The life of Shri Krishna teaches the wonderful art of living equal in happiness and sorrow, must read a very informative article!!!!!!!By Vnita Kasnia PunjabWhoever has taken birth in this world, at some point of time in his life, he has to face sorrows. सुख-दु:ख में सम रहने की अद्भुत कला सिखलाता है श्रीकृष्ण का जीवन,बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख जरूर पढे!!!!!!!
By वनिता कासनियां पंजाब
इस संसार में जिसने भी जन्म लिया है, उसे जीवन में कभी-न-कभी तो दु:खों का सामना करना ही पड़ता है; परन्तु मनुष्य दु:खों से बचना चाहता है । सुख-दु:ख में मनुष्य का व्यवहार कैसा होना चाहिए, इस कला को जानने के लिए जानें, ‘समत्व योगी’ श्रीकृष्ण के जीवन के अद्भुत प्रसंग ।
स्तुति निन्दा, सुख-दु:ख सब, मान और अपमान।
इनमें जो नित सम रहे, सो ज्ञानी मतिमान।। (पद-रत्नाकर)
सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय, यश-अपयश, जीवन-मरण, आदि इष्ट-अनिष्ट की प्राप्ति में सदैव सम रहना समत्वबुद्धि या समता योग कहलता है। मानव जीवन में सुख-दु:ख का आना-जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। तुलसीदासजी ने कहा है–
तुलसी इस संसार में, सुख-दु:ख दोनों होय।
ज्ञानी काटे ज्ञान से, मूरख काटे रोय।।
श्रीमद्भगवद्गीता में समता योग!!!!!
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (८।१५) में संसार को ‘दु:खालयशाश्वतम्’ कहा है–अर्थात् इस संसार में जो भी जन्म लेता है, उसे दु:खों का सामना करना पड़ता है; परन्तु प्रत्येक मनुष्य दु:खी जीवन से बचना चाहता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (१२।१७) में कहा है कि जो सभी प्रकार के सुख-दु:ख में, सफलता और असफलता में सम रहता है, वह मुझे प्रिय है–
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय:।।
सुख-दु:ख में सम रहना ही सुख-दु:ख को सहना है!!!!
‘सुख-दु:ख में सुखी-दु:खी होना भोग है और सुखी-दु:खी न होकर सम रहना योग है–’समत्वं योग उच्यते’ (गीता २।४८) अर्थात् जिस किसी तरह अपने में समता और निर्लिप्तता आनी चाहिए।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (२।१४) में मनुष्य को दु:खों को सहन करने के लिए कहा है–’हे कौन्तेय! इन्द्रियों के जो विषय (जड़ पदार्थ) हैं, वे अनुकूलता और प्रतिकूलता के द्वारा सुख और दु:ख देने वाले हैं। वे आने-जाने वाले और अनित्य हैं। उनको तुम सहन करो।
गीता (२।१५) में भगवान कहते हैं–सुख दु:ख में सम रहने वाला व्यक्ति जन्म-मरण से रहित हो जाता है। अर्थात् सुख-दु:ख में सम रहना ही सुख-दु:ख को सहना है।
भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में समता योग के कुछ अनुपम उदाहरण!!!!!!
भगवान श्रीकृष्ण को समता बहुत प्रिय थी, इसलिए गीता में उन्होंने समता का वर्णन किया है। गीता में उन्होंने केवल कहा ही नहीं अपितु काम पड़ने पर व्यवहार भी समता का ही किया।
अभिमन्यु की मृ्त्यु पर अर्जुन और सुभद्रा को दिया अद्भुत संवेदना संदेश!!!!!
छ: कौरव महारथियों–द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, बृहद्बल और कृतवर्मा–द्वारा अभिमन्यु को चक्रव्यूह में घेरकर जयद्रथ ने पीछे से निहत्थे अभिमन्यु पर ज़ोरदार प्रहार किया। उस वार की मार अभिमन्यु सह ना सका और वीरगति को प्राप्त हो गया।
अभिमन्यु की मृत्यु अत्यन्त ही निन्दनीय और हृदयविदारक घटना थी। सुभद्रा और उत्तरा का विलाप सुनना सबके लिए असह्य हो गया। युधिष्ठिर, अर्जुन, सुभद्रा और उत्तरा की तरह श्रीकृष्ण भी अपने भांनजे की मृत्यु से कम दु:खी न थे परन्तु ऐसे विचित्र क्षणों में परिवार को उबारने में उन जैसा समत्वयोगी ही समर्थ हो सकता है। गहरी मनोव्यथा में डूबे अर्जुन को सान्त्वना देते हुए भगवान श्रीकृष्ण बोले–
‘मित्र! ऐसे व्याकुल न होओ। पुरुषसिंह! शोक न करो! धर्मशास्त्रकारों ने संग्राम में वध होना ही क्षत्रियों का सनातन धर्म बतलाया है।’ (महाभा. द्रोण. ७२।७२)
