँ छाए॥*
*देखन हेतु राम बैदेही।*
*कहहु लालसा होहि न केही॥2॥*
भावार्थ:-और सब प्रकार के उत्साह (आनंद) मानो सहज सुंदर शरीर धर-धरकर दशरथजी के घर में छा गए हैं। श्री रामचन्द्रजी और सीताजी के दर्शनों के लिए भला कहिए, किसे लालसा न होगी॥2॥
*जूथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि।*
*निज छबि निदरहिं मदन बिलासिनि॥*
*सकल सुमंगल सजें आरती।*
*गावहिं जनु बहु बेष भारती॥3॥*
भावार्थ:-सुहागिनी स्त्रियाँ झुंड की झुंड मिलकर चलीं, जो अपनी छबि से कामदेव की स्त्री रति का भी निरादर कर रही हैं। सभी सुंदर मंगलद्रव्य एवं आरती सजाए हुए गा रही हैं, मानो सरस्वतीजी ही बहुत से वेष धारण किए गा रही हों॥3॥
*भूपति भवन कोलाहलु होई।*
*जाइ न बरनि समउ सुखु सोई॥*
*कौसल्यादि राम महतारीं।*
*प्रेमबिबस तन दसा बिसारीं॥4॥*
भावार्थ:-राजमहल में (आनंद के मारे) शोर मच रहा है। उस समय का और सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता। कौसल्याजी आदि श्री रामचन्द्रजी की सब माताएँ प्रेम के विशेष वश होने से शरीर की सुध भूल गईं॥4॥
दोहा :
*दिए दान बिप्रन्ह बिपुल,*
*पूजि गनेस पुरारि।*
*प्रमुदित परम दरिद्र जनु,*
*पाइ पदारथ चारि॥345॥*
भावार्थ:-गणेशजी और त्रिपुरारि शिवजी का पूजन करके उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत सा दान दिया। वे ऐसी परम प्रसन्न हुईं, मानो अत्यन्त दरिद्री चारों पदार्थ पा गया हो॥345॥
चौपाई :
*मोद प्रमोद बिबस सब माता।*
*चलहिं न चरन सिथिल भए गाता।*
*राम दरस हित अति अनुरागीं।*
*परिछनि साजु सजन सब लागीं॥1॥*
भावार्थ:-सुख और महान आनंद से विवश होने के कारण सब माताओं के शरीर शिथिल हो गए हैं, उनके चरण चलते नहीं हैं। श्री रामचन्द्रजी के दर्शनों के लिए वे अत्यन्त अनुराग में भरकर परछन का सब सामान सजाने लगीं॥1॥
*बिबिध बिधान बाजने बाजे।*
*मंगल मुदित सुमित्राँ साजे॥*
*हरद दूब दधि पल्लव फूला।*
*पान पूगफल मंगल मूला॥2॥*
भावार्थ:-अनेकों प्रकार के बाजे बजते थे। सुमित्राजी ने आनंदपूर्वक मंगल साज सजाए। हल्दी, दूब, दही, पत्ते, फूल, पान और सुपारी आदि मंगल की मूल वस्तुएँ,॥2
*अच्छत अंकुर लोचन लाजा।*
*मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा॥*
*छुहे पुरट घट सहज सुहाए।*
*मदन सकुन जनु नीड़ बनाए॥3॥*
भावार्थ:-तथा अक्षत (चावल), अँखुए, गोरोचन, लावा और तुलसी की सुंदर मंजरियाँ सुशोभित हैं। नाना रंगों से चित्रित किए हुए सहज सुहावने सुवर्ण के कलश ऐसे मालूम होते हैं, मानो कामदेव के पक्षियों ने घोंसले बनाए हों॥3॥
*सगुन सुगंध न जाहिं बखानी।*
*मंगल सकल सजहिं सब रानी॥*
*रचीं आरतीं बहतु बिधाना।*
*मुदित करहिं कल मंगल गाना॥4॥*
भावार्थ:-शकुन की सुगन्धित वस्तुएँ बखानी नहीं जा सकतीं। सब रानियाँ सम्पूर्ण मंगल साज सज रही हैं। बहुत प्रकार की आरती बनाकर वे आनंदित हुईं सुंदर मंगलगान कर रही हैं॥4॥
दोहा :
*कनक थार भरि मंगलन्हि,*
*कमल करन्हि लिएँ मात।*
*चलीं मुदित परिछनि करन,*
*पुलक पल्लवित गात॥346॥*
भावार्थ:-सोने के थालों को मांगलिक वस्तुओं से भरकर अपने कमल के समान (कोमल) हाथों में लिए हुए माताएँ आनंदित होकर परछन करने चलीं। उनके शरीर पुलकावली से छा गए हैं॥346॥
क्रमशः अगले अंक में
*🚩जय श्री सीताराम जी की* 🚩
ठाकुर जी ने एक बार "ताता" मिर्ची खायी, फिर बड़ो मजा आयो !