अपनी बहिन सुभद्रा को पुत्र की मृत्यु पर श्रीकृष्ण ने जो सान्त्वना शब्द कहे वे उनकी अद्भुत धीरता दिखलाते हैं–
‘सुभद्रे! तुम वीर-माता, वीर-पत्नी, वीर-कन्या और वीर भाइयों की बहिन हो। पुत्र के लिए शोक न करो। वह उत्तम गति को प्राप्त हुआ है।’
भगवान श्रीकृष्ण का यह संवेदना-संदेश तो अद्भुत धैर्य और पराक्रम से भरा है–
‘हमारी इच्छा तो यह है कि हमारे कुल में और भी जितने पुरुष हैं, वे सब यशस्वी अभिमन्यु की ही गति प्राप्त करें।’ (महाभा. द्रोण. ७८।४१)
महाभारत युद्ध के पश्चात् जब श्रीकृष्ण सहित सभी पांडव गांधारी से मिलने गए, तब पुत्रशोक में विह्वल गांधारी ने आंखों की पट्टी के भीतर से ही राजा युधिष्ठिर के पैरों की अंगुलियों के अग्रभाग को एक क्षण के लिए देखा। इतने देखने मात्र से ही युधिष्ठिर के पैरों के नाखून काले पड़ गए। गांधारीजी यह बात अच्छी तरह से जानती थीं कि महाभारत का पूरा युद्ध जिस योद्धा के बलबूते पर लड़ा गया है और जिसके कारण पाण्डवों को विजय मिली है, वह श्रीकृष्ण ही हैं। अत: गांधारीजी का सारा क्रोध्र श्रीकृष्ण पर ही केन्द्रित हो गया। वे श्रीकृष्ण को सम्बोधित करती हुई कहती हैं–
‘मधुसूदन! माधव! जनार्दन! कमलनयन! तुम शक्तिशाली थे, तुममें महान बल है, तुम्हारे पास बहुत-से सैनिक थे, दोनों पक्षों से अपनी बात मनवा लेने की सामर्थ्य तुममें थी, तुमने वेदशास्त्र और महात्माओं की बात सुनी और जानी हैं, यह सब होते हुए भी तुमने स्वेच्छा से कुरुवंश के नाश की उपेक्षा की; जानबूझकर इस वंश का नाश होने दिया। यह तुम्हारा महान दोष है, अत: तुम इसका फल प्राप्त करो।’ (महाभा. स्त्री. २५।४०-४१)
इतना सब सुनकर भी श्रीकृष्ण शान्त, गम्भीर और मौन रहे। गांधारी के क्रोध ने प्रचण्डरूप धारण कर लिया और वे नागिन की भांति फुफकार कर बोली–
‘चक्रगदाधर! मैंने पति की सेवा से जो कुछ भी तप प्राप्त किया है, उस तपोबल से तुम्हें शाप दे रही हूँ–आज से छत्तीसवां वर्ष आने पर तुम्हारा समस्त परिवार आपस में लड़कर मर जाएगा। तुम सबकी आंखों से ओझल होकर अनाथ के समान वन में घूमोगे और किसी निन्दित उपाय से मृत्यु को प्राप्त होगे। इन भरतवंश की स्त्रियों के जैसे तुम्हारे कुल की स्त्रियां भी इसी तरह सगे-सम्बन्धियों की लाशों पर गिरेंगी।’
ऐसा घोर शाप सुनकर भला कौन न भय से कांप उठता, परन्तु श्रीकृष्ण ने उसी गम्भीर मुस्कान के साथ कहा–‘मैं जानता हूँ, ऐसा ही होने वाला है। वृष्णिकुल का संहारक मेरे अतिरिक्त और हो भी कौन सकता है? यादवों को देव, दानव और मनुष्य तो मार नहीं सकते, अत: वे आपस में ही लड़कर नष्ट होंगे।’
शाप सुनकर भी भगवान श्रीकृष्ण गांधारी से कहते हैं–’उठो! शोक मत करो। प्रतिदिन युद्ध के लिए जाने से पूर्व जब तुम्हारा पुत्र दुर्योधन तुमसे आशीर्वाद लेने आता था और कहता था कि मां मैं युद्ध के लिए जा रहा हूँ, तुम मेरे कल्याण के लिए आशीर्वाद दो, तब तुम सदा यही उत्तर देती थीं ‘यतो धर्मस्ततो जय:’ अर्थात् धर्म की जय हो।’
यह कहकर समत्वयोगी श्रीकृष्ण निर्विकार भाव से खड़े रहे और गांधारी मौन हो गयीं।
इस प्रसंग का सार यही है कि सुख-दु:ख को मेहमान समझकर स्वागत करें। दु:ख में विचलित न होकर धैर्य के साथ उसका सामना करें। क्योंकि वाल्मीकिरामायण में कहा गया है–‘दुर्लभं हि सदा सुखम्।’ अर्थात् सदा सुख मिले यह दुर्लभ है।
लाभ-हानि, सुख-दु:ख, प्रतिष्ठा-निन्दा और मान-अपमान।
हैं अनित्य ये सभी द्वन्द्व, या हैं प्रभु के ही रचित विधान।।
मिलता जाता कभी न कुछ इनसे, या करते सब कल्याण।
प्रभु की सहज कृपा अनन्त से होता इन सबका निर्माण।।
प्रभु के मंगलमय विधान पर मन में रक्खो दृढ़ विश्वास।
कैसी भी स्थिति में मत होओ कभी क्षुब्ध या तनिक उदास।।
है जग का सब कुछ अनित्य, है दु:खपूर्ण सारा व्यापार।
बरस रही है सहज सुहृदयतम प्रिय प्रभु की नित कृपा अपार।।
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