ब्रजरानी यशोदा भोजन कराते-कराते थोड़ी सी छुंकि हुई मिर्च लेकर आ गई क्योंकि नन्द बाबा को बड़ी प्रिय थी।
लाकर थाली में एक और रख दई, तो अब ठाकुरजी बोले की बाबा हम आज और कछु नहीं खानो , ये खवाओ ये कहा है ? हम ये खाएंगे, तो नन्द बाबा डराने लगे की नाय-नाय लाला ये तो 'ताता' है, तेरो मुँह जल जावेगो, तो लाला बोलौे नाय बाबा अब तो ये ही खानो है मोय
ये बात सुन कें बाबा ने खूब ब्रजरानी यशोदा कूं डाँटो, कि मेहर तुम ये क्यों लैंके आई ? तुमकूं मालूम है ये बड़ो जिद्दी है , ये मानवै वारो नाय, फिर भी तुम लैंके आ गई !!!
अब मैया ते गलती तौ है गई, और इतकूं ठाकुर जी मचल गए बोले अब बाकी भोजन पीछे होयगो, पहले ये ताता ही खानी है मोय, पहले ये खवाओ । बाबा पकड़ रहेैं , रोक रहे हते , पर इतने में तौ लाला उछल कें थाली के निकट पहुंचे और अपने हाथ से उठाकर मिर्च खा गये| और खाते ही 'ताता' है गयी; लग गई मिर्च, करवे लग गये सी~सी | वास्तव में ताता भी नहीं " ता था थई " है गई । अब लाला चारों तरफ भगौ डोले, रोतौ फिरे, ऑखन मे आँसू भर गये ,
लाला की रोवाराट सुन कें सखा आ गये, अपने सखा की ये दशा देख कें हंसवे लगे, और बोलें ---- लै और खा ले मिर्च !!! भातई मिरचई ही खावेगो, और कछू नाय पायौ तोय खावेकूं |
मगर तुरत ही सबरे सखा गंभीर है गये , और अपने प्रान प्यारे कन्हैया की 'ताता' कूं दूर करिवे कौ उपाय ढूंढवे लगे |
इतकूं लाला ततईया को सों खायो भगौ डोले फिरे , सारे नन्द भवन में - बाबा मेरो मौह जर गयो , बाबा मेरो मौह जर गयो , मौह में आग पजर रही है अरि मईया मर गयौ , बाबा कछु करो कहतौ फिरौ डोलै !!!!और पीछे-पीछे ब्रजरानी यशोदा, नन्द बाबा भाग रहे है हाय-हाय हमारे लाला कूं मिर्च लग गई, हमारे कन्हैया कूं मिर्च लग गई ।
महाराज बडी मुश्किल ते लाला कूं पकड़ौ ;
(या लीला कूं आप पढ़ो मत बल्कि अनुभव करौ कि आपके सामने घटित है रही, फिर आवेगौ असली आनन्द )
लाला कूं गोदी में लैकें नन्द बाबा रो रहे हैं, और कह रहे हैं कि अरि महर अब तनिक बूरौ-खांड कछू तौ लैकें आ, मेरे लाला के मुख ते लगा | और इतनो ही नाय बालकृष्ण के मुख में नन्द बाबा फूँक मार रहे हैं । बड़ी देर बाद लाला की पीडा शान्त भई, तब कहीं जा कैं नन्दालय में सुकून परौ |
आप सोचो क्या ये सौभाग्य किसी को मिलेगा ? जैसे बच्चे को कुछ लग जाती है तो हम फूँक मारते हैं बेटा ठीक हे जाएगी वैसे ही बाल कृष्ण के मुख में बाबा नन्द फूँक मार रहे हैं ।
देवता जब ऊपर से ये दृश्य देखते है तो देवता रो पड़ते हैं और कहते हैं कि प्यारे ऐसा सुख तो कभी स्वपन में भी हमको नहीं मिला जो इन ब्रजवासियों को मिल रहा है और कामना कर रहे हैं कि आगे यदि जन्म देना तो इन ब्रजवासियों के घर का नौकर बना देना, यदि इनकी सेवा भी हमको मिल गई तो हम धन्य हो जाएंगे।
🙏🌺🌺जय जय श्री राधेश्याम🌺🌺🙏
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ।
यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ॥
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि।
उत्तर दिसि बह सरजू पावनि॥
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा।
मम समीप नर पावहिं बासा॥
जय श्री राम🙏🌹🌹
